रविवार, 10 मई 2020

मुख़बिर : राजनारायण बोहरे

#किताबें_2020
#लॉकडाउन_डायरी

जाने कितने दिनों के बाद...
पूरी हुई तीसरी किताब!

इस लम्बे लॉकडाउन में हालात कुछ ऐसे रहे कि एक के बाद एक तमाम किताबें सिरहाने जुटती चली गईं। मंगला से शयन तक, बेगम समरू का सच, जनता स्टोर, दूसरी शुरुआत, जो घर फूँके आपना, बारिशगर, एक लड़की पानी पानी, लिट्टी चोखा, हाशिमपुरा 22 मई ( विभूतिनारायण रॉय ), दावानल (बालशौरि रेड्डी), विष्णुगुप्त चाणक्य ( वीरेंद्र कुमार गुप्त )... किसी की भूमिका पढ़ी गई, किसी के शुरुआती चार छह पन्ने तो किसी संग्रह की दो चार कहानियाँ...। कविता वर्मा के उपन्यास के बाद एक बैठक वाली किताब मिली नहीं। इधर  टुकड़ों टुकड़ों में पढ़ने के कारण कोई किताब पूरी ही नहीं हो रही थी। इसी अराजक मनःस्थिति में एक दिन ध्यान आया कि राजनारायण बोहरे जी का उपन्यास 'मुख़बिर' भी अरसे से अधूरा पड़ा है।【 इसका आगाज़ नवम्बर के आख़िरी दिनों में इंदौर में हुआ था। निरन्तर यात्राओं के कारण यह पूरा नहीं हो सका था।】
और फिर... इसे भी ढूँढ़कर सिरहाने रख लिया।

हमारी पीढ़ी बचपन से ही डाकुओं के किस्से सुनते, पढ़ते और शोले जैसी फ़िल्मों में देखते हुए बड़ी हुई। साहित्य में इस पृष्ठभूमि पर संभवतः कम लिखा गया है। यदि लिखा भी गया होगा तो शायद उन किताबों तक पहुँचना सम्भव न हुआ हो। बोहरे साहब मूलतः चम्बल क्षेत्र से हैं और यकीनन उनके पास देखे, सुने गए अनुभवों और स्मृतियों की ऐसी पुख़्ता ज़मीन मौजूद थी जो इस उपन्यास के कथा-धरातल की रचना में स्वाभाविक रूप से मददग़ार सिद्ध हुई।

राजनारायण बोहरे जी का यह उपन्यास हैरतअंगेज़ घटनाओं और सूक्ष्म विवरणों के जरिए चम्बल घाटी के जनजीवन, मुख़बिरों, डाकुओं और पुलिस महकमे की कार्यशैली का यथार्थपरक चित्रण करता है।
'मुख़बिर' में कल्पना और सत्य का प्रतिशत क्या है, यह तो नहीं मालूम, किन्तु यह कहानी पाठकों को डिस्टर्ब ज़रूर करती है। परिवेश को यथार्थवादी और विश्वसनीय बनाने के लिए देशज बोली, कहावतों और स्थानीय गालियों का प्रयोग भी हुआ है।( हालाँकि गालियाँ सांकेतिक रूप से आधी अधूरी ही लिखी गई हैं। )

पुलिस और डाकुओं के बीच मुख़बिर उसी तरह पिसते हैं , जैसे गेहूँ के साथ घुन। उनके लिए इस विडम्बना में फँसना जितना आसान है , इससे बाहर निकल पाना उतना ही असंभव! यह उपन्यास उन जातिगत अत्याचारों और अमानवीयताओं पर भी रौशनी डालता है जिसके कारण दलित और शोषित वर्ग के पास चम्बल की घाटियों में कूद जाने के सिवा कोई और विकल्प शेष नहीं रहा था।

एक नई और लगभग उपेक्षित पृष्ठभूमि पर लिखे गए इस महत्वपूर्ण उपन्यास के लिए राज बोहरे भाई साहब को हार्दिक शुभकामनाएँ। उनकी किस्सागोई आश्वस्त करती है। वैसे भी महानगरों की राजनीति से दूर रह गए नगरों और कस्बों में किस्से कहानियों की परम्परा कहीं ज़्यादा बेहतर और जीवंत नज़र आती है।

