सोमवार, 12 नवंबर 2018

दुष्यंत स्मृति

दुष्यंत को पहली बार महज़ एक शेर की वजह से जाना था। इससे पहले ग़ज़लों और शेरों की जिस दुनिया से थोड़ी जान पहचान थी, वहाँ कभी इस तरह की असरदार पंक्तियाँ सामने आयी ही नहीं थीं जिन्हें पढ़कर इस कदर ठिठक जाना पड़ा हो। शेर था--
कहाँ तो तय था चरागां हरेक घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए....

हुस्न, इश्क़, मीना और सागर से परे ये एक अलग सी भाषा और भाव-भूमि थी। मूल ग़ज़ल तक पहुँचने में काफी वक़्त लगा। जब इसका मुक़म्मल स्वरूप देखा तो दरख़्तों के साये में धूप लगने का बिम्ब मन में स्थायी रूप से घर कर गया--

यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिए

सामाजिक असमानता और विडंबना को इससे अधिक मर्म और तंज से उनसे पहले शायद ही कोई व्यक्त कर पाया हो---

न हो कमीज तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए|

खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए|

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए

और जब इसका मक़्ता पढ़ा तो
गुलमोहर लफ़्ज़ भी मोहब्बतों में शामिल हो चला--

जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए|

इंटरनेट और गूगल की दुनिया तो बहुत देर में आई। ढूँढने और पढ़ने की इतनी सहूलियत उस दौर में कहाँ थी। उनकी अन्य ग़ज़लें इंटरनेट आने के बाद ही पढ़ने को मिल सकीं।

हो गयी पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

जैसी ग़ज़लें पढ़कर दुष्यंत के प्रति जितना गर्व और सम्मान जागा मन में उतनी ही कसक। कसक इसलिए कि इतने बड़े शायर को कितनी छोटी सी उम्र मिली थी.. 42 वर्ष की उम्र भी भला कोई उम्र होती है जाने की। ये अलग बात है कि इन्हीं बयालीस सालों में अपने लेखन की बदौलत दुष्यंत को जो उपलब्धियाँ हासिल हुईं उसका कोई सानी नहीं !

बरसों बाद किताबों की दुनिया तक पहुँचने की राह निकली और हाथों में आया - " साये में धूप " उनका इकलौता ग़ज़ल संग्रह। क्या संयोग है कि जिस विधा ने उन्हें अमर बनाया उस विधा की मात्र एक किताब उनके नाम पर दर्ज़ है, जबकि उपन्यास और कविता संग्रह एकाधिक। इस छोटे से असली बेस्ट
सेलर एलबम की शानदार भूमिका कमलेश्वर ने लिखी थी, जिसके आख़िर में उन्होंने दुष्यंत का एक ऐसा शेर उद्धृत किया था जिसे पढ़कर किताब बेशक़ीमती लगने लगी--

हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए

जिस ग़ज़ल से यह शेर उठाया गया है वह एक चर्चित और प्यारी ग़ज़ल है--

ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए
पर पाँव किसी तरह से राहों पे तो आए

हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए

जैसे किसी बच्चे को खिलौने न मिले हों
फिरता हूँ कई यादों को सीने से लगाए

चट्टानों से पाँवों को बचा कर नहीं चलते
सहमे हुए पाँवों से लिपट जाते हैं साए

यों पहले भी अपना—सा यहाँ कुछ तो नहीं था
अब और नज़ारे हमें लगते हैं पराए

उनके असंख्य मुरीदों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि ग़ज़ल के शास्त्रीय उस्ताद उनकी ग़ज़लों में अहर और बहर की कमियाँ बताते हैं। उनकी लोकप्रियता और रचनाओं की गुणवत्ता इन तमाम दुनियावी चीजों से बहोत बहोत ऊपर की चीज बन चुकी है।

दुष्यंत एक अच्छे कवि भी थे और उनके कई कविता संग्रह राजकमल और वाणी से प्रकाशित हैं। चलते चलते उनकी एक छोटी सी कविता से इस तब्सरे को विराम देता हूँ। जय हिन्द !!

