बुधवार, 25 जनवरी 2023

तमाचा: गोविंद सेन

दिनेश आज असहज थे । कई दिनों से वे मन ही मन इस दिन का सामना करने की तैयारी कर रहे थे । आखिर वह दिन आ ही गया था । कितने ही भाव उनके मन में उमड़-घुमड़ रहे थे ।
"सर, आप अभी जाना मत।" मोहन ने थोड़ा झुकते हुए कहा। उसके साथ महेश, रेमसिंग, इंदरसिंग, नारायण, कैलाश आदि चतुर्थ श्रेणी के सभी कर्मचारी थे ।
"हाँ, पर क्यों?"
"बस, हमारा निवेदन है सर।" मोहन के इस आग्रह को दिनेश ने सहज ही शिरोधार्य कर लिया। वे चुप्पी लगाकर स्टाफ रूम में बैठ गए।

वे इस चुप्पी के सहारे धीरे-धीरे भीतर उतरने लगे। चालीस बरस ऐसे गुजर गए जैसे कल की ही बात हो। जब नौकरी में आए थे तो अच्छे खासे बाइस-तेईस साल के  जवान थे । आँखें स्वप्निल थीं । सिर पर चिकने लम्बे काले बाल थे । उस जमाने के फैशन के मुताबिक लंबे बाल रखा करते थे । बालों से कान ढँक जाते थे । कान दिखाई ही नहीं देते थे । अब तो आइना डराने लगा है । बाल अब नाममात्र के रह गए । जैसे बालों को किसी ने नोच लिया हो । लोग उन्हें आराम से टकला या चँदला कह सकते थे । चेहरे पर झुर्रियाँ दिखाई देने लगीं थीं। त्वचा उतनी कसी हुई नहीं रह गई थी । ढीली पड़ती जा रही थी । लगता था कि उन्हें समय ने गुठली की तरह चूसकर फेंक दिया हो । नौकरी उनसे उनका सर्वश्रेष्ठ ले चुकी थी । उन्होंने पढ़ाने में कभी कोताही नहीं की । कठिन पाठों को सरल और रोचक बनाने की भरसक कोशिश करते रहे । घर से पाठ पढ़कर जाते थे । जब भी शहर जाने का मौक़ा मिलता, वे अपने अध्ययन के लिए कई किताबें भी ख़रीद लाया करते थे। ज्ञानार्जन की उनमें भूख थी । वे विषय की  मूल अवधारणाओं  को समझने की कोशिश करते रहते थे । पहले खुद खूब तैयारी करते तब उन्हें बच्चों के लिए ग्राह्य बनाकर प्रस्तुत करते । श्यामपट्ट का उपयोग खूब किया करते थे । पीरियड से निकलने के बाद उनके हाथों पर सफ़ेद डस्ट लगी होती थी । उनके इस शिक्षकीय पेशे में उन्होंने अपने हाथ काले नहीं किए, सर्वथा सफ़ेद बनाए रखने की ही कोशिश की थी । यही कारण है कि साथी शिक्षक उन्हें भले ही न याद करते हों पर उनसे पढ़ चुके कई विद्यार्थी उन्हें याद करते हैं ।

वे अपने आदर्शवाद के कारण कुछ ही महीनों में पुलिस की नौकरी छोड़ कर आ गए थे । पिताजी और अन्य परिजनों ने उन्हें खूब लताड़ा था । इतनी अच्छी नौकरी छोड़कर आना उन्हें बिलकुल नहीं सुहाया । उनका विचार था कि उन्होंने खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है । भला ऐसा भी कोई करता है । पर उन्होंने अपने दिल का कहा मानकर वह पुलिस की नौकरी छोड़ दी । संयोग से बाद में वे शिक्षक बन गए थे । यदि शिक्षक नहीं बन पाते तो उनका क्या होता ! वे अकेले में आज भी सोचते हैं तो सिहर जाते हैं । पर तब जोश अधिक था और होश बहुत कम । पुलिस महकमे में बहुत भ्रष्टाचार है किंतु भ्रष्टाचार किस महकमे में नहीं है ! उन्हें लगता था कि शिक्षक की नौकरी उनके लिए एक आदर्श नौकरी है । इसमें कितना सम्मान और शांति है पर समय के साथ उनका मोह भंग होता गया था। समाज सेवा और खूब पढ़ाने का जज्बा ठंडा पड़ने लगा था। अब उम्र के इस पड़ाव पर आकर तो उन्हें लगता है कि यह नौकरी भी दूसरी नौकरियों की तरह एक नौकरी ही है । यहाँ भी आदर्शों की बहुत गुंजाइश नहीं है । हालांकि उनके विद्यार्थी और अन्य शिक्षक साथी उन्हें जब 'सर' से संबोधित करते हैं तो उन्हें अच्छा लगता है । वैसे उनकी सरलता को लेकर वे पीठ पीछे उनका मजाक भी उड़ाते थे । उनका रहन-सहन एकदम सादा है । ज़रा भी तड़क-भड़क नहीं । वे शर्ट को पैंट में इन नहीं करते थे इसीलिए उन्हें वे 'बिना इन वाला मास्टर’ कहकर हँसा करते थे ।

दीवार पर लगी घड़ी का बड़ा काँटा यांत्रिक गति से आगे बढ़ता जा रहा था । पहला पीरियड ख़त्म होने वाला था । स्कूल यथावत चल रहा था । सब अपने-अपने काम में जुटे थे। हूटर बजते ही कोई डस्टर लेकर जा रहा था तो कोई डस्टर लेकर आ रहा था। कमरों में से बच्चों की आवाजों का शोर उठने लगा था । सब उनसे सायास या अनायास नज़रें चुरा रहे थे । वे चुपचाप और कुछ अनमने-से स्टाफ़ रूम में बैठे थे । ऐसा लगता था कि वे अब इस स्कूल का हिस्सा नहीं रहे। अवांछित हो गए जैसे किसी दीवार के पलस्तर की मियाद ख़त्म होने पर ईंटों के लिए पलस्टर अवांछित हो जाता है । दीवारें प्लास्टर को छोड़ देती हैं । उन्हें अब किसी क्लास में पढ़ाने नहीं जाना है । इसका कोई दबाव उन पर नहीं है । वे मुक्ति का अनुभव कर रहे थे पर यह मुक्ति उन्हें बहुत अजीब लग रही थी । उन्हें ऐसी किसी मुक्ति की आदत नहीं थी ।

सप्ताह में एक दिन मंगलवार भी आता है । लेकिन उनके लिए यह मंगलवार ख़ास था । स्कूल में बतौर शिक्षक आज उनका आखिरी दिन है । उन्हें सेवानिवृत्ति का पत्र थमा दिया गया था । इस हायरसेकंडरी स्कूल में अभी पाँच साल पहले ही आए थे । उनके पिछले पैंतीस वर्ष एक ही ग्रामीण स्कूल में ही कटे हैं । शायद पूरा सेवाकाल उनका वहीं गुज़र जाता पर वे ऊब चुके थे और कुछ त्रस्त भी । उन्हें कई प्रभार सौंप दिए गए थे । दूसरी ओर उनको गेहूँ में घुन की तरह कई बीमारियाँ लग चुकी थीं । दिक्कत होने लगी थी । आने-जाने में  थकावट महसूस करने लगे थे । इसीलिए उन्होंने शहर के हायरसेकंडरी स्कूल में अपना तबादला करवा लिया था । यहीं उनका निवास भी था। हालांकि इसके लिए उन्हें अपने एक महीने के वेतन के बराबर की राशि ऊपर भेंट करनी पड़ी थी। 

यह एक बड़ा स्कूल था । एक-एक क्लास में सौ के लगभग बच्चे । हालाँकि क्लास में कम ही बच्चे आते । नब्बे प्रतिशत बच्चे कोचिंग जाते थे । उनका स्कूल पर विश्वास नहीं था । केवल अपनी उपस्थिति लगवाने के लिए स्कूल में हाज़िर होते थे । हाज़िरी लगते ही फुर्र हो जाते । इसमें शिक्षकों की मौन सहमति होती थी। रेसेस के बाद तो बीस-तीस फ़ीसदी बच्चे ही बचते। लेकिन उन्होंने अपने काम में कोई कोताही नहीं बरती । जितने पीरियड दिए गए वे पढ़ाते रहे । हालाँकि उन्हें  मालूम था कि कुछ व्याख्याताओं और शिक्षाकर्मियों के पास तीन पीरियड से अधिक नहीं थे । कुछ के पास तो सिर्फ़ दो ही पीरियड थे और कोई प्रभार भी नहीं था। ये भेदभाव उन्हें अच्छा तो नहीं लगता था पर उन्होंने कोई विरोध भी नहीं किया। 

सितंबर का यह महीना भी उनकी नौकरी का आखिरी महीना था । उन पर कई चिंताएँ भी सवार थीं । जो सुनने और देखने को मिलता था, वह भयावह था । उनके उसूलों के ठीक उलट । वे कैसे यह सब हेंडल कर पायेंगे ! नियम कुछ बोलते हैं पर हकीकत में होता कुछ और है । चिंता थी उनके सारे क्लेम निपटेंगे या नहीं । समय पर पेंशन मिलेगी या नहीं । जीपीफ,बीमा,ग्रेज्यूटी,अर्निंग लीव वग़ैरह । वही तो उनकी ज़िंदगी भर की कमाई होगी । आगे का जीवन बहुत कुछ उन्हीं पैसों पर ही तो निर्भर होगा । इस बीच उन्हें हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना ‘भोलाराम का जीव’ याद आ जाती थी जिसमें भोलाराम की पेंशन का निपटारा उसकी मृत्यु तक भी नहीं हो पाया था क्योंकि भोलाराम ने फाइल पर वजन नहीं रखा था। इस व्यंग्य रचना को वे एक बार फिर पढ़ गए थे । उन्हें फ़ाइल पर वज़न धरना ही होगा अन्यथा उनका हश्र भी भोलाराम जैसा ही होगा। मृत्यु के बाद भी उनका जीव पेंशन की फ़ाइलों में ही अटका रहेगा। 

स्कूल में केवल एक-दो शिक्षकों से ही उनका मन मिल पाया था । फिर भी सबसे बिछड़ जाने के डर ने उनके मन को थोड़ा कच्चा कर दिया था । सालों तक साथ रहते-रहते सबकी आदत पड़ चुकी थी। कुछ हँसी-मज़ाक़ भी चलता रहता था। इसलिए महीना ख़त्म होने से पहले एक दिन चुनकर उन्होंने पूरे स्टाफ़ को रेसेसे में अल्पाहार करवा दिया था । उन्हें तसल्ली हुई थी कि उस दिन सिर्फ़ दो को छोड़कर सभी उपस्थित थे। स्टाफ़ से अपनी भूल-चूक के लिए सबसे औपचारिक माफ़ी भी माँग ली थी । उसी दिन उन्होंने  प्रिंसिपल साहब से उनके सभी प्रकरणों को जल्दी निपटाने का निवेदन भी कर दिया था ।

