रविवार, 24 नवंबर 2019

जीतेन्द्र पांडेय : वशिष्ठ नारायण सिंह

*बाबू वशिष्ठ नारायण सिंह के बहाने*

महान गणितज्ञ प्रो. वशिष्ठ नारायण सिंह का जाना  राष्ट्रीय क्षति है । संभवतः इसे जनता और ऊँचे पदों पर बैठे हुक्मरान न समझें । विराट मेधा के धनी वशिष्ठ जी जोड़-तोड़ और जुगाड़ की राजनीति से परे थे । उनकी दुनिया छल-छद्म से विलग निहायत सादगी भरी थी । उनका जाना राजधर्म पर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है साथ ही हम सभी को अपने-अपने गिरेबान में झाँकने को मजबूर कर देता है ।
        नासा जैसे प्रतिष्ठित अमेरिकी संस्थान में अपनी सेवाएँ देने वाले वशिष्ठ बाबू अप्रवासी भारतीयों की भी जिम्मेदारी थे । उनका कर्तव्य बनता था कि वे भारतीय सरकार पर दबाव डालकर इस वैश्विक रत्न का जीवन बचा लेते । आज भी प्रतिभा संपन्न अनेकों हस्तियां विदेशी सुख-सुविधा को ठोकर मारकर अपने देश की सेवा करना चाह रही होंगी । उनकी भी सुध रखना अप्रवासी भारतीयों का नैतिक दायित्व बनता है ।
         अब आइए, सरकारों की बात करते हैं । इलाज और सुविधा के अभाव में प्रो. वशिष्ठ नारायण सिंह जैसी शख़्सियत की मौत वर्तमान सरकार के गाल पर जोरदार थप्पड़ है । फिल्मी सितारों के स्वास्थ्य की चिंता करने वाली सरकारें अपने रीयल हीरो को गुमनामी में जीने के लिए छोड़ देती हैं । दुनिया के साथ कदमताल करने की हड़बड़ी में वे भूल जाती हैं कि उन्हें भी अपने देश की बौद्धिक विरासत का पालन-पोषण और संरक्षण करना होता है । इस संदर्भ में अमेरिका के महान गणितज्ञ जॉन नैश का नाम लेना प्रासंगिक है । उन्हें भी बाबू वशिष्ठ वाली बीमारी हुई थी जिसे सिजोफ्रेनिया के नाम से जाना जाता है । अमेरिका ने अपने इस बौद्धिक टैंक के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन किया । नौ वर्षों तक जॉन नैश अस्पताल में रहे । स्वस्थ होकर उन्होंने पुनः गणित में शोध कार्य प्रारंभ किया । वर्ष 1994 में गणित के क्षेत्र में 'गेम थ्योरी' के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला । एक हमारी सरकार है जो जंगल-पहाड़ काटकर शहरों को संघाई बनाना चाहती है । थिंकर टैंक उन्हें ही अधिकृत किया जाता है जो जुगाड़ में दक्ष और विशेष विचारधारा से संबंध रखते हैं । यह अलग बात है कि ऐसे विचारक सरकार बदलते ही अपनी विचारधारा बदल देते हैं । बाबू वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे अनगिनत गणितज्ञ और वैज्ञानिक दम तोड़ रहे हैं किंतु इस देश में वही फल-फूल और फैल रहा है जो प्रभावशाली और जुगाड़ू है । उसी में भारत की समृद्ध परंपरा और विरासत बसती है । वही हमारे मूल्यों और संस्कृति का संवाहक है, भले ही उसका व्यक्तिगत जीवन विवादास्पद हो ।
