जग की संध्या घिर आयी है
मेरे आँगन में दोपहरी
कैसे दीप जलाऊँ
ममता से भीगे पर लेकर
पंछी घर को लौट चले हैं
देहरियों पर सुहागिनों के
नयनों के शत दीप जले हैं
भटकी सुधियाँ घर आई हैं
सूनी फिर भी मेरी नगरी
मैं कैसे मुस्काऊँ
गद्गद कंठों से पूजा के
मंगलमय पद फूट पड़े हैं
तुलसी माँ के आगे कितने
मेहँदी वाले हाथ जुड़े हैं
मेरी आँखें भर आयी हैं
लेकर कैसी साध सुनहरी
मैं आँचल फैलाऊँ
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अपना सीमित सा प्रकाश ले
दीपशिखा जलती है निशि भर
फिर भी मोहित है जग सारा
क्षण भंगुर विद्युत की छवि पर
मेघों का दिल चीर चीर कर
मुस्काना उसको आता है
झलक पलक भर दिखा गगन को
तड़पाना उसको आता है
शून्य लोक में छिप छिप जाती
खोज खोज रह जाता अम्बर
फिर भी मोहित है जग सारा
क्षण भंगुर विद्युत की छवि पर
नन्हे ये दीपक में लघु सा
स्नेह लिए जलते ही जाना
राख बना अपने प्राणों को
पथ भूलों को राह दिखाना
जीवन दान किया तो वह भी
पवन झकोरों से डर डर कर
अपना सीमित सा प्रकाश ले
दीपशिखा जलती है निशि भर।
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