सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

औरतों की दुनिया : पंकज सुबीर

आज फिर देर हो गई ? सुमित्रा ने पति के कंधे पर टँगा बैग उतारते हुए धीमे से पूछा।
हाँ, आज भी वही सब हुआ, पूरे दिन कचहरी में खड़ा रहा तब जाकर कहीं नाम की पुकार लगी और फिर कुछ नहीं हुआ वही अगली तारीख मिल गई। रूपेश ने थके हुए स्वर में उत्तर दिया। पति की मनःस्थिति तथा थकान को भाँपकर सुमित्रा ने आगे कोई प्रश्न नहीं किया। बैग लेकर चुपचाप अंदर चली गई। रूपेश वहीं सोफे पर ही अधलेटा हो गया। सारा शरीर टूट रहा है। कोर्ट और कचहरी में खड़ा आदमी तेज़ी के साथ थकता है क्योंकि वो अंदर से थकता है। कोर्ट-कचहरी में खड़ा हुआ व्यक्ति ही बता सकता है कि उसकी दिमाग़ी हालत क्या है।
अपने चाचा पर ज़मीन को लेकर केस कर रखा है रूपेश ने। पिता सारी उम्र एक ही शहर में नौकरी करते रहे और रिटायर होने से पहले वहीं अपना मकान बनवा लिया। पति-पत्नी और दो बच्चे। एक बेटा और एक बेटी। रिटायर होने से पहले बेटे बेटी दोनों की शादी भी कर दी। रूपेश पास के ही एक गाँव के सरकारी स्कूल में मास्टर है। रोज़ अप डाउन करता है अपनी मोटर साइकिल से। उधर पुरखों के कस्बे में मकान और ज़मीन सब कुछ छोटे भाई के हवाले था। छोटा भाई समय समय पर अनाज, सब्ज़ियाँ, पैसे भेजता रहा। पिता ने कभी हिसाब नहीं पूछा, कभी छोटे भाई ने बताने की कोशिश भी की तो हाथ हिला कर टाल दिया। कस्बे के मकान में उनका जो हिस्सा है वो किसी स्कूल को किराये पर दे रखा है। मकान के तो दो हिस्से बहुत पहले ही हो गये थे लेकिन पिता और चाचा के बीच ज़मीन का बँटवारा विधिवत रूप से उस समय नहीं हो पाया था। पिता ने कभी करने की कोशिश भी नहीं की। उनको लगता था कि ज़मीन को घर का ही व्यक्ति देख रहा है तो ज़मीन सुरक्षित है, बँटवारा हो जाने के बाद किसी को बटाई पर देनी पड़ेगी। जिसको देंगे वो विश्वास करने लायक हुआ न हुआ। कहीं उसी ने क़ब्ज़ा कर लिया तो? भाई के बेटा नहीं है तीन ही बेटियाँ हैं। ये बात भी कहीं पिता के दिमाग़ में थी शायद।
आज बहुत थके लग रहे हो ? पिता ने रूपेश को सोफे पर अधलेटा देखा तो पूछा।
जी बहुत गर्मी थी, दिन भर कचहरी के बाहर खड़े रहना पड़ा। रूपेश ने सीधे बैठते हुए उत्तर दिया।
तो दिन भर खड़े क्यों रहे, कहीं जाकर बैठ जाते, लेट लेते । पिता ने कहा।
कहाँ जाता ? रूपेश ने पूछा। पिता ने कोई उत्तर नहीं दिया।
कहाँ जाता ? इस प्रश्न का जो उत्तर है वो दिया नहीं जा सकता और इसीलिये भी शायद ये प्रश्न पूछा भी जा रहा है। जब केस किया जा रहा था तो पिता, माँ और सुमित्रा तीनों ही उसके विरोध में थे। मगर रूपेश के दिमाग पर तो एक फितूर, एक ज़िद सी चढ़ गई थी कि चाचा ने जो बेईमानी की है वो ग़लत है और अपना हक़ लेने के लिये जो भी रास्ता लेना पड़े वो लेना चाहिए, फिर भले ही वो रास्ता कोर्ट कचहरी से होकर ही क्यों न जाता हो।
समस्या तब पैदा हुई थी जब पिता और चाचा के बीच ज़मीन को बँटवारा हो रहा था। पैतृक ज़मीन क़रीब बीस बीघा थी जिसे दोनों भाइयों के बीच दस-दस बीघा बँटना था जिसे लेकर कहीं कोई विवाद नहीं था। मकान को लेकर तो पहले से ही कोई विवाद नहीं था, दोनों भाइयों ने बहुत पहले ही आपसी सहमति से मकान के दो हिस्से करके आपस में बाँट लिया था। विवाद तो ज़मीन को लेकर भी पिता और चाचा के बीच कोई नहीं था लेकिन रूपेश को ज़मीन के बँटवारे को लेकर आपत्ति थी। आपत्ति थी उस दस बीघा ज़मीन को लेकर जो पैतृक ज़मीन से लगी हुई थी। यह ज़मीन चाचा ने पन्द्रह