             वशिष्ठ जी की ज़िल्लत भरी जिंदगी की सबसे बड़ी गुनाहगार बिहार और देश की जनता भी है । यह वही जनता है जिनके रहमोकरम पर जेलों में कैद खतरनाक अपराधी चुनाव जीत जाते हैं । ये मंदिर-मसजिद के नाम पर कटते-मरते हैं और आरक्षण को लेकर चक्का जाम कर देते हैं । कहा जाता है 'ये पब्लिक है, सब जानती है' , तो ऐसा क्या हुआ कि इसने उनको भुला दिया जिन्होंने कभी अल्बर्ट  आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत को चुनौती दी थी ? अपोलो स्पेस सेटेलाइट लॉन्चिंग मिशन के नायक को सब कुछ जानने वाली जनता ने विस्मृत क्यों कर दिया ? चाहती तो अपने इस सरस्वती पुत्र के समुचित इलाज के लिए सरकार को घुटनों के बल ला देती लेकिन यह ऐसा क्यों करने लगी ? अपने पीठ पर वोटों की फसल ढोने वाली जनता जनार्दन तो व्यक्तिगत स्वार्थ को पहले और सामूहिक हित बाद में रखती है । चंद सिक्कों के लिए अपना ईमान बेचने वालों को वशिष्ठ नारायण से क्या लेना-देना ? 
              सेलिब्रिटीज की खाँसी-बुखार को राष्ट्रीय हलचल बना देने वाली मीडिया ने इस महान गणितज्ञ के मामले में हस्तक्षेप करना उचित नहीं समझा । उनके लिए यह मसालेदार खबर नहीं थी जो टीआरपी बढ़ा दे । भला हो, सोशल मीडिया का जिसमें बाबू वशिष्ठ नारायण सिंह के मृत्यु की खबर आग की तरह फैली । देखते-ही-देखते शासन-प्रशासन दंड बैठक करने लगे  । सबकी सदिच्छाएँ उमड़ने लगीं । मीडिया ने भी इस खबर को हाथों-हाथ लिया । दर्ज़नों लेख लिखे जाने लगे (यह लेख भी अपवाद नहीं) । निहितार्थ यह 'का वर्षा जब कृषि सुखाने' । 
             यह दुर्भाग्य है कि हमने अपने समय का आर्यभट्ट खो दिया । इससे भी दुःखद यह कि आज हमारे देश में न जाने कितने आइंस्टाइन, चाणक्य, रामानुजन, रवींद्रनाथ टैगोर, सी.वी. रमन जैसी प्रतिभाएं अभावग्रस्त जीवन जीने के लिए अभिशप्त हैं । आखिर, उनके भरण-पोषण और संरक्षण की जिम्मेदारी कौन निभाएगा ! उम्मीद है उन्हें भी देश के नागरिक सम्मान देंगे । राष्ट्र उनकी सेवाओं से विश्वगुरु की ओर कदम बढ़ाएगा । बिना खुशामद और बिना कूटनीति के वे भी चर्चा के केंद्र में रहेंगे । उनकी सादगी की तपिश से सारे षड्यंत्र गल जाएंगे । उनकी ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठा और देशसेवा सर्वोपरि होगी । बाबू वशिष्ठ नारायण सिंह के बहाने यदि ऐसा कुछ होता है तो देश अधिक समर्थ और प्रतिभा संपन्न होगा ।