उनके जीपीफ के प्रकरण को अभी तक महालेखाकार  कार्यालय नहीं भिजवाया गया था जबकि तीन महीने से उनके वेतन से जीपीफ कटना बंद हो चुका था। उनका जितना जीपीफ कटना था वह तो कट ही चुका था । अब तो उन्हें जीपीफ में जमा पैसा वापस लेना था । जीपीफ का अंतिम हिसाब कर प्रकरण भिजवा दिया जाना चाहिए था । वे चिंतित थे। बाबू ने धीरे से कहा था कि साहब दस हज़ार की माँग कर रहे हैं । पहले सुना था प्रिंसिपल साहब स्टाफ से प्रकरण के पैसे नहीं लेते हैं । शायद यह बात सच नहीं थी ।  सत्ताईस सितंबर को बाबू का फ़ोन आया कि साहब ऑफ़िस में हैं । आप आकर साहब के साइन करवा लो। फिर वे निकल जायेंगे । उस दिन दिनेश सूचना मिलते ही तुरंत स्कूल पहुँचे थे । उन्होंने प्रकरण पर साइन करने के निवेदन के साथ ही प्रिन्सिपल साहब के हाथों में रुपयों का लिफाफा भी रख दिया था । वे मुस्कुराकर बोले थे-“अरे सर, पैसे की क्या ज़रूरत है।” लेकिन लिफाफा रख लिया था।  

हायरसेकंडरी स्कूल में शिक्षकों की कईं श्रेणियाँ थीं। नियमित, शिक्षाकर्मी और अतिथि शिक्षक। नियमित में वे व्याख्याता थे जिन्हें अस्सी से नब्बे हजार प्रतिमाह वेतन मिलता था । उच्च श्रेणी शिक्षक ओहदे में व्याख्ताओं से नीचे आते थे । उन्हें सत्तर के करीब हर महीने मिलते थे । शिक्षाकर्मी भी नियमित ही थे । शिक्षाकर्मियों में वर्ग 1 और 2 थे । इन्हें भी अच्छा खासा वेतन मिलता था। पचास हजार से कम किसी का वेतन नहीं था । इनमें नब्बे प्रतिशत शिक्षकों की खेती भी थी यानी डबल इनकम । दो शिक्षकों की तो पत्नियाँ भी शिक्षिकाएँ थीं । सबसे कम इनकम चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों की थी । ये सबसे छोटे कर्मचारी थे पर सबसे ज्यादा मेहनत करते थे । सबसे पहले स्कूल आते थे और सबसे बाद में स्कूल जाते थे।  

दिनेश अंग्रेज़ी पढ़ाते थे । हिंदी हो या अंग्रेज़ी, भाषाओं के पीरियड वैसे भी अन्य विषयों की तुलना में अधिक होते हैं । परीक्षाओं की कापियाँ भी उन्हें ही अधिक जाँचनी पड़ती है । दो वर्ष तो उन्होंने क्लास टीचर होने के बावजूद पाँच पीरियड भी लिए थे । उनका पहला पीरियड तो सिर्फ़ हाज़िरी लेने में ही ख़र्च हो जाता था । चाहते तो क्लास टीचर होने से इंकार कर सकते थे पर यह सोचकर कि आख़िरी समय में कौन इनसे लड़ाई मोल ले, वे चुप्पी साध गए थे । वैसे भी उन्होंने ‘ना' कहना सीखा ही नहीं था। उनकी यही सरलता उनकी सबसे बड़ी दुश्मन थी। उन्हें सेवानिवृत्त होने में महज़ पाँच वर्ष बचे थे इसलिए वे ये सब वे झेल गए थे ।

पिछले साल का विदाई समारोह का दृश्य उन्हें याद आया । अलावा सर सेवानिवृत्त हुए थे । वे उच्च श्रेणी शिक्षक थे । यानी ओहदे में उन्हीं के समकक्ष शिक्षक । उन्हें धूमधाम से विदाई दी गई थी । साफ़ा पहनाकर एक खुली जीप में उन्हें पूरे नगर में ऐसे घुमाया गया था मानो किसी नेता का विजय जुलूस निकाला जा रहा हो । जुलूस के आगे ढोल बज रहा था । उनकी सेवनिवृत्ति के दो माह पहले ही से विदाई समारोह की चर्चा और तैयारी शुरू हो गई थी। तब इस समारोह के लिए ख़ूब चंदा भी वसूला गया था । इस कार्यक्रम के अगुआ बने एके ने सभी शिक्षकों को इस समारोह के लिए ख़ूब मोटीवेट किया था । किसी भी काम के लिए मोटीवेट करने में उनका कोई सानी नहीं था । अलावा सर के नाम पर सब मोटीवेट भी बख़ूबी हो गए थे । भाषणों में उनके अनेक गुण प्रकट किए गए थे । उन्हें एक श्रेष्ठ आदर्श शिक्षक, मिलनसार और अपने विषय का विशेषज्ञ भी निरूपित किया गया । वे हिंदी पढ़ाते थे पर हिंदी की चार लाइन भी सही नहीं लिख पाते थे । गाइडों से प्रश्नोत्तर लिखवा दिया करते थे या गाइड में ही निशान लगवा देते थे। फिर भी उनकी तारीफ़ में कोई पीछे नहीं रहना चाहता था । कभी-कभी सुरापान भी कर लेते थे । वे स्कूल की हर ज़िम्मेदारी को बहुत ग़ैर ज़िम्मेदारी से निभाते थे । इसके लिए उनमें कोई हीन भाव भी नहीं था । वे ट्राइबल के थे । भाषणों में उनके निंदनीय गुणों को दरकिनार कर दिया गया था । उस दिन सभी वक्ताओं को उनके गुण ही गुण दिखायी दे रहे थे। ये गुण ख़ासतौर से उन्होंने अधिक प्रकट किए थे जो पीठ पीछे उनकी जमकर बुराई किया करते थे । दाल-बाफले-लड्डू की पार्टी रखी गई थी । रात में सुरापान भी हुआ था । किसी शिक्षक का ऐसा भव्य विदाई समारोह उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था । 

इससे पहले नंदा मैडम सेवानिवृत्त हुईं थीं । उनकी विदाई को लेकर पहले भले ही काफ़ी खींचतान रही हो, पर अंत में उन्हें भी शानदार विदाई पार्टी दी गई । अख़बारों में उसकी बढ़िया रिपोटिंग भी छपी । उस समय शुरुआत में एके ने ख़ास रुचि नहीं दिखाई थी । चंदा इकट्ठा न हो सका था । कुछ लोग नंदा मैडम की बाल की खाल निकालने की आदत से खफ़ा थे । पर वे नाराज़गी को सतह पर नहीं आने देते थे। वे कहा करतीं- “उस परीक्षा में मेरी ड्यूटी क्यों नहीं लगाई जिसमें पैसे मिलने थे । मेरी फोकट के काम में ड्यूटी क्यों लगा दी ! यह क्लास मैं नहीं लूँगी । मैं क्लास टीचर नहीं बनूँगी ।” वह समय पर कभी स्कूल भी नहीं आती थीं । पर सभी हँस-हँस कर उसकी बात मान लेते थे । पीठ पीछे ख़ूब भड़ास निकाली जाती पर सामने शालीनता से पेश आते । नंदा मैडम में लाख बुराइयाँ सही पर एक गुण ज़रूर था कि उनकी बहन क्षेत्र की विधायक थीं । अब ऐसे एक गुण होने पर तो  सारे अवगुण माफ़ हो ही जाते हैं बल्कि इतनी अकड़ का तो उन्हें अधिकार बनता ही है ।

विधान सभा का चुनाव हुआ । नंदा मैडम की बहन को इस बार टिकट नहीं मिला था । हालाँकि उनके बहन के विधायक रहने तक वे सेवानिवृत्त हो चुकी थीं । अब विधायक प्रेमसिंग थे जो अलावा सर के साले थे । यह संयोग ही था कि दोनों को ही राजनैतिक पृष्ठभूमि होने का भरपूर फ़ायदा मिला । इन दोनों के बरक्स दिनेश जी ख़ुद को नखदंत विहीन पाते हैं । न वे आर्थिक रूप से सबल हैं न राजनैतिक रूप से । उन्हें उम्मीद नहीं थी कि उनकी सेवानिवृत्ति पर ऐसा कोई भव्य आयोजन होगा । इसकी कोई उम्मीद भी उन्होंने नहीं पाली थी । 

स्कूल में कुछ लोगों की ही तूती बोलती थी जिनमें तीन ‘के' प्रमुख थे -एके, बीके और पीके, यह उनके नामों का संक्षिप्त रूप था । पीके यानी प्रिंसिपल साहब । एके और बीके व्याख्याता थे । तीनों के अनुसार ही कार्यक्रम आयोजित होते थे । रूपरेखाएँ बनती थीं । एके कहा करता था कि वह तो उनकी सेवानिवृति से ख़ुद को अनाथ महसूस करेगा। कहता था-“मैं तो आपके स्कूल के गेट पर लोट जाऊँगा और तुम्हें घर नहीं जाने दूँगा।” बीके भी कहा करता था कि आपका विदाई समारोह बढ़िया करेंगे सर। आप हमारे सम्मानीय हैं सर, सबसे वरिष्ठ । फिर पता नहीं उनकी सेवानिवृत्ति पर उनके पीछे स्टाफ़ में क्या बातें चलती रहीं, वे नहीं जानते। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि उनके लिए भव्य या शानदार कहे जाने वाला विदाई समारोह होगा, ऐसा तो वे चाहते भी नहीं थे, पर एक सादे समारोह की क्षीण-सी अपेक्षा तो उनके मन में ज़रूर थी । यदि उनसे पूछा जाएगा तो जरूर कहेंगे कि ऐसा सादा कार्यक्रम हो जिसमें ख़र्च कम से कम हो । भव्यता उन्हें ज़रा भी पसंद नहीं । हालाँकि उनके सादा जीवन और उच्च विचार के फ़लसफ़े को कौन पसंद करेगा! फिर भी वे अपनी ओर से कहेंगे तो ज़रूर कि फ़ालतू ख़र्चा न हो । सिर्फ़ एक छोटा कार्यक्रम हो जिसमें मन के कुछ आत्मीय भाव प्रकट किए जाएँ और बाद में अल्पाहार । मूल तो भाव हैं । भाव प्रकट करने में पैसा नहीं लगता किंतु भव्यता का आहार पैसा ही है । जहाँ भव्यता होती है वहाँ भाव तो छिप ही जाते हैं । भव्यता में प्रदर्शन अधिक होता है, भावना कम ही होती है ।