साल पहले खरीदी थी। रूपेश का कहना था कि चाचा ने कोई अपने पैसों से थोड़े ही ज़मीन ख़रीदी है, वो तो पैतृक ज़मीन से ही जो कमाई होती है उससे ही ख़रीदा गया है उसे। पिता इससे असहमत थे उनका कहना था कि विपिन ने अपनी कमाई से ख़रीदी है इसलिये उस ज़मीन को बँटवारे में नहीं शामिल करना चाहिये। और हुआ भी वैसा ही बीस बीघा दोनों भाइयों के बीच बँट गई और दस बीघा भी चाचा को मिल गई। जब खरीदी गई थी तो चाचा ने दोनों भाइयों के संयुक्त नाम से ख़रीदी थी ताकि एक ही बड़ा खाता हो जाए तीस बीघा का लेकिन यह एक अनबोली सहमति थी दोनों भाइयों के बीच कि यह ज़मीन किसकी है।
तो कुल मिलाकर ये हुआ कि रूपेश को पिता की ये उदारता बिलकुल पसंद नहीं आई। बँटवारे के बाद गाँव की ज़मीन जायदाद का पॉवर पिता ने रूपेश के ही नाम लिख दिया था। उसी पॉवर का उपयोग करते हुए रूपेश ने चाचा पर केस कर दिया था दस बीघा ज़मीन को भी बँटवारे में शामिल करने के लिये। घर में जब ये समाचार पहुँचा तो बहुत बवाल हुआ और आज तक चल रहा है। पिता पुत्र के बीच लगभग अबोले की स्थिति है। माँ भी बस औपचारिकता की बातें बेटे से करती हैं। पत्नी के मन में भी चाचा पर केस करने का काँटा रह रह कर खटकता है। जब बहन को पता चला तो उसने भी फोन करके रूपेश को बहुत समझाया, लेकिन रूपेश के दिमाग़ पर तो वो दस बीघा ज़मीन ऐसी छाई थी कि उसने बहन की भी नहीं सुनी। रिश्तेदारों ने भी बैठकर बात की समझाया कि वो जो दस बीघा ज़मीन है वो तुम्हारे चाचा ने अपने पैसों से बाद में खरीदी है वो पैतृक ज़मीन नहीं है, लेकिन ढाक के पत्ते तीन के तीन ही रहे, रूपेश पर कोई असर नहीं होना था तो नहीं हुआ। और अब ये केस चल रहा है। परिवार, रिश्तेदारों, परिचितों, सबके मन में फाँस की तरह चुभता हुआ। जब भी पेशी पड़ती है तो रूपेश को रिक-झिक करके स्कूल से छुट्टी लेनी पड़ती है। एक रात पहले क़स्बे के लिये रवाना होता है। रात को पहुँच कर लॉज में रुकता है और सुबह से वकील के घर, कचहरी, फिर शाम को लौटने से पहले एक बार फिर वकील के घर। इतनी पेशियाँ हो गईं हैं, इतना पैसा लग गया है लेकिन फिर भी केस अभी तक जस का तस ही है।
मुन्ना......! ए मुन्ना......! माँ की आवाज़ पर रूपेश की आँख खुली, पता ही नहीं चला कब से से सो रहा है। सोफे पर अधलेटा हुआ था और उसी हालत में सो गया।
अंदर जाकर सो जा आराम से, अरे.....! तेरी आँखें तो लाल हो रही हैं, क्या हुआ ? रूपेश का उतरा हुआ चेहरा और लाल आँखें देखीं तो माँ की चिंता बोली।
कुछ नहीं, आज गर्मी बहुत थी लगता है लू लग गई है। रूपेश ने उत्तर दिया।
लू...? अरे तो आते ही क्यों नहीं बताया...? लू कोई अच्छी चीज़ है..? सुमित्रा.. ए सुमित्रा..... माँ के अंदर की माँ अचानक पूरी शिद्दत से जाग उठी।
किसीको चिंता नहीं है कि हारा थका इन्सान आ रहा है उससे तबीयत का पूछ लें, बस पानी का गिलास पकड़ा दिया, चाय पिला दी, हो गया काम। माँ ने सुमित्रा को अंदर आते देखा तो हल्के स्वर में डाँटा।
मैंने पूछा तो था, बोले कि बस थकान हो रही है। सुमित्रा ने भी दबे स्वर में उत्तर दिया।
अरे तो आगे भी तो पूछना चाहिये कि नहीं, चल अब ठंडे पानी में प्याज़ और सूखी चने की भाजी मसल ले ज़रा, हथेली और तलवों पर रगड़ देंगे तो आराम पड़ जाएगा। चल उठ मुन्ना अंदर चल। दोनों ख़सम-लुगाई एक जैसे हैं गुम्मे के गुम्मे। माँ ने मीठी झिड़की दी। तीनों अंदर चले गये।
अगली पेशी पर जाने के लिये जब रूपेश सामान बाँध रहा था तो माँ ने आकर पूछा मुन्ना तू वहाँ कहाँ रुकता है?