- डॉ. जीतेन्द्र पाण्डेय

शनिवार, 23 नवंबर 2019

साँकल, सपने और सवाल ( नवनीत में स्वीकृत )

सामाजिक संरचना की साँकलों का इतिहास बहुत पुराना है। मनु स्मृति के एक विवादास्पद श्लोक में स्त्रियों की स्वतंत्रता के विषय में जो सलाह दी गयी थी वह आज भले ही पूरी तरह अप्रासंगिक हो चली हो किन्तु उसका प्रभाव मानव समाज के तमाम तबकों में अब भी मौजूद है। हाँ ये अवश्य माना जा सकता है कि पिछले डेढ़ दशकों में ये साँकलें ढीली अवश्य पड़ी हैं। आर्थिक आत्मनिर्भरता स्त्री सशक्तिकरण का एक अत्यंत आवश्यक हथियार है। हमारी सामाजिक संरचना इसमें भी बाधा पहुँचाती है। विवाह के बाद बहुत सी स्त्रियों को नौकरी और व्यवसाय से दूरी बनाकर घर, परिवार और गृहस्थी को पूरा वक़्त देना पड़ता है। ऐसी स्थिति में आर्थिक रूप से उसे पुनः पराश्रित होना पड़ता है।

'साँकल, सपने और सवाल' प्रतिष्ठित रचनाकार, विचारक और स्त्रियों की सशक्त पक्षधर सुधा अरोड़ा के चुनिन्दा आलेखों का महत्वपूर्ण संचयन है।

'कम से एक दरवाजा' शीर्षक आलेख में पिछले दिनों घटी आत्महत्या की कुछ विक्षुब्ध करने वाली घटनाओं की विवेचना करते हुए सुधा अरोड़ा सिद्ध करती हैं कि बहुत बार ऐसा होता है कि लोग अवसाद के कठिन क्षणों से जूझ रहे होते हैं किंतु उनके चेहरे और आचरण में यह हरगिज़ नज़र नहीं आता। अवसाद के इन चिह्नों को जब तक वे या उनके परिजन पहचानें तब तक बहुत विलंब हो चुका होता है।

इस किताब के सात खण्डों में समाहित कुल छब्बीस आलेख विविध विषयों की सार्थक पड़ताल करते हैं। सरल, सहज भाषा में लिखे गए ये आलेख रोचक एवं पठनीय तो हैं ही, पाठक को कहीं गहरे तक उद्वेलित भी करते हैं।

प्रेम में निरन्तर आती प्रतिहिंसा की भावना और एसिड अटैक की बढ़ती घटनाएँ, समलैंगिक एवं थर्ड जेंडर: सहानुभूति के साथ स्वीकृति की ज़रूरत, भारतीय समाज में स्त्री की देह मुक्ति के सही मायने, धर्म के शिकंजे में स्त्रियों को फँसाए रखने की परंपरा, स्त्री शक्ति की भूमिका, स्त्री हिंसा के ढेरों दृश्य-अदृश्य कोने: जहाँ हिंसा के निशान प्रत्यक्ष नहीं दिखते, स्त्री की दैहिक शुचिता और विवाह की अवधारणा, स्त्री और संपत्ति अधिकार, स्त्री विमर्श के नाम पर साहित्य में फैला प्रदूषण, लेखक और कलाकार के मुखौटे ओढ़े लम्पट लोग, अंगारों भरी डगर पर नंगे पाँव चलने के लिए बाध्य कलाकारों की पत्नियाँ, महिलाओं के जीवन में धर्म का ख़लल और कुरान की नारीवादी व्याख्या, जैसे अत्यंत गंभीर, समसामयिक एवं ज्वलंत सामाजिक विषयों पर केन्द्रित ये आलेख इनमें वर्णित विसंगतियों की सटीक विवेचना के साथ ही निराकरण की तार्किक संभावनाओं एवं रास्तों के बारे में बताते हैं।

सुधा अरोड़ा कथनी और करनी के स्तर पर दोहरे चरित्र वाले राजेन्द्र यादव जैसे सम्पादकों को भी कठघरे में लेने से नहीं चूकतीं और उनके क्षद्म महिला विमर्श पर शालीन किन्तु तीक्ष्ण प्रहार करती हैं। इस विषय पर लिखते हुए उनकी लेखिका पत्नी मन्नू भंडारी के प्रति राजेन्द्र यादव के ग़लत रवैये के साथ ही प्रेमचंद द्वारा स्थापित 'हंस' जैसे प्रतिष्ठित नाम के साथ किये जा रहे खिलवाड़ पर भी आपत्ति दर्ज करती हैं। 
सुधा अरोड़ा पारिवारिक विघटन के विश्वव्यापी चिन्ता जनक परिदृश्य के बावजूद आशान्वित हैं कि भारत में बड़े महानगरों में चाहे जैसे तनाव हों किन्तु समाधान की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

