सबके अंतस में है "नीला चाँद"
मध्यकालीन भारत का सबसे बुजुर्ग शहर बनारस है । मुग़ल आक्रांताओं के पहले का बनारस । एक ऐसा नगर जहाँ अपरंपार विदेशी मुद्रा आती थी । हस्तनिर्मित वस्तुओं की कलात्मकता संपूर्ण भूमंडल को आकर्षित करती । अनेकों वीथियों से सजा-सँवरा बनारस अपने आप में बेजोड़ था । यहाँ भोग और अध्यात्म साथ-साथ चलते थेे । तत्कालीन वाणिज्य, परंपरा, संस्कृति, धर्म, राजनीति, महत्त्वाकांक्षा, इतिहास, भूगोल और लोकजीवन का मिश्रण यदि किसी उपन्यास में मिलता है तो निस्संदेह शिवप्रसाद सिंह का "नीला चाँद'' है ।
इस महाकाय उपन्यास में महाकाव्यत्व की सभी शर्तें पूरी होती हैं । साथ ही यहाँ जयशंकर प्रसाद की ऐतिहासिक भावभूमि को सतर्क विस्तार मिला है । उपन्यास में इतिहास, साहित्यिक शैली में लोक से संवाद करता है । इसमें एकरसता नहीं बल्कि प्रेमचंद की यथार्थ वाली खुरदुरी जमीन है । पाठकों को यदि जयशंकर प्रसाद और प्रेमचंद के साहित्य को आमने-सामने रखकर समझना है तो "नीला चाँद" अवश्य पढ़ना चाहिए । राजमहलों से लेकर झोपड़ियों तक की गहन पड़ताल इस उपन्यास में मिलती है । ब्राह्मण से चांडाल तक की मनःस्थितियों को खंगाल कर उच्चतर मूल्यों को प्रतिष्ठित किया गया है ।
उपन्यास का नायक कीर्ति वर्मा हैं । आग की लपटों में घिरे राजमहल कालंजर से कथानक का प्रारंभ होता है । दूर पहाड़ी की ऊँची चट्टान पर कीर्तिवर्मा हाथ मलते अपना सर्वस्व लुटता हुआ देखते रहते हैं । उनकी आँखों में वह दृश्य भी तैरने लगता है जब आतताई राजा कर्ण, समाधि में बैठे उनके बड़े भाई देववर्मा का सिर कबंध से अलग करता है । उसका क्रूर अट्टहास कानों में गूँजने लगता है । दूसरे ही क्षण वधू वेश में उनकी भाभी जू का स्मरण हो आता है जो अपने पति के सिर और कबंध को लेकर चिता पर बैठी हैं । शीघ्र ही चिता धू-धूकर जलने लगती है । चारों ओर आग ही आग । ऐसा लग रहा है मानो अग्नि की सातों जिह्वावें लपलपाती हुई सब कुछ लील रही हों । कीर्ति वर्मा सिर पकड़कर बैठ जाते हैं । उनका प्रिय अश्व प्रचंड जोर से हिनहिनाता है । तभी प्रधान आमात्य गोपाल भट्ट अपने सहयोगियों के साथ आते हैं । संकल्प-विकल्प और नीति-अनीति पर विचार-विमर्श होता है । निर्णय लिया जाता है कि बुंदेलखंडी साधु-वेश में कीर्ति वर्मा कीरत बनकर, मंत्री अनंत अंतू बनकर और कवि कृष्ण मिश्र किसन मिसिर बनकर वाराणसी पहुँचें और वहीं आगे की रणनीति बनें । इसके बाद का पूरा घटनाक्रम बनारस की धरती पर चलता है ।
उपन्यासकार शिवप्रसाद सिंह एक इतिहासकार भी थे । ऐतिहासिक प्रमाणों को उन्होंने स्वयं जाँचा-परखा । शिला-लेखों एवं भूर्जपत्रों पर अंकित लिपियों पर उनकी बड़ी पैनी दृष्टि थी । दोनों के काल निर्धारण के लिए कई तथ्य जुटाए गए । खुदाई के दौरान प्राप्त मूर्तियों एवं धातु-मुद्राओं पर बड़ी गहराई से विचार हुआ है । इतिहास का तटस्थ और तर्कपूर्ण मूल्यांकन करने के बाद मंदिरों, मठों, झीलों, खंडहरों और ऐतिहासिक स्थलों को उन्होंने उपन्यास में शामिल किया । तत्कालीन समाज की सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक समझ शिवप्रसाद सिंह के व्यक्तित्त्व के अनछुए पहलुओं को उद्घाटित करती है । उपन्यास के पात्रों का चयन एवं नामकरण कथानक के अनुरूप किया गया है । संवाद की भाषा बदलती रहती है । पात्रों के अनुसार कभी संस्कृत, कभी पालि, कभी अवहट्ट, कभी भोजपुरी, कभी बंगला तो कभी लोकभाषा । जब कीर्तिवर्मा कालंजर छोड़ बनारस की ओर प्रस्थान करते हैं तो एक सामान्य स्त्री गाती है -
"हंसा फिरे विपत के मारे अपने देस निनारे