कहाँ रुकूँगा ? लाज में रुकता हूँ और कहाँ, अपने वाले हिस्से में तो पूरा स्कूल है एक भी कमरा तो खाली नहीं है कि मौके-बेमौके वहाँ जाकर रुक जाओ। रूपेश ने कुछ रुखाई से उत्तर दिया और उसी प्रकार सिर झुकाए बैग में सामान जमाता रहा। रूपेश का खाने का डिब्बा लेकर आई सुमित्रा ने माँ की आँखों में देखा। सुमित्रा ने आँखों ही आँखों में पता नहीं क्या पूछा कि माँ ने सिर हिला कर उत्तर दिया।
हाँ ये तो है अपना वाला हिस्सा तो पूरा स्कूल के पास है.....। माँ ने सुमित्रा के हाथ से डब्बा अपने हाथ में ले लिया। रूपेश ने कोई उत्तर नहीं दिया वो उसी प्रकार सामान जमाता रहा।
तू ऐसा क्यों नहीं करता....। माँ ने आवाज़ को भरसक संयत रखते हुए मानो भूमिका बाँधी। रूपेश ने सिर उठाकर माँ की आँखों में झाँका।
तू चाचा के वहाँ क्यों नहीं रुकता है.....। माँ ने उसी प्रकार संयत रहते हुए कहा।
वहाँ....? वहाँ जाकर रुकूँगा मैं...? रूपेश ने कुछ ऊँचे स्वर में कहा।
तो...? उसमें क्या है? तेरा झगड़ा तो चाचा के साथ है, चाची के साथ थोड़े ही है, बच्चों के साथ थोड़े ही है..? माँ ने अपने आपको बहुत स्थिर रखा हुआ है। रूपेश ने कोई उत्तर नहीं दिया मुँह से कुछ भुन भुन निकलती रही।
कोर्ट कचहरी तो सबके बीच होती है, उसमें क्या रिश्ते तोड़ देंगे। कोर्ट कचहरी अपनी जगह, रिश्ते अपनी जगह। पहले भी तो जाता था तो वहीं रुकता था, अब एक केस के कारण क्या रिश्ता टूट गया। माँ ने गर्म लोहे को देख कर चोट की।
वहाँ रुकेगा तो हमें भी चिंता नहीं रहेगी, पिछली बार कैसी लू चिपटी थी, पूरी रात परेशान रहे थे सब, स्कूल का नागा हुआ सो अलग। माँ को पता है कि बातचीत के सारे सूत्र उनके हाथ में आ गये हैं।
बुआजी के यहाँ पिछली बार काकी मिलीं थीं तो पूछ भी रहीं थी कि मुन्ना भैया आते हैं तो घर नहीं आते। सुमित्रा ने अपने हिस्से का काम किया। चाची और रूपेश की उम्र में पाँच छः साल का ही अंतर है। जब चाची ब्याह के आईं थीं तो रूपेश दसवीं में था। तबसे ही चाची उसे मुन्ना भैया कहकर बुलाती हैं।
देखता हूँ ...। रूपेश ने टालने की कोशिश की दोनों को।
देखना-वेखना कुछ नहीं। होटल में रुक कर कच्चा-पक्का खाकर बीमार पड़ो और यहाँ रात भर हम से चाकरी करवाओ, हमसे नहीं होता ये सब। जब अपना घर है तो घर में रुको। चाचा से झगड़ा है तो मत बोला चाचा से, बाकियों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है। भैया भैया कहते तीनों बहनों का मुँह नहीं सूखता। और लाट साहब अपनी अकड़ में हैं। अरे उनका कौन भाई बैठा है ? जो हो सो तुम ही तो हो। माँ ने अपने स्वर को कुछ ऊँचा करते हुए प्यार से झिड़का। रूपेश ने कुछ उत्तर नहीं दिया।
सुमित्रा कमरे से बाहर चली गई, कुछ देर बाद लौटी तो उसके हाथ में एक साड़ी थी।
इसे भी रख लो सामान में। उसने साड़ी को रूपेश के बैग के पास रखते हुए कहा।
अब ये क्या तमाशा है ? रूपेश फिर झुँझलाया
बुआजी के यहाँ मेरी साड़ी पर चाय गिर गई थी तो चाची की साड़ी लेकर पहनी थी, जा ही रहे हो तो ये भी वापस कर देना कब से रखी है। सुमित्रा ने दबे स्वर में उत्तर दिया। कुछ देर तक साड़ी उसी प्रकार रखी रही फिर अचानक रूपेश ने उसे उठाया और बैग के एक कोने में रख दिया। सास बहू के चेहरे पर राहत वाली मुस्कान तैर गई।