किताब के अंतिम अध्याय 'औरत की दुनिया बनाम दुनिया की औरत' में शामिल लेख 'तीन इंच के स्वर्ण फूल' चीन की एक यातनादायक प्रथा का मार्मिक वर्णन है। हम सुनते आए थे कि चीनी देश की औरतों के पाँव भी उनकी आँखों की ही तरह छोटे होते हैं। दरअसल पाँवों का यह छोटापन प्राकृतिक नहीं था। कुछ अमानवीय तरीकों से पाँवों को बढ़ने से रोक दिया जाता था।

गुरुवार, 21 नवंबर 2019

धर्मवीर भारती

माखनलाल चतुर्वेदी जी ने धर्मवीर भारती के किसी आरंभिक कहानी संग्रह की भूमिका में लिखा था कि "भारती घास की कलम से नहीं, साँस की कलम से लिखते हैं।"
जब आप धर्मवीर भारती के समग्र लेखन पर नज़र डालते हैं तो उनके लिए कही गई माखन दादा की ये पंक्तियाँ पूर्णतया प्रासंगिक लगने लगती हैं। धर्मवीर भारती की बहुआयामी रचनात्मकता के इतने छोर हैं कि यदि उनके समग्र लेखन का अवलोकन करने बैठें तो सहसा विश्वास ही नहीं होता कि किसी एक व्यक्ति के लिये अपने जीवन काल में इतना सब कर पाना कैसे सम्भव हो सकता है वह भी तब जबकि उसके जीवन के अधिकांश सक्रिय वर्ष एक पत्रिका के सम्पादन की भेंट चढ़ गए हों! धर्मवीर भारती का उदात्त रचनाकर्म उन्हें काल और विधा की सीमाओं से ऊपर एक ऐसे मकाम पर ले जाता है जहाँ पहुँचने का स्वप्न हर रचनाकार देखता है।

'गुनाहों का देवता' भारती जी की सबसे चर्चित रचना है। यह उपन्यास जितना सकारात्मक कारणों से चर्चित रहा उतना ही विवादों के कारण। कुछ विद्वानों द्वारा सिरे से खारिज़ किये जाने के बावजूद अब तक हुए सौ से अधिक संस्करण इस उपन्यास की सर्वकालिक लोकप्रियता की कहानी खुद कहते हैं और कुछेक नकारात्मक प्रतिक्रियाओं के बावजूद यह किताब आज भी सबसे ज़्यादा बिकने वाली चार पाँच शीर्ष साहित्यिक किताबों में शामिल है। प्रौढ़ावस्था की दहलीज पर खड़े तमाम पाठक स्वीकार करते हैं कि ये किताब किशोरावस्था के दिनों में  सदैव उनके सिरहाने रहा करती थी। रहा भारती जी का पक्ष तो अपने पहले उपन्यास की अपरिपक्वता और कमजोरियों को उन्होंने 'गुनाहों का देवता' के आरम्भ में स्वयं स्वीकार किया है।

भारती जी के इस उपन्यास के ठीक विपरीत धरातल पर खड़ा है उनका दूसरा और अंतिम उपन्यास-- 'सूरज का सातवाँ घोड़ा।' हिन्दी साहित्य में प्रयोगात्मक स्तर पर जो उपन्यास लिखे गए हैं उनमें सबसे पहले 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' की चर्चा होती है क्योंकि भारती जी ने इस उपन्यास के कहन हेतु सर्वथा नए किस्म की भावभूमि और अनूठे शिल्प का सृजन किया था।
इस उपन्यास में निम्न मध्यवर्ग के जीवन, आर्थिक संघर्ष और नैतिक उथलपुथल आदि का सटीक और प्रभावी चित्रण हुआ है। धर्मवीर भारती के इस उपन्यास पर कई दशकों बाद श्याम बेनेगल द्वारा बनाई गयी फ़िल्म भी बहुचर्चित रही। 
इस उपन्यास का समापन अंश उल्लेखनीय है। भारती जी जिस उदात्त जीवन दर्शन के लिए जाने जाते हैं, उसे यहाँ स्पष्ट देखा जा सकता है---
" कोई न कोई ऐसी चीज है जिसने हमें हमेशा अँधेरा चीरकर आगे बढ़ने, समाज व्यवस्था को बदलने और मानवता के सहज मूल्यों को पुनः स्थापित करने की ताकत और प्रेरणा दी है। चाहे उसे आत्मा कह लो, चाहे कुछ और। विश्वास, साहस, सत्य के प्रति निष्ठा, उस प्रकाशवाही आत्मा को उसी तरह आगे ले चलते हैं जैसे सात घोड़े सूर्य को आगे बढ़ा ले चलते हैं।"