घड़ी का बड़ा काँटा तीन पर पहुँच चुका था । वे उद्विग्न थे । तभी उन्हें लेने के लिए मोहन और इंदरसिंग उनके सामने हाजिर हो गए। विनम्रता से बोले-“चलो, सर कमरा नंबर एक में चलते हैं।” कमरा नंबर एक कुछ ऐसा सजा हुआ था मानो कोई कार्यक्रम किया जा रहा हो । उन्हें बीच की कुर्सी पर आदरपूर्वक बैठाया गया। सभी चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी उन्हें अपनी ओर से विदाई दे रहे थे । टूटे-फूटे शब्दों में अपने भाव व्यक्त कर रहे थे। मोहन कह रहा था कि सर ने औरों की तरह उन्हें चपरासी नहीं समझा । कई बार खुद ही अपने हाथ से पानी पी लिया करते थे । कभी अन्य शिक्षकों की तरह हम पर रौब नहीं झाड़ा । हमारी हारी-बीमारी में हमारे साथ खड़े रहे । मदद की । मेरे लड़के राम को सर ने फ्री में पढ़ाया । वो अंग्रेजी में कमजोर था पर सर की कृपा से उसकी नैया पार हो गई । सर माथा देखकर तिलक लगाने वालों में से नहीं हैं । सर का आशीर्वाद सदैव हम पर बना रहे। फिर मोहन, इंदरसिंग, कैलाश, नारायण आदि सभी ने उनके गले में गेंदे के फूलों का माला पहनायी । दिनेश के पाँव सबने छुए । दिनेश माला उतार कर टेबल पर रखने लगे तो सब ने ऐसा न करने के लिए कहा । चमकीले रंगीन रैपर में लिपटे गिफ्ट आइटम उन्हें दिए गए । अंत में सभी को मिठाई और नमकीन का अल्पाहार करवाया गया । सबसे पहले दिनेश को मिठाई खिलायी गई । उनकी आत्मीयता से दिनेश की आँखें डबडबा आईं थीं । वे बड़ी मुश्किल से भर्राए गले से जैसे-तैसे आभार ही व्यक्त कर पाए थे।

मोहन सहित सभी चपरासी उन्हें लंबे गलियारे से घुमाते हुए सम्मानपूर्वक गेट तक ले गए । सभी शिक्षक यह सब देखते जा रहे थे और आँखें भी चुराते जा रहे थे । प्रिंसीपल साहब अपने कक्ष से बाहर नहीं निकले। एके और पीके छुट्टी पर थे। शायद जान-बूझकर । जिस काम को साठ-सत्तर हजार पाने वाले शिक्षक और प्रिंसिपल नहीं कर पाए वह इन मामूली सा वेतन पाने वाले चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों ने कर दिखाया था । उपस्थित सभी शिक्षकों को लग रहा था कि उनके गालों पर किसी ने तमाचा मार दिया हो । वे मन ही मन तिलमिला रहे थे । दिनेश मन में शंकित भी थे कि स्कूल के ये शिक्षकगण बाद में इन बेचारों से बदला न लें । इन्हें उनका कोपभाजन न बनना पड़े । उनका यह विदाई समारोह शिक्षकों को चुभ रहा है, यह तो उन्हें दिख ही रहा था । पर चींटियाँ हाथियों से कब डरी हैं! दिनेश ने उनके साहस की मन ही मन सराहना की।

जब दिनेश सबसे विदा ले कर मोटर साइकिल की ओर मुड़े तो मोहन ने रोक दिया । उसने  दिनेश से कहा-“सर,आज आप मोटरसाइकिल चलाकर नहीं जाओगे। हम खुद आपको घर तक छोड़ने जायेंगे।” 

दिनेश अभिभूत थे । उनकी गरदन फूल मालाओं से लदी थी । मोहन मोटर साइकिल चला रहा था । वे पीछे की सीट पर बैठे हुए थे । पीछे चार मोटरसाइकिल चल रही थीं । कुल नौ चपरासी उन्हें छोड़ने के लिए उनके घर की ओर एक रैली की शक्ल में रवाना हो गए थे । सबके हाथों में उनके लिए लाए गए चमकीले रैपर में लिपटे गिफ़्ट आयटम थे । काफ़िला उनके घर की ओर बढ़ता जा रहा था।

दिनेश की आँखें भर आईं । वे भीतर तक भीग गए थे ।  वे कृतज्ञता से झुके जा रहे थे । उन्हें अब तक मालूम ही नहीं था कि इन छोटे समझे जाने वाले लोगों के दिल में उनके लिए कितना प्यार भरा था । दूर कही गूँज रहा था-“तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो, जहाँ उम्मीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता।”
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शनिवार, 31 दिसंबर 2022

जीवनपुरहाट जंक्शन: अशोक भौमिक, प्रस्तावना: गंगा शरण सिंह

अशोक भौमिक की तस्वीरों में ज़िन्दगी के जितने रंग दिखाई देते हैं उससे कहीं ज्यादा इन स्मृति आख्यानों में। इस किताब में शामिल इन बाइस 

समृति-आख्यानों में ज़िन्दगी इस कदर साँस लेती है कि काग़ज़ के पन्नों पर लिखी हुई तहरीर अचानक उनकी तस्वीरों की तरह ही हमारे सामने जीवन्त हो उठती है। ज़िन्दगी के तलघर में जाने कितनी कहानियाँ और क़िरदार छुपे रहते हैं किन्तु इन्हें पहचानने और कहने का हुनर सबको नहीं मिलता। अशोक भौमिक के इन आख्यानों में निहित संवेदना, मर्म और मानवीय सरोकार उनके इसी हुनर का कमाल हैं।


अपने जीवन-अनुभवों और स्मृतियों के तलघर से तमाम ऐसे किरदारों को ढूँढकर उन्होंने इन कहानियों का पात्र बनाया जो सभ्य समाज द्वारा हाशिये पर धकेल दिये गये हैं और जिन्दा रहने की जद्दोजहद ने जिनके चेहरों पर अमिट निशान छोड़ दिये हैं।


'जीवनपुरहाट जंक्शन' के ये स्मृति आख्यान मर्म और संवेदना का एक ऐसा अद्भुत जहान रचते हैं जिनकी गूँज पाठकों के जेहन में लम्बे अरसे तक कायम रहेगी।

छोटे हमीद का वह मासूम सा क़िरदार, चौरासी के दंगों में अपना बहुत कुछ गँवाकर कथाकार के गले लगकर रोता सुरजीत, बेहद गरीब किन्तु खुद्दारी की हद तक ईमानदार शरफुद्दीन, आजाद हिंद फ़ौज का वह सिपाही, जिसे जीवन यापन के लिए चौकीदारी करनी पड़ रही थी, जैसे यादगार चरित्रों और छल, कपट , विश्वासघात की अनेक दास्तानें हमारी चेतना को हिलाकर रख देती हैं। किसी कहानी को पढ़ते समय यदि उसकी सच्चाई पर सन्देह हो तो यह बात ध्यान रखें कि इस दुनिया में अमानवीयता का स्तर किसी भी रचनाकार की लेखन सीमा से कई गुना ज्यादा है और कुछ सत्य विश्वनीयता के अन्तिम छोर के बाद शुरू होते हैं।


© गंगा शरण सिंह


 [ पेपरबैक संस्करण का फ्लैप ]

शुक्रवार, 4 मार्च 2022

आया ऊँट पहाड़ के नीचे: शोभनाथ शुक्ल


मास्टराइन भौउजी की दबंगई देखिये हफ्ते में एकाध दिन की बात कौन कहे, महीने में एकाध घंटे के लिए भी स्कूल आना नहीं चाहती। जो भी हेड मास्टर आता है वे स्थानीय होने के नाते उस पर किसी न किसी तरह दबाव बनवा ले जातीं और अगर कोई हेडमास्टर कुछ दाँये-बायें करता तो वे पब्लिक की तरफ से इतना शिकायती प्रार्थना पत्र डलवा देतीं कि वह बेचारा हेड मास्टर अन्ततः पस्त हो जाता और वे शेरनी की तरह अपना वर्चस्व बनाये रखने में कामयाब हो जाया करतीं.........।
इस तरह नौकरी करते-करते तेरह महीने से ऊपर गुजर चुके पर न तो हेड मास्टर और न ही विभाग की ओर से उन पर कोई कार्यवाही हो पाई। हेड मास्टर राधेलाल ने आते ही उन पर अनुशासन का कोड़ा चलाया तो जरूर था पर महीने भर के अन्दर ही वे निलम्बित हो गये। उनके निलम्बन पर वे ताल ठोंक कर कहतीं........
‘देखा चला था हमें अनुशासन सिखाने, अरे मैंने तो संदेशा भेजवा कर कहला दिया था कि जैसे चल रहा है चलने दीजिए......मैं कहाँ स्कूल में अपना समय लगा पाऊँगी.........और भी तो काम है पर वह माना नहीं उसको तो अपनी दलित जाति का घमण्ड था......।’
हुआ यह कि एक दिन हेडमास्टर ने उन्हें बुलवाया और समझाते हुए कहा कि ‘देखिये मैडम यह बड़ा ही दुर्भाग्य था कि आपके पति की असमय मृत्यु हुई और विभाग की अनुकम्पा से आप को नौकरी मिली तो कम से कम आप उस दुर्भाग्य को सौभाग्य में बदलिये और अपनी ड्यूटी कीजिए........नौकरी को दांव पर न लगाइये न हमारी न अपनी......।’
बस हेड मास्टर का इतना ही कहना था कि वे उनके कमरे से अपने को अस्त-व्यस्त करते हुए चिल्लाती हुई बाहर निकलीं- ‘बचाओ.........ये हरामी मास्टर तो हमारी देह पर आँख गड़ाये है...कमरे में बुलाकर समझा रहा था कि वह दुर्भाग्य था कि आप विधवा हो गई पर अब आप जीवन को सौभाग्य में बदल सकती हैं.........कहते-कहते मेरे शरीर पर हाथ लगा दिया और मैं न भागी होती तो ना जाने क्या कर बैठता..........हरामी कहीं का। अपनी औकात भूल गया.........।’
बात विभाग तक पहुँची। पुलिस थाने में गई और हेड मास्टर साहब निलम्बित हो गये........ आगे चलकर पुलिस का लफड़ा भी बढ़ गया और फिर जमानत के लाले पड़ गये उन्हें........।
मास्टराइन भौजी बिना पढ़ाये वेतन लेती हैं यह तो सभी जानते थे पर वे अपनी नौकरी के लिए दूसरे के ऊपर इस इल्जाम तक जा सकती हैं....सुनकर सब ने दांतों तले अंगुली दबा ली। बाद में आने वाले किसी भी हेडमास्टर ने अब इतना जोखिम उठाने की हिम्मत नहीं ही की.......ग्राम प्रधान तक ने हेडमास्टर से यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया था कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता.........जाने दो, एक टीचर नहीं पढ़ायेगा तो चलेगा.....वैसे भी कहाँ सब कुछ दुरूस्त चल रहा है। सरकारें भी तो यही चाहती हैं कि उनके वोटरों पर शिकंजे न कसे जायें तो हेड मास्टर जी आप ही काहें को पंगा लेते हो? एक तो करेला दूसरे नीम चढ़ा... एक तो औरत दूजे विधवा। चलने दो जैसे चल रहा है...।’
हेड मास्टर साहब को प्रधान की बात अंशतः सच ही लगी। उन्हें भी एक सहारा मिल गया पर इसका असर दूसरे अध्यापकों पर पड़ना लाजमी था......उन्हें कैसे रोका जाय.......कैसे टोका जाय? हेड मास्टर के लिए यही सबसे बड़ी मुसीबत थी।