रूपेश जब कस्बे के बस स्टैंड पर उतरा तो रात हो चुकी थी। सामने ही लाज है जहाँ वो रुकता है मगर पैर अचानक किसी दूसरे जाने पहचाने रास्ते की ओर बढ़ गए।
जब वो घर में घुसा तो चाची सब्जी काटते हुए टीवी देख रहीं थीं तीनों बेटियों के साथ। रूपेश ने जैसे ही घर में क़दम रखा उन चारों के चेहरे पर हर्ष मिश्रित विस्मयादिबोधक चिह्न बन गया। चाची सब्जी की थाली और चाकू पटक कर साड़ी का पल्लू सँभालते हुए खड़ी हो गईं। रूपेश ने हिम्मत जुटाई और आगे बढ़ कर चाची के पैर छूए। चाची की उँगलियाँ उसके बालों को सहला गईं।
ए बदमाश पार्टी... रूपेश ने बहनों को पुकारा। छोटी वाली दोनों दोनों दौड़ कर रूपेश से चिपक गईं। बड़ी ने बढ़ कर टीवी बंद कर दिया और वो भी पास आकर खड़ी हो गई। रूपेश ने उसके सिर पर हाथ रख दिया। कुछ देर तक ये इमोशनल सीन ऐसे ही बना रहा। 
चलो चलो अब भैया के लिये पानी लाओ, चाय बनाओ, इतनी दूर से आया है थका-हारा...। चाची ने बेटियों को झिड़का। झिड़की खाकर तीनों अंदर चली गईं। रूपेश ने बैग दीवान पर रखा और खुद कुर्सी पर बैठ गया। चारों तरफ नज़र दौड़ाई तो सब कुछ लगभग वैसा ही है।  वही पुराना सा टीवी, जर्जर सा दीवान, बेरंग सी दीवारें, जगह जगह से उखड़ रहा फर्श। पूरा घर मानो अपनी कहानी कह रहा हो। हालाँकि ये सब तो पहले से ऐसा ही है मगर दिख आज ही रहा है।
ये फर्श कब से उखड़ रहा है इसे ठीक क्यों नहीं करवाया अभी तक? गड्ढे बढ़ते ही जा रहे हैं, अच्छा लगता है क्या ये सब ?  रूपेश ने पूछा।
हाँ बोल तो रहे हैं ये करवाने का, पर....? इस बार सोचा था तो इस बार ओले ने सब बरबाद कर दिया। ऐसी अच्छी जमी थी फसल मगर सब पर पानी फिर गया। देखो अब अगली फसल पर करवाएँ शायद। चाची ने सब्जी काटते हुए उत्तर दिया। रूपेश को आगे बोलने के लिए कोई सिरा नहीं मिला। वो सिर झुकाए सब्ज़ी काटती चाची को गौर से देखने लगा। उम्र समय से पहले अपना असर दिखा रही है चाची पर। बारह साल पहले मेंहदी-माहुर से गमकती, बिछिया-पायल छनकातीं जब ये इस घर में आईं थीं तो कैसी सुंदर लगती थीं। उनकी काजल भरी आँखें दिप-दिप चमकती थीं। स्कूल से लौटते ही वो सीधा चाची के कमरे में घुस जाता था। चाची को कच्ची इमलियाँ, कच्ची कैरियाँ और कबीट खाना बहुत पसंद था। स्कूल से लौटते समय उसकी ड्यूटी होती थी कि वो ये चीज़ें जहाँ मिलें वहाँ से तोड़ कर, बस्ते में छुपा कर चाची के लिये लाए। गर्मी की छुट्टियों में पूरी दोपहर उसकी और चाची की अष्ट-चंग-पे की महफिल सजती थी, ऐसी, की तब खत्म होती जब दोनों को फटकार पड़ जाती। चाची का और उसका साथ दो साल ही रहा था। स्कूल खत्म होते ही वो आगे की पढ़ाई के लिए पिता के पास चला गया था।
चलो भैया का बैग उठाकर अंदर कमरे में रख दो और बिस्तर की चादर बदल देना। चाची की आवाज़ सुनकर रूपेश वर्तमान में लौटा। तीनों बहनें हाथों में चाय का कप, पानी का ग्लास और बिस्किट की प्लेट लिये खड़ीं थीं।
अरे रहने दो चाची मैं तो वहाँ लाज में...... रूपेश अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाया था कि चाची ने सिर उठाकर उसकी तरफ देखा। चाची की पनीली आँखों ने वाक्य को आधे में ही खत्म कर दिया। रूपेश ने बहनों को हाथ से इशारा किया बैग अंदर ले जाने का। तीनों उसका बैग उठा कर अंदर चली गईं।