छठवें दशक में धर्मयुग के सम्पादक का निमंत्रण आने तक उनके खाते में कई कहानी संग्रह, काव्य नाटक 'अंधा युग' और खण्डकाव्य 'कनुप्रिया' सहित कई चर्चित कविता संग्रह उनके खाते में दर्ज हो चुके थे। महाभारत के अन्तिम दिन की घटनाओं पर आधारित 'अंधायुग' को यदि हम गहन वैचारिकता और मानवीय मूल्यों की दृष्टि से देखें तो संभवतः यह उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना है। सामान्य पाठकों के साथ ही साहित्य जगत के तमाम आलोचकों और विद्वानों ने इसे सराहा है।
अंधायुग की भूमिका आकार में छोटी किन्तु उतनी ही मानीखेज़ है। यहीं पर अंधायुग की रचना प्रक्रिया के बारे में बताते हुए भारती जी लिखते हैं-- " एक स्थल पर आकर मन का डर छूट गया था। कुण्ठा, निराशा, रक्तपात, प्रतिशोध, विकृति, कुरूपता, अंधापन -- इनसे क्या हिचकिचाना! इन्हीं में तो सत्य के दुर्लभ कण छिपे हुए हैं, तो इनमें क्यों न निडर धँसूँ! हम न मरैं, मरिहैं संसारा!
अगली ही पंक्ति में वे इस विचार के प्रतिपक्ष में खड़े दिखते हैं-- " पर नहीं, संसार भी क्यों मरे? एक धरातल ऐसा भी है जब 'निजी' और 'व्यापक' का बाह्य अन्तर मिट जाता है।"
समष्टि के प्रति उनका यह चिंतन और प्रतिबद्धता ही 'अंधायुग' का मूल स्वर है। हालाँकि इसे लिखने के बाद भी धर्मवीर भारती की रचनात्मक छटपटाहट शान्त नहीं हुई। अंततः 'कनुप्रिया' के अंतिम अंशों में वे इस अधूरेपन का अंत 
करते हैं। 'कनुप्रिया' सामान्यतः कृष्ण और राधा के प्रणय प्रसंगों पर आधारित लम्बी कविता मानी जाती है किन्तु मादकता और सुख-दुःख की सरल मार्मिक अभिव्यक्ति के समानान्तर एक ऐसी धारा भी इस किताब में प्रवहमान है जिसके केंद्र में समष्टि के लिए चिन्ता, मनुष्यता के प्रति गहन आस्था और सहानुभूति है। युद्ध के औचित्य/अनौचित्य और इस विभीषिका में कृष्ण की भूमिका पर राधा द्वारा किये गए प्रश्न इस काव्य कृति को माँसलता और मादकता से परे एक अलग धरातल पर ले जाते हैं।


धर्मवीर भारती की कुछ रचनाओं की अपार प्रसिद्धि के कारण ज्यादातर समय चर्चा के केन्द्र में वही रचनाएँ रहीं और इसी कारणवश उनकी कुछ श्रेष्ठ रचनाओं पर सम्यक परिचर्चा न हो सकी। बतौर उदाहरण सबसे पहले उनकी कहानियाँ याद आती हैं। 'गुलकी बन्नो' का शुमार निस्संदेह हिन्दी की श्रेष्ठतम कहानियों में होता रहा है और लगभग हर प्रतिनिधि कहानी संग्रह में ये शामिल होती रही किन्तु 'बंद गली का आख़िरी' जैसी कई कहानियाँ उनके विशिष्ट प्रशंसकों और पाठकों तक ही सीमित रह गईं। साथ ही आरम्भिक कहानी संग्रह भी बरसों अनुपलब्ध रहे। भारती जी की मृत्यु के बाद पुष्पा भारती जी ने उनकी समस्त कहानियों को एकत्र कर उनकी सम्पूर्ण कहानियों का एक संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कराया।

