सामाजिक संरचना की साँकलों का इतिहास बहुत पुराना है। मनु स्मृति के एक विवादास्पद श्लोक में स्त्रियों की स्वतंत्रता के विषय में जो सलाह दी गयी थी वह आज भले ही पूरी तरह अप्रासंगिक हो चली हो किन्तु उसका प्रभाव मानव समाज के तमाम तबकों में अब भी मौजूद है। हाँ ये अवश्य माना जा सकता है कि पिछले डेढ़ दशकों में ये साँकलें ढीली अवश्य पड़ी हैं। आर्थिक आत्मनिर्भरता स्त्री सशक्तिकरण का एक अत्यंत आवश्यक हथियार है। हमारी सामाजिक संरचना इसमें भी बाधा पहुँचाती है। विवाह के बाद बहुत सी स्त्रियों को नौकरी और व्यवसाय से दूरी बनाकर घर, परिवार और गृहस्थी को पूरा वक़्त देना पड़ता है। ऐसी स्थिति में आर्थिक रूप से उसे पुनः पराश्रित होना पड़ता है।
'साँकल, सपने और सवाल' प्रतिष्ठित रचनाकार, विचारक और स्त्रियों की सशक्त पक्षधर सुधा अरोड़ा के चुनिन्दा आलेखों का महत्वपूर्ण संचयन है।
'कम से एक दरवाजा' शीर्षक आलेख में पिछले दिनों घटी आत्महत्या की कुछ विक्षुब्ध करने वाली घटनाओं की विवेचना करते हुए सुधा अरोड़ा सिद्ध करती हैं कि बहुत बार ऐसा होता है कि लोग अवसाद के कठिन क्षणों से जूझ रहे होते हैं किंतु उनके चेहरे और आचरण में यह हरगिज़ नज़र नहीं आता। अवसाद के इन चिह्नों को जब तक वे या उनके परिजन पहचानें तब तक बहुत विलंब हो चुका होता है।
इस किताब के सात खण्डों में समाहित कुल छब्बीस आलेख विविध विषयों की सार्थक पड़ताल करते हैं। सरल, सहज भाषा में लिखे गए ये आलेख रोचक एवं पठनीय तो हैं ही, पाठक को कहीं गहरे तक उद्वेलित भी करते हैं।
प्रेम में निरन्तर आती प्रतिहिंसा की भावना और एसिड अटैक की बढ़ती घटनाएँ, समलैंगिक एवं थर्ड जेंडर: सहानुभूति के साथ स्वीकृति की ज़रूरत, भारतीय समाज में स्त्री की देह मुक्ति के सही मायने, धर्म के शिकंजे में स्त्रियों को फँसाए रखने की परंपरा, स्त्री शक्ति की भूमिका, स्त्री हिंसा के ढेरों दृश्य-अदृश्य कोने: जहाँ हिंसा के निशान प्रत्यक्ष नहीं दिखते, स्त्री की दैहिक शुचिता और विवाह की अवधारणा, स्त्री और संपत्ति अधिकार, स्त्री विमर्श के नाम पर साहित्य में फैला प्रदूषण, लेखक और कलाकार के मुखौटे ओढ़े लम्पट लोग, अंगारों भरी डगर पर नंगे पाँव चलने के लिए बाध्य कलाकारों की पत्नियाँ, महिलाओं के जीवन में धर्म का ख़लल और कुरान की नारीवादी व्याख्या, जैसे अत्यंत गंभीर, समसामयिक एवं ज्वलंत सामाजिक विषयों पर केन्द्रित ये आलेख इनमें वर्णित विसंगतियों की सटीक विवेचना के साथ ही निराकरण की तार्किक संभावनाओं एवं रास्तों के बारे में बताते हैं।
सुधा अरोड़ा कथनी और करनी के स्तर पर दोहरे चरित्र वाले राजेन्द्र यादव जैसे सम्पादकों को भी कठघरे में लेने से नहीं चूकतीं और उनके क्षद्म महिला विमर्श पर शालीन किन्तु तीक्ष्ण प्रहार करती हैं। इस विषय पर लिखते हुए उनकी लेखिका पत्नी मन्नू भंडारी के प्रति राजेन्द्र यादव के ग़लत रवैये के साथ ही प्रेमचंद द्वारा स्थापित 'हंस' जैसे प्रतिष्ठित नाम के साथ किये जा रहे खिलवाड़ पर भी आपत्ति दर्ज करती हैं।
सुधा अरोड़ा पारिवारिक विघटन के विश्वव्यापी चिन्ता जनक परिदृश्य के बावजूद आशान्वित हैं कि भारत में बड़े महानगरों में चाहे जैसे तनाव हों किन्तु समाधान की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।
किताब के अंतिम अध्याय 'औरत की दुनिया बनाम दुनिया की औरत' में शामिल लेख 'तीन इंच के स्वर्ण फूल' चीन की एक यातनादायक प्रथा का मार्मिक वर्णन है। हम सुनते आए थे कि चीनी देश की औरतों के पाँव भी उनकी आँखों की ही तरह छोटे होते हैं। दरअसल पाँवों का यह छोटापन प्राकृतिक नहीं था। कुछ अमानवीय तरीकों से पाँवों को बढ़ने से रोक दिया जाता था।
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