"कह गये है काफ़िले, इस ओर को जाते हुए
तू जिधर से चल पड़ेगा,वो समझ रस्ता हुआ "
(ज्ञान प्रकाश विवेक)
यात्रा या घुमक्कड़ी सुनने समझने में एक जैसे लगते हैं लेकिन इन दोनों में एक बड़ा मूलभूत अंतर है जो घुमक्कड़ी को यात्रा से अलग कर देता है। वह मूलभूत अंतर है- योजना का..
यात्रा हमेशा एक योजना से शुरू होकर निश्चित समयानुसार पूर्ण हो जाती है। कहाँ जाना है, कैसे जाना है, कहाँ ठहरना है, किससे मिलना है ,क्या देखना है जैसे सवाल उस योजना का हिस्सा होते हैं लेकिन घुमक्कड़ी "जो होगा देखा जाएगा " के मूल मूल मंत्र पर आधारित होती है। किसी प्रकार की कोई योजना नहीं होती , बस किसी दिन बैग उठाया और निकल पड़े।
वैसे घुमक्कड़ी में भी कई बार मंजिल तय होती है । बस किसी तरह की योजना या रास्ते की तयशुदा तस्वीर नहीं होती। पगडंडियों से लेकर सवारी गाड़ी तक का इस्तेमाल करते हुए तय मंजिल पर पहुँच जाना ही ध्येय होता है। न ही रेल का आरक्षण न ही बस का ।किसी दूसरे हमसफ़र का साथ मिले या न मिले घुमक्कड़ निकल ही पड़ते हैं।
पिछले दिनों इसी तरह की घुमक्कड़ी वाली पूर्वोत्तर भारत यात्रा के दौरान कई पत्र पत्रिकाएँ और किताबों के बीच से गुजरने का मौका मिला। संयोग से मेरा फोन भी खो गया जिससे ध्यान भंग होने के अवसर ख़त्म हो गए और पढ़ने का उपक्रम निर्बाध चला । साथ मे जितनी पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं थीं, सब क्रमशः पढ़ ली गयीं। इसी क्रम में "नीरज चौधरी" की पुस्तक "हमसफर एवरेस्ट" के साथ अपनी यात्रा को जीवंत करने का मौका मिला। वैसे इस पुस्तक को पहली बार देखते ही इसे पढ़ने की ललक पैदा हो गई थी लेकिन मुम्बई की अपनी व्यस्तताओं में ये इच्छा बस ललक बनकर ही रह गयी।
पूर्वोत्तर की इस यात्रा ने आख़िरकार ये ख़्वाहिश पूरी कर दी। वैसे "नीरज चौधरी" किताबों के ऊपर अपना उपनाम "नीरज मुसाफिर " प्रकाशक से लिखवा लेते हैं। इसका कारण भी है, उनकी बेहतरीन मुसाफिरी। "लद्दाख" आदि जगहों की मुसाफिरी साइकिल से कर लेने का रिकॉर्ड भी अपने नाम कर चुके हैं नीरज ।
यह पुस्तक भी इसी मुसाफिरी का बेहतरीन विवरण है। जैसा कि नाम से ही आभास हो जाता है कि यह एवरेस्ट पर्वत श्रृंखला से ही संबंधित होगी और इत्तफ़ाक़ से यह सत्य भी है। ये किताब "एवरेस्ट बेस कैंप" तक की यात्रा का विवरण है ।
दुनिया के सभी पर्वतारोहियों का स्वप्न होता है एवरेस्ट फ़तह और सभी ट्रैकरो का लक्ष्य होता है एवरेस्ट बेस कैंप तक पहुँचना।
नीरज भी एक ट्रैकर हैं तो इनका भी लक्ष्य रहा बेस कैंप तक जाना।
इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए यात्रा की एक निश्चित योजना बनाते हैं जो आगे चलकर घुमक्कड़ी में तब्दील हो जाती है और अपने आख़िरी दौर में फिर यात्रा बन जाती है।
पेशे से इंजीनियर होने के कारण एंड्रायड फोन/जी पी एस और गूगल बाबा का बेहतरीन उपयोग करते हुए कुल 27 दिन की इस यात्रा का आरंभ चार लोगों के साथ होता है, जिसमें स्वयं नीरज(मुसाफिर) दीप्ति(सहधर्मिणी) मोटरसाइकिल (सहचारिणी)और देवेंद्र कोठारी (हमसफ़र) शामिल हैं।
कुल 7 दिनों तक मोटरसाइकिल की यात्रा करने के बाद (या यूँ कहें कि जहाँ तक वो जा सकती थी) उसका साथ छूट जाता है। 11वे दिन कोठारी साहब भी साथ छोड़ देते हैं। वैसे तो किताब पढ़ते हुए पता चलता है कि श्री कोठारी बहुत हिम्मती और दृढ़ निश्चयी थे ,फिर भी उनका बीच रास्ते से लौटना हजम नहीं होता (कभी मिलेंगे तो जरुर पूछेंगे)।
