■■ काला दरिया
शुरुआती औपचारिकताओं के बाद पत्र का मजमून कुछ यूँ था -
माननीय मंत्री जी,
वन्दे मातरम !
बहुत सोच-विचार के बाद आपको यह पत्र लिखने बैठा हूँ। विगत कई वर्षों की पीड़ा जब वक़्त की चट्टान तले दबकर धूमिल होने की बजाय किसी बरगद की जड़ों की मानिंद फैलती चली गई, और मैं दिनोंदिन उसके बोझ तले दबता चला गया, तब मजबूरन मुझे अपनी अंतरात्मा की ख़ामोश चीख़ निकालने, और आप तक पहुँचाने का यही माध्यम उचित लगा।
अब भी यदि मैं इस पत्र को नहीं लिखता, तो निश्चित ही किसी दिन मेरा मानसिक संतुलन खो बैठने का पूरा ख़तरा था। पता नहीं यह पत्र आपकी आँखों से गुज़रेगा भी, या नहीं। बहुत सम्भव है कि बिना खोले, या आपके किसी अधिकारी, जो इस प्रकार के आपके कार्यों को सम्पन्न कर आपका मूल्यवान अंतरराष्ट्रीय समय बचाने की तनख़्वाह पाता / पाती हो, द्वारा खोलकर पढ़ने / निगाह मारने के उपरांत कचरे के सुपुर्द कर दिया जाये ; पढ़ने /देखने के उपरान्त यूँ ही मेज़ इत्यादि पर अस्वच्छता फैलाते हुए नहीं छोड़ दिया जाये।
'अस्वच्छता !' यही वह शब्द है, जो एक गंधाते कीड़े का डंक बनकर चुभता रहा है पिछले कुछ वर्षों से मेरे मन में, मेरे ज़हन में, मेरी आत्मा में, मेरे पूरे वजूद में ! इस एक शब्द ने मुझसे जो कुछ छीना, उसकी भरपाई होना असंभव है। लेकिन यह उम्मीद मैं ख़ुद से नहीं छिनने दूँगा, कि भरपाई के और दावेदार न पैदा हों !
महोदय, बात अब से कुछ वर्ष पुरानी है। तब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था। उन दिनों आपने देश की सफ़ाई के लिए 'स्वच्छता अभियान' पूरे ज़ोर-शोर से चलाया था। टीवी पर, अख़बारों में, सोशल मीडिया पर ... हर जगह तस्वीर में धवल वस्त्र धारित नेतागण एक बड़ी सी सींकझाड़ू पकड़े उसे हमारी धरती माता की त्वचा से छुआते नज़र आते थे। कभी-कभी तस्वीर को अधिक प्रभावशाली दिखाने के लिए वे कमर को थोड़ा झुका भी लेते थे। यह प्रश्न मेरे लिए आज भी रहस्य है, कि वे देश की धरती के किस भाग पर खड़े होते थे, जो उनकी नई-नवेली उत्कृष्ट ब्रैंड की झाड़ू के सामने का कचरा भी अति विशिष्ट होता था - पेड़ों से गिरे, या बाक़ायदा तोड़े गए सूखे पत्ते, कुछ फाड़कर फेंके गए काग़ज़ के टुकड़े आदि। उनके हाथ उस नई नवेली सींक झाड़ू के स्पर्श से मैले न हों, इसलिए न केवल झाड़ू के बाँस पर बेहतरीन फिटिंग का कपड़े का खोल चढ़ाया जाता था, बल्कि दोहरी सुरक्षा बरतते हुए नेतागण के हाथों में नए करारे दस्ताने भी दीखते थे। धूप से बचने के लिए छज्जेदार टोपी भी उनके शीर्ष पर विराजमान रहती थी। इसके अलावा उनके मुँह और नाक को किसी अवांछित तत्व के प्रवेश से रोकने के लिए मास्क भी। और हाँ, उनकी टोपी, दस्तानों और प्लास्टिक के नए नकोरे कूड़ेदान का रंग एकदम मैच करता था। वाक़ई, बहुत ईर्ष्या होती थी उन लोगों के झाड़ू लगाने जैसे काम में भी ऐसी चकमक देखकर ! हम तो किसी शादी में जाने के लिए भी ऐसी मैचिंग के कपड़ों के लिए तरस जाते थे। दोनों पैरों में भी कभी एक रंग के मोज़े न पहने थे। रिश्तेदारों की उतरन पहनकर माँ की इस दरख़्वास्त के आगे विवश रह जाते थे, कि पहन ले छोरा, इस बार वजीफ़े के पैसों से नया ले देंगे, अपने लिए कुछ नहीं सोचते, सब तुम्हारे लिए .... फिर भी तुम लोग .....अंतहीन बुदबुदाहट। यह दरख़्वास्त तब तक जारी रहती थी, जब तक बोलते-बोलते माँ का गला रुँध न जाये। अब लगता है कि हमारी वे फ़रमाईशें मात्र आड़ होती थीं उन्हें खुलकर रोने का बहाना देने के लिए। उस आड़ की गंगा में बहुत कुछ धो लिया जाता था।