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।

चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।

हँसें
मुस्कुराएँ
गाएँ।

हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलाएँ।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

दुष्यंत कुमार

© गंगा शरण सिंह

अमर शहीद अशफ़ाक़ उल्ला खान

किताब : अमर शहीद अशफाक उल्ला खाँ
सम्पादक : बनारसीदास चतुर्वेदी
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रा. लि., 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली - 110002
मूल्य : ₹ 150

बनारसीदास चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित यह किताब अमर क्रान्तिकारी अशफाक उल्ला खाँ पर केन्द्रित एक अत्यन्त महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक कार्य है। इस संग्रह में अशफाक उल्ला खाँ की आत्मकथा के कुछ उपलब्ध अंशों के अतिरिक्त जेल से लिखे गए उनके पत्र, उनकी कुछ रचनाएँ ( जिनमें ग़ज़लें भी शामिल हैं) और कृपाशंकर हजेला, सुशील कुमार, रामप्रसाद बिस्मिल, जोगेशचन्द्र चटर्जी, मन्मथनाथ गुप्त और रियासत उल्ला खाँ द्वारा लिखे गए कुछ संस्मरण संग्रहीत हैं।
अशफाक उल्ला खाँ क्रांतिकारियों के उस विशिष्ट दल में थे जिसने काकोरी कांड को अंजाम दिया था। इस अभियान के प्रमुख थे- रामप्रसाद बिस्मिल और सहयोगियों में थे- शचीन्द्रनाथ सान्याल, जोगेशचन्द्र  चटर्जी, राजेन्द्र लाहिड़ी आदि। अशफाक हालाँकि इस डकैती के पक्ष में नहीं थे किन्तु यह एक सामूहिक निर्णय था और अंततः संगठन के अनुशासन के हिसाब से उन्होंने अपनी भूमिका निभाने में कोई कोताही नहीं बरती। काकोरी कांड के सारे नामित अभियुक्त धीरे धीरे पकड़े गए। अशफाक लम्बे समय तक वेशभूषा बदलकर छुपते रहे, किन्तु अपने एक सहपाठी मित्र के विश्वासघात के कारण पकड़े गए। चंद्रशेखर आजाद अंत तक नहीं पकड़े गए।
अशफाक के व्यक्तित्व का एक और पहलू उल्लेखनीय है। वे उर्दू के एक बहुत अच्छे कवि और ग़ज़लकार भी थे।
इस पुस्तक के सम्पादक बनारसीदास चतुर्वेदी का जीवन भी कम प्रेरक नहीं है। वे क्रान्तिकारी शहीदों के परिवारों को आर्थिक सुरक्षा दिलाने और दिवंगत साहित्यकारों की कीर्तिरक्षा हेतु आजीवन समर्पित रहे। श्रमजीवी पत्रकारों की आर्थिक बौद्धिक सुदशा व उन्नति के लिए भी उन्होंने भागीरथ प्रयत्न किए। उनके समर्पण और प्रतिबद्धता के कारण ही यह विशिष्ट पुस्तक आकार ले सकी जहाँ अशफाक उल्ला साहब का बचपन , बलिदान के लिए समर्पित युवावस्था, अंग्रेजी प्रशासन का मुखर विद्रोह और अंततः देश के लिए बड़े गर्व और स्वाभिमान से हँसते हुए फाँसी के तख्ते पर चढ़ जाने की अनेक बातें सिलसिलेवार दर्ज़ हैं। इस किताब के पिछले फ्लैप पर सत्य ही लिखा गया है कि रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खाँ जैसे नायकों को जानना इस देश की गंगा जमुनी तहज़ीब और विरासत को देखना और समझना है।

देखा जब स्वप्न सवेरे : डॉ जितेंद्र पाण्डेय

किताब : देखा जब स्वप्न सवेरे
लेखक : डॉ जितेन्द्र पाण्डेय
प्रकाशक : परिदृश्य प्रकाशन
6, दादी संतुक लेन, धोबी तालाव 400002
मूल्य : ₹ 175

यात्रा वृत्तान्त एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक विधा है। यात्राएँ यदि सोद्देश्य और गंतव्य विशेष हों तो हम इन यात्राओं से यक़ीनन समृद्ध होते हैं। डॉ जितेन्द्र पाण्डेय के यात्रा वृत्त " देखा जब स्वप्न सवेरे " की प्रस्तावना में संजीव निगम ने सत्य ही कहा है कि यात्रा वृत्त यदि रोचकता और प्रमाणिकता से लिखे जाएँ तो किसी कहानी से कम आनन्द नहीं देते। स्वयं लेखक अपनी भूमिका में लिखते हैं कि यात्रा वृत्त ऐसी विधा है जिसमें तटस्थता और संलग्नता का समुचित अनुपात बहुत मायने रखता है। इसमें व्यक्तिगत उल्लेख दाल में नमक जितना ही होना चाहिए अन्यथा स्वादहीनता का खतरा उत्पन्न हो जाता है।