सफर के दौरान हमसफ़र का साथ छूटना मानसिक रूप से बहुत कमजोर कर देता है, फिर भी नीरज और दीप्ति पूरी हिम्मत और तल्लीनता से अपनी यात्रा को जारी रखते हैं । ज़्यादातर यात्रा संस्मरणों में लेखक ऐतिहासिक बातों या घटनाओ का हवाला देते हैं जिससे कभी-कभी तो रोचकता बढ़ जाती है पर कभी-कभी इनकी अधिकता ऊब पैदा कर जाती है। इस पुस्तक में नीरज ने ऐतिहासिक तथ्यों को बिल्कुल स्थान नही दिया है। चाहते तो इन स्थानों के बारे में अपने ज्ञान का भव्य प्रदर्शन करते हुए एक एक पृष्ठ का विवरण ठूँस देते लेकिन किताब पढ़ने का रस फिर भंग हो जाता। ये लेखक का संयम और उसकी ताकत है कि पूरी किताब में पाठकीय रस कभी भी कम नहीं होने पाता।
पूरी किताब प्रातः जगने से शुरू होकर बिस्तर में पहुँचने तक के बीच की घटनाओं का सिलसिलेवार विवरण है। जो देखा, जो अनुभव हुआ वही बिना लाग-लपेट के लिख दिया।
क्या खाया? क्या खरीदा? कितने का खरीदा? कहाँ विश्राम किया ?सब जस का तस लिख दिया।
यात्रा के दौरान बड़े मजेदार अनुभव भी मिलते हैं । जैसे खच्चर वाली ट्रेनों के बारे में, प्रथम एवरेस्ट विजेता एडमंड हिलेरी द्वारा बनाये स्कूल , भोजपत्र के वृक्षों बारे में, पहाड़ों में रहने वालों के व्यवहार के बारे में पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे हम प्रत्यक्ष वहाँ की यात्रा कर रहे हैं । इस पुस्तक की एक बड़ी खास बात यह है कि यदि आप एवरेस्ट बेस कैम्प न जाकर किसी अन्य दुर्गम स्थान पर भी जाना चाहते हैं तो भी पगडंडियों से लेकर होटल तक का उल्लेख मिल जाएगा। एक पथ प्रदर्शक की तरह यह किताब ठहरने और खाने-पीने के सामानों से लेकर एक बाल्टी गर्म पानी तक का मूल्य बता देती है।
इस किताब को पढ़ते हुए पहली बार यह पता चलता है कि एवरेस्ट मैराथन भी होता है । ये नीरज का सौभाग्य है कि वे उसके प्रत्यक्ष गवाह बने हैं।
नए/पुराने ट्रैकरों के लिए ढेर सारी बातें/ सूचनाएँ भी इस किताब में शामिल है जैसे ऊँचे पहाड़ों पर कैसी कैसी कठिनाई आती है और उससे बचने के रास्ते क्या क्या हैं..
अपनी यात्रा के दौरान कई बार इन लोगों ने भी वापस लौट आने का मन बनाया लेकिन रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन फिर से अपनी मंजिल की ओर चल पड़े । इसी तरह इन बाधाओं को पार करते हुए अंततः वे बेस कैंप पहुँच ही जाते हैं।
इस पुस्तक में नीरज ने बड़ी ईमानदारी से लिखा है कि इन 27 दिनों की यात्रा के दौरान एक बार भी एवरेस्ट का दर्शन नहीं कर पाए जबकि वे बेस कैंप तक पहुंच चुके होते हैं।
तो क्या कारण था? वह कौन सी परिस्थिति थी? जिसके कारण इतना करीब होकर भी एवरेस्ट की चोटी नहीं देख पाए ?
4000 मीटर पर स्थित झीलों का क्या आकर्षण होता है?
शून्य से भी नीचे के तापमान पर भी अपने को बचाते हुए कैसे फोटोग्राफी की जाती है? ये सब जानने के लिए एक बार इस पुस्तक को अवश्य पढ़ें और विशेष रूप से दीप्ति को उनकी हिम्मत के लिए बधाई अवश्य दें। जब 4000 मीटर पर उनके दिमाग ने काम करना बंद कर दिया (अत्यधिक ऊंचाई पर पर्वतीय बीमारियाँ अपने प्रभाव का एहसास करा देती हैं ) उसके बाद उन्होंने नीरज का साथ नही छोड़ा।
इस दंपति को उनके साहस और सफल यात्रा के लिए बधाई एवं शुभकामनाएं!!
" कभी-कभी पहाड़ों पर जाना जरूरी है, अपनी अक्षमताओं से तो वहाँ परिचय होता ही है, अपनी सीमाओं को स्वीकारने की दृष्टि भी बनती है"**** कुमार रविंद्र
पुस्तक-हमसफ़र एवरेस्ट
लेखक-नीरज मुसाफिर
प्रकाशक-हिंदी युग्म
मूल्य-150
पृष्ठ-220
सादर
रामकुमार
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