अब का बैठे ताल तलइयाँ छोड़े समुद्र किनारे
अपने देस निनारे - अपने देस निनारे - "
उपन्यास में लोक को विशेष स्थान दिया गया है । कार्षापण (सिक्का), प्रसेव (थैली), द्रम्म (द्रव्य-धन) जैसे दर्ज़नों शब्दों से पाठक परिचित होते हुए कथा का आनंद लेते चलता है । कृतिकार ने लोक और शास्त्र में सदैव अभिन्नता दर्शायी है । शास्त्र, लोक में कुछ यूँ धंसा है - "शरीरी प्रेम लाल, मानसिक प्रेम श्याम और आत्मिक प्रेम श्वेत होता है ।"
कहा जाता है बनारस शिव के त्रिशूल पर टिका है । इसलिए "धगद्धगद्धग-ज्ज्वल-ल्ललाट-पट्ट-पावके" की अनुगूँज पूरे उपन्यास में सुनाई देती है । नंदीश्वर का ज्योतिर्लिंग विराट रूप लेने लगता है । यहाँ की आबो-हवा में पराक्रम, ज्ञान और वैराग्य घुला है । महायोगिनी माँ शीलभद्रा इस रहस्य से परिचित हैं । उनका वरदहस्त उन सबके ऊपर रहता है जो अन्यायी यशः कर्ण के विरोध में खड़े हैं । आमात्य और भृत्य दोनों इनके सामने नतमस्तक होते हैं । आगे चलकर अध्यात्म की ऊँचाइयाँ वासुदेव की अनंत लीला में एकीकृत होने लगती हैं । माँ शीलभद्रा स्वयं एक योगिनी होकर गोपगान करती हैं । इनका आश्रम तप के तेज से सदैव देदीप्यमान रहता है । नया आगंतुक आते ही उस अलौकिक प्रकाश को सहन नहीं कर पाता और मूर्छित हो जाता है । उपन्यास के नायक कीर्तिवर्मा स्वयं इस अनुभव से गुजरते हैं । माँ शीलभद्रा कथानक की महत्त्वपूर्ण पात्र हैं । इनसे लगभग सभी पात्र जुड़े हैं । आर्य नस्ल की अद्वितीय सुंदर कन्या गोमती का विवाह महायोगिनी की कृपा और उनकी देख-रेख में संपन्न होता है । बौद्ध धर्म की दोनों शाखाओं (हीनयान और महायान) के उच्च आदर्श और पतन को बड़ी बेबाकी से दर्शाया गया है ।
उपन्यास में राजा भोज की सदाशयता की मुक्तकंठ से प्रशंसा की गई है । बड़े विस्तार से बताया गया है कि वे किस तरह वाराणसी के राजा धूर्त कर्ण के बिछाए मोहरों में फँस जाते हैं । साथ ही राजा भरथरी और रानी पिंगला की संक्षिप्त कथा यहाँ मिलती है । जब कीरत (कीर्तिवर्मा) भरथरी को उनकी जिम्मेदारी का एहसास कराते हैं तो योग को साधने वाला वैरागी झेंप जाता है । इस प्रकार उपन्यास में कई अन्तरकथाएँ गुम्फित, फलित और पूर्ण होती हैं ।
खड़ग संचालन और धनुर्विद्या का बड़ी सूक्ष्मता से वर्णन किया गया है । इसके अलावा तीर और तलवार में ऐसे विष के लेपन की बात की गई है जिनके खरोंच मात्र से सैनिक की मृत्यु हो जाती थी । युद्ध के समय उन जड़ी-बूटियों का भी उल्लेख है जिनका प्रयोग करने से व्यक्ति की मौत नहीं बल्कि घाव में सड़न पैदा हो जाती । एक माह के भीतर वह तड़प-तड़पकर मर जाता था । अश्व-प्रशिक्षण और संचालन की बारीकियों को इस तरह बताया गया है कि पाठक जानवरों की संवेदना एवं भाषा में रुचि लेने लगता है । इन सबसे गुजरते हुए वेद व्यास का महाभारत में वर्णित आयुध-वृत्तांत का स्मरण हो आता है । कितना सघन ! कितना विस्तृत ! ऐसा लगता मानो इन स्थानों पर भगवान वेद व्यास उपन्यासकार में उतर आए हों । ज्ञान का अगाध विस्तार ।
फूटते उजास के पूर्व गंगा स्याह होती हैं । इसके बाद क्रमशः इनकी मंथर धार रंग बदलने लगती है । रजत, ताम्र और स्वर्ण में रूपांतरित होती हुई माँ गंगा सूर्यास्त तक लगभग चौबीस रंग धारण करती हैं । प्रश्न यह उठता है कि यदि गंगा की विभिन्न छवियों का फिल्मांकन करना हो तो कैसे संभव होगा ? शायद असंभव लेकिन इनका शाब्दिक फिल्मांकन "नीला चाँद" जैसे ऐतिहासिक उपन्यास में मुमकिन हो पाया है । शिवप्रसाद सिंह के दूसरेे उपन्यास "गली आगे मुड़ती है" में भी इन बिंबों का सिलसिलेवार निदर्शन है । यदि गंगा के अलौकिक सौंदर्य