तुमने करेले बनाना कब सीख लिया चाची...? रूपेश ने वातावरण को हल्का करने के लिए पूछा। चाची को उसने कभी भी आप का संबोधन नहीं दिया। बचपन में बड़ों की खूब डाँट पड़ती थी कि आप कहा कर चाची से लेकिन चाची तो उसके लिये दोस्त थीं और दोस्त को भी कहीं आप कह कर बुलाया जाता है। ये प्रश्न पूछने के पीछे भी एक कारण है। चाची को करेले बनाना नहीं आता था, जब भी बनाती थीं तो एक सिरे से सबकी डाँट पड़ती थी। कभी इतना अमचूर डल जाता कि कड़वे करेले खट्टे हो जाते और कभी पता चलता कि कड़वे के कड़वे ही हैं। उससे बात करते समय चाची झल्ला जाती थीं कि जब पता है कि ये इतना कड़वा है तो इसे खाते ही क्यों हैं, कुछ और खा लो इतनी तो सब्ज़ियाँ हैं, पर नहीं सबको करेले ही खाना है। और उस पर इस कड़वे करेले की इतनी सब्ज़ियाँ कभी सूखा कुरकुरा, कभी गीला, कभी भरवाँ। जब भी रूपेश को सब्जी लाने का मौका मिलता तो वो कभी भी करेले नहीं लाता। कभी कह देता कि बाज़ार में करेले ही नहीं आए थे कभी कह देता कि पुराने और खराब करेले थे बाज़ार में। आदत आज भी उसकी वही है, कभी सब्जी लेने जाता है तो करेले कभी नहीं खरीदता।
आ गया करते करते.. चाची ने हँसते हुए उत्तर दिया। पता नहीं आया भी है कि नहीं, जब खाओगे तो पता चलेगा। चाची पूरे मनोयोग से करेलों को साफ कर रहीं थीं।
चाचा...? रूपेश ने पूछा।
डॉक्टर के पास गये हैं आते ही होंगे। खाने के टाइम तक आ जाएँगे। चाची ने उत्तर दिया ।
क्यों क्या हो गया उनको..? रूपेश के स्वर में चिंता घुल गई।
शुगर निकली है कुछ ज्यादा, डॉक्टर ने दवा बदलने को कहा है, कुछ और जाँचें भी करवानी हैं। चाची ने उत्तर दिया। रूपेश के पास एक बार फिर सवाल खतम हो गये।
रात को जब रूपेश खाना खाने बैठ ही रहा था कि चाचा आ गये। रूपेश ने उठकर उनके पैर छुए। चाचा अपनी आदत के मुताबिक बोले अरे बस बस खुश रहो।
हाथ धो कर आ जाओ आप भी। बहुत देर से आपके लिये इसको भी भूखा बिठा रखा था। देर हो गई तो मैंने कहा अब तू तो खा ले इतनी दूर से भूखा प्यासा आया है। चाची ने दोनों को चुप चुप खड़े देखा तो बोलीं।
खाना खाते समय भी दोनों चुपचाप खाते रहे।
तीसरी रोटी पर जब रूपेश ने मना किया तो चाची बोलीं ले लो, अब दो ही रोटी खाने लगे हो क्या ? कैसा सोने सा अंग सुखा कर लोहा कर लिया है। जिज्जी और बहुरिया दोनों अपने में मस्त हैं किसी को खयाल नहीं है कि मनक का ध्यान रखें। सारा लोन और लाली सब सुखा दिया। कैसा लाल था मेरा बच्चा, गालों में अनार फूटते थे। चाची ने अधिकार पूर्वक डाँटा।
जब चाची ने देखा कि दोनों को अब और रोटियाँ नहीं चाहिये तो वे गैस बंद कर आ गईं और एक कुर्सी खींच कर वहीं पास में बैठ गईं। दोनों सिर झुकाए चुपचाप थाली में रखे भोजन को समाप्त कर रहे थे।
कैसे बने हैं करेले...? चाची ने ठिठौली की।
अच्छे बने हैं, आ गया है तुमको बनाना...। रूपेश ने उसी अंदाज़ में उत्तर दिया।
तुम कह रहे हो तो मान लेती हूँ, नहीं तो इनका तो अभी भी पसंद नहीं आते, कहते हैं कि अम्मा के बनाए करेलों का स्वाद अलग ही होता था। चाची ने कहा। चाचा उसी प्रकार चुपचाप खाना खा रहे थे।
