गुरुवार, 21 नवंबर 2019

धर्मवीर भारती

माखनलाल चतुर्वेदी जी ने धर्मवीर भारती के किसी आरंभिक कहानी संग्रह की भूमिका में लिखा था कि "भारती घास की कलम से नहीं, साँस की कलम से लिखते हैं।"
जब आप धर्मवीर भारती के समग्र लेखन पर नज़र डालते हैं तो उनके लिए कही गई माखन दादा की ये पंक्तियाँ पूर्णतया प्रासंगिक लगने लगती हैं। धर्मवीर भारती की बहुआयामी रचनात्मकता के इतने छोर हैं कि यदि उनके समग्र लेखन का अवलोकन करने बैठें तो सहसा विश्वास ही नहीं होता कि किसी एक व्यक्ति के लिये अपने जीवन काल में इतना सब कर पाना कैसे सम्भव हो सकता है वह भी तब जबकि उसके जीवन के अधिकांश सक्रिय वर्ष एक पत्रिका के सम्पादन की भेंट चढ़ गए हों! धर्मवीर भारती का उदात्त रचनाकर्म उन्हें काल और विधा की सीमाओं से ऊपर एक ऐसे मकाम पर ले जाता है जहाँ पहुँचने का स्वप्न हर रचनाकार देखता है।

'गुनाहों का देवता' भारती जी की सबसे चर्चित रचना है। यह उपन्यास जितना सकारात्मक कारणों से चर्चित रहा उतना ही विवादों के कारण। कुछ विद्वानों द्वारा सिरे से खारिज़ किये जाने के बावजूद अब तक हुए सौ से अधिक संस्करण इस उपन्यास की सर्वकालिक लोकप्रियता की कहानी खुद कहते हैं और कुछेक नकारात्मक प्रतिक्रियाओं के बावजूद यह किताब आज भी सबसे ज़्यादा बिकने वाली चार पाँच शीर्ष साहित्यिक किताबों में शामिल है। प्रौढ़ावस्था की दहलीज पर खड़े तमाम पाठक स्वीकार करते हैं कि ये किताब किशोरावस्था के दिनों में  सदैव उनके सिरहाने रहा करती थी। रहा भारती जी का पक्ष तो अपने पहले उपन्यास की अपरिपक्वता और कमजोरियों को उन्होंने 'गुनाहों का देवता' के आरम्भ में स्वयं स्वीकार किया है।

भारती जी के इस उपन्यास के ठीक विपरीत धरातल पर खड़ा है उनका दूसरा और अंतिम उपन्यास-- 'सूरज का सातवाँ घोड़ा।' हिन्दी साहित्य में प्रयोगात्मक स्तर पर जो उपन्यास लिखे गए हैं उनमें सबसे पहले 'सूरज का सातवाँ घोड़ा' की चर्चा होती है क्योंकि भारती जी ने इस उपन्यास के कहन हेतु सर्वथा नए किस्म की भावभूमि और अनूठे शिल्प का सृजन किया था।
इस उपन्यास में निम्न मध्यवर्ग के जीवन, आर्थिक संघर्ष और नैतिक उथलपुथल आदि का सटीक और प्रभावी चित्रण हुआ है। धर्मवीर भारती के इस उपन्यास पर कई दशकों बाद श्याम बेनेगल द्वारा बनाई गयी फ़िल्म भी बहुचर्चित रही। 
इस उपन्यास का समापन अंश उल्लेखनीय है। भारती जी जिस उदात्त जीवन दर्शन के लिए जाने जाते हैं, उसे यहाँ स्पष्ट देखा जा सकता है---
" कोई न कोई ऐसी चीज है जिसने हमें हमेशा अँधेरा चीरकर आगे बढ़ने, समाज व्यवस्था को बदलने और मानवता के सहज मूल्यों को पुनः स्थापित करने की ताकत और प्रेरणा दी है। चाहे उसे आत्मा कह लो, चाहे कुछ और। विश्वास, साहस, सत्य के प्रति निष्ठा, उस प्रकाशवाही आत्मा को उसी तरह आगे ले चलते हैं जैसे सात घोड़े सूर्य को आगे बढ़ा ले चलते हैं।"