कोई साल भर पहले ही उनके पति का आकस्मिक निधन हुआ था तब गांव-जवार से लेकर विभाग तक उनके पक्ष में सहानुभूति की ऐसी लहर उठी कि राख ठण्डी भी नहीं हो पाई थी कि चारों ओर से मास्टराइन भौजी पर दबाव बनने लगा था। उनकी आंखों के आँसू कहाँ थमे थे जब उनके जेठ ने समझाया था कि छोटे की जगह तुम्हें ही मास्टरी करनी है। तुम प्रार्थना पत्र पर हस्ताक्षर बनाओ बाकी हम संभाल लेंगे। कहाँ स्कूल जाना है तुम्हें.....मेरे रहते किसी अधिकारी-हेडमास्टर का कोई दबाव नहीं चलेगा। अधिकारी की शिकायत ऊँचे हुई नहीं कि समझो अफसर पिद्दी हो जाते हैं और तुम औरत हो.......मर्द अधिकारी की नब्ज पकड़ने की कला आनी चाहिए तुम्हें........।’
काफी ना- नुकुर के बाद अन्ततः तेरहवीं बीतते-बीतते उनका आवेदन विभाग के हवाले हो गया।
मास्टराइन भौजी का चेहरा देखकर लोग यही दुआ करते कि उनकी नौकरी जल्दी पक्की हो जाय। जब से वेे आई इस गाँव-घर में बहू बन कर उनका चेहरा बहुत कम लोगों ने देखा है। घर से बहुत निकली तो द्वार तक.........फिर आगे बस........सुबह-शाम मुँह अंधेरे ही वे घर की औरतों के साथ बाहर निकलती........ पर अब तो इधर घर में ही शौचालय बन जाने के कारण उतना भी निकलना बन्द हो गया। छोटे की मौत ने उन्हें और भी एकान्तवासी बना दिया। अपने भाई की मौत पर लछमन तिवारी भी टूट से गये थे पर तिकड़मी स्वभाव के कारण वे अभी तक हार नहीं माने थे। मास्टराइन भौजी यूँ तो बी0ए0 पास की डिग्री रखती थी पर कायदे से वे कक्षा सात तक ही स्कूल गईं थीं। बाकी बिना स्कूल गये, बिना पढ़े ही नहीं बल्कि बिना परीक्षा में लिखे वे बी0ए0 तक पहुँच गई और जिस दिन रिजल्ट निकला प्रथम श्रेणी में स्नातक उपाधि उनके सिर माथे पर आ चिपकी.........उस दिन तो सबसे ज्यादा खुशी उनके जेठ को ही हुई थी क्योंकि सुनियोजित अभियान में वे शत प्रतिशत सफल हो गये थे, इसके पूर्व भी गृह परीक्षाएँ तो स्लिप पर अंकित नम्बरों से सरकती रही और बोर्ड में तो फोटो दूसरी लड़की की लगी और परीक्षा पास की इन्होंने। बी0ए0 तो और भी आसान हो गया है। वित्त विहीन डिग्री कालेजों ने शिक्षा के क्षेत्र में इतना अधिक योगदान दिया है कि गावँ-खेड़ा में खेती किसानी करते, बाल बच्चे पैदा करते, पंचायत चुनाव लड़ते लड़के-लड़कियां, बुजुर्ग महिला-पुरुष सब के सब बी0ए0 की उपाधि बतौर बोनस प्राप्त कर ही लेते हैं.......जगह-जगह भव्य इमारतों के रूप में खड़े ये स्थल......प्रवेश और परीक्षा के खेल में इतने माहिर हो चुके हैं कि अब भट्ठा चलाने वाले, ठेकेदारी करने वाले या पंचर बनाने वाले भी प्रबन्धक बन कर शिक्षादान का पुण्य बटोर रहे हैं।
कुछ इसी तरह की व्यवस्था में संचालित इण्टर कालेज में स0अ0 हैं लछमन तिवारी........ इण्टर कालेज क्या, स्थाई मान्यता तो कक्षा 8 तक की ही है पर शिक्षा विभाग में क्या कुछ नहीं होता। प्राइमरी की अस्थाई मान्यता वाले भी हाई स्कूल- इण्टर तक की कक्षा संचालन के बड़े-बड़े बोर्ड लगा कर बैठे हैं.........न अभिभावक कभी पूछता है न विभागीय अधिकारी कि जिन स्कूलों में बच्चे का प्रवेश हाई स्कूल-इण्टर कक्षाओं में हो रहा है वे मान्यता प्राप्त हैं भी या नहीं। जिसका जितना बड़ा बोर्ड उसका उतना बड़ा रूतबा.....। तिवारी जी यानि.....साफ रंग, कद-काठी मझोली पर गठी हुई.......। मूंछे रखने के शौकीन हैं। धोती-कुर्ता-जाकेट (सदरी) और कन्धे पर मौसम के अनुरूप सफेद शाल........यही पहनावा है उनका। कस्बे की बाजार से एक डे़ढ़ किलोमीटर की दूरी पर गांव है उनका........पर दिन भर उनका समय या तो बाजार में, ब्लाक पर या फिर शिक्षा विभाग के दफ्तर में ही व्यतीत होता है। पहले तो वे साइकिल से चलते थे पर जब से उनके सर्मपण भाव को शिक्षक संघ ने पहचाना है वे शिक्षक के रूप में उदासीन और शिक्षक समस्याओं के प्रति विनम्र और जागरूक होते चले गये। उन्होंने वर्तमान शिक्षक पीढ़ी की नब्ज को पहचाना है फिर क्या था वे थोक भाव में शिक्षक समस्याएँ इकट्ठा करते और विभागीय अधिकारियों के पास उसके निपटारे हेतु पैरवी में जुट जाते हैं। बाबू की टेबिल से अधिकारियों के आवास तक उनकी कर्मठता वटवृक्ष की तरह फलने-फूलने लगी.........कार्यालयी व्यवस्था में लेन-देन एक स्वाभाविक प्रक्रिया मानी जाती है। शुरूआती दौर में यही घूस कही जाती थी फिर सुविधा शुल्क के रूप में गौरवान्वित हुई और अब यह ‘आशीर्वाद’ जैसे पवित्र शब्द के साथ जुड़ गई......इस तरह लछमन तिवारी आशीर्वाद के लेन-देन में इतने अधिक माहिर हो गये कि अब वे नये माडल की बुलेट पर चलने लगे........।
काम तो हर शिक्षक-कर्मचारी का पड़ता ही रहता है सो लछमन तिवारी एक सेतु की तरह लोगों को पार उतारने के पवित्र कार्य में लग गये। न तो प्रधानाचार्य ने न विभाग के किसी अधिकारी ने कार्यालय में नियमित उनकी उपस्थिति पर कभी इतराज जताया। लछमन तिवारी ने अपनी पहिचान का दायरा काफी बड़ा बना लिया। वी0आर0सी0 से बी0एस0ए0 दफ्तर तक, डी0आई0ओ0एस0 दफ्तर से डी0डी0आर0-शिक्षा निदेशालय तक। प्राथमिक शिक्षा हो या माध्यमिक या फिर उच्च शिक्षा से जुड़ी किसी की कोई समस्या हो सबका समाधान लछमन तिवारी के जरियेे मौजूद था........जाहिर है सिर्फ ‘आशीर्वाद’ के लेन-देन से ही कार्य की सिद्धि सम्भव नहीं थी सो विधायकों, मन्त्रियों  के सम्पर्क हेतु वे सचिवालय तक पसर गये। फिर अधिकारी, उनके द्वारा सौंपे कार्य को करने में ना नुकुर कैसे कर पाता........।
अपने इसी प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने अपने छोटे भाई की विधवा पत्नी को मनमुताबिक प्राइमरी स्कूल में अनुकम्पा नौकरी दिला दी,जो पहले से ही घर-परिवार में मास्टराइन भौजी के नाम से जानी जाती थीं। कार्यभार ग्रहण कराने के बाद उन्होंने सिर्फ इतनी हिदायत दी थी कि ’अब तुम्हें वेतन लेना है........घर पर रह कर परिवार देखना है और यदा-कदा हेडमास्टर से लेकर वी0आर0सी0 तक पुरुष अधिकारियों की नब्ज पर हाथ रखे रहना है........बाकी तो मैं हूँ। देख लूँगा..........’।
जेठ की हिदायत को उन्होंने गांठ बांध ली और साल भर से ऊपर बीतने को आया वे बमुश्किल दो-चार बार ही स्कूल गई होंगी। यदि किसी हेड मास्टर ने शिकंजा कसना चाहा भी तो वह राधेलाल की तरह परेशान ही रहा.........।