1960 में भारती जी टाइम्स समूह के आमंत्रण को स्वीकार कर मुम्बई आये और यहीं से धर्मयुग के सम्पादक के रूप में एक नई और युगांतरकारी भूमिका का सूत्रपात हुआ। उनके कुशल नेतृत्व में धर्मयुग ने सर्वथा नई ऊँचाइयों को छुआ और फिर एक समय ऐसा भी आया जब इस पत्रिका की बिक्री ने लाखों प्रतियों की संख्या पार कर ली। सत्तर और अस्सी के दशक के अनेक महत्वपूर्ण लेखकों, कवियों और शायरों को उनके आरंभिक दिनों में भारती जी का स्नेह और प्रोत्साहन मिला। धर्मयुग की गुणवत्ता और पूरे देश में उसकी पहुँच का ये आलम था कि इस पत्रिका में छपते ही कोई भी नवोदित रचनाकार रातों रात एक चर्चित नाम बन जाया करता था।
आज हमारे समय के कई प्रतिष्ठित लेखक धर्मयुग में प्रकाशित अपनी रचनाओं के कारण ही जाने गए। टाइम्स समूह से लम्बे अरसे तक जुड़े रहे और इन दिनों नवनीत पत्रिका के यशस्वी सम्पादक के रूप में कार्यरत विश्वनाथ सचदेव जी ने किसी वार्तालाप में एक आवश्यक संयोग की तरफ ध्यान दिलाया कि धर्मवीर भारती के समय धर्मयुग में अपने पत्रकारिता कैरियर की शुरुआत करने वाले ज्यादातर पत्रकार आगे जाकर बड़े सम्पादक बने। इस पत्रिका ने उनके संपादकत्व में ऐसे कई कीर्तिमान बनाये हैं जिनके आसपास क्या, बहुत दूर दूर तक कभी कोई अन्य पत्रिका न पहुँच सकी। उस समय के पाठक बताते हैं कि पत्रिका का कोई भी नया अंक ज्यों ही घर पहुँचता था , सारे सदस्यों में छीना झपटी मच जाती थी। इन संस्मरणों के आधार पर जब पाठकों से कुछ प्रश्न किये गए तो लोगों ने बताया कि धर्मयुग मात्र साहित्यिक पत्रिका नहीं थी। इसमें फ़िल्म और क्रिकेट जैसे लोकप्रिय विषयों पर भी चुनिन्दा सामग्री होती थी और यही कारण था कि हर आयु वर्ग के पाठक इसके दीवाने थे।

तनावपूर्ण और कठिन जिम्मेदारियों वाली इस भूमिका में भारती जी के लेखन पर असर पड़ना ही था। उनके सक्रिय जीवन की लगभग एक चौथाई सदी ऐसी गुज़री जब किसी कविता संग्रह, नाटक या उपन्यास का सृजन उनकी कलम से न हो सका। हालाँकि यह मान लेना भी नितान्त अनुचित है कि इन वर्षों में भारती जी की लेखनी पूरी तरह थम गई थी। इस अवधि में उन्होंने देश विदेश की जितनी महत्वपूर्ण यात्राएँ की, उन यात्राओं के संस्मरण का एक बेहतरीन संग्रह वाणी प्रकाशन से 'यात्रा चक्र' नाम से प्रकाशित हुआ। साहित्य, कला और संस्कृति को समर्पित विभिन्न हस्ताक्षरों पर केन्द्रित 'कुछ चेहरे कुछ चिन्तन' पढ़कर उनके प्रौढ़, परिपक्व और सरस लेखन का सहज अनुभव किया जा सकता है। उन दिनों धर्मयुग में उनका एक नियमित स्तम्भ होता था- 'शब्दिता'। पत्रिका के पुराने पाठक आज भी बताते हैं कि अंक हाथ में आते ही सबसे पहले वे भारती जी का यह स्तम्भ पढ़ते थे और फिर कहानियों या धारावाहिक उपन्यासों का रुख करते थे। देश , विदेश की किसी भी विशिष्ट किताब, शहर या लेखक पर केन्द्रित उनके इन आलेखों को पढ़कर कई पीढ़ियाँ समृद्ध हुई हैं। इन समस्त आलेखों का संग्रह कालांतर में वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'शब्दिता' में हुआ।