छठवें दशक में धर्मयुग के सम्पादक का निमंत्रण आने तक उनके खाते में कई कहानी संग्रह, काव्य नाटक 'अंधा युग' और खण्डकाव्य 'कनुप्रिया' सहित कई चर्चित कविता संग्रह उनके खाते में दर्ज हो चुके थे। महाभारत के अन्तिम दिन की घटनाओं पर आधारित 'अंधायुग' को यदि हम गहन वैचारिकता और मानवीय मूल्यों की दृष्टि से देखें तो संभवतः यह उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना है। सामान्य पाठकों के साथ ही साहित्य जगत के तमाम आलोचकों और विद्वानों ने इसे सराहा है।
अंधायुग की भूमिका आकार में छोटी किन्तु उतनी ही मानीखेज़ है। यहीं पर अंधायुग की रचना प्रक्रिया के बारे में बताते हुए भारती जी लिखते हैं-- " एक स्थल पर आकर मन का डर छूट गया था। कुण्ठा, निराशा, रक्तपात, प्रतिशोध, विकृति, कुरूपता, अंधापन -- इनसे क्या हिचकिचाना! इन्हीं में तो सत्य के दुर्लभ कण छिपे हुए हैं, तो इनमें क्यों न निडर धँसूँ! हम न मरैं, मरिहैं संसारा!
अगली ही पंक्ति में वे इस विचार के प्रतिपक्ष में खड़े दिखते हैं-- " पर नहीं, संसार भी क्यों मरे? एक धरातल ऐसा भी है जब 'निजी' और 'व्यापक' का बाह्य अन्तर मिट जाता है।"
समष्टि के प्रति उनका यह चिंतन और प्रतिबद्धता ही 'अंधायुग' का मूल स्वर है। हालाँकि इसे लिखने के बाद भी धर्मवीर भारती की रचनात्मक छटपटाहट शान्त नहीं हुई। अंततः 'कनुप्रिया' के अंतिम अंशों में वे इस अधूरेपन का अंत 
करते हैं। 'कनुप्रिया' सामान्यतः कृष्ण और राधा के प्रणय प्रसंगों पर आधारित लम्बी कविता मानी जाती है किन्तु मादकता और सुख-दुःख की सरल मार्मिक अभिव्यक्ति के समानान्तर एक ऐसी धारा भी इस किताब में प्रवहमान है जिसके केंद्र में समष्टि के लिए चिन्ता, मनुष्यता के प्रति गहन आस्था और सहानुभूति है। युद्ध के औचित्य/अनौचित्य और इस विभीषिका में कृष्ण की भूमिका पर राधा द्वारा किये गए प्रश्न इस काव्य कृति को माँसलता और मादकता से परे एक अलग धरातल पर ले जाते हैं।


धर्मवीर भारती की कुछ रचनाओं की अपार प्रसिद्धि के कारण ज्यादातर समय चर्चा के केन्द्र में वही रचनाएँ रहीं और इसी कारणवश उनकी कुछ श्रेष्ठ रचनाओं पर सम्यक परिचर्चा न हो सकी। बतौर उदाहरण सबसे पहले उनकी कहानियाँ याद आती हैं। 'गुलकी बन्नो' का शुमार निस्संदेह हिन्दी की श्रेष्ठतम कहानियों में होता रहा है और लगभग हर प्रतिनिधि कहानी संग्रह में ये शामिल होती रही किन्तु 'बंद गली का आख़िरी' जैसी कई कहानियाँ उनके विशिष्ट प्रशंसकों और पाठकों तक ही सीमित रह गईं। साथ ही आरम्भिक कहानी संग्रह भी बरसों अनुपलब्ध रहे। भारती जी की मृत्यु के बाद पुष्पा भारती जी ने उनकी समस्त कहानियों को एकत्र कर उनकी सम्पूर्ण कहानियों का एक संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कराया।