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इस बार वित्त विहीन स्कूलों को परीक्षा केन्द्र बनवाने में लछमन तिवारी ने अहम् भूमिका निभाई थी। परीक्षा प्रभारी भगौती सिंह बाबू से उनकी खूब छनती रही है.......वित्त विहीन स्कूलों को परीक्षा केन्द्र बनवाने के लिए उनके प्रबन्धकों द्वारा जिस जोड़-तोड़-जुगाड़ का खेल खेला जाता है, इन्हीं शिक्षकों-बाबुओं के बल पर ही उसकी नीलामी तय होती है। फिर क्या परीक्षा की सुचिता बनाये रखने के, नकल विहीन परीक्षा कराने के बड़े-बड़े दावों की पोल परीक्षा के पहले ही दिन खुल जाती है.........शिक्षा माफियाओं, अधिकारियों-नेताओं की मिली भगत करोड़ों की आमदनी कराती है। लछमन तिवारी, पूरे जिले में इसके एक मात्र ठेकेदार बनकर उभरे थे। विगत तीन वर्षों से डिबार रहने के बाद इस बार वे अपने विद्यालय के अलावा चार अन्य स्कूलों को केन्द्र बनवा ही ले गये थे। खर्चा तो बहुत नहीं आया लेकिन स्वाभिमान को ठेस तो कई-कई बार लगी। पर सफलता मान-अपमान की परवाह नहीं करती। प्रबन्धक के खास हैं लक्षमन तिवारी तो प्रधानाचार्य स्वाभाविक तौर पर कुछ कहने की स्थिति में कहाँ रहेंगे। धीरे-धीरे वे पूरी व्यवस्था पर काबिज होते चले गये। लछमन तिवारी ने इस बार फिर से बड़ा सेन्टर बनवा कर आमदनी का जबरदस्त रास्ता खोल दिया है। सब खुश...... भागते भूत की लंगोटी सही’ की तर्ज पर थोड़ा-बहुत सभी शिक्षकों -कर्मचारियों ने बहती गंगा में डुबकी लगा ली।
स्कूल तो लड़कियों के लिए स्व0 केन्द्र रहता था ही, नियमों के विपरीत केन्द्रों की अदला-बदली कराई गई और मन मुताबिक बच्चों को केन्द्र पर भेजा गया सो आपसी समझदारी का परिणाम यह हुआ कि अस्सी प्रतिशत बच्चे प्रथम श्रेणी में, बाकी द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गये। अंकपत्र और टी0सी0 भी 500-500 में बिकी....... जो बतौर विद्यालय विकास हेतु नजराना ही था.....फिर लछमन तिवारी और प्रबन्धक जी की फोर व्हीलर जून के अन्त तक घर पर आ खड़ी हुई। हाँ प्रधानाध्यापक जी भी टी0वी0एस0 सुजुकी से पल्सर पर आ गये..........।
‘यह दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे’ की तर्ज पर भविष्य में यह तिकड़ी इतनी ज्यादा कारगर साबित हुई कि विद्यालय में छात्र-छात्राओं की अपार भीड़ इकट्ठा हो गई। विधायकों-मन्त्रियों तक चूंकि तिवारी की अच्छी पैठ थी ही सो स्कूल को इन सबकी निधियाँ मिलती रहीं और स्कूल उस क्षेत्र में बिल्डिंग के मायने में नम्बर वन हो गया......... अब लछमन तिवारी के घर दरबार लगने लगा। विभागीय कार्यों को कराने में तो वे पहले से ही लगे रहे हैं और एडमीशन, परीक्षा में अच्छे अंकों की पैरवी........कई-कई विभागों में नौकरियाँ दिलाने तक के लिए वे सफलता पूर्वक काम करते रहे और भीड़ उनके आगे-पीछे घूमती रही.......।
काना फूसी की कभी उन्होंने परवाह नहीं की। आलोचना को कोई तवज्जो नहीं दी उन्होंने। उनका कहना था कि हम्माम में सभी नंगे हैं। जिनको मौका नहीं मिला वे ही ईमानदारी की शेखी बघारते हैं। मैं तो जिन-जिन नेताओं-मन्त्रियों-अधिकारियों के सम्पर्क में काम लेकर आया, पूँछ उठाने पर मुझे सभी मादा ही नजर आये.........।’ काम साधने में तिवारी जी अद्भुत कला साधक थे। काम बिगड़ते देख गिड़गिड़ाने-पैर लगने में कोई कोताही नहीं और कमजोर को इस तरह फटकारते कि पूछो मत........सामने वाली की घिग्घी ही बंध जाती थी.......। वे समय की नब्ज पर हाथ रखे थे.......वे जानते थे कि आज अधिकांश लोग शॉर्टकट का रास्ता चुनना चाहते हैं........‘आशीर्वाद’ के लेन-देन में कोई हिचक नहीं होती उन्हें.........मुँह पर चांदी की जूती मारो काम कराओ......वापस घर। आफिस के चक्कर-काटने में समय की बरबादी ही तो होती है और फिर उन सबको लछमन तिवारी जैसे लोग ही रूचिकर लगते हैं.........।
एक समय था जब राजनीति ईमानदारों को अपनी ओर खींचती थी पर अब यह सिद्धान्त उलट गया है। भ्रष्ट, बेईमान, गुण्डे-बदमाश-अपराधी अब राजनीति के नवरत्न बन बैठे हैं......... चापलूसों-नाकारा लोगों से भरा है राजनीति का दालान.........फिर भी लोकतंत्र फलफूल रहा है। चुनाव हो रहे हैं.......मंच पर जनहित-विकास, जन सुविधाओं की बातें गायब हैं.......मसखरी हो रही है........विदूषकों का भाषण चल रहा है........बड़े-छोटे का लिहाज गायब है.........
धर्म-जाति की जड़ों में खाद-पानी डाला जा रहा है........वादों की खंझड़ी बज रही है.........रोजी-रोटी न्याय की समस्या हल करने के बजाय मुफ्त चीजें देने की फेहरिस्त पढ़ी जा रही है।
जनता क्या सोच रही है वह क्या चाहती है, इन आकाओं को इसकी भनक तक नहीं है......... इसी तरह के माहौल में लछमन तिवारी भी पंचायत चुनाव में अपनी किस्मत आजमाना चाहते हैं.......। काफी दिनों से वे महसूस कर रहे हैं कि राजनीति उन्हें अपनी ओर खींच रही है। वे चाहकर भी उससे दूर नहीं रह पायेंगे अब ज्यादा दिन.......। रात में अब वे ज्यादा देर तक जागने लगे हैं। खाना तो ग्यारह के पहले खाते ही नहीं हैं। मास्टराईन भौजी की जिम्मेदारी बढ़ गयी है। जेठ ने खाना नहीं खाया तो वे पहले कैसे खा लें.........सो जेठ की हर सुविधा का ख्याल रखते-रखते बारह तो बज ही जाते हैं........।
लछमन तिवारी के दिमाग में ब्लाक प्रमुखी बैठ गई है। इस बार किसी भी कीमत पर चुनाव में इस पद के लिए जुगाड़ बैठाना ही बैठाना है। अपने हित-मित्रों को अभी से इस काम के लिए लगा दिया है औरतों के बीच मास्टराइन भौजी बराबर बैठकी करती रहती हैं............. हालांकि तिवारी की छवि दलाल जैसी है पर यह बात भी लोगों के जेहन में रहती हैं कि जो काम कठिन से कठिन हो उसे लछमन तिवारी चुटकी बजाते करा ले जाते हैं। यह भी कि वे ‘आशीर्वाद ’ के लेन-देन में काम करा लेने के प्रति विश्वसनीय भी हैं..... सो उन्हें उम्मीद है कि पंचायत चुनाव तो वे जीत ही लेंगे......गांव-जँवार में हर एक के दुख-दर्द, शादी-भोज, मरगी-तेरहवीं पर वे अवश्य पहुंँचते हैं.......।
स्कूल स्टाफ से लेकर नाते-रिश्तों तक तिवारी के पक्ष में अभी तक तो लोग बोलते आये हैं। लछमन तिवारी मानते हैं कि पिच तैयार है बस बल्ला थामने की देर है। रेफरी ने सीटी बजाई नहीं कि मैदान जीत लिया.........। लछमन तिवारी आज की राजनीति के लिए उपयुक्त व्यक्ति हैं। उनका सपना बड़ा है, पर वहाँ तक पहुंचने के लिए ब्लाक प्रमुखी को वे बतौर सीढ़ी इस्तेमाल करना चाहते हैं। पंचायत चुनाव में सफलता के बाद किसी भी राजनैतिक पार्टी में वे खप जायेंगे। फिर विधायक-मंत्री बनने का सपना साकार हो जायेगा.......उनके सपनों को पंख लग गये हैं। इन सपनों को पंख लगाने में उनके स्कूल का एक चपरासी ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। नाम तो उसका राम जस है पर अपजस का टीका उसके माथे पर स्थाई तौर पर चस्पा हो गया है........नौकरी पर रखने के बाद से ही वह स्कूल के कई-कई काम देखता रहा है। प्रधानाचार्य के व्यक्तिगत कार्य से लेकर प्रबन्धक के तमाम घरेलू कार्य उसके जिम्मे हैं। लछमन तिवारी को सबसे अधिक सम्मान देने के पीछे तिवारी की प्रबन्धक से गहरी दोस्ती ही है.......प्रधानाचार्य से कहीं ज्यादा तिवारी सर को वह ताकतवर मानता है........तीन हजार से नौकरी शुरू कर अब वह सात हजार की तनखाह उठा रहा है........सामानों की खरीद फरोख्त में, छात्र-छात्राओं के प्रवेश से लेकर परीक्षा में उत्तीर्ण कराने तक के खेल में अन्दर-अन्दर उसकी आमदनी 100-200 रूपये रोज की हो जाती है.......वित्तविहीन स्कूलों में इससे कम वेतन पर तो अध्यापक पढ़ा रहे हैं.........।
तिवारी भी रामजस पर काफी भरोसा करते हैं हालांकि नमक से नमक नहीं खाया जाता की तर्ज पर तिवारी उससे सतर्क भी रहा करते हैं......कभी-कभी रामजस की मक्कारी पर वे खिन्न हो जाते हैं पर वह कभी भी तिवारी के प्रति अवज्ञा का भाव नहीं रखता है। तिवारी का आदेश हुआ नहीं कि रामजस एक पैर पर भागता है........स्कूल के कईयों को यह रास भी नहीं आता पर क्या कर सकते हैं। तिवारी तो सबकी मजबूरी है। प्रधानाध्यापक से लेकर प्रबन्धक तक उनके मुरीद जो हैं..........और टीचर तो स्कूल के बाद ट्यूशन-कोचिंग में व्यस्त रहते हैं। स्कूल के बाद फिर वे न तो प्रबन्धक की ओर न ही प्रधानाचार्य की ओर मुँह करते हैं। लछमन तिवारी ही ऐसे टीचर है जो स्कूल के विकास के लिए चिंतित रहते हैं। स्कूल प्रबन्धन की कमाई बढ़ाने के रास्ते तलाशते रहते हैं। उनकी सक्रियता हालांकि अन्दर-अन्दर प्रिंसिपल को नागवार लगती है, पर क्या कर सकते हैं। तिवारी के बलबूते ही सबके पास गाड़ियाँ हैं। प्रबन्धक का दबदबा बना है। प्रिंसिपल को कोई अनुशासन सम्बन्धी परेशानी नहीं झेलनी पड़ती है.......पवस्त में भी तिवारी का दबदबा जो कायम है, सो वसूली का कभी किसी गार्जियन ने कोई विरोध नहीं किया। एक बार तो शुरूआती दौर में प्रिंसिपल ने तिवारी की सुविधाएँ कम कर दीं और एकाध स्पष्टीकरण तक माँग लिया फिर क्या था जिस वसूली को तिवारी कभी विद्यालय विकास के लिए जायज मानते थे, एकाएक उसे नाजायज -अवैध करार देते हुए पब्लिक से कई शिकायती पत्र डी0आई0ओ0एस0 से लेकर डी0एम0-शिक्षा निदेशक तक डलवा दिया, फिर पैरवी कर जांच करवा दी और अपने ही सामने प्रिंसिपल को गिड़गिड़ाते हुए देखकर बाद में जांच को खत्म भी करवा दिया.......तब से प्रिंसिपल ने उनकी तरफ उंगली नहीं उठाई.......ऐसी ही असामान्य स्थिति एक बार और आई थी। रामजस के साथ......... हुआ ये कि अचानक एक दिन कुछ अभिभावकों के हुजूम ने प्रधानाचार्य के कक्ष को घेर लिया। स्कूल में हंगामा शुरू हो गया.........‘रामजस कहाँ है......उसे बुलाओ.......वह हरामी कहीं का, चपरासी की औलाद छेड़खानी करता है स्कूल में........बुलाओ उसे........।’
प्रधानाचार्य की घिग्घी बंध गई। किसी अन्य टीचर की हिम्मत नहीं हुई कि इस मसले पर कुछ बोलें.......। बात प्रबन्धक तक पहुँची पर वे कहीं बाहर गये थे। सब की निगाहें लछमन तिवारी पर लगी थीं पर उनके स्कूल में होने का कोई सवाल ही नहीं था। प्रबन्धक ने बड़े बाबू को तत्काल, तिवारी को बुलाने की व्यवस्था करने का निर्देश दिया। बात तिवारी तक पहुँची और वे संयोग ही था कि ब्लाक पर गप्पे लड़ा रहे थे सो बीस-पच्चीस मिनट में आ धमके........।
अभिभावकों ने अब तिवारी की ओर मुँह किया और सप्रमाण अपनी-अपनी शिकायतें रखीं उनके सामने..........तिवारी को काटो तो खून नहीं.......यह दो कौड़ी का चपरासी और इसकी इतनी बड़ी हिम्मत कि बच्चियों के साथ छेड़खानी कर बैठे........क्लास में अगली सीट पर बैठाने और परीक्षा में अच्छा अंक दिलाने की लालच देकर.........
तिवारी ने रामजस को वहाँ तत्काल बुलाना उचित नहीं समझा.......लेकिन माहौल इतना गरम था कि तुरन्त उस पर पानी भी नहीं डाला जा सकता था। सो तिवारी ने अभिभावकों को अलग कक्ष में बैठाकर चाय नाश्ते की तुरन्त व्यवस्था कराई वहाँ सिर्फ प्रधानाचार्य को बुलाया और अभिभावकों के सामने रामजस की नौकरी खत्म कराये जाने का प्रधानाचार्य से आश्वासन दिलाया। एक हफ्ते में जवाब देने हेतु तुरन्त नोटिस टाइप कराई और प्रधानाचार्य के हस्ताक्षर के बाद उसे बड़े बाबू को रामजस को थमाने हेतु सौंप दिया। एक हफ्ते की मोहलत मांगी अभिभावकों से तिवारी ने और सबके सामने प्रिंसिपल पर और अधिक कड़ाई बरतने का दबाव बनाया। बच्चियों को बुलाकर उन्हें पुचकारा और अब भविष्य में किसी भी तरह की परेशानी को तुरन्त संज्ञान में लाने का सुझाव दिया। अभिभावकों से यहीं पर सारी बातें खत्म करने की गुजारिश की और विद्यालय की इज्जत गांव-जँवार की इज्जत से जोड़ कर प्रबन्धक की ओर से माफी मांग ली.....।
बात आई गई खत्म हो गई पर रामजस फंस गया तिवारी के जाल में..........‘बहुत कन्नी काटता था साला........अब देखता हूँ कैसे उबरता है इस मुसीबत से.....।’ तिवारी घर में बैठे अचानक बुदबुदा उठे......। मास्टराईन भौजी रसोई में थीं पर उनके कानों तक यह आवाज पहुंची तो कुछ चौकन्नी हुई....चाय का प्याला उनके सामने रखती हुई प्रश्नवाचक निगाहों से देखा जेठ की तरफ....।
-‘आप कुछ बोले......?क्या.....।’
-‘नहीं मास्टराइन यूँ ही कुछ सोच रहा था......।’
-‘आप आजकल कुछ ज्यादा ही सोचने लगे हैं। अरे अभी दो महीने बाद ही चुनाव आने वाला है........आप का इतना दबदबा है तो उसकी चिन्ता में अभी से काहे सर खपा रहे हैं.........फिर अभी तक तो कोई आप के खिलाफ मतबूत कन्डीडेट भी नहीं आया है........।’