● किताब : मुख़बिर
● लेखक : राजनारायण बोहरे
● प्रकाशक: प्रकाशन संस्थान, दिल्ली
● पृष्ठ: 183
● मूल्य : ₹ 250

शुक्रवार, 8 मई 2020

खिरनी : मनीष वैद्य

★ खिरनी: मनीष वैद्य

लड़का गली में खुलते किवाड़ से सटकर खड़ा था और लड़की आँगन में दीवाल के पास मिट्टी की छोटी-सी ओटली पर बैठी थी। आँगन उन दोनों के बीच था। लड़के ने गौर किया कि इतना वक्त गुजर जाने के बावजूद यह आँगन वैसा ही था। आँगन ही नहीं, कच्ची मिट्टी से बने इस घर के भूगोल में भी कोई खास बदलाव नहीं हुआ था। हाँ, इधर के दिनों में कुछ नई और चमकीली वस्तुएँ जरूर इसी पुराने और बेढब घर में बेतरतीबी से ठूँस दी गई है। लगता था कि इस घर ने अभी उन्हें अपने में मर्ज नहीं किया है या अपनेपन से स्वीकार नहीं किया है। फिर भी नए चलन की वे वस्तुएँ अपनी पूरी ढिठाई और बेहयाई से वहाँ मौजूद थी।

जबकि थोड़ी देर पहले ही उसने महसूस किया था कि इधर का गाँव काफी हद तक बदल गया था, अब वहाँ पहले जैसा बहुत कम ही बचा था। ज्यादातर नया-नवेला और सुविधा संपन्न। कच्ची मिट्टी के घर, लिपे-पुते फर्श, दीवारों के मांडने, खपरैलों और फूस की छतें, घंटियाँ टुनटुनाते मवेशियों के झुंड, काँच की अंटिया, लट्टू और गिल्ली-डंडा खेलती टुल्लरें, पनघट, चौपाल और वैसी जीवंत गलियाँ अब वहाँ नहीं थीं। न गाँव पानीदार था और न लोग ही पानीदार बचे थे। उनके चेहरों का नूर खो गया था, उमंग और हँसी-ठठ्ठा भाप बनकर कहीं उड़ गए थे।

लड़के और लड़की के बीच जो आँगन फैला था, उसमें तीस बरस का वक्फा तैर रहा था। आँगन बहुत छोटा था और तीस बरस का वक्फा बहुत बड़ा था, लिहाजा वह उफन-उफन जाता था। लड़की की उजाड़ और सूनी आँखों में कहीं कोई हरापन नहीं था। हरापन तो दूर उनमें गीलापन भी नहीं था। उन थकी-थकी आँखों में पानी का कोई कतरा तक नहीं था। जैसे वह किसी अकाल के इलाके या रेगिस्तान से चली आई हो।

एक पल को उसकी आँखें लड़के को देखकर विस्मय से फैल गई, क्षणभर को मानो कोई बिजली-सी कौंधी और दूसरे ही पल फिर स्थायी बैराग फिर उन आँखों में समा गया। इस एक पल को लड़के ने अपनी आँखों में पकड़ लिया। लड़की ने लड़के की आँखों में झाँका। इस झाँकने में तीक्ष्णता थी और सूक्ष्मता भी। इसमें तीस साल की सहेजी हुई दृष्टि थी। लड़के की आँखों में बागों की ताजगी थी। झरने-सी उत्फुल्लता थी और वासंती बयारों का झोंका था। अपने पूरे सुदर्शन डील-डौल तथा शहरी अभिजात्य के साथ लड़का वहाँ मौजूद था।

तभी अनायास कहीं से एक क्षीण-सी आवाज कौंधी - 'कब आए?'

लड़के के लिए यह सवाल अप्रत्याशित था। वह ऐसे किसी सवाल के जवाब के लिए कतई तैयार नहीं था। वह हड़बड़ा गया। फिर कुछ सँभलते हुए बोला - 'कल शाम...'