1960 में भारती जी टाइम्स समूह के आमंत्रण को स्वीकार कर मुम्बई आये और यहीं से धर्मयुग के सम्पादक के रूप में एक नई और युगांतरकारी भूमिका का सूत्रपात हुआ। उनके कुशल नेतृत्व में धर्मयुग ने सर्वथा नई ऊँचाइयों को छुआ और फिर एक समय ऐसा भी आया जब इस पत्रिका की बिक्री ने लाखों प्रतियों की संख्या पार कर ली। सत्तर और अस्सी के दशक के अनेक महत्वपूर्ण लेखकों, कवियों और शायरों को उनके आरंभिक दिनों में भारती जी का स्नेह और प्रोत्साहन मिला। धर्मयुग की गुणवत्ता और पूरे देश में उसकी पहुँच का ये आलम था कि इस पत्रिका में छपते ही कोई भी नवोदित रचनाकार रातों रात एक चर्चित नाम बन जाया करता था।
आज हमारे समय के कई प्रतिष्ठित लेखक धर्मयुग में प्रकाशित अपनी रचनाओं के कारण ही जाने गए। टाइम्स समूह से लम्बे अरसे तक जुड़े रहे और इन दिनों नवनीत पत्रिका के यशस्वी सम्पादक के रूप में कार्यरत विश्वनाथ सचदेव जी ने किसी वार्तालाप में एक आवश्यक संयोग की तरफ ध्यान दिलाया कि धर्मवीर भारती के समय धर्मयुग में अपने पत्रकारिता कैरियर की शुरुआत करने वाले ज्यादातर पत्रकार आगे जाकर बड़े सम्पादक बने। इस पत्रिका ने उनके संपादकत्व में ऐसे कई कीर्तिमान बनाये हैं जिनके आसपास क्या, बहुत दूर दूर तक कभी कोई अन्य पत्रिका न पहुँच सकी। उस समय के पाठक बताते हैं कि पत्रिका का कोई भी नया अंक ज्यों ही घर पहुँचता था , सारे सदस्यों में छीना झपटी मच जाती थी। इन संस्मरणों के आधार पर जब पाठकों से कुछ प्रश्न किये गए तो लोगों ने बताया कि धर्मयुग मात्र साहित्यिक पत्रिका नहीं थी। इसमें फ़िल्म और क्रिकेट जैसे लोकप्रिय विषयों पर भी चुनिन्दा सामग्री होती थी और यही कारण था कि हर आयु वर्ग के पाठक इसके दीवाने थे।

तनावपूर्ण और कठिन जिम्मेदारियों वाली इस भूमिका में भारती जी के लेखन पर असर पड़ना ही था। उनके सक्रिय जीवन की लगभग एक चौथाई सदी ऐसी गुज़री जब किसी कविता संग्रह, नाटक या उपन्यास का सृजन उनकी कलम से न हो सका। हालाँकि यह मान लेना भी नितान्त अनुचित है कि इन वर्षों में भारती जी की लेखनी पूरी तरह थम गई थी। इस अवधि में उन्होंने देश विदेश की जितनी महत्वपूर्ण यात्राएँ की, उन यात्राओं के संस्मरण का एक बेहतरीन संग्रह वाणी प्रकाशन से 'यात्रा चक्र' नाम से प्रकाशित हुआ। साहित्य, कला और संस्कृति को समर्पित विभिन्न हस्ताक्षरों पर केन्द्रित 'कुछ चेहरे कुछ चिन्तन' पढ़कर उनके प्रौढ़, परिपक्व और सरस लेखन का सहज अनुभव किया जा सकता है। उन दिनों धर्मयुग में उनका एक नियमित स्तम्भ होता था- 'शब्दिता'। पत्रिका के पुराने पाठक आज भी बताते हैं कि अंक हाथ में आते ही सबसे पहले वे भारती जी का यह स्तम्भ पढ़ते थे और फिर कहानियों या धारावाहिक उपन्यासों का रुख करते थे। देश , विदेश की किसी भी विशिष्ट किताब, शहर या लेखक पर केन्द्रित उनके इन आलेखों को पढ़कर कई पीढ़ियाँ समृद्ध हुई हैं। इन समस्त आलेखों का संग्रह कालांतर में वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'शब्दिता' में हुआ।