लब्बो-लुआब यह, कि हमें कभी तबीयत भर कपड़े पहनने को नसीब न हुए। ऐसे में आपके नेताओं, अभिनेताओं की स्वच्छता अभियान के प्रचार की चकाचक तस्वीरें बहुत मन लुभाती थीं। लगता था हमारा देश दुनिया के नक्शे का सबसे स्वच्छ, चमकीला देश बन जायेगा और अब कोई प्रधानमंत्री, अंतरिक्ष यात्रा पर गए किसी भारतीय वैज्ञानिक से पूछेगा, कि वहाँ से हमारा देश कैसा दिखाई देता है, तो वह मुस्कुराते हुए कह उठेगा - 'सारे जहाँ से स्वच्छ !'
ऐसे ही स्वच्छ दिनों में किसी एक दिन मेरे बाप ने न जाने किस रौ में मुझसे कह दिया कि जिस दिन तेरे लिए पूरे स्कूल के सामने ताली बजेगी, उस दिन मैं तुझे नई साइकिल दिलवाऊँगा। साइकिल की मेरी तमन्ना छ: साल की उम्र से थी। लेकिन सातवीं कक्षा तक आते-आते मैं समझ गया था कि मुझे कोई भी तमन्ना तब तक स्थगित रखनी होगी, जब तक मैं अपने पैरों पर नहीं खड़ा हो जाता। पर बाद में मुझे अहसास हुआ कि पिता अपने नाम या जाति पर लगे किसी कलंक के रंग को यथासम्भव फ़ीका करने के लिए बेहद उत्कंठ था..... इतना, कि उसके एवज़ में नई साइकिल के लिए क़र्ज़ लेने को भी तैयार था।
माननीय मंत्री जी, मैं आपको बता नहीं सकता कि यह प्रलोभन मेरे लिए कितना बड़ा था ! मैं उसी दिन से मौक़े की ताक़ में रहने लगा और आपको शायद जानकर हैरत हो, कि यह मौक़ा मुझे आप ही के कारण मिला। वो यूँ, कि सरकारों की आपसी प्रतिस्पर्धा के चलते आपकी देखा-देखी हमारे राज्य की सरकार ने भी स्वच्छता अभियान की मुहीम छेड़ दी और हर महक़मे, विशेषकर विद्यालयों में इसके प्रचार-प्रसार के लिए दुनिया भर की प्रतियोगिताएँ आयोजित करवा दीं। उसमें से एक- 'कविता-पाठ प्रतियोगिता' में मैंने भी भाग लिया और प्रथम स्थान प्राप्त किया। जबकि मेरे दोस्त की कविता मुझे अधिक पसंद आई थी। उसने किसी 'पवन करण' नाम के कवि की कविता कहीं से ढूँढकर सुनाई थी, जिसे सुनते ही निर्णायक मण्डल के माथे पर बल पड़ गए थे। उन्होंने प्रतियोगिता के बाद थोड़ी नाराज़गी भरे स्वर में मास्टर जी से कहा था - "आपको कम से कम ये तो ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे को किस तरह की कविता बोलनी है, और कैसी नहीं ! ये क्या शिक्षा दे रहे हैं आप बच्चों को ?" मास्टर जी थोड़ा सकपका गए थे, क्योंकि विनोद ने वह कविता उन्हें पहले नहीं दिखाई थी। जो दिखाई थी, वह अलग थी। जो भी है, मेरे लिए तो अच्छा ही हुआ, कि उसकी कविता नापसंद की गई और ऐसे में मैं प्रथम आ गया। उसकी कविता, जो किसी 'श्री पवन करण जी' द्वारा रचित थी, की कुछ पंक्तियाँ मुझे आज भी याद हैं –
मल तसले से रिसकर देह पर
टपकते हुए चलने और
सिर पर सवार रहने का
सामंती संस्कार भूलता नहीं।
मुझे कविता पूरी तरह तो समझ नहीं आई थी, पर पता नहीं क्या नाता महसूस हुआ इसके साथ, कि प्रतियोगिता के बाद मैंने उससे देखकर अपनी हिंदी की कॉपी के पीछे उतार लिया।
मेरी कविता मुझे हिंदी के मास्टर जी त्रिवेदी सर जी ने ख़ुद ही लाकर दी थी और याद होने के बाद सुनाने को कहा था। उन्होंने थोड़े से एक्शन्स भी सिखाये थे, जो मुझे आज तक याद हैं। वह कविता यूँ थी –
वेदों में लिखा है ज्ञान
स्वच्छता लक्ष्मी का आह्वान
वैभव हमको पाना है
तो देश को स्वच्छ बनाना है
हर घर और शहर चमके
छोटी-बड़ी डगर दमके
दुनिया में हो अपना नाम
मेरा भारत बने महान !