उसका वाक्य अधूरा ही रह गया। लड़का झेंप गया था। लड़की के सपाट चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान तैर गई। उसने अपनी मुस्कुराहट को होंठों के कोनों में दबाते हुए जाना कि लंबा वक्फा भी कुछ आदतें बदल नहीं पाता।

लड़की उस वक्फे के पार खड़ी थी। वह बहुत पीछे के वक्त में दाखिल हो चुकी थी, जहाँ लड़का उसके पीछे-पीछे जंगल में मीठी खिरनी के लालच में चला जा रहा था। उसे इस तरह जंगल में अकेले आने का अनुभव नहीं था। उसने जंगल के बारे में जो कुछ सुन रखा था, उससे उसे भीतर ही भीतर डर लग रहा था, लेकिन वह उसे लड़की के सामने प्रकट करना नहीं चाहता था। एक बार को उसकी इच्छा हुई कि वह पीछे से भाग निकले पर इतनी दूर आ गए थे कि अकेले लौटने में भटकने की आशंका थी। तभी न जाने कैसे लड़की ने जान लिया कि वह डर रहा है। लड़की ने लड़के का हाथ अपने हाथ में लेकर कहा - 'डरो मत, मैं यहाँ अक्सर आती हूँ, बस उस पहाड़ी के नीचे खिरनी के बड़े-बड़े पेड़ हैं। उनसे खूब पीली-पीली गलतान खिरनियाँ टपकती हैं। मैं तो पेड़ पर चढ़ जाती हूँ।'

लड़की के हाथ पकड़ लेने लड़के का डर कुछ कम हो गया था। उसने पूछा -"गलतान...? यह क्या होता है।" लड़की का हँस-हँस कर बुरा हाल था -" बुद्धू, तुम्हें तो कुछ भी नहीं मालूम। गलतान मतलब खूब पका हुआ। डाल पर पके हुए खूब रसीले फलों को गलतान कहते हैं न। अब याद रखना।"

लड़की फिर हँसी - " मैं भी तुमसे याद रखने को कह रही हूँ, तुम्हारे साथ रहते-रहते मैं भी कितनी बुद्धू हो गई हूँ। पता है कि तुम कभी कुछ याद नहीं रख सकते फिर भी तुमसे कह रही हूँ।"

लड़के को उसकी यही बात बुरी लगती है। हर बात में उसका मजाक उड़ाया करती है। लड़का चिढ़ गया।

" हाँ-हाँ, जानता हूँ तुम्हें भी, इतना ही याद रख लेती हो तो फिर स्कूल में हमेशा फिसड्डी क्यों रहती हो? वहाँ तो तेरह का पहाड़ा याद रखने में जान निकल जाती है।" लड़का गुस्से में पिनपिना रहा था।

लड़की ने अजीब-सा मुँह बिचकाया और हँसते हुए कहा - 'किताब में खिरनी का पेड़ और यह जंगल नहीं है न। ये होता तो तुम सब फेल हो जाते, मैं अव्वल आती... समझे।'

इतने में सामने खिरनी के पेड़ आ गए। पेड़ के नीचे की जमीन खिरनियों से पीली पड़ चुकी थी। खिरनियाँ बहुत मीठी थीं, लड़के का मुँह मिठास से भर गया। लड़की पकी हुई खिरनियों को बीन कर अपने फ्राक के घेर की खोली में इकट्ठा कर रही थी। लड़का भी पटापट अपने हाफपेंट की जेबें भर रहा था।

लड़के को लगा कि कुछ लड़कियाँ खिरनी के पेड़ की तरह होती हैं। दुनिया के कड़वेपन को वे मिठास में बदल देती हैं।

लड़की की तंद्रा टूटी तो ऐन सामने लड़के का सवाल था - 'तुम कैसी हो?'

लड़की को यह सवाल अजीब-सा लगा। यह भी कोई पूछने की बात है भला। क्या किसी को देखकर ही नहीं मालूम होता कि वह कैसा है। फिर उसे यह पूछने की जरूरत क्यों पड़ी। लड़की ने आँखों में हल्की-सी चमक भरते हुए कहा - 'अच्छी हूँ...'