धर्मवीर भारती की संगिनी पुष्पा भारती जी उन्हें याद करते हुए बड़े अनुराग से बताती हैं कि " मैं भारती जी से प्रायः ये शिकायत किया करती थी कि धर्मयुग के रूप में अच्छी सौतन आपने मेरे सिर बाँध दी है जिससे निस्तार नहीं।" इन चुलबुली स्मृतियों के साथ ही वे पूरी गंभीरता से यह भी बताती हैं कि अनेक सहायक संपादकों और स्वयं पुष्पा जी द्वारा स्वीकृत होने के बाद भी हर कहानी भारती जी की नज़रों से गुजरने के बाद ही प्रकाशित होती थी। संभवतः उनकी यही ज़िद, लगन और प्रतिबद्धता थी जिसने एक पत्रिका को शिखर पर पहुँचाया। पुष्पा भारती जी का ये कहना कि " धर्मयुग को उनकी तमाम बहुचर्चित रचनाओं के समानांतर रखा जाना चाहिए। सबसे ज़्यादा समय लेने वाला धर्मयुग भी उनकी महत्वपूर्ण और कालजयी रचना है" पूरी तरह अर्थवान प्रतीत होता है।
धर्मयुग के सम्पादन के दौरान बीते पच्चीस तीस वर्षों के कालखण्ड में भारती जी का कोई कविता संग्रह भले ही न आया हो किन्तु ऐसा भी नहीं था कि उन्होंने इन बरसों में कविताएँ बिल्कुल नहीं लिखीं। छिटपुट ही सही किन्तु कविताएँ लिखी जाती रहीं और धर्मयुग से सेवानिवृत्त होने के बाद उनकी इन अप्रकाशित कविताओं का एक यादगार संग्रह वाणी प्रकाशन से आया जिसका नाम था- 'सपना अभी भी'। स्मृति शेष होने से पूर्व यही उनका अन्तिम प्रकाशित कविता संग्रह रहा जिसे प्रतिष्ठित व्यास सम्मान भी प्राप्त हुआ था।

धर्मवीर भारती स्वयं हिन्दी के रचनाकार थे किंतु अन्य भारतीय भाषाओं में लिखे जा रहे उत्कृष्ट साहित्य पर भी सदैव नज़र रखते थे। बांग्ला सहित अन्य भाषाओं की अनेक बेहतरीन रचनाओं के अनुवाद धर्मयुग में लगातार छपते थे। विमल मित्र के कई बाँग्ला उपन्यास धर्मयुग में प्रकाशित होने के कारण हिन्दी पाठकों तक पहुँच सके और धीरे धीरे हिन्दी के पाठकों ने उन्हें जैसे इसी भाषा का लेखक मान लिया। बांग्ला देश मुक्ति संग्राम के समय धर्मवीर भारती ने इस देश का दौरा किया और एक प्रभावी रचनाकार की हैसियत से बांग्लादेश के नागरिकों के लिए हरसंभव प्रयास करते रहे। वे न सिर्फ़ एक बड़े लेखक बल्कि एक स्वप्नदृष्टा एवं सजग, सचेत विचारक भी थे। उनका साहित्यिक और सांस्कृतिक अवदान इतना बड़ा है कि समकालीन रचनाधर्मिता की हर परिचर्चा उनके ज़िक़्र के बगैर अधूरी रहेगी।

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