" देखा जब स्वप्न सवेरे " का पहला अध्याय सेतुबन्ध रामेश्वरम यात्रा पर केन्द्रित है। रास्ते के मनोरम दृश्यों के अलावा 6 हेक्टेयर में फैले रामनाथ मन्दिर और रामसेतु की भव्यता के विवरण आश्चर्यचकित कर जाते हैं।
इसी सन्दर्भ में सरकार के रामसेतु को तोड़कर "सेतु समुद्रं परियोजना" की व्यावहारिक समस्या का सार्थक विश्लेषण किया है लेखक ने।
अगले यात्रा वृत्त में जितेंद्र पाण्डेय हैदराबाद स्थित गोलकुंडा किले, सालारजंग म्यूजियम, रामोजी फ़िल्म सिटी और देश के सबसे बड़े चिड़ियाघर " नेहरू प्राणी उद्यान" की सैर कराते हुए इन स्थलों की भौगोलिकता और ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथ्यों पर सार्थक जानकारी देते हैं।

अनेक ऋषियों, मुनियों, चक्रवर्ती सम्राटों, साहित्यकारों और विचारकों की जन्म और कर्मस्थली रहे गोरखपुर, महाराष्ट की एलीफैंटा गुफाएँ, पंचगनी, महाबलेश्वर, अलीबाग, शनि सिंगड़ापुर, देवभूमि हरिद्वार, पुण्य भूमि प्रयाग और श्री राम की नगरी अयोध्या, राजस्थान के राजसमंद जिले में स्थित नाथद्वारा, केसर और संस्कृत भाषा के कवियों, आचार्यों की जन्मभूमि के रूप में प्रख्यात काश्मीर जैसे ऐतिहासिक, धार्मिक और सांस्कृतिक स्थलों के यात्रा संस्मरण उल्लेखनीय बन पड़े हैं। जितेंद्र पाण्डेय जितनी आत्मीयता और गौरवबोध से इन स्थानों के प्राकृतिक सौन्दर्य, निसर्ग के सौम्य विस्तार, ऐतिहासिक धरोहरों और उनकी विशेषताओं का वर्णन करते हैं उतनी ही ईमानदारी और तटस्थता से विरोधाभासी परिवर्तनों को भी रेखांकित करते हैं।
गोरखपुर के संदर्भ में वे लिखते हैं कि इसका अतीत जितना यशस्वी रहा है, वर्तमान उतना ही चिन्ताजनक! नकारात्मक शक्तियों ने इसे आतंक की नर्सरी में तब्दील कर दिया है।

नाश्ते के पैकेट वापस करते अलीबाग के भिखारी, शनि सिंगड़ापुर के अर्थ पिशाचों और ठगों के कारण झरती आस्था, लोगों की धार्मिक भावनाओं और आस्था का लाभ उठाते अयोध्या के दुकानदार और टूरिस्ट गाइड, आतंक फैलाते बंदरों, नाथद्वारा के छप्पन भोग और वहाँ के मजदूरों की पीड़ा का चित्रण विश्वनीयता से भरपूर और प्रभावी बन पड़ा है।

हस्तीमल हस्ती

जितनी क़समें खाई हमने रौशनी के सामने
उससे ज़्यादा तोड़ डालीं तीरगी के सामने

हस्तीमल हस्ती की ग़ज़लें पढ़ते समय कभी शब्दकोश उठाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। उनकी सरल ग्राह्य भाषा और कथ्य की धार पाठकों को हैरत में डाल जाती है।
जिस ग़ज़ल के आरम्भिक शेर से इस आलेख का आरम्भ हुआ है, उसके कुछ और शेर देखिए..

रख दिया करती है तोहफ़े यूँ भी ये क़िस्मत कभी,
घर किसी के सामने तो दर किसी के सामने

अपनी इस फ़ितरत को मैं ख़ुद भी समझ पाया नहीं,
जिससे हारा, जा रहा हूँ फिर उसी के सामने ।

एक शेर प्रारब्ध और दूसरा मानव स्वभाव की विषमता बयान करता है। इस वैषम्य के बाद उनका सुर किस तरह पलटता है और वो अपने स्वाभाविक तेवर में लौटते हैं ये देखना बेहद दिलचस्प है...