लड़के को लगा कि लड़की ने यह सफेद झूठ बोला है। वह अच्छी कैसे हो सकती है। उसे तो कोई अंधा भी देखकर कह सकता है कि वह ठीक नहीं है। कहाँ वह तीस साल पहले की उद्दंड, चुलबुली और बातूनी लड़की और कहाँ यह आज की घुन्नी, उदास, मेहँदी लगे बालों की उलझी लटों से घिरे रूखे और सपाट चेहरे पर सूनी आँखों वाली, मामूली साड़ी ओढ़े अपनी मरियल देह को ढोती हुई अधेड़-सी दिखती औरत।

लड़की को भी लगा कि उसका झूठ पकड़ लिया गया है, पर इसका जवाब भी तो यही हो सकता था न। लड़के को यह सवाल पूछना ही नहीं चाहिए था।

लड़की फिर लौट रही थी पीछे की ओर। बहुत पीछे छूट चुके समय में। वे दोनों देवी मंदिर की सीढ़ियों से छलाँग लगाते हुए नदी में कूद रहे थे। लड़की गंठा लगाकर नीचे तल तक जाती और वहाँ से मुट्ठी में कोई चिकना पत्थर या रेत लिए बाहर आती। लड़का किनारे पर ही तैरता रहता, उसे नदी की धार में जाने से डर लगता। लड़की बिजली की गति से इस पार से उस पार तक दौड़ी जाती। वह पानी की सतह पर चित लेटकर उल्टी तैरती तो कभी ऐसी डूबकी लगाती कि देर तक वह पानी में भीतर ही डूबी रहती और अक्सर अपनी जगह से दूर जाकर निकलती। चकित लड़का उसका दुस्साहस देखता रहता।

मछलियाँ लड़की की दोस्त हुआ करती थी। वह हर मछली को पहचानती थी और उनकी खूब सारी बातें उसके पास हुआ करती थी।

नदी में नहाने के बाद वह झाड़ियों के पीछे अपने गीले कपड़ों को इतनी जोर से निचोड़ती कि पानी की आखरी बूँद तक निचुड़ जाए। फिर उन्हें धूप में सुखाती और उनके सूखने तक वहीं खरगोश की तरह दुबककर बैठी रहती। इधर लड़का भी रेत की ढेरियों पर अपने कपड़े सुखाता। कुछ गीले भी होते तो बदन पर सूख जाते। कपड़े सूखने पर ही वे घर या स्कूल लौट सकते थे। कभी घर में पता चलने पर उनकी पिटाई भी हो जाती लेकिन छुपते-छुपाते नहाने और नदी के ठंडे पानी में घंटों पड़े रहने का अपना मजा था।

रिमझिम बारिश की एक दोपहर देवी मंदिर के दालान से नीम की एक टहनी तोड़ते हुए उसने लड़के से पूछा था - 'तुम्हें नीम की पत्तियाँ कैसी लगती हैं?'

लड़के ने तपाक से कहा - 'यह भी कोई पूछने की बात है। नीम तो कड़वा ही होता है। पत्तियाँ कड़वी ही लगेंगी न।'

लड़की ने जीत की खुशी में दमकते हुए कहा - 'तभी तो मैं तुम्हें बुद्धू कहती हूँ। नीम की पत्तियाँ हमेशा कड़वी ही लगें। यह जरूरी नहीं। साँप काटे हुए को जब ये पत्तियाँ खिलाते हैं न तो उसे ये मीठी लगती है। शरीर में जहर हो तो कड़वा भी मीठा लगने लगता है, समझे।'

लड़के ने कहा - 'यह तो मेरे साथ चीटिंग है। बात साँप के काटे की थी ही नहीं...'

'आगे तो सुनो, मेरी दीदी कहती है जो कोई किसी से प्रेम करता है तो उसे भी नीम की पत्तियाँ मीठी लगने लगती है। तुम खाकर देखो।' - लड़की ने कहा।

लड़के ने बुरा-सा मुँह बनाते हुए एक पत्ती जीभ पर रखी ही थी कि उसके मुँह में कडवाहट भर गई, उसने तुरंत पत्ती थूक डाली।

लड़की ने लड़के की आँखों में देखा और दो-तीन पत्तियाँ चबाने लगी। लड़की पान के पत्ते की तरह उसे बाखुशी चबाती रही।

लड़की ने कहा - 'यह तो मीठी हैं।'

लड़की को लगा कि लड़का उससे पूछेगा कि क्या तुम्हें भी प्रेम है? किस से?