मेरे प्रथम आने से मेरा बाप बहुत ख़ुश था, क्योंकि उस प्रतियोगता के विजेताओं को सम्मानित करने के लिए क्षेत्र के विधायक आने वाले थे। ज़ाहिर है कि यह वही मौक़ा था, जब मेरे लिए पूरा स्कूल ताली बजाने वाला था। मैं साईकल को लेकर इतना उत्साहित था कि हर घड़ी उसी के सपनों में खोया रहता था। नींद में, गली के हैंडपम्प पर नहाते समय, सड़क पर चलते समय मैं अदृश्य साईकल पर पैडल मारता था, दोनों हाथों से हैंडल पकड़कर कंधे डुलाता हुआ साईकल को लहराकर चलाने की कल्पना करता था। पैदल चलते हुए कोई सामने आ जाता, तो मेरे दाएँ हाथ का अँगूठा घण्टी दबाने की मुद्रा में आ जाता। लड़के हँसते थे मुझे देखकर, और सड़क पर चलने वाले अजीब नज़रों से घूरते थे। पर मैं बेपरवाह था। अब बस, उस दिन का इंतज़ार था, जिस दिन पूरा स्कूल मेरे लिए तालियाँ बजाये और वादे के मुताबिक़ उसी शाम पिता मेरे लिए नई चमचमाती साईकल लेकर घर आये। आख़िर वह दिन आ गया।
हमारा स्कूल दुल्हन की तरह सजा हुआ था। उसका वार्षिकोत्सव था। स्कूल का कोना-कोना स्वच्छता से दमक रहा था। उस दिन सुबह से ही स्कूल के सफ़ाई कर्मचारी भर-भर फ़िनाइल के गेलन शौचालयों में लुढ़काये जा रहे थे और हमें वहाँ आने पर डाँट रहे थे। हमारे हाथ धोने के लिए साबुन की एक टिक्की भी रखी गई थी, जो बाद में ग़ायब हो गई थी। उस दिन तो शौचालय के नल में पानी भी दिल खोलकर आ रहा था, जो अक्सर बूँद-बूँद कर आता था। टूटे हुए नल जोड़ दिए गए थे। स्कूल के मुख्य द्वार से लेकर खेल के मैदान तक दोनों ओर चूने से रेखाएँ खींची गईं थीं। हवा में पतली सुतलियाँ बाँधकर उन पर रंगीन कागज़ के तिकोने टुकड़े लगाए गए थे। टेंट के साथ आये माईक वाले ने देशभक्ति के गानों की सीडी चला रखी थी। सफ़ेद-नीला शामियाना मंच के चारों ओर सजाया गया था। मंच से लेकर उसके सामने फैले मैदान तक सफ़ेद कपड़े की छत बिछाई गयी थी। चिलचिलाती धूप से बचने के लिए उसकी छाँव तले ही प्रधानाचार्य, शिक्षकगण, अतिथिगण, आमंत्रित अभिभावकों और विद्यार्थियों को बैठना था। मंच के ठीक सामने मैदान में लाल कालीन बिछाकर उसके दाएँ-बाएँ सफ़ेद कपड़े से ढके सोफ़े दोनों ओर रखे गए थे। बाईं ओर सोफ़ों के पीछे सफ़ेद कपड़े से ढकी कुर्सियां थीं। सोफे वाली पंक्तियाँ आमन्त्रित अधिकारियों, विधायक महोदय और उनके समूह व प्रधानाचार्य के लिए थी, उसके बाद वाली कुर्सियाँ अभिभावकों के लिए थीं और पीछे दूर तक फैली दरियाँ विद्यार्थियों के लिए। मैं इतना आह्लादित और उत्साहित था कि भाग-भागकर कुर्सियाँ लगाने व अन्य कामों में टेंट वालों का हाथ बँटा रहा था। अपने सभी दोस्तों से सच्ची दोस्ती और पिछली सारी छोटी-बड़ी मददों, जायज़-नाजायज़ साथों का हवाला देकर मेरी बारी में पूरी ताक़त से ताली बजाने का 'पक्का वादा' कई बार ले चुका था। अखिल ने कहा कि मैं तेरे लिए सीटी भी बजा दूँगा, तूने मुझे परीक्षा में हिंदी का पेपर दिखाया था। मैंने उसे बिल्कुल मना कर दिया, क्योंकि पिता ने इसके लिए नहीं कहा था और फिर पी.टी. के चौहान सर जी से बाद में मरम्मत का डर भी था।