दिक़्क़तें तो ठहरीं अपनी मरज़ी की मालिक मियाँ,
आज घर के सामने हैं कल गली के सामने ।

हस्ती साहब अपने दौर की विद्रूपता और विडंबना पर भी सटीक प्रहार करते हैं। एक बेहद प्रिय ग़ज़ल जिसे किसी मंत्र की तरह याद रखा जा सकता है......

क्या ख़ास क्या है आम ये मालूम है मुझे 
किसके हैं कितने दाम ये मालूम है मुझे..

ख़ैरात मैं जो बांट रहा हूँ उसी के कल 
देने पड़ेंगे दाम ये मालूम है मुझे 

हम लड़ रहे हैं रात से लेकिन उजालों पर 
होगा तुम्हारा नाम ये मालूम है मुझे 

रखते हैं कहकहो में छुपाकर उदासियाँ 
ये मयकदे तमाम ये मालूम है मुझे 

जब तक हरा-भरा हूँ उसी रोज़ तक हैं बस 
सारे दुआ सलाम ये मालूम है मुझे

उनकी बहुचर्चित ग़ज़ल "प्यार का पहला ख़त" का ये शेर कौन भूल सकता है...

गाँठ अगर लग जाये तो फिर रिश्ते हों या डोरी
लाख करें कोशिश खुलने में वक़्त तो लगता है

हस्तीमल हस्ती साहब की शायरी में एक अलग तरह का तेवर होता है और ये तेवर ही उनकी पहचान है। ज़िन्दगी की जद्दोजहद में संघर्ष का एक लम्बा अरसा बिताते हुए भी वे न तो अपनी जड़ें भूलते हैं और न ही किसी अनपेक्षित स्थिति के सामने झुकने को तैयार होते हैं। एक ग़ज़ल में अपने किरदार के इस पहलू को कितने सशक्त अंदाज़ में बयान करते हैं, ये देखने योग्य है...

चिराग दिल का मुक़ाबिल हवा के रखते हैं 
हर एक हाल में तेवर बला का रखते हैं 

मिला दिया है पसीना भले ही मिट्टी में 
हम अपनी आँख का पानी बचा के रखते हैं 

हमें पसंद नहीं जंग में भी मक्कारी 
जिसे निशाने पे रक्खें बता के रखते हैं 

कहीं ख़ुलूस कहीं दोस्ती कहीं पे वफ़ा 
बड़े क़रीने से घर को सजा के रखते हैं

जब भी वो जीवन के संघर्षों की बात करते हैं तो साथ ही सिक्के के दूसरे पहलू का ज़िक़्र करना भी नहीं भूलते। इस ग़ज़ल के शेरों की प्रेरक क्षमता से कौन इनकार कर सकता है....

रास्ता किस जगह नहीं होता
सिर्फ़ हमको पता नहीं होता

बरसों रुत के मि़जा़ज सहता है
पेड़ यूं ही बडा़ नहीं होता

एक नाटक है जिन्दगी यारों
कौन बहरुपिया नहीं होता

खौफ़ राहों से किस लिये ‘हस्ती’
हादसा घर में क्या नहीं होता

इसी मिज़ाज़ के कुछ और बेहतरीन शेर हैं जो अलग अलग भावों की अनुपम अभिव्यक्ति हैं....

हम भी मक़ाम छोड़ के इज्ज़त गवाए क्यूं 
नदियों के पास कोई समंदर नहीं गया 

खुशनुमाई देखना ना क़द किसी का देखना
बात पेड़ों की कभी आये तो साया देखना 

खूबियाँ पीतल में भी ले आती है कारीगरी 
जौहरी की आँख से हर एक गहना देखना 

दोस्त पे करम करना और हिसाब भी रखना 
कारोबार होता है दोस्त नहीं होती 

ख़ुद चिराग़ बन के जल वक़्त के अँधेरे में 
भीख के उजालों से रौशनी नहीं होती 

शायरी है सरमाया खुशनसीब लोगों का 
बाँस की हर इक टहनी बाँसुरी नहीं होती 

हस्तीमल हस्ती अपने शेरों के जरिये अक्सर कुछ ऐसी चेतावनियाँ भी देते हैं जो किसी भी मानसिक विचलन या दुविधा के दौर से बाहर निकालने में मददगार हैं....