धर्मवीर भारती की संगिनी पुष्पा भारती जी उन्हें याद करते हुए बड़े अनुराग से बताती हैं कि " मैं भारती जी से प्रायः ये शिकायत किया करती थी कि धर्मयुग के रूप में अच्छी सौतन आपने मेरे सिर बाँध दी है जिससे निस्तार नहीं।" इन चुलबुली स्मृतियों के साथ ही वे पूरी गंभीरता से यह भी बताती हैं कि अनेक सहायक संपादकों और स्वयं पुष्पा जी द्वारा स्वीकृत होने के बाद भी हर कहानी भारती जी की नज़रों से गुजरने के बाद ही प्रकाशित होती थी। संभवतः उनकी यही ज़िद, लगन और प्रतिबद्धता थी जिसने एक पत्रिका को शिखर पर पहुँचाया। पुष्पा भारती जी का ये कहना कि " धर्मयुग को उनकी तमाम बहुचर्चित रचनाओं के समानांतर रखा जाना चाहिए। सबसे ज़्यादा समय लेने वाला धर्मयुग भी उनकी महत्वपूर्ण और कालजयी रचना है" पूरी तरह अर्थवान प्रतीत होता है।
धर्मयुग के सम्पादन के दौरान बीते पच्चीस तीस वर्षों के कालखण्ड में भारती जी का कोई कविता संग्रह भले ही न आया हो किन्तु ऐसा भी नहीं था कि उन्होंने इन बरसों में कविताएँ बिल्कुल नहीं लिखीं। छिटपुट ही सही किन्तु कविताएँ लिखी जाती रहीं और धर्मयुग से सेवानिवृत्त होने के बाद उनकी इन अप्रकाशित कविताओं का एक यादगार संग्रह वाणी प्रकाशन से आया जिसका नाम था- 'सपना अभी भी'। स्मृति शेष होने से पूर्व यही उनका अन्तिम प्रकाशित कविता संग्रह रहा जिसे प्रतिष्ठित व्यास सम्मान भी प्राप्त हुआ था।

धर्मवीर भारती स्वयं हिन्दी के रचनाकार थे किंतु अन्य भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य पर भी सदैव नज़र रखते थे। बांग्ला सहित अन्य भाषाओं की अनेक बेहतरीन रचनाओं के अनुवाद धर्मयुग में लगातार छपते थे। विमल मित्र के कई बाँग्ला उपन्यास धर्मयुग में प्रकाशित होने के कारण हिन्दी पाठकों तक पहुँच सके और धीरे धीरे हिन्दी के पाठकों ने उन्हें जैसे इसी भाषा का लेखक मान लिया। बांग्ला देश मुक्ति संग्राम के समय धर्मवीर भारती ने इस देश का दौरा किया और एक प्रभावी रचनाकार की हैसियत से बांग्लादेश के नागरिकों के लिए हरसंभव प्रयास करते रहे। वे न सिर्फ़ एक बड़े लेखक बल्कि एक स्वप्नदृष्टा एवं सजग, सचेत विचारक भी थे। उनका साहित्यिक और सांस्कृतिक अवदान इतना बड़ा है कि समकालीन रचनाधर्मिता की हर परिचर्चा उनके ज़िक़्र के बगैर अधूरी रहेगी।

रतिनाथ का पलंग: सुभाष पंत

◆रतिनाथ का पलंग ◆सुभाष पंत बावन साल की उमर में रतिनाथ की जिन्दगी में एक ऐसा दिन आया जब वह बेहद खुश था और अपने को दुनिया का सबसे सुखी प्राणी ...