शनिवार, 25 मई 2019

पाल ले इक रोग नादां

भरे पूरे से घर में तब से ही तन्हा हुआ हूँ मैं
गुमी है पोटली जब से पुरानी चिट्ठियों वाली

ये शेर पढ़ते हुए, जो इसके शायर से वाक़िफ़ हैं उनका चेहरा तो खिल पड़ा होगा, किन्तु जिनकी जान पहचान इनसे अब तक नहीं हो पाई है वो यक़ीनन सोच रहे होंगे कि ये प्यारा सा मासूम शेर आख़िर है किसका!! ज़रूर बतायेंगें , उनका नाम बताने के लिए ही तो हाज़िर हुए हैं आज☺

सबसे पहले ये बता दूँ कि ये शेर जिस किताब से उद्धृत किया है, उसका नाम है-- "पाल ले इक रोग नादाँ"... ये एक ऐसी किताब है जिसे पाने की तमन्ना बड़े लम्बे अरसे से दिल में बनी रही। ऐसा तो नहीं था कि ये ग़ज़ल संग्रह अनुपलब्ध था। बस एक जिद थी कि ये तभी खरीदा जाएगा जब शायर महोदय सामने हों ताकि इस पर उनके ऑटोग्राफ़ ले सकें।
इस किताब के रचनाकार जनाब गौतम राजऋषि सबसे पहले एक शानदार दोस्त हैं, जिन पर हक जमाना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है☺ किन्तु एक कठोर सच्चाई ये भी है कि वे हमारे दोस्त और एक समर्थ लेखक होने के अलावा और भी बहुत कुछ हैं।
सेना में कर्नल होने के कारण देश की सुरक्षा गौतम की पहली प्रतिबद्धता है। अब ऐसे महत्वपूर्ण शख़्स को धमकाना या मिलने के लिए बाध्य करना घोर अनैतिक कार्य है और सारी दुनिया जानती है कि हम "इतने" अनैतिक नही हैं☺ अतः चुपचाप बरसों से राह देखते रहे कि कब उनसे मिलना हो और उनकी इस मक़बूल किताब को हस्ताक्षर सहित पाने का संयोग बने। दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में मुलाक़ात हुई किन्तु बेहद मुख़्तसर सी। हम मिले और मिलने से पहले ही बिछड़ गए। यानी मुआमला इस बार भी नही जमा और नियति को स्वीकार करते हुए पहले उनकी कहानियों को पढ़ने में रम गया।

फिर उन्हीं की सहृदयता से आख़िरकार ये किताब पिछले दिनों बड़ी शान से चलकर हम तक पहुँची। गौतम की ग़ज़लें कविता कोश और उनके ब्लॉग पर प्रायः पढ़ता रहा और कई बार साझा भी किया है किंतु किताब को हाथ में लेकर पढ़ने का सुख तो हमेशा ही अद्वितीय रहा है। कई बार इन ग़ज़लों से बावस्ता होने के बावजूद इस किताब में शामिल उनकी रचनाएँ पढ़ते हुए बार बार उनकी भाषा और कथ्य पर मुग्ध होने का मन होता है। इन शेरों में ग़ज़ब की ताज़गी और नयापन है। चीड़, देवदार, सिगरेट और चाय का ज़िक़्र किसी नए लोक में लिए चले जाते हैं।

किताब पर समुचित चर्चा फिर कभी.... अभी एक झलक उन शेरों की जो पंद्रह बीस ग़ज़लों के दौरान ही सामने आ गए और फिर आए तो
रास्ता छोड़ नहीं रहे....

" सुब्ह दो ख़ामोशियों को चाय पीते देखकर
गुनगुनी सी धूप उतरी, प्यालियों में आ गई "

****

"मुँडेरों से फिसल कर रात भर पसरा हुआ पाला
दरीचों पर गिरा तो सुब्ह अलसायी हुई उट्ठी"
****

" नाम तेरा कभी आने न दिया होठों पर
हाँ, तेरे ज़िक़्र से कुछ शेर सँवारे यूँ तो "

***

" बरस बीते गली छोड़े, मगर है याद वो अब भी
जो इक दीवार थी कोने में नीली खिड़कियों वाली"

" दुआओं का हमारी हाल होता है सदा ऐसा
कि जैसे लापता फ़ाइल हो कोई अर्जियों वाली "

**

बाट जोहे थक गई छत पर खड़ी जब दोपहर
शाम की चादर लपेटे खिड़कियों में आ गई

रात ने यादों की माचिस से निकाली तीलियाँ
और इक सिगरेट सुलगी, उँगलियों में आ गई

****

काग़ज़ों पर हो गए सारे खुलासे ही, मगर
कुछ तो है जो हाशियों के दरमियाँ बेचैन है

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