-‘ नहीं मास्टराईन वो बात नहीं है.......आज स्कूल में कुछ ऐसी बात हो गई जिससे पूरी छीछालेदर हो जाती पर वोे तो मैं मौके पर पहुँच गया सो कुछ दिनों के लिए मामला रफा-दफा हो गया......वो ससुरा........मक्कार चपरासी है न रामजस...... बहुत ज्यादा सर पर चढ़ा रखा था प्रबन्धक ने..........मास्टरों के बीच भी वह अपने को कुछ खास ही समझने लगा था। पर आज मैदान छोड़ कर भाग खड़ा हुआ..........।’

-‘अरे क्या हुआ वह तो आप को बहुत सम्मान देता है.........।’

-‘हाँ देता तो है। जानता है न कि हमारे बिना किसी का काम चलने वाला नहीं है.........मैने ही तो उसे रखवाया था पर मक्कार हरामी निकला........।’

-‘आखिर हुआ क्या........?’

- अरे स्साला.........बच्चियों को क्लास में आगे की सीट पर बैठाने तथा परीक्षा में अच्छे नम्बर दिलाने की लालच देकर अश्लील हरकतें करता था.........अभिभावकों को जानकारी हुई तो घेर लिया आकर प्रधानाचार्य को.......उनकी भी घिग्घी बंध गई थी, वैसे तो बड़े काबिल बनते हैं पर मैं न पहुंचा होता तो आज नंगे हो जाते.......।’