तभी माइक पर घोषणा हुई कि हमारे आज के मुख्य अथिति विद्यालय प्रांगण में पधार चुके हैं, वे शीघ्र ही हमारे बीच होंगे। सभी छात्रों से निवेदन है कि अपने उचित स्थान पर शांतिपूर्वक बैठ जाएँ। स्काउट्स के छात्रों द्वारा ड्रम बजाने और 'हर्ष-हर्ष, जय-जय' के नारों की ध्वनि से इसकी पुष्टि हुई। छात्रों के लिए निर्धारित स्थान पर मैं भी बैठ गया। सबसे आगे कार्यक्रम में प्रस्तुति देने वाले विद्यार्थी थे, उसके बाद पुरस्कृत होने वाले - परीक्षाओं में अधिकतम अंक लाने वाले, सौ प्रतिशत हाज़री वाले और प्रतियोगिताएँ जीतने वाले ….. जिनमें मैं भी था और उचक-उचककर अपने परिवारजनों को ढूँढने की कोशिश कर रहा था। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से मेरे परिवार से वहाँ कोई नहीं था, सिवाय उस भाई के, जो मेरे ही विद्यालय में पढ़ता था और सुबह मेरे ही साथ आया था। उसे सामूहिक देशभक्ति गीत गाना था ... 'हम होंगे क़ामयाब किसी दिन .... '
कार्यक्रम शुरु हो चुका था। मेरे कान उस घोषणा की ओर लगे हुए थे, जब पुरस्कार पाने वाले छात्रों को मंच पर बुलाया जायेगा। रह-रहकर मैं दर्शक-दीर्घा में बैठे साथियों, कार्यक्रम में प्रस्तुति देने वाले छात्रों और अपने आगे -पीछे बैठे विजेता साथियों को अँगूठे और आँखों के इशारे से वादा याद दिलाने और उनके द्वारा याद होने की सहमति का आदान -प्रदान कर रहा था। एक-दो बार चौहान सर की नज़रें मुझसे टकराईं, तो फटकर बाहर निकलती प्रतीत हुईं। मैं सहमकर शांत हो गया।
आख़िर वह घड़ी आ गई, जब मंच से मेरा नाम पुकारा गया। मुझे 'स्वच्छता अभियान' वाले कविता-पाठ प्रतियोगिता के लिए पुरस्कार मिलना था। पुरस्कार ग्रहण करते समय तालियों की आवाज़ सुनती हुई मेरी नज़रें दर्शकों में माँ और पिता को ढूँढ रही थीं। पिता को अधिक। पर वे नहीं दीखे। मेरी ख़ुशी का वज़न कम हो गया। तथापि मैं उत्साहित था। कार्यक्रम समाप्त होने पर मैं गर्व, उम्मीद और अभूतपूर्व ख़ुशी से भरा लगभग दौड़ता हुआ भाई के साथ घर आया। पुरस्कार में मिली शील्ड जानबूझकर अपने या भाई के थैले में नहीं रखवाई थी। पूरे रास्ते उसे एक ताज की तरह हाथ में थामे आया था और चाहता था कि दूर से ही पिता उसे देख लें। मेरे हाथों में शील्ड देखने के बाद उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी, इसकी यथासम्भव सारी कल्पनाएँ मेरे ज़हन में गढ़ती-मिटती जा रहीं थीं। और मेरी भावी नई चमचमाती साइकिल की भी।
हाँफता हुआ जब मैं घर पहुँचा, मोहल्ले वालों की भीड़ लगी थी। वह भीड़ मेरे हाथ में थमी शील्ड और पिता की नज़रों के बीच खड़ी हुई थी। मुझे अंदाज़ा नहीं था कि उस एक शील्ड को जीतने से मैं मोहल्ले का हीरो बन जाऊँगा और मेरे घर के बाहर बधाई देने वालों का ताँता लग जायेगा। एक विजित योद्धा के सहज स्वाभाविक गौरव से लबालब मैं भीड़ को चीरता हुआ पिता तक पहुँचना चाहता था। रास्ता बनाता हुआ मैं एक गर्वीले पिता की गोद में जगह पाना चाहता था। 'पापा .... '