क्यों मुन्ना भैया..? ये केस की क्या ज़रूरत थी ? चाची ने विषय को एकदम परिवर्तित कर दिया। कई बार इन्सान लोगों से उतना नहीं डरता है जितना उसे लोगों के प्रश्नों से डर लगता है। विशेषकर वे प्रश्न जिनके उत्तर या तो उसके पास हैं नहीं या अगर हैं भी तो वो दे नहीं सकता। ये भी वही प्रश्न है जो रूपेश को सबसे ज्यादा डरा रहा था। बस उसके लिये राहत की बात ये थी कि प्रश्न पूछते समय चाची का स्वर मुलामियत और अपनेपन से भरा हुआ था, उसमें कहीं भी कोई शिकवा या शिकायत या नाराज़गी नहीं थी।
इनसे पूछो...? रूपेश ने मानो शब्दों को बटोर कर उत्तर दिया।
इनसे क्यों पूछूँ..? इनने आज तक कौन से मेरे सवाल का जवाब दिया है ? उलाहने के स्वर में कहा चाची ने ।
रूपेश के पास कोई उत्तर नहीं था। वो थाली के किनारे पर रखे घी और गुड़ को उँगलियों से मिलाने लगा।
और चलो केस कर दिया तो कर दिया मगर ऐसा भी क्या कि घर आना ही छोड़ दिया? लाज में ठहर रहे हैं बीमार होकर घर वापस जा रहे हैं, भाइसाहब क्या सोचते होंगे कि किरण का दिल भी ऐसा फट गया कि बेटे के लिये भी जगह नहीं बची। चाची धीरे धीरे मानो फटती जा रही थीं। रूपेश कुछ नहीं बोला उसी प्रकार गुड़ और घी से खेलता रहा।
तुम दोनों कुछ भी करो, केस करो, पुलिस थाना करो, मगर हमें तो मत थुकवाओ। उधर जिज्जी और भाईसाहब से नज़र मिलाने लायक मत छोड़ो और यहाँ समाज और रिश्तेदारों में भी थू-थू करवा दो कि सगी चाची के होते भतीजा आता है और होटल में रुकता है। चाची की आवाज़ धीरे धीरे भर्रा रही थी।
इनसे पूछे कोई कि क्या छाती पर धर कर ले जाएँगे ये ज़मीन को। तीनों छोरियाँ ब्याह के अपने-अपने घर चली जाएँगी उसके बाद किसकी है ये ज़मीन जायदाद? सब इसकी ही तो है। पर नहीं मेरी सुनता कौन है। शरीर में बीमारियाँ पालना मंज़ूर है पर कोर्ट कचहरी छोड़ना मंज़ूर नहीं है। इस बार चाची, चाचा से मुखातिब थीं।
तुम आदमी लोग तो लड़-झगड़ लेते हो, फजीता तो हम औरतों का होता है। दुनिया जहान के ताने तो हमें ही सुनने को मिलते हैं, कहीं आने जाने के लायक भी नहीं बचते। जिसे देखो बस एक ही बात, एक ही बात। शीला बुआ के यहाँ शादी में हर कोई मुझसे भी वही पूछे और जिज्जी से भी। सारा इल्जाम तो हम औरतों पर ही आएगा ना कि औरतों के कारण खून ने खून के खिलाफ केस कर  रखा है। हमने ही तो भड़काया है ज़मीन को लेकर अपने आदमियों को। किस किस को जवाब देते हम। किसे बताएँ हम कि हमारी सुनता कौन है, हम तो नौकरानियाँ हैं, ब्याह के लाई हुई नौकरानियाँ। कहते कहते चाची के अंदर का ज्वालामुखी फट कर आँखें के रास्ते पूरे वेग से बह निकला।
रूपेश तेज़ी से उठा और घुटनों के बल ज़मीन पर बैठ कर चाची की गोद में सिर रख कर बच्चे की तरह कमर में हाथ डाल कर चिपक गया। वह धीरे-धीरे सिसक रहा था। सिर झुकाए खाना खा रहे चाचा की थाली में भी टप टप करके नमकीन पानी की बूंदें करेलों में गिर रही थीं। करेले धीरे धीरे और खारे, और खारे होते जा रहे थे। पास के कमरे में बैठी तीनों बेटियाँ बिना आवाज़ एक दूसरे से चिपक कर आँसू बहा रही थीं। सारी नमकीन बूँदें एक दूसरे में समाती जा रही थीं और सैलाब में बदलती जा रही थीं। सैलाब, जिसमें बहती जा रही थीं सारी कचहरियाँ, सारे कोर्ट, सारी मुकदमों की फाइलें, खसरा-खतौनी, नामांतरण के सारे दस्तावेज़, खेतों की मेड़ें, पटवारियों की क़लमें, वकीलों के कोट, सब कुछ, सब कुछ, सब कुछ। सारी दुनिया की औरतें हाथों में फावड़े लिये उस खारे पानी के सैलाब को मोड़ती जा रही थीं हर उस दिशा में जहाँ कहीं नज़र आ रही थीं कचहरियाँ, कोर्ट, थाने....। मोड़ रही थीं ताकि वो सब कुछ बह जाए, बह जाए ताकि दुनिया हो सके सचमुच औरतों की दुनिया।