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प्रबन्धक दो दिन बाद लौटे तो अब सबसे बड़ी समस्या के तौर पर राम जस उनके सामने था। ‘भई गति साँप छछून्दर केरी’ न उगलते बन रहा था न ही निगलते.......अगले दिन रविवार था। लछमन तिवारी को बुलवाया, राय-मशविरा किया और फिर चार बजे स्कूल में पूरे स्टाफ की बैठक बुला ली।
सबसे पहले प्रबन्धक ने मास्टरों के समूह को भला-बुरा सुनाया........
-‘आखिर तिवारी जी न पहुंचे होते तो स्कूल की इज्जत दूसरे दिन अखबारों में नीलाम हो जाती......आप लोग कुछ नहीं कर पाये आखिर क्यों.........? यह सबकी जिम्मेदारी बनती है कि किसी समस्या का सामूहिक तौर पर निदान तलाशा जाय पर नहीं महीने में वेतन से मतलब.......और हाँ जिनके क्लास की बच्चियों की तरफ से यह शिकायत मिली है उन कक्षाध्यापकों की और अधिक जिम्मेदारी बनती है........बच्चों से निरन्तर उनकी प्राब्लम पूछते होते तो यह बात अन्दर ही अन्दर दब जाती.........बाहर क्यों कर आती........।’
प्रबन्धक के गुस्से के आगे कौन आये। दस बारह हजार महीने का वेतन और स्कूल के सहारे ही ट्यूशन-कोचिंग भी मिल रही है सो दस-पांच हजार की व्यवस्था अलग से.......प्रबन्धक के मुंह लग कर कौन जोखिम ले......सब चुप। ऐसे नीरव वातावरण में अचानक लछमन तिवारी की खनकती आवाज गूँजी.......।
-‘भाइयों आप सब यह बताओ कि रामजस के साथ क्या किया जाय? नोटिस मिली है उसे। जवाब आये तो कोई न कोई एक्शन लेना ही पड़ेगा क्या निर्णय उचित होगा आप सब भी बताइये..।’
पूरा स्टाफ चुप........बिल्ली के गले में कौन घंटी बांधे.........तभी प्रबन्धक ने प्रधानाचार्य की तरफ देखा.....
-‘आप ही बताइये महोदय, रामजस का जो भी जवाब आयेगा वो अलग है पर इतनी बड़ी गलती करने की हिम्मत कैसे कर बैठा वह....आप का अनुशासन मुझे कमजोर लग रहा है..।’
-‘नहीं सर ऐसी बात नहीं है, पर मैं भांप नहीं पाया कि यह ऐसी हरकत भी कर रहा होगा...’
-‘यही देखना, भाँपना तो आप का काम है आप को सारी सुविधाएँ मिली हैं स्कूल की तरफ से.........ऊपर से तीस हजार वेतन दे रहा हूँ....... कहाँ किस स्कूल में इतना मिल रहा है.......पता करिये तब मालूम पड़ेगा.........फिलहाल मैं इस घटना से बहुत पजेल्ड हूँ........यह तो स्कूल की रेपुटेशन को ही खत्म कर देगा.........आप समझिये इसको.......।’
प्रबन्धक ने थोड़ी देर तक चुप्पी साधी। माथा पकड़ कर बैठे रहे फिर लछमन तिवारी की तरफ मुखातिब हुए........।
-‘तिवारी जी आप ही इसका कोई हल खोजिए बाकी ये सब तो बकचोद हैं सब के सब..।’
तिवारी ने बड़े बाबू से रामजस को हाजिर होने के लिए कहा। रामजस सिर झुकाये, हाथ जोड़े सामने उपस्थित हुआ। प्रबन्धक ने जलती निगाहों से देखा उसे....... ‘तेरी हिम्मत कैसे हुई रे हरामी बोल नहीं तो जेल भिजवा दूँगा और नौकरी जायेगी अलग से.......।’
रामजस क्या करता। तीनों के पैरों पर गिर पड़ा बारी-बारी से पर तिवारी ने उस पर ध्यान कम ही दिया। उनका मकसद था अध्यापकों की राय जानना। फिर तिवारी जी मुखातिब हुए स्टाफ की तरह और पूछा- ‘बोलिये भाई आप लोग जो कहेंगे वही किया जायेगा इसके साथ...... स्कूल की इज्जत-प्रबन्धक की इज्जत को ध्यान में रख कर अपनी राय दीजिए.......बोलिये........।’
एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया कमरे में। तिरछी नजरों से एक दूजे को देखने लगे लोग.......फिर गणित अध्यापक अनन्त कुमार सिंह ने कहा ‘यह तो बहुत बड़ा अपराध है और स्कूल की विश्वसनीयता पर बट्टा लगा है तो हम सब की राय है कि रामजस को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाय ताकि अभिभावकों को लगे कि स्कूल का प्रशासन सख्त है। अन्य अध्यापकों से भी पूछ लिया जाय सर.......।’
तिवारी ने अन्यों की तरह निगाह उठाई तो सभी ने एक स्वर से अनन्त कुमार का समर्थन कर दिया........।
मीटिंग खत्म हो गई। तिवारी ने सभी को विदा किया और रामजस की तरफ मुखातिब होकर बोले.......‘कल तक जवाब दो वरना अपना रास्ता नापो.......समझे.......।’
अगले दिन सुबह ही रामजस तिवारी के दरवाजे पर मुँह लटकाये आ बैठा। अभी तो तिवारी जी मुँह में दातुन डाले लोटा उठाये ही थे कि मुसीबत सामने खड़ी मिली खैर तिवारी आधे घण्टे में वापस लौट कर आने की बात कहकर जानवरों की तरह इशारा किया और आगे बढ़ गये। रामजस की समझ में तुरन्त आ गया कि उसे क्या करना है। मास्टराइन भौजी के पांव छुए और जानवरों को चारा पानी देने में लग गया। काम निपटा कर बैठा ही था कि मास्टराइन भौजी की चाय आ गई। चाय थमाते हुए उन्होंने रामजस की बखिया उधेड़ना शुरू कर दिया और अन्त में यह कहते हुए कि ‘जेठ जी तुम्हारे बारे में इतने चिंतित थे कि रात भर सोये नहीं’ रामजस को सहानुभूति से सराबोर कर दिया। वह चाय पीता रहा, अपनी नौकरी, बाल बच्चों की जिन्दगी की भीख मांगता रहा और मास्टराइन भौजी गरम लोहे पर वार पर वार करती रहीं.......‘चिंता मत करो जेठ जी हैं तो तुम्हारे लिए कोई न कोई रास्ता अवश्य निकालेंगे........वैसे मैनेजर साहब और हेड मास्टर जी तो तुम्हें बिल्कुल नहीं चाहते.......हाँ जेठ जी तो बता रहे थे कि पूरा स्टाफ तुम्हारे खिलाफ है.......।’
तिवारी जी लौटे तो रामजस ने उनका लोटा थाम लिया। मांजा और लोटे भर पानी से तिवारी जी का हाथ-पैर धुलवाया.......तब तक मास्टराइन भौजी चाय लाकर खड़ी हो गईं।
-‘जेठ जी आप तो सबके कल्याण के लिए लगे रहते हैं अब देखा ई रामजस का .......इसका उद्धार तो आप ही के वश की बात है, पर ई देखना भी जरूरी है कि मैनेजर-प्रिंसिंपल कैसे मानते हैं और आप ही के दबाव से मामला सब साइड हो सकता है......।’
-‘देखो मास्टराइन मामला थोड़ा टिपिकल हो गया है पर देखता हूँ चाय पी लूँ फिर फोन पर बात करके बताता हूँ......’ तिवारी जी चाय पी रहे थे और मन ही मन मौके का फायदा उठाना भी चाह रहे थे.........वैसे भी कौन किसे घास डालता है.......फंसे तभी गांठ ढीली होती है......’। 
तिवारी ने घर आये शिकार की डीलिंग का काम मास्टराइन को सौप रखा है। उनका काम था ऐसे लोगों को डराना-धमकाना और फिर ‘आशीर्वाद’ लेने-देने के लिए तैयार करना.......रामजस भी इस समय मास्टराइन के लिए एक शिकार ही था। प्रबन्धक से बात हुई और तिवारी ने दो लाख तक में मामला निपटा देने की बात रामजस के कान में धीरे से बता दी......रामजस की गिड़गिड़ाहट बढ़ गयी, ‘कहाँ से लाऊँगा साहब इत्ता.....कुछ और कम पर बात बन जाये तो जी जाऊँगा........’
तिवारी के बोलने के पहले ही मास्टराइन भौजी बोल उठी-
-‘देखो रामजस........दो साल का वेतन समझो नहीं मिला.......और हाँ अगर अभिभावकों का जोर दबाव बना रहा तो एफ0आई0आर0 भी हो सकता है और फिर ऐसे केसेज में जल्दी जमानत भी नहीं होती है.....फिर तो जो सोचो.......वैसे जेठ जी तो कम से कम में चाहते हैं पर पूरा स्टाफ तुम्हारे खिलाफ है और सबसे दुश्मनी नहीं मोल ली जा सकती........अब जैसा सोचो तुम चाहो तो मैनेजर से जाकर मिल लो........’
-‘ नाहीं साहब हम और कहीं नाहीं जाबै, हमरा कल्यान तो यहीं से होना है। बाकी सब तो इन साहब का पिछलग्गू हैं.......।’
बात तय होते ही तिवारी ने प्रिंसिपल द्वारा मांगे गये स्पष्टीकरण का जवाब लिखवा दिया और कल शाम तक बाकी इंतजाम का निर्देश देकर उसे घर भेज दिया। अगले दिन डेढ़ लाख तिवारी जी के खाते में जमा हो गया बाकी पचास में मैनेजर को संतुष्ट किया और निलम्बन माह का वेतन प्रिंसिपल के हवाले हो गया। अब रामजस की प्रतिदिन शाम की हाजिरी तिवारी के घर तय हो गई.......जानवरों को चारा-पानी, घर के रसोई का भी थोड़ा बहुत काम वह निपटाता और तब घर जाता। हाँ तिवारी की उदारता इतनी थी कि शाम का खाना वह यहीं खाकर तभी घर जाता था.......।
दूसरे दिन शाम को प्रबन्धक के घर कुछेक कार्यकारिणी सदस्यों के साथ तिवारी जी और प्रधानाचार्य उपस्थित थे। बैठक में रामजस के बारे में निर्णय पर अन्तिम मुहर लगनी थी। लम्बी वार्ता के बाद तय हुआ कि स्पष्टीकरण के कुछ बिन्दुओं से असहमत होने की दशा में 15 दिन का एक मौका देते हुए पुनः रामजस से स्पष्टीकरण मांगा जाय। तिवारी का कहना था कि प्रकरण को लम्बा खींचने से अभिभावकों को लगेगा कि उनके साथ न्याय होगा और फिर धीरे-धीरे लोग इस प्रकरण को भूलने भी लगेंगे। प्रबन्धक ने प्रधानाचार्य को नोटिस दोबारा देने की हिदायत दी और अन्तिम निर्णय तिवारी के ऊपर छोड़ दिया। दो महीने के बाद अन्ततः प्रधानाचार्य ने उसका सस्पेंशन वापस ले लिया। इसके लिए रामजस को बतौर नजराना 5-7 किलो घी और एक महीने तक एक किलो दूध प्रतिदिन प्रिंसिपल के घर समर्पित करना पड़ा। इस पर तिवारी ने कोई आपत्ति नहीं जताई और प्रिंसिपल के यहाँ पहुंच कर इस व्यवस्था की सूचना सबसे पहले उनकी पत्नी को उपलब्ध कराई और यहाँ भी अपनी पोजीशन मजबूत कर ली उन्होंने.........।
एक बड़ी समस्या का सफलतम समाधान निकाल कर खुशी-खुशी घर पहुंचे तिवारी तो मास्टराइन की उदास आँखों में पीड़ा-खीझ का समन्दर लहराते हुए दिखा.......।
-‘क्या हुआ मास्टराइन कुछ खास बात हुई क्या? घर में सब ठीक तो है......’ तिवारी ने बुलेट खड़ी कर बरामदे में कदम रखते हुए पूछ लिया। पर उनकी तरफ से कोई उत्तर नहीं आया और वे ‘यह कहते हुए अन्दर चली गई कि कपड़ा लत्ता उतारिये- मुँह हाथ धो लें मैं चाय बना कर लाती हूँ......।’
तिवारी अपने को सामान्य करने में लग गये। वे आज बड़ी तिकड़मी जीत हासिल किये थे। रामजस को उसकी औकात बताना और फिर अपने तत्काल प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए उसे वापस नौकरी पर ले आना........। रामजस के लिए तिवारी जी अब किसी भगवान से कम नहीं थे। तिवारी इस खुशखबरी को मास्टराइन तक पहुंचा कर हल्का होना चाह रहे थे पर यहाँ तो उन्हें कुछ दाल में काला नजर आ रहा था।
चाय की चुस्कियाँ लेते हुए तिवारी ने फिर अपनी बात दोहराई-
-‘क्यों क्या बात है इतनी उदास क्यों नजर आ रही हो.......तुम्हारी ये रोनी सूरत हमें बिल्कुल नहीं पसन्द है........और हाँ आज तो वही निर्णय हुआ जो मैं चाहता था। रामजस को बहाल कर दिया और अब वह तुम्हारा मुरीद बन गया है जैसा चाहो वैसा काम कराओ.........।’

पर मास्टराइन की चुप्पी ज्यों की त्यों बरकरार रही.......अब तिवारी के लिए यह भारी पड़ रहा था सो उन्होंने थोड़ी आवाज कड़क करते हुए पुनः पूछा.......‘किसी ने कुछ कहा हो तो बताओ......घर में-बाहर कोई भी बात हो बताओ.......निःसंकोच.........।’
-‘क्या बतायें.....आज विद्यालय में नई हेडमिस्ट्रेस ने ज्वाइन कर लिया। हमें तो एक बजे के बाद पता चला। आते ही उन्होेंने मीटिंग की। हाजिरी रजिस्टर सीन किया और दो लोगों को अनुपस्थित दिखाकर तुरन्त सूचना बी0आर0सी0 भिजवा दी। और जब मुझे सूचना मिली तो मैं भागते स्कूल पहुँची...........’ मास्टाइन की आवाज में पीड़ा और तिलमिलाहट का अनुपात बराबर था......।

-‘अचानक........और मुझे पता नहीं चला........।’

-‘हाँ अचानक ही तो हुआ यह सब.........स्कूल में किसी को इसकी भनक तक नहीं लग पाई। मैंने अपना पक्ष रखा पर उन्होंने कोई बात नहीं सुनी......।
-‘ यही तो तुमने गलत किया जो भागते स्कूल पहुंच गई......अरे क्या कर लेती....... जब उनकी तरफ से बुलाया जाता तब जाती तो स्वाभिमान कम से कम बना तो रहता........खैर कौन है कहाँ से आई हैं कुछ पता लगाया? तिवारी जी की सारी खुशी कफूर हो गई थी और वे कुचले सांप की तरह फन हिला रहे थे।
-‘हाँ पता तो चला.......
करमोली ग्रामसभा के एक जूनियर स्कूल में सहायिका थी अभी पिछले महीने ही तो वरिष्ठता क्रम में पदोन्नति सूची जारी हुई थी। सरोजनी बाला नाम है उनका........ बड़ी कड़क लगी मैं तो उलझने वाली थी पर मास्टर रमेशर पासी ने कनखियों से मना कर दिया। वह आदमी हम लोगों का समर्थक है.........।’
-‘......हाँ यह तो पता था कि पदोन्नति सूची जारी हुई है पर अभी ज्वाइनिंग की बात तो चली ही नहीं थी। पंचायत चुनाव बाद ज्वाइनिंग होनी थी.......खैर सरोजनी बाला कहाँ किस गांव-परिवार की है जरा पता लगाना है मुझे........ देखता हूँ कितना उछलती हैं.........अभी उन्हें पता नहीं होगा कि मैं कौन हूँ और आप हमारे परिवार की हैं.........’।

-‘चलिये छोड़िये.......फिर देखियेगा। अब तो लगता है संघर्ष की नींव पड़ ही गयी है। कुछ न कुछ तो दिक्कतें आयेंगी ही। महिला होने के नाते लड़ाई थोड़ी कठिन हो गयी है। अरे उधर देखिये रामजस आ रहा है......।’

-‘आओ रामजस .......अरे कल आते आज तो वैसे भी कोई खास काम नहीं है। मैं भी तुम्हारे प्रकरण में महीनों से माथा पच्ची करते थक गया हूँ खैर चलो तुम्हारे पक्ष में निर्णय हो गया.........नहीं तो परेशानी खड़ी हो जाती और देखो मास्टरों ने एक स्वर से जिस तरह तुम्हारा विरोध किया........शायद मुझे लगता है प्रिंसिपल की शह थी क्या? अन्यथा गणित मास्टर सब की ओर से ऐसी राय क्यों व्यक्त करते.......।’

-‘हाँ गुरू जी........रामजस ने तिवारी के पाँव पकड़ लिये। मास्टराइन भौजी की चरण वन्दना की.......और कहा साहब तो काफी माहौल मेरे खिलाफ बनाये हुये थे। इसी से स्टाफ भी विरोध में आ गया था लेकिन आप तो हमारे लिए भगवान बन कर खड़े थे और मैं जेल जाने से भी बच गया........ अब हुकुम करिये क्या करना है.......’