.... लगभग चिल्लाता हुआ मैं उनकी ओर बढ़ा। उन्होंने कोई उत्तर न दिया। वह नींद में थे, निःस्पन्द ! सफ़ेद चादर में लिपटे। मैंने कभी उन्हें ऐसे साफ़ चिट्टे कपड़ों में न देखा था। उनके नासिका छिद्रों में फंसी सफ़ेद रुई भी नई थी। लेकिन चेहरे पर पीड़ा और घुटन की वही परिचित लक़ीरें। उनके शरीर के रोमछिद्रों में समाई चिर-परिचित दुर्गन्ध ने अंतिम स्नान के बाद भी पीछा न छोड़ा था। वही दुर्गन्ध, जिसके कारण माँ उनके नज़दीक़ आने में आना-कानी करती थी, और जिसकी वजह से दबी आवाज़ में गाली-गलौच सुनाई देती थी। एक कमरे के उस जर्जर मक़ान में माँ-पिता और हम बच्चों के बीच माँ की घिसी धोती का बेवजूद पर्दा महज़ एक धोखा था।
पिता को इस तरह देखकर साइकिल का वर्षों पुराना सपना उस क्षण के न जाने कौन से हिस्से में दबे पाँव मेरे दिल-दिमाग़ से रुख़सत हो गया, और मैं धीरे-धीरे प्राणहीन क़दमों से चलता हुआ उनके पास पहुँचा। शील्ड धीरे से उनके पास धरती पर रखी। उन्हें हिलाया-डुलाया। जगाकर बताने, सुनाने की कोशिश की, कि मैं शील्ड ले आया हूँ। खूब सारी तालियों की मौजूदगी में मिली शील्ड। मैं बताना चाहता था, कि मंच पर मुझे बुलाते समय मेरे नाम के साथ उनका नाम भी बोला गया था। सबने सुना ....पूरे स्कूल ने .... विकास पासवान / पिता-श्री ओमप्रकाश पासवान, कक्षा सातवीं 'सी'।
लेकिन मैं उन्हें कुछ न बता पाया। सिर्फ़ घुटे गले से 'पापा ,पापा .... ' ही कह पाया। रुलाई पर क़ाबू पाने की कोशिश करते हुए मैंने शील्ड उनके बेजान, बेहरक़त हाथों में जबरन पकड़ाने
की कोशिश की। लेकिन वे हाथ शील्ड तो क्या, मुझे भी पहचानने से साफ़ मुकर गए और मेरी पकड़ कम होते ही धड़ाम से ज़मीन पर गिरे। मैं फ़फ़क कर रो पड़ा। घर के भीतर जाकर सबसे छुपकर रोना चाहता था, लेकिन उस निर्जीव पिता से अलग नहीं होना चाहता था। मैं उनके शरीर की उसी दुर्गन्ध से लिपट गया, जो मुझे कभी पसन्द न थी। वही अजर-अमर दुर्गंध, जिसे उनसे दूर, और उन्हें हमारे क़रीब रखने के लिए मैंने एक बार उनके कपड़ों के साथ नाइसिल का छोटा डब्बा रख दिया था। यह बात सिर्फ़ माँ को पता थी, और मेरे दोस्त सतीश को, कि नाइसिल का वह डब्बा मैंने सतीश से माँगा था, उसके गणित का एक महीने का होमवर्क करने के बदले।
पिता ने उसे संभालकर रख दिया था। कहते थे- 'उस दिन लगाऊँगा, जब तेरे लिए ताली बजेगी।' उन्हें कंजूसी की आदत थी। दिन में एक बार खाते थे। जिस महीने हम दोनों भाईयों को स्कूल से वर्दी और पढ़ाई के सामान के लिए पैसा मिलता था, उस महीने का बेसब्री से इंतज़ार करते थे। उसी महीने में घर की टपकती छत की मरम्मत होती थी, इलाज के लिए स्थगित माँ की साल भर की बीमारियों को सरकारी डिस्पेन्सरी में दिखाया जाता था, साल भर के लिए तेल, साबुन ख़रीदा जाता था.....