सूरज की मानिन्द सफर में रोज निकलना पड़ता है
बैठे बैठे दिन बदलेंगे इसके भरोसे मत रहना

बहती नदी में कच्चे घड़े हैं रिश्ते, नाते, हुस्न, वफ़ा 
दूर तलक ये बहते रहेंगे इसके भरोसे मत रहना

पहले अपना मुआयना करना 
फिर ज़माने पे तब्सरा करना 

एक सच्ची पुकार काफी है 
हर घड़ी क्या ख़ुदा-ख़ुदा करना 

ग़म पे यूँ मुस्कुरा दिया जाए
वक़्त भी सोचता हुआ आए 

हर हथेली में ये लकीरें हैं
क्या किया जाए क्या किया जाए

फूल आगाह करते हैं हमको 
फूलों में फूल सा रहा जाए

जीवन की दुश्वारियों, और कठोर सच्चाइयों को निरंतर अपनी ग़ज़लों में शामिल करते हुए हस्ती साहब कभी एकरसता का शिकार नहीं होते। प्रेम और मोहब्बत की बातें उनकी ग़ज़लों में बड़ी शाइस्तगी और खूबसूरती से आती हैं। कुछ बानगियाँ देखिए.....

दिल में जो मुहब्बत की रौशनी नहीं होती 
इतनी ख़ूबसूरत ये ज़िंदगी नहीं होती 

जिंदगानी इस तरह है आजकल तेरे बगैर 
फासले से कोई मेला जैसे तन्हा देखना 

जिस्म की बात नहीं थी, उनके दिल तक जाना था
लम्बी दूरी तय करने में वक़्त तो लगता है

दीवार, घर, व्यक्ति के अंतर्जगत और सुख दुख को परिभाषित करती ये ग़ज़ल भी हमारे दिल के बहुत करीब है...

इस दुनियादारी का कितना भारी मोल चुकाते हैं
जब तक घर भरता है अपना हम खाली हो जाते हैं

इंसानों के अंतर्मन में कई सुरंगें होती हैं 
अपने आपको ढूँढने वाले ख़ुद इनमे खो जाते हैं

अपने घर के आँगन को मत क़ैद करो दीवारों में
दीवारें ज़िंदा रहती हैं लेकिन घर मर जाते हैं

आने को दोनों आते हैं इस जीवन के आँगन में
दुःख अरसे तक बैठे रह्ते, सुख जल्दी उठ जाते हैं

एक हिसाब हुआ करता है लोगों के मुस्काने का
जितना जिससे मतलब निकले उतना ही मुस्काते हैं

असामाजिक तत्वों के आव्हान पर उन्माद के लिए लोगों की सहज उपलब्धता का बयान एक ग़ज़ल के इन दो शेरों में कितने शानदार ढंग से किया है उन्होंने....

लड़ने की जब से ठान ली सच बात के लिए
सौ आफ़तों का साथ है दिन रात के लिए

ऐसा नहीं कि साथ निभाते नहीं हैं लोग 
आवाज़ दे के देख फ़सादात के लिए

इल्ज़ाम दीजिये न किसी एक शख़्स को
मुजरिम सभी हैं आज के हालात के लिए

ज़िन्दगी कभी कभी शतरंज का खेल भी बन जाती है। तमाम मोहरों के बीच मोहब्बत भी एक मोहरा है---

मोहब्बत का ही इक मोहरा नहीं था
तेरी शतरंज पे क्या क्या नहीं था

इंसान की सामर्थ्य सीमा को व्यक्त करता ये शेर ---

हमारे ही क़दम छोटे थे वरना
वहाँ परबत कोई ऊँचा नहीं था

और यह शेर तो मनुष्य के स्वभाव की ग़ज़ब व्याख्या करता है----

किसे कहता तवज्जो कौन देता
मेरा ग़म था कोई क़िस्सा नहीं था

हर इंसान को विरासत में सब कुछ नहीं मिलता। अपने संघर्ष और श्रम से हासिल किए गए जीवन का आनन्द ही कुछ और है---

सारी चमक हमारे पसीने की है जनाब
विरसे में हमको कोई भी जेवर नहीं मिला

आत्ममुग्धता पर तंज करता यह शेर हमें बार बार सावधान करता है---

तेरी बीनाई किसी दिन छीन लेगा देखना
देर तक रहना तेरा ये आईनों के दरमियाँ

इन्सान के किरदार और व्यक्तित्व की विभिन्न तहों को खोलते ये शेर देखिए--

हम बदलते नहीं हवा के साथ
हम पे मौसम असर नहीं करते

एक सूरज बहुत ज़रूरी है
चाँद तारे सहर नहीं करते

घर से हमारी आँख-मिचौली रही सदा
आँगन नहीं मिला तो कभी दर नहीं मिला

दोष ख़त में न डाकिये में है
कोई ग़लती मेरे पते में है

मुद्दतों से भटक रहे हैं हम
कोई दुश्मन भी काफ़िले में है

वो मज़ा तो किताब में भी नहीं
जो मज़ा तेरे तब्सरे में है
****

छोटी बह्र की ग़ज़लें हस्ती साहब ने खूब लिखी हैं। ये बहुप्रशंसित ग़ज़ल देखिए.....