लेकिन लड़के ने कुछ नहीं पूछा। वह बार-बार अपना गला खँखार रहा था। जैसे कड़वाहट उसके भीतर तक चली गई हो। न जाने क्यों लेकिन उसे लगा कि लड़के के मुँह में नीम की वह कड़वाहट अब तक घुली है।

लड़की उस कडवाहट के बारे में पूछना चाहती थी लेकिन उसने पूछा - 'तुम्हारे कितने बच्चे हैं?'

लड़के को लगा कि उसने जान-बूझकर शादी के बारे में नहीं पूछते हुए सीधे बच्चों के बारे में पूछा है। लड़के ने झिझकते हुए कहा - 'दो... एक बेटा एक बेटी... दोनों वहीं पढ़ते हैं।'

लड़की उसकी पत्नी के बारे में कुछ पूछना चाहती थी लेकिन क्या पूछे, यह सोचती रही फिर 'अच्छा' कहकर कुछ भी पूछने का विचार निरस्त कर दिया।

तब स्कूल में बच्चे कपड़े के झोले में अपना बस्ता लाते थे। लड़के के झोले पर उसकी माँ ने कढ़ाई के रेशमी धागों से बहुत सुंदर हिरण बनाया था। भूरे धागों से उसका शरीर, काले धागों से उसके सींग और पैर की टापें। हिरण की आँखों में दो मोती जड़े थे। हिरण इतना सजीव था कि उसकी तरफ देखते तो लगता कि वह अभी कुलाँचे मारते दौड़ पड़ेगा। उसकी आँखें झमझम हुआ करती। लड़की को वह हिरण बहुत पसंद था। लड़की उसके पेट पर हाथ घुमाती तो लगता असली हिरण का ही स्पर्श है। हिरण उसकी तरफ प्यार से देखने लगता। उसे भी हिरण बहुत भाने लगा था।

उसे हमेशा डर बना रहता कि कहीं यह हिरण किसी रात जंगल की तरफ लौट तो नहीं जाएगा। उसकी आँखों में खूब तेज दौड़ने का सपना वह देख चुकी थी। जमाने से उसकी होड़ थी। उसे आगे बढ़ने का जूनून था, वह हर दौड़ जीत लेना चाहता था। हर बाजी उसके हक़ में करना चाहता था। दौड़ के लिए वह सब कुछ छोड़ सकता था। लड़की को अब यह हमेशा लगता कि कहीं वह उसे छोड़कर तो नहीं चला जाएगा।

एक रात वह हिरण बस्ते के झोले से निकल गया और सजीव होकर लड़के की आत्मा में उतर गया। तब से अब तक लड़का उसी की तरह चौकड़ियाँ भरता रहता है। उसने लड़की को छोड़ा, घर छोड़ा, अपनी मिट्टी छोड़ी, गाँव छोड़ा, नाते-रिश्ते छोड़े और सुनने में तो यहाँ तक आता है कि उसने अपनी आत्मा तक छोड़ दी है।

तभी गुलाबी फ्राक पहनी हुई एक लड़की दौड़कर हाँफती हुई उसके पास आई और उसके गाल सहलाते हुए बोली - 'माँ देखो, मैं जंगल से कितनी गलतान खिरनियाँ लाई हूँ, तुम खाओगी। तुम्हें बहुत पसंद है न... खाओगी न माँ।'

लड़के ने कहा - 'तुम्हारी बेटी बड़ी क्यूट है।' आगे जोड़ना चाहता था 'तुम्हारी तरह' लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी वह हड़बड़ा गया।

लड़की प्रशंसा भाव से कभी बेटी की तरफ तो कभी लड़के की तरफ देखती रही।

उसी वक्त लड़के का मोबाइल बज उठा। उसने लड़की की ओर देखा, बायाँ हाथ हिलाकर विदा ली और दाएँ हाथ से मोबाइल को कान पर सटाए तेज कदमों से गली की ओर बढ़ गया। लड़की उसे गली में गुम होते हुए देखती रही।

© Manish Vaidya

रतिनाथ का पलंग: सुभाष पंत

◆रतिनाथ का पलंग ◆सुभाष पंत बावन साल की उमर में रतिनाथ की जिन्दगी में एक ऐसा दिन आया जब वह बेहद खुश था और अपने को दुनिया का सबसे सुखी प्राणी ...