हाँ, याद आया ! मेरा मन रखने के लिये एक बार मेरे जन्मदिन पर लगाया था वह पाउडर। बस। पर उस दिन भी वह ज़िद्दी और बेशर्म दुर्गन्ध सुईं की नोंक बराबर भी कम न हुई थी। कितना बदबूदार होता है वह मल का दरिया, जिसे साफ़ करने के लिए पिता को उसमें उतरना पड़ता था ... आकण्ठ ! कई बार तो पूरा सिर समेत डूबना पड़ता था, जैसे लोग कुम्भ में किसी पवित्र नदी में डुबकी लगाते हैं, ख़ुशी-ख़ुशी, अनेक भावनाओं से भरे। यहाँ ख़ुशी तो पता नहीं, पर पिता की भावना एक ही थी - हमारा पेट पालना। कोई और काम उन्हें नहीं मिलता था। शहर भर के काले दरियाओं में उतरना उनकी नियति थी।
उस दिन उस काले बदबूदार दरिया ने उन्हें लील लिया था। उसमें तैरते शौच के बड़े-बड़े मगरमच्छों ने उन्हें निगल लिया। उसमें उठते ज़हर के बवण्डरों ने उनका दम घोंट दिया। बताते हैं, कि बहुत संघर्ष किया मेरे पिता ने उस मगरमच्छ से अपना पैर छुड़ाने के लिए। उन्हें निकालने के लिए जो साथी दरिया में उतरे, उन्हें भी मगरमच्छ ने जकड़ लिया। कोई बाहर न आ पाया।
यह ठीक वही क्षण था, जब मुझे 'स्वच्छता अभियान' प्रतियोगिता के लिए पुरस्कार मिल रहा था, जब मेरे लिए तालियाँ बज रहीं थीं और उसके बाद विधायक जी ने स्वच्छता अभियान की सफलता का विवरण देते हुए पूरे स्कूल को और सरकार को बधाई दी थी।
जब देश-भर में करोड़ों रुपया 'स्वच्छता-अभियान' पर उड़ाया जा रहा था, मेरा बाप महज़ कुछ रूपयों के मास्क और दस्तानों के अभाव में मर गया..... गटर के लिज़लिज़े कीड़े की तरह ! लेकिन नहीं ! यह पूरा सच नहीं है ! वह मास्क और दस्ताने के अभाव से ज़्यादा मल के अतिरेक से मरा। उस शॉपिंग मॉल के सीवर को साफ़ करते हुए मरा, जो शहर का सबसे चमचमाता मॉल है, और जिसके आसपास के कई सौ मीटर के दायरे में हम जैसों को खड़े रहने की भी इजाज़त नहीं। उस मॉल के बगल में ही दुनिया की सबसे महंगी कारों के शो-रूम हैं। देश के उस टुकड़े पर ज़मीन की सतह के ऊपर और नीचे की दुनिया दो विपरीत ध्रुवों जैसी है, एक ढक्कन उठाने भर की देर है।
आप सोच रहे होंगे, यह सब मैं आपको क्यों लिख रहा हूँ ! माननीय, मैं अपने मनोचिकित्सक की सलाह पर ऐसा कर रहा हूँ। पिछले कुछ वर्षों से मुझे अजीब स्वप्न आने लगे हैं, जो मुझे बीच रात में बेचैनी से भर देते हैं, कड़क ठंड में भी पसीने से तर कर देते हैं। यहाँ तक भी ठीक, पर दिक़्क़त तब होती है, जब मेरी चीख़ें घरवालों की नींद में ख़लल डालने लगती हैं, और उनकी पूरी रात मुझे सहज करने में बीत जाती है। ऎसी कितनी ही रातें मैं उन्हें दे चुका हूँ और अपने साथ-साथ उनकी भी नींद छीन चुका हूँ। मेरी नींदों में एक ही स्वप्न घात लगाकर आता है। उसका एकाधिकार हो चुका है मेरी नींदों पर। उस स्वप्न में चौड़े सीने वाला एक व्यक्ति चिल्ला-चिल्ला कर स्वच्छ भारत की बात करता है, एक व्यक्ति गाढ़े काले बदबूदार दरिया में उतरता है। काफ़ी देर भीतर रहने के बाद जब वह बाहर आता है, तब एक विशाल लिज़लिज़े कीड़े में बदल चुका है। लोग उसे मारते, कुचलते हैं, उसे फिर से दरिया में धकेल देते हैं। दरिया की सतह पर अनगिनत काले बुलबुले उठते हैं, उसमें से ख़ूब सारे लिज़लिज़े कीड़ों की फ़ौज़ निकलती है और हर तरफ़ रेंगने लगती है.... धरती के सारे बदन पर.....