पंकज सुबीर 

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

नामवर स्मृति : जीतेन्द्र पांडेय

*भारतीय साहित्य के पुरोधा थे डॉ. नामवर सिंह*

     पूर्णमासी के चाँद की शीतल किरणें धरती पर अमृत बरसा रही थीं । पहाड़ की ऊँचाइयों से घंटों  निहारता रहा उसे, बिल्कुल चकोर की नाईं । टहटह अँजोरिया । आँखें दुखने लगीं किंतु मन सोम-रस के लिए अतृप्त रहा ।  प्रातः भ्रमण के लिए उठा तो चंद्रमा का चमकदार गोला धरती के और करीब आ गया था । प्राची दिशा क्रमशः रक्ताभ हो चली किंतु रजनीश विदा होने का नाम नहीं ले रहा था । इसी बीच मोबाइल ऑन किया तो हृदयेश मयंक की वाल पर लिखा था - "ढहना एक शिखर का -
सुबह-सुबह खबर मिली कि नामवर जी नहीं रहे।साहित्याकाश का एक शिखर पुरुष हमसे विदा हो गया । जितनी प्रशंसा व जितनी निन्दा उनकी होती रही शायद अन्य किसी को नहीं मिलीं । कुछ आलोचक उन्हें गरियाकर तो कुछ उनकी चापलूसी कर साहित्य में अपनी रोटियां सेकते रहे।मैं चिन्तित हूँ कि अब उनका क्या होगा? उनके जैसा वक्ता, उनके जैसा चिन्तक हमें कहीं दूर- दूर तक दिखलाई नहीं पड़ता । उनका जाना हिन्दी साहित्य की अपूरणीय क्षति है । मैं चिंतनदिशा परिवार की ओर से उनके  निधन पर श्रद्धांजलि व्यक्त करता हूँ ।"
              कश्मीर के पुलवामा में शहीद जवानों के दुःख से उबरा भी न था कि नामवर जी के दिवंगत होने की ख़बर ने झकझोर कर रख दिया । उनके वे सभी बिंब ज़ेहन में उभरने लगे जो कई मुलाकातों के दौरान मेरे मानस में बन पाए थे । एक गोष्ठियों-संगोष्ठियों वाली छवि तो दूसरी छात्रों के बीच अलमस्त फकीरों वाली । घुटने से थोड़ा नीचे तक लंबा कुर्ता और सलीके से पहनी गई धोती बनारसी सज-धज को प्रदर्शित करती । पान खाते-खाते बिना व्यवधान के बतियाते रहना उनकी आदत थी किंतु स्थायी संगिनी तो सुर्ती थी । रौबदार चेहरे पर मर्मभेदी आँखें किसी का अंतस्थल पढ़ने में पूर्णतया सक्षम थीं । नामवर सिंह की यह विशेषता थी कि व्यक्तिगत बातचीत में अपने विराट व्यक्तित्त्व की दविश सामने वाले पर तनिक न होने देते थे, बिल्कुल उसी के रंग में रंग जाते । जब वे मंच पर होते तो नामवर होने का अर्थ पता चलता । वाकपटुता ऐसी कि सभी मंत्रमुग्ध । क्या समर्थक ? क्या विरोधी ? सब पर एक-सा जादू । जब यह समाप्त होता तो दर्शक अपने होने का मतलब ढूँढ़ने लगते ।
               मुझे एक वाकया याद आ रहा था जब नामवर जी मुंबई विश्वविद्यालय की एक राष्ट्रीय संगोष्ठी  में बतौर उद्घाटक आमंत्रित थे । अध्यक्षता विश्वविद्यालय के प्रो वाइसचांसलर कर रहे थे । डॉ. नामवर सिंह जी ने अपने वक्तव्य में तर्क और प्रामाणिकता की झड़ी लगा दी । रसिया, फ्रेंच, अंग्रेजी आदि भाषाओं के दिग्गज लेखकों को सिलसिलेवार उधृत करते जा रहे थे । अपने उद्बोधन में उन्होंने समूचे विश्व-साहित्य का आसव निचोड़ दिया ।  