न बादल न दरिया जाने
पानी क्या है सहरा जाने

पंछी और परवाज़ का रिश्ता
क्या सोने का पिंजरा जाने

क्यों सोने जैसी फ़सलें हैं
इसका राज़ पसीना जाने

ख़ारों की फ़ितरत है चुभना
गुल तो सिर्फ़ महकना जाने

अस्ल पढ़ाई है उसकी जो
चेहरे, मोहरे पढ़ना जाने

हस्ती साहब की ग़ज़लों और उनके शेरों में जीवन के विविध रंग रूप दिखाई देते हैं। उनकी कहन में यह विशेषता है वह सीधे पाठकों को सम्बोधित करते नज़र आते हैं और इसीलिए उनकी बातें अपने गंतव्य तक बड़ी आसानी से पहुँच जाती हैं:-

ग़म की बारिश हो और नहीं टपके
दिल की ऐसी छतें नहीं होतीं

रास्ते उस तरफ़ भी जाते हैं
जिस तरफ़ मंज़िलें नहीं होतीं

बस्तियों में रहें कि जंगल में
किस जगह उलझनें नहीं होतीं।

हस्तीमल ने एक और विधा में कमाल का लेखन किया है। वे जितने प्रभावी अपनी ग़ज़लों में हैं उतने ही दोहों में। चलते चलते उनके कुछ तेजतर्रार और असरकारक दोहे आप सबकी ख़िदमत में पेश करता हूँ।

बूँदें दिखतीं पात पर, यूँ बारिश के बाद
रह जाती है जिस तरह, किसी सफ़र की याद।

अदालतों में बाज हैं, थानों में सय्याद
राहत पाए किस जगह, पंछी की फरियाद।

मेरे हिंदुस्तान का है फ़लसफ़ा अजीब
ज्यों ज्यों आयी योजना, त्यों त्यों बढ़े गरीब।

कभी प्यार, आँगन कभी, बाँटी हर इक चीज
अब तक जीने की हमें आयी नहीं तमीज़।

रहा सफ़लता का यहाँ , हस्ती यही उसूल
गहरे में पानी मिला, ऊपर मिट्टी धूल।

वही गणित हिज्जे वही, मुश्किल वही हिसाब
सुख पहले भी ख़्वाब था, सुख अब भी है ख़्वाब।

रविवार, 11 नवंबर 2018

प्रार्थना में पहाड़ : भालचन्द्र जोशी

साहित्य और इतिहास की इस जीवन जगत में क्या भूमिका है और अपने उत्तरदायित्व में ये कितने सफल हैं, इस पर टिप्पड़ी करने का मुझे कोई अधिकार नहीं है। इतना ज़रूर देखा और समझा है कि इतिहास महत्वपूर्ण घटनाओं और व्यक्तियों को ही वरीयता देता है, जबकि साहित्य उन बंद सुरंगों की भी खोज करता है जहाँ हाशिये पर पड़े हुए , इतिहास द्वारा उपेक्षित और नगण्य सिद्ध कर दिए गए व्यक्तियों या सभ्यता के अवशेष दबे होते हैं।
भालचंद्र जोशी का पहला उपन्यास " प्रार्थना में पहाड़" ( जो इसी वर्ष विश्व पुस्तक मेले के दौरान प्रकाशित हुआ) पढ़ते समय ये विचार प्रायः मेरी चेतना से टकराते रहे। उनकी लंबी कहानियों के पाठकों/ प्रशंसकों को इस उपन्यास की प्रतीक्षा लंबे समय से थी। यह ऐसी विधा है जो किसी भी कथाकार को स्थायित्व और उन्हें अपने भीतर छुपी हुई अनंत संभावनाओं को बाहर लाने का एक अवसर देती है।