का पान करना हो तो एक बार इस कालजयी कृति से अवश्य गुजरना चाहिए । वर्तमान बनारस के आचार-विचार और रहन-सहन के सूत्र यहीं बिखरे मिलेंगे । कुछ उलझे-उलझे से किंतु पारदर्शी । ठीक वैसे ही जैसे सदाशिव की उलझी जटाओं से गिरतीं निर्मल गंग-धारा । अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण "नीला चाँद" जैसी कृति का पुनर्मूल्यांकन होता रहेगा । उसके लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार और व्यास सम्मान की कसौटी कोई मायने नहीं रखती ।
उपन्यास का संदेश उसके नायक कीर्ति वर्मा में छिपा है । वह दुश्मन के घर में रहकर उसकी नाक के नीचे युद्ध की रणनीति बनाता और उसे अमल में लाता है । शत्रु राजा कर्ण की कलचुरी सेना में अपने मंत्री अनंत का प्रवेश कराता है । उसकी एक-एक गतिविधि पर नज़र रखी जाती है । सामान्य प्रजा के सहयोग से कीर्तिवर्मा और उनके सहयोगी शत्रु को शिकस्त पर शिकस्त देते हैं । आश्चर्य की बात यह कि वह किसी पड़ोसी राजा की मदद नहीं लेते बल्कि उनके सहयोगी डोम, धरिकार, आदिवासी, मछुआरे, मुसहर और मल्लाह बनते हैं । उनसे राजा अतिशय प्रेम करता है । वे भी अपने राजा के लिए मौत से लड़ने के लिए तैयार रहते हैं । पूरा युद्ध वाराणसी में लड़ा जाता है । युद्ध के दौरान कीर्तिवर्मा धर्म और अध्यात्म के मर्म समझने के लिए अनेकों आचार्यों, साधकों, पुरोहितों के संपर्क और संगति में रहते हैं । स्वयं महायोगिनी माँ शीलभद्रा उनके भविष्य को पढ़कर संभावित विपत्तियों के प्रति आगाह करती हैं । आचार्य वृषध्वज भगवान नंदीश्वर की महिमा समझाते हैं । "जय कंदार्य" का उद्घोष करते चंदेल युद्ध जीतते भी हैं । राज्याभिषेक के समय कृष्ण मिश्र जैसे उच्चकुल में उत्पन्न कवि को कोई पद नहीं मिलता जबकि नीच समझी जाने वाली जातियाँ बड़े पदों पर आसीन होती हैं । वहीं दूसरी ओर सभी मत-मतान्तरों को दरकिनार करते हुए उपन्यास का नायक उद्घोष करता है कि पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ किए गए संकल्प कार्यसिद्धि में सहायक होते हैं - पूजा, व्रत, तप, अनुष्ठान नहीं । व्यक्ति पर जब भी संकट आता है उसकी अन्तरशक्ति सक्रिय होने लगती है । अमावस के समय "नीला चाँद" की प्रतीक्षा बड़ी शिद्दत से होती है । ऐसे समय में उसकी पहचान जरूरी है क्योंकि सबके अंतस में छिपा होता है "नीला चाँद" ।
समीक्षक -
जीतेन्द्र पाण्डेय
उपन्यासकार -
शिवप्रसाद सिंह
उपन्यास -
नीला चाँद
वाणी प्रकाशन
नई दिल्ली ।
मूल्य - ₹ 700
सामीक्षा में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी गई है समीक्षक को बहुत बहुत धन्यवाद कम शब्दों में जैसे पूरा नीला झलक दिखाई दे गई है...आनंद जालालपुरी
जवाब देंहटाएंधगद धगद ज्वलम जिसने त्रिकण्टक को हिलाकर रख दिया हो मध्यकाल की काशी जिसे डॉक्टर शिवप्रसाद सिंह ने नीला चाँद को लिखने से पहले सोचा देखा होगा जो अतुलनीय है हमें एक साथ उस समय के इतिहास भूगोल अर्थशास्त्र शिल्प कला मंदिरों के अवलोकन सबका दर्शन मिलता है नीला चाँद में अब आगे कुछ कहने के लिए रह ही नहीं जाता अनमोल कृति नीला चाँद है जिसकी सामीक्षा जितनी बार हो कम है..आनंद जालालपुरी प्रतिलिपि लेखक 7388424629
जवाब देंहटाएंसुंदर समीक्षा। विशाल कृति की संक्षिप्त समीक्षा के मध्यम से पूरी कृति को समझना आसान हो जाता है। नीला चाँद अपने आप में कालजयी कृति है।
जवाब देंहटाएंसारगर्भित समीक्षा ।
जवाब देंहटाएंयह समीक्षा ' नीला चाँद ' उपन्यास को समझने के लिए निश्चित तौर पर एक आधार प्रदान करती है ।
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