सूट-बूट धारी मुंबई विश्वविद्यालय के प्रो वाइसचांसलर हतप्रभ थे । अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा, "कोई इतना विद्वान कैसे हो सकता है ? वह भी एक धोती-कुर्ता पहना व्यक्ति विश्व-साहित्य की इतनी गहरी समझ और पकड़ कैसे रख सकता है ? अविश्वसनीय । अकल्पनीय ।" प्रिय पाठकों, नामवर सिंह उच्चकोटि के मेधा संपन्न साहित्यकार थे । जितना पढ़ा, पचा लिया । लोक और शास्त्र के सेतु थे । संत कवियों की वाचिक परंपरा के संवाहक । ऐसा करते हुए उन्होंने  अन्वेषण की लौ सदैव जलाए रखी । संभवतः इसी लिए दूसरी परंपरा की खोज की आवश्यकता पड़ी होगी । जीवन के उत्तरार्ध में तो वे स्वयं की  स्थापनाओं को कई वक्तव्यों में खारिज करते दिखाई दिए ।
           डॉ. नामवर सिंह का विवादों से गहरा नाता था । वे अक्सर कहा करते थे मैं विवादों को ओढ़ता नहीं, बिछा लेता हूँ । रामविलास शर्मा की बरसी पर "आलोचना" की संपादकीय नामवर जी ने लिखी थी । उस पर काफी विवाद हुआ । राष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिका 'दस्तावेज़' की लंबी संपादकीय में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने लिखा, "रामविलास जी ने तो जो बात कही है वही बुद्ध ने कही थी और वही उपनिषद के ऋषि ने भी । नामवर जी अपनी संपादकीय (इतिहास की शव-साधना) में जिस कौशल से दोनों को अलग करने की कोशिश करते हैं उसी को बाल की खाल निकलना कहते हैं ।" इसके अलावा अपने एक भाषण में सुमित्रानंदन पंत के साहित्य को कूड़ा कहकर उन्होंने मुसीबत मोल ले ली थी । इसके लिए सारे देश में उनके पुतले जलाए गए । सही बात तो यह थी कि उनकी चर्चा सभी करते थे -'रीझि भजै या खीझ ।'
               डॉ. नामवर सिंह हिंदी साहित्य की रीढ़ थे । उनका जाना एक रिक्तता छोड़ गया । शास्त्र और लोक के बीच लंबा-चौड़ा और गहरा अंतराल आ गया । हमारे युवा रचनाकार और साहित्य के विद्यार्थी इस बात को लेकर इतरा सकते हैं कि उन्होंने नामवर जी को सुना, देखा और  उनसे बातें की हैं । प्रखर वक्ता । संस्कार, स्वभाव और परंपरा में अपने गुरु के अनुगामी एवं अग्रदूत । साक्षात आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का प्रतिरूप । आचार्य द्विवेदी जी कहा करते थे, मेरे दो प्रिय शिष्य हैं  - शिवप्रसाद सिंह और नामवर सिंह । एक कुशल गोताखोर तो दूसरा दक्ष तैराक। डॉ. नामवर विश्व-ज्ञान की अनमोल धरोहर हैं । उनके निधन पर महामहिम राम कोविंद ने कहा, "डॉ. नामवर सिंह का जाना हिंदी ही नहीं, भारतीय भाषाओं के साहित्य के लिए बड़ा आघात है ।" वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया, "नामवर सिंह के निधन से गहरा दुःख पहुंचा है । उनका जाना साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति है ।"
              समकालीन हिंदी साहित्य के संरक्षक और मार्गदर्शक का अस्त होना एक युग का अंत है । ऐसा युग जहाँ से भावी पीढ़ी ऊर्जा और प्रेरणा लेती रहेगी । लेना भी चाहिए । नामवर सिंह जी ने स्वयं कहा था कि धनुष की डोरी जितना पीछे खींची जाती है, उससे निकला तीर उतना ही आगे जाता है । अस्तु ।

- डॉ. जीतेन्द्र पांडेय

सिनारिओ : शेखर जोशी

  कहानी सिनारिओ : शेखर जोशी     अपना सफरी थैला , स्लीपिंग बैग और फोटोग्राफी का भरपूर सामान लेकर जब वह गाँव पहुँचा , सूर्यास्त का समय...