इस उपन्यास का कथानक एक ऐसे आदिवासी क्षेत्र पर केंद्रित है जो दो पड़ोसी जनपदों खैरागढ़ और सम्बलपुर की सीमा पर स्थित है।
एक बहुत बड़े धनकुबेर मिस्टर बजाज की शराब फैक्ट्री का वेस्ट लिक्विड, जिसमें प्राणघातक अल्कोहल भी होता है, हर वर्ष बारिश के दिनों में नदी में छोड़ दिया जाता था और तेज बहाव में ये सारा लिक्विड बह जाता था। इस बार भी समय से बारिश आती तो किसी को पता न चलता। किन्तु इस बार अनुमानित तिथि पर वर्षा हुई नहीं और नदी का पानी इतना जहरीला हो गया कि इसके तट पर बसे हुए गाँव के अधिकांश मनुष्य और पशु मौत का शिकार बन गए। जंगल और नदी का किनारा लाशों से पट गया।
सूचना मिलते ही धनकुबेर और प्रशासन के बीच लेन देन की शाश्वत प्रक्रिया आरम्भ हो जाती है, जिसमें दोनों जनपदों के कलेक्टर, विधायक, मंत्री और मुख्यमंत्री भी शामिल हैं। मालामाल होने के इस सुअवसर का लाभ सब उठाते हैं, सिवाय उस गाँव के जहाँ डेढ़ सौ की आबादी में बमुश्किल पच्चीस लोग बचे हैं और वो भी पीने के पानी के लिए तरसते हुए। मरे हुए जानवरों की सड़ती लाशों से उत्पन्न बीमारियाँ आये दिन किसी न किसी को अपने घातक पंजों में जकड़ रही हैं। बजाज अपने पी.ए. से कहता है कि "इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश में सौ डेढ़ सौ मर भी जाएँ तो चिन्ता की क्या बात। बस, अपने बिजनेस पर कोई आँच न आये।" प्रशासन को भी सुदूर बसे इन आदिवासियों की कोई चिंता नहीं। रही सही कसर तब पूरी हो जाती है जब ये मालूम पड़ते ही कि जो गाँव अब तक इस जनपद की सीमा में था, नए परिसीमन में अब वह दूसरे जनपद में चला गया है, सारे गुनहगार निश्चिंत होकर बैठ जाते हैं।

दोनों निकटस्थ शहरों से इसकी दूरी क्रमशः100 और 150 किलोमीटर । इस बीहड़ रास्ते पर बीस से तीस किलोमीटर तक की पैदल यात्रा भी है जिसका कोई और विकल्प नहीं। आरम्भ में सम्बलपुर का पी.आर.ओ. कलेक्टर के आदेश पर कुछ पत्रकारों के साथ उस गाँव तक जाकर रिपोर्ट तैयार करता है और अगले दिन समाचारपत्रों में ये ख़बर प्रकाशित भी हो जाती है किंतु मीडिया वालों को एक शानदार पार्टी की दावत देकर इस खबर को यहीं ख़त्म कर दिया गया और आने वाले दिनों में इसके अलग अलग संस्करण अखबारों में छपते रहते रहे, जिनका आख़िरी लब्बोलुआब ये था कि आदिवासियों ने मरे जानवर नदी में फेंक दिए जिससे बीमारी फैल गयी।
इधर जिस अंधे कुएँ से थोड़ा थोड़ा पानी पीकर लोग किसी तरह जीवन और मृत्यु से जूझ रहे हैं, उसका पानी धीरे धीरे कम हो रहा है। प्रदूषित और संक्रामक माहौल के कारण बीमारियाँ इस कदर फैली हैं कि जीवित लोगों की संख्या भी निरंतर कम हो रही है। सेवानिवृत्त अध्यापक नंदू माटसाहब जो कुछ दिनों से बाहर थे, खबर पाते ही राशन की बोरियाँ उठवाकर इन लोगों के पास आ जाते हैं क्योंकि उन्हें इन के बीच ही अच्छा लगता है। इंसान अपनी उम्र चाहे जैसे दुखों में बिता ले किन्तु वह अपने आख़िरी दिनों को सुखद बनाना चाहता है।

अन्न और कुएँ के जल की मात्रा दिन ब दिन घट रही है।
एक दिन परस्पर सहमति बनती है कि कुछ लोग यहाँ से निकलकर थोड़े दिन कहीं नौकरी करें ताकि बचे हुए लोगों को जीवित रखने का कोई उपाय हो सके। नायक रतन अपने एक दो मित्रों के साथ बस्ती की तरफ रुख करता है। कॉमरेड परितोष जैसे ज़िंदादिल व्यक्ति से वहीं परिचय होता है रतन का, जो कहानी में आगे जाकर इस किताब के यादगार चरित्रों में शामिल हो जाते हैं।

