सूर्यबाला जी उन चुनिन्दा रचनाकारों में हैं जिन्हें पढ़ते हुए पिछले चालीस वर्षों के दौरान कई पीढ़ियाँ बड़ी हुई हैं।
ग्रंथ अकादमी दिल्ली से प्रकाशित "अग्निपंखी" सूर्यबाला जी के दो लघु उपन्यासों का संग्रह है। पहला- 'अग्निपंखी' और दूसरा- 'सुबह के इंतज़ार तक'।
"अग्निपंखी" हमारे गाँवों की उस अभिशप्त पीढ़ी की कथा है जो अपनी जड़ों से विस्थापित होने और जीवन की विषमताओं की चक्की में निरंतर पिसने को बाध्य है।
कहानी के मुख्य पात्र जयशंकर के बचपन में ही उसके पटवारी पिता की मृत्यु हो जाती है। जयशंकर की माँ अपने दिवंगत पति की इच्छा पूरी करने के लिए बेटे की पढ़ाई और उसके सफल होने की हरसंभव कोशिश करती है। अपने ताऊ और चाचा के एहसानों और उनकी पत्नियों के व्यंग्य बाणों को झेलते हुए कई वर्षों की पढ़ाई के बाद जब नौकरी पाने के उसके तमाम प्रयास असफल हो जाते हैं तो जयशंकर का पहले से अंतर्मुखी स्वभाव और चिड़चिड़ा होता जाता है।
एक दिन वह घर छोड़कर मुम्बई चला जाता है। जिस शहर में फुटपाथ पर रात बिताने के लिए भी स्थानीय गुंडों को हफ़्ता देना पड़ता हो, वहाँ एक बेरोजगार व्यक्ति इस फुटपाथ पर सोने का भी अधिकारी नहीं रह जाता। इस समस्या से उबरने के लिए जयशंकर वाचमैन की नौकरी करने लगता है। सूर्यबाला जी इस विडंबना का वर्णन मर्मस्पर्शी शब्दों में करती हैं....
"उसके सामने विकल्प एक ही था-- खाये या सोए। और भूखे पेट नींद भी भला कहाँ आती है। इसलिए उसने पेट में अन्न डाल, जागना पसन्द किया।"
थोड़े दिनों बाद उसे किसी मिल में मजदूर की नौकरी मिल जाती है और रहने के लिए एक झोपड़पट्टी में घर। डेढ़ साल बाद जयशंकर पहली बार गाँव वापस जाता है और खूब तड़क भड़क और दिखावे के साथ। इसके पीछे हमारी वही मध्यवर्गीय मानसिकता है जो हमें अपनी वास्तविकता को स्वीकार करने की बजाय छद्म जीवन जीने को बाध्य करती है। थोड़े दिनों बाद उसका विवाह हो जाता है और वह अपनी पत्नी के साथ पहले की तुलना में थोड़ा आरामदायक जीवन बिताने लगता है।
गाँव घर के अन्य लोगों की भाँति उसकी माँ भी यही सोचती है कि जयशंकर किसी बड़ी नौकरी और बेहतर हालात में है। जेठानी और देवरानी के निरन्तर तानों और जीवन की एकरसता से ऊबी हुई माँ के मन में बेटे के पास जाकर रहने की स्वाभाविक इच्छा जाग उठती है। जयशंकर कई अवसरों पर टाल मटोल करने में सफल हो जाता है किन्तु आखिरकार एक बार माँ के जिद पकड़ लेने पर उन्हें अपने साथ
लाना ही पड़ता है। एक छोटी सी कोठरी में जहाँ पति पत्नी के लिए भी जगह कम पड़ती हो, एक तीसरे व्यक्ति का प्रवेश उन दोनों को अखर जाता है। माँ मुम्बई पहुँचकर जितना बेटे की हक़ीक़त से आतंकित है उतना ही उन दोनों की उपेक्षा से भी त्रस्त।
कहानी का उत्तरार्द्ध अत्यंत दुखद है और पाठक की सहानुभूति जयशंकर से हटकर उसकी माँ पर केन्द्रित हो जाती है जो गाँव से शहर तक परिजनों की अवहेलना और अपमान सहते सहते मानसिक बीमारी की शिकार होती जाती है।
इस निहायत गम्भीर और घोर यथार्थवादी विषय को सूर्यबाला जी अपनी समर्थ भाषा से पठनीय बनाने में सफल हुई हैं। उनके शब्दों की जादूगरी कहीं कहीं बरबस ध्यान खींच लेती है.... कहानी के आरंभ में ही जयशंकर के पिता के बारे में हो रही चर्चा का ये अंश देखिए....