माननीय ! मेरे पिता की मौत पर उसकी लाश के साथ मुझ बिलखते बालक की तस्वीर किसी सहृदय ने सोशल मीडिया पर डाल दी, जो इतनी फैली, कि देश भर की सहानुभूति मेरे और मेरे मरहूम बाप के पक्ष में आ खड़ी हुई। आनन-फानन में देश भर से लाखों रूपये की धनराशि इकट्ठी हो गई, जिससे मैं अपनी पढ़ाई पूरी कर पाया, और अब, जबकि मैं कुछ सोचने, विचारने योग्य हो सका हूँ, मैंने इस विषय में बहुत सोचा।
मान्यवर, यम के अड्डे इन काले दरियाओं से निबटने के लिए एक विकल्प के रूप में आपके समक्ष एक ऐसा प्रस्ताव रखना चाहता हूँ, जो शायद आपको व आपकी सुझाव समिति को अजीब लगे, किन्तु आपसे अनुरोध है कि ख़ारिज करने से पूर्व इस पर गंभीर विचार करें।
महोदय, आपसे बेहतर कौन जानता है कि आधुनिकतम तकनीकी और विज्ञान के प्रयोग के चलते हमारे देश में एक से बढ़कर एक रॉकेट, अस्त्र-शस्त्र, यहाँ तक कि देशद्रोहियों की पहचान के लिए माइक्रो चिप तक का प्रयोग अनिवार्य कार्ड के रूप में सफलतापूर्वक किया जा रहा है, जिसके मार्फ़त उनके उठने, बैठने, सोने और…. हर निजी से निजी क्षण की जानकारी राष्ट्र हित में हर समय आपको उपलब्ध है। मेरा अनुरोध मात्र इतना भर है, कि इसी शृंखला में क्यों न देश हित में कुछ प्रयोग और भी जोड़ लिये जाएँ… मसलन- उनके पाचन तंत्र में भी किसी राष्ट्रीय योजना के तहत ऎसी गुप्त चिप फिट कर दी जाए, जो उन्हें एक सीमा के बाद भोजन को हज़म करने से रोके, जिससे उन्हें शौच बनना बंद हो जाये। यदि उस सीमा के बाद कुछ खाएँ, तो वह मुँह के रास्ते ही बाहर आए ..... हाइड्रा की तरह।
इसके साथ ही देशवासियों के लिए कम मूल्य पर ऐसी भोज्य सामग्री उपलब्ध करवाई जाये, जो उनकी उदर-पूर्ति के लिए उनके भीतर तो जाये, पर बाहर न निकले। विश्वास कीजिये जनाब, यदि ऎसा प्रस्ताव आप लाते हैं, तो कई निजी कंपनियाँ यह सुविधा प्रदान करने के लिए उत्साहपूर्वक आगे आयेंगी, जिससे देश अनेक अर्थों में लाभान्वित होगा। हमारे देश की पूँजी व्यवस्था में निजी सेवा के एक और क्षेत्र का पदार्पण होगा, जो आपके निजीकरण के प्रयासों को दृढ़ता प्रदान करेगा। संभवत: यह विश्व में इस प्रकार का सर्वप्रथम प्रयोग होगा, जो देश को विश्वगुरु बनाने के आपके स्वप्न की दिशा में एक ठोस व अभूतपूर्व क़दम होगा तथा भोज्य उत्पादों के क्षेत्र में एक नई क्रान्ति का सूत्रपात होगा। इसके अलावा सीवर में होती मौतों को रोकने के लिए आपका नाम देश के इतिहास में सदा के लिए अमर हो जायेगा।
महोदय, यदि आप ऐसी व्यवस्था कर पाने में सक्षम रहते हैं, तो विश्वास कीजिये, मेरे पिता जैसों की अनगिनत पीढ़ियाँ, उनकी जाति युगों-युगों तक के लिए आपकी अहसानमन्द रहेगी, और जितनी घृणा मनु के लिए हमारे मन में है, उससे कहीं अधिक कृतज्ञता आपके लिए रहेगी।
आशा करता हूँ कि इन प्रस्तावों पर गंभीरता पूर्वक विचार करेंगे।
आपके उत्तर की प्रतीक्षा में ....