इधर शतरंज की बिसात पर सारे मोहरे फिट हैं, किन्तु अचानक एक ट्विस्ट आ जाता है कहानी में जब एक बहुत बड़े अंग्रेजी अखबार का प्रसिद्ध पत्रकार समीर इसी तरफ़ का रुख करता है। बजाज अपनी खूबसूरत पी.ए. और अन्य भौतिक सुख सुविधाओं के जरिये इस नई समस्या को निबटाने में लग जाते हैं।
क्या समीर उस गाँव तक पहुँचकर वांछित तथ्यों को इकट्ठा करने में सफल हो पाता है? प्रशासन और अभियोगी पक्ष उसे रोक पाते हैं या नहीं? रतन कुछ पैसे जोड़कर अपने मित्रों के साथ पुनः अपने देस ( आदिवासी अपने गाँव को अपना देस ही कहते हैं) लौटता है या नहीं? भूख और प्यास से जूझते हुए गाँव के शेष लोगों के भाग्य में जीवन है या मृत्यु , इन प्रश्नों का उत्तर किताब पढ़ने के बाद ही मिल पायेगा। भालचन्द्र जोशी ने एक प्राचीन मिथकीय आख्यान का वर्तमान संदर्भों में पुनर्लेखन करते हुए जिस तरह इस उपन्यास के अंतिम अध्याय को समेटा है, वह यादगार है। पात्रों और स्थितियों के अनुरूप जिस सहजता से उनकी भाषा बदलती है वह इस रचना का मुख्य आकर्षण है। दृश्यों की संरचना हो, या किसी विषय पर उनका नजरिया, वे कहीं भी असंतुलित नहीं होते। एक दो ऐसे प्रसंग थे जो थोड़ी सी छूट पाकर साधारण बनकर रह जाते, किन्तु उनका निर्वाह ऐसी स्वाभाविक गरिमा से किया गया है कि वे अंश कथ्य की ताकत बन जाते हैं।
किताब पढ़ते समय बहुत से स्थानों पर रुककर उन्हें चिन्हित करना पड़ा। उन्हीं की एक बानगी नीचे प्रस्तुत है......

"आदमी खानपान से नहीं दुःख से बलवान बनता है।"

"संकट आता है तो सबसे पहले रिश्तों की तंग गलियों से निकलता हुआ , रिश्तों का इम्तहान लेने आता है।"

"कहते हैं कि मृत्यु आती है तो सबसे पहले उसकी आहट जानवर पहचान लेता है। वह मृत्यु से लड़ नहीं पाता और अपनी लाचारी में रोता है।"

"लोग कहते हैं कि इंसान उम्र के साथ सयाना होता है, दरअसल आदमी उम्र के साथ नहीं, जीवन में दुःखों के आने से सयाना होता है।"

"उम्मीद शब्द न होता तो दुनिया में आदमी किसके सहारे जीता? साहस और जोश के लिए भी पहले उम्मीद की उपस्थिति ज़रूरी है।"

"प्रायः लोग कहते हैं कि आदिवासी जाहिल, हिंसक और आक्रामक होते हैं लेकिन इतिहास उस समय की क्रूरता उन्हें विरासत में देकर जाता है। असीम यातनाएँ, असंख्य दुःख और समय का क्रूर बर्ताव उन्हें एक अनाम क्रोध और अजानी आक्रामकता से भर देते हैं।"

"दुख का भार आदमी सह लेता है, लेकिन सपनों का मर जाना दुनिया के सबसे आत्मीय का मर जाना होता है।"

"अतीत इतना चतुर होता है कि ठीक मार्मिक अवसर पर प्रकट होता है और मन के दरवाजों पर दस्तक देता है।"

"जीवन बहुत अजीब होता है। जो माँगो यह देता तो है लेकिन माँगने वाले की इच्छा से नहीं, अपनी शर्तों पर।"

"धर्म का ग़लत सिरा पकड़ में आ जाये तो आदमी कुटिल हो सकता है, लेकिन आस्थाएँ सिर्फ़ अच्छा मनुष्य बने रहने में मदद करती है।"

■ प्रार्थना में पहाड़ ( उपन्यास )■

★ भालचन्द्र जोशी ★

प्रकाशक- आधार प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड
पंचकूला, हरियाणा

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