"शहरियों के बीच उठने बैठने की वजह से ज़बान चलाने के कायदे भी जानता है। कहाँ चाबुक की तरह सटकारनी है और कहाँ गिलौरी की तरह मुँह में दबा लेनी है, खूब समझता बूझता है।"
** सुबह के इंतज़ार में **
यह लघु उपन्यास एक ऐसी युवती की दारुण आत्म-गाथा है जिसके परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद खराब है। यहाँ भी मध्यवर्गीय नैतिकता की वही समस्या, जहाँ हालात निम्न-मध्यवर्ग से भी बदतर, दयनीय, किन्तु ऊपर से सफेदपोश और इज्जतदार दिखने के असफल प्रयास प्रतिदिन की जद्दोजहद है। एक दिन इस युवती का भाई बुलू स्कूल से घर लौटकर चाय रोटी लेकर नाश्ता करने बैठता है। थोड़ी देर तक उसके माँ बाप असहाय नज़रों से एक दूसरे को देखकर अंत में उससे कहते हैं कि आजकल पढ़ाई लिखाई में कुछ नहीं रखा। आशंकित और बेटे का रोटी खाता हाथ थम जाता है और वो अनुरोध करता है कि कम से दसवीं की फाइनल परीक्षा तो देने दें। किन्तु वो लोग किसी गैराज पर उसके काम करने की बात पहले ही निश्चित कर चुके होते हैं और कहते हैं कि दसवीं की परीक्षा तो बाद में कभी भी दी जा सकती है। लड़का यह सुनकर और कातर हो उठता है कि दूर होने के कारण उसे रहना भी उसी गैराज में ही पड़ेगा। एक बहन के शब्दों में बताए जा रहे इस दुखद प्रसंग को सूर्यबाला जी ने बड़ी अर्थपूर्ण मार्मिकता से उकेरा है।
भाई के चले जाने के थोड़े दिन बाद ही रिश्ते के एक मामा मामी मिलने आते हैं। मामी उसकी माँ से कहती हैं कि उसे उनके साथ भेज दें ताकि वो उनके साथ रहकर थोड़ा कामकाज और तौर तरीके सीख ले और वो उसकी शादी की कोशिश भी करेंगी। माँ उसे समझा बुझाकर उनके साथ भेज देती है।
मामा किसी फैक्ट्री में सुपरवाइजर थे। ऊपरी कमाई के चक्कर में उनकी सेटिंग ठेकेदारों आदि से थी । कभी कभी कुछ कर्मचारी मिट्टी का तेल, शक्कर या कोयले जैसी चीजें घर पहुँचा जाते थे। एक ऐसे दिन जब घर पर कोई नहीं था, इन्हीं में से एक दबंग और हट्टा कट्टा शख़्स घर पर कुछ पहुँचाने के बहाने आता है और उसके साथ शारीरिक दुष्कर्म करता है। लड़की वापस अपने घर भेज दी जाती है। माँ बाप को लगातार चिंतित और घुलते हुए देखकर वो अपने भाई के साथ मिलकर घर छोड़ने का निर्णय लेती है। इस निर्णय के पीछे एक और कारण ये भी था कि वो भाई की छूट चुकी पढ़ाई को वापस शुरू कराने और उसे सफल बनाने के प्रति पहले से ही कटिबद्ध थी।
यहाँ से दोनों भाई बहन एक नए जीवन संघर्ष में व्यस्त हो जाते हैं। बहन उसका फिर से एडमिशन कराती है और लोगों के घरेलू कामों को करते हुए किसी तरह जीवन यापन करने की कोशिश में लग जाती है। उनके इस कठिन सफर में कुछ ऐसे लोग भी मिलते हैं जिनके भीतर का इंसान कभी नहीं मरता और जो असहाय लोगों की हर सम्भव सहायता या मार्गदर्शन करने में आनन्दित होते हैं।
कहानी में आगे चलकर कुछ सुखद और ज्यादातर दुखद प्रसंग ही आते हैं। हालाँकि सूर्यबाला जी ने आख़िरी पृष्ठों पर बड़े तार्किक ढंग से दुखान्त को थोड़ा बेहतर और सहनीय बनाने का प्रयास किया है।
ऐसे अवसाद उत्पन्न करने वाले कथानकों को पठनीय बनाना उनके आत्मीय लेखन से ही सम्भव हो पाता है। व्यक्तिगत रूप से मुझे उनके चार उपन्यासों में केवल "मेरे संधिपत्र" ही ऐसा दिखता है जिसे मैं दुबारा पढ़ सकूँ। दीक्षांत और ये दोनों उपन्यास ऐसे हैं जिन्हें कभी दोहराने की हिम्मत शायद ही जुटाना सम्भव हो और यही उनके लेखन की जीत है।
अग्निपंखी
सूर्यबाला
ग्रन्थ अकादमी दिल्ली
पृष्ठ- 163
मूल्य - 200
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