सादर
स्वच्छ जीवन जीने के सपने के साथ
एक नागरिक
xxx
पत्र समाप्त हो चुका था। डोगरा गहरी पसोपेश में था। प्रधानमंत्री कार्यालय की आठ वर्षों की नौकरी में ऐसे अजीबोग़रीब ख़त से पहली बार वाबस्ता हुआ था। निश्चित ही किसी और के हाथ लगा होता, तो वह कब का फाड़कर फेंक चुका होता। पर वह इसे न फेंक पा रहा था, न ही इसका उत्तर देने के विषय में निर्णय ले पा रहा था, जिसकी वह तनख़्वाह पाता था। एक अबूझ सी उद्वेलना उसके भीतर विराज गई थी। जब कुछ न सूझा, तो कैंटीन में चला आया और एक सिगरेट सुलगा ली। चाय का आर्डर देकर वह कैंटीन की काँच की दीवारों के पास आ खड़ा हुआ और उसके पार महानगर की समृद्धि और विकास को देखते हुए बेचैनी के क़श खींचने लगा। तीसरी मंज़िल पर खड़े अनायास ही उसका ध्यान बार-बार वहाँ से दीखती ऊँची आलीशान इमारतों और शॉपिंग कॉम्प्लेक्स की ओर जा रहा था। उन्हें देखते हुए उसे लग रहा था, कि उनमें हर मंज़िल पर मौजूद व्यक्ति के पाँव तले कोई ज़मीन नहीं है, और उन सबका शौच इस वक़्त नीचे सीवर साफ़ कर रहे व्यक्ति के सिर और शरीर पर गिर रहा है।
सिगरेट की गर्म राख ने जब उसकी उँगली को छुआ, तब उसे अपनी उपस्थिति का भान हुआ। वह चाय की मेज़ पर आ बैठा। उससे पहले कोई वहाँ बैठकर गया होगा, जो कुछ दिन पुराने अख़बार का एक कागज़ वहाँ छोड़ गया था। उस कागज़ में चिकनाई और हल्दी के दाग़ थे और अख़बारी स्याही की महक के साथ-साथ मेथी की ख़ुश्बू भी। शायद कोई इसमें खाना बाँधकर लाया होगा या इससे कैंटीन की मेज़ साफ़ की होगी। डोगरा उसे उठाकर फेंकने ही वाला था, कि कागज़ के कोने में छपे एक अंग्रेज़ी विज्ञापन ने कैक्टस की तरह उसके ध्यान का दामन उलझा लिया, जिस का अनुवाद कुछ यों था -
वी पी फ़ूड सब्सटीट्यूट
भोजन का ऐसा विकल्प, जो आपको यात्रा में, बीमारी में कष्ट से बचाये
पौष्टिकता वही, शौच नहीं
रक्त में सहज अवशोष्य
पाचन तंत्र की ख़राबी, बिस्तर से लगे रोगियों व परिवारजनों के लिए वरदान
आहार मात्रा - पैकेट पर दिये निर्देशानुसार
एक बार आज़माईये, बार-बार मँगवाईये
'वी पी फ़ूड सब्सटीट्यूट'
स्वच्छता की ओर सबसे बड़ा क़दम
◆◆ रचना त्यागी { पाखी के जून अंक में प्रकाशित }
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