-‘देखो रामजस दो महीने बाद चुनाव आना है। क्षेत्र में इनकी पोजीशन ठीक है। इन्होंने बहुत हित किया है लोगों का.....बस तुम्हे अपनी बिरादरी में इनके लिए माहौल बनाना है। अपनी बिरादरी में कोई खड़ा न होने पाये इसका ध्यान रखना। बाकी तुम्हारी मदद हम लोग हमेशा करते रहेंगे.......।’ मास्टराइन भौजी ने अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया था। ‘बैठो चाय बनाती हूँ’ वे उठने को हुई तो रामजस ने उन्हें रोक दिया-‘ आप बैठिये मुझे बताइये क्या करना है। एक बार थोड़ा देखना पड़ेगा फिर सब समझ में आ जायेगा। चलिये बता दें मैं चाय बनाता हूँ.....’ कहकर वह उठ गया.....।
चाय आई तो तिवारी जी ने पी कर तारीफ की........ ‘बिल्कुल मास्टराइन जैसी चाय बनाई तुमने अब इन्हें थोड़ा आराम मिलेगा। जरूरी काम निपटा कर रामजस जाने को हुआ तो मास्टराइन भौजी ने खाने के लिए रोक लिया।
× × ×

सुबह जल्दी-जल्दी तैयार हो गई मास्टराइन स्कूल जाने के लिए.......आज रात थोड़ी नींद भी कम ही आई थी उन्हें.......बार-बार सरोजनी बाला का चेहरा कौंधता......अब तक की दबंगई क्षण में मटियामेट हो गई थी........पहली बार किसी ने उनके कालम में अनुपस्थित लिखा था और तुरन्त सूचना भी वी0आर0सी0 तक पहुँचा दी.......क्या समझती है अपने आप को.......अरे तेरा जीना हराम कर दूँगी अगर तूने मुझे छेड़ा तो......हेड मास्टर राधेलाल का इतिहास इसे बताना है’......रात में कई-कई बार वे बुदबुदा उठी थीं.......।
इतनी सुबह मास्टराइन को तैयार होते देख तिवारी ने पूछ ही लिया......‘क्या बात है कहीं जाना है क्या.......?’
-‘सोच रही हूँ दो चार दिन स्कूल चली जाऊँ। उसका रंग ढंग तो देखूँ क्या कर सकती है वह? कहाँ तक जा सकती है? यह भी तो पता लगाना है कि कहाँ की कैसे है? अपने पक्ष के मास्टरों को लगाना है इसके पीछे.......ये औरत जितना ही अनुशासन कसेगी-उत्पात मचायेगी उतना ही टीचर इसके खिलाफ लामबन्द होंगे और मेरा पलड़ा भारी होगा.......।’
-‘अरे वाह! सोचा तो तूने बड़ी मार्के की बात......उसके बारे में पता तो चल ही जायेगा......पर एक बात सुनो.......अगर इतनी जल्दी तुम उसकी इच्छा के अनुसार काम शुरू कर दोगी तो फिर वह हाबी हो जायेगी और तुम कमजोर पड़ जाओगी। फिलहाल दो चार दिन स्कूल मत जाओ देखो उसका एक्शन क्या होता है.......बाकी चिन्ता मत करो.......तुम मुझे जानती हो.......मैं उसे कैसे पस्त करूँगा........बताऊँगा........।’
फिलहाल मास्टराइन ने आज स्कूल जाने का इरादा त्याग दिया। लेकिन बारह बजते-बजते उनके शुभ चिन्तक मास्टर का फोन आ गया। अनुपस्थिति दर्ज कर दो लोगों की सूचना बी0आर0सी0 भेज दी गई। मास्टराइन का पारा सातवें आसमान पर चढ़ आया। तिवारी जी तो घर पर थे नहीं पर उन्हें फोन से सूचना दे दी गई। लछमन तिवारी के लिए इससे बड़ा अपमान और क्या हो सकता था? क्षेत्र में ही थे 10 मिनट के लिए स्कूल गये थे। प्रधानाचार्य से जरूरी काम बताकर वे बी0एस0ए0 दफ्तर की तरफ निकले थे पर रास्ते में यह अशुभ सूचना पाकर वे वी0आर0सी0 की तरफ मुड़ गये। संयोग से बी0ई0ओ0 मिल गईं।
सामान्य शिष्टाचार बरतने के बाद तिवारी जी सीधे अपने मकसद पर आ गये.......मैडम हरपालपुर के जूनियर स्कूल में जो प्रधानाध्यापिका हैं, उनके बारे में बात करनी हैं आप कहें तो शिकायत करूँ.......।‘

‘हाँ बोलिए-साथ ही अपना परिचय भी बताइये चूंकि मैं भी अभी यहाँ के लिए नई ही हूँ.......’बी0ई0ओ0 ने अपना मंतव्य स्पष्ट कर दिया......।

-‘देखिये मैडम मैं तो फिलहाल इण्टर कालेज में टीचर हूँ और शिक्षक संघ का नेता भी हूँ आपके विभाग के कई-कई कार्य मेरे द्वारा ही निपटते हैं.......आप को भी जरूरत पड़ेगी तो मैं ही काम आऊँगा और तब आप को मेरा परिचय जानने की जरूरत नहीं पड़ेगी। दूसरी बात यह है कि उस स्कूल में मेरे छोटे भाई की पत्नी टीचर है। उसे परेशान किया जा रहा है...... सो मैंने सोचा आप से सबसे पहले शिकायत कर दूँ......आप से उम्मीद है कि आप सरोजनी बाला को थोड़ा समझा देंगी.......।’

-‘ ठीक है पर किस तरह परेशान किया जा रहा है इसकी शिकायत यदि लिखित कर दें तो मैं कभी भी जांच कर लूंगी......।’

-‘ ठीक है.....ठीक है......अभी तो मौखिक ही कह रहा हूँ लिखित तो बाद में दूँगा......’ कहते हुए तिवारी बाहर आये और अपनी बुलेट उठा ली.......पर उन्हें यह मुलाकात संतोषजनक नहीं लगी। क्या रास्ता हो सकता है सरोजनी बाला से निपटने का.......’ वे मन ही मन सोचते जा रहे थे.......क्योंकि शिकायत तो कोई हो नहीं सकती.......कोई और रास्ता तलाशा जाय’।
तिवारी सीधे घर पहुँच गये उनका मन किसी अन्य कार्य में लगा ही नहीं। जल्दी घर आना  देखकर मास्टराइन भी चकित रह गईं.......तिवारी के चहरे पर थोड़ी थकान थी शायद वह चिंता  और उलझन के कारण  आ गई थी। मास्टराइन से बी0ई0ओ0 से हुई मुलाकात  की बात बताकर वे कपड़े उतारने लगे फिर आराम से पसर गये तखत पर..........आंखें छत पर जा टिकी मानो उनके अहम पर लगी चोट छत पर पसर गई हो और वे समेटना चाह रहे हो उसे।
मास्टराइन ने नींबू पानी का शरबत बनाकर उन्हें थमा दिया। यूं तो समस्याओं से जूझने निपटने में माहिर हैं पर मास्टाराइन को लेकर वे डिस्टर्ब हो गये। दूसरों की समस्याओं को देखना, समझना और फिर उसके समाधान की जुगत बैठाना अलग किस्म का आनन्द देती है पर अपने घर की परेशानी, समस्या कुछ ज्यादा ही तकलीफदेह होती है। अपना दर्द अपना ही होता है। पूरे हफ्ते भर की अनुपस्थिति रजिस्टर पर चढ़ गई और आज तो प्रधानाध्यापिका ने हद ही पार कर दी। मास्टराइन के नाम घर के पते पर नोटिस भेज दी........। यह सूचना मास्टराइन को मिली तो गरम बालू में लावे की तरह भुन उठीं लेकिन उन्होंने स्कूल न जाने का अपना इरादा अभी नहीं बदला और न ही नोटिस का कोई जबाव देने का मन बनाया। शाम को तिवारी के घर पर आने से उनकी पीड़ा मुखर हो उठी।
-‘आप कुछ नहीं कर रहे है। सरोजनी बाला को हल्के में ना लीजिए.....उसकी बदतमीजी देख रहे हैं। आज यह नोटिस आ गई है। पढ़िये इसे......अब और दिन तक अनुपस्थिति रहना ठीक नहीं है। कहाँ हम लोग सोच रहे थे कि वह संदेशा भेजकर बुलवायेगी.......पर नहीं लगातार अनुपस्थिति किया और अब ये नोटिस......सोच रही हूँ कल जाँऊ और टोकाटाकी पर भिड़ जाऊँ। देखा जायेगा जो होगा......पर आप क्या सोचे हैं। पुरुष अधिकारी से कोई भय नहीं, उसे तो नीचा दिखाने के पचासों हथकंडे हैं पर औरत से कैसे भिड़ा जाय? क्या इल्जाम लगाया जाय......?’

-‘.......आप परेशान मत होइये.......ग्राम सभा के दो चार लोगों से इसके खिलाफ शिकायती पत्र लिखवा रहा हूँ बी0एस0ए0 से लेकर डी0एम0 तक फिर जरूरत पड़ी तो आगे मण्डल से सचिवालय तक शिकायत हो जायेगी।........फिलहाल अगले हफ्ते जाइए और मिड-डे-मील की पोजीशन देखिए और बच्चों से खराब खाने की शिकायत कराइये और खाने का बहिष्कार कराइए। दो चार टीचर जो हमारे पक्ष के हैं उन्हें अपने साथ लीजिए.......क्योंकि सभी त्रस्त हैं। मास्टर भला कहाँ समय से स्कूल जाना चाहता है और अब समय से पहुंचना चालू हो गया है, और पढ़ाना भी.......सुना है घर जाने के लिए लोग शनिवार को इंटरवल में अब नहीं निकल पाते हैं और सोमवार को देर से आने की कोई छूट नहीं.........नंदलाल यादव मिला था। बता रहा था कि हम लोगों ने इतनी छूट के लिए सामूहिक निवेदन किया था पर मैडम ने यह छूट लेने वाले को लिखित अप्लीकेशन देने को कह दिया। अब भला बताओ कोई लिखित कैसे देगा वह भी नाजायज छूट लेने के लिए।
‘........लेकिन नोटिस का जबाव तो देना ही होगा।.........नहीं तो वह दस्तखत भी न करायेगी, तो झंझट हो जायेगा........’। मास्टराइन की बेचैनी बढ़ रही थी।

‘........ठीक है देखा जायेगा। हम अधिकारियों से बात कर लें........विधायक जी तो हैं ही हमारे पक्ष के, उनके कान मे भी  यह बात डाल देता हूँ। अगले हफ्ते सचिवालय भी जाना है। बी0एस0ए0 अपना ट्रांसफर चाहते हैं। उनसे भी इसका इलाज तलाशना है। बी0एस0ए0 साहब से आज बात की है.........’।
‘.....तो इसे जल्दी करें नहीं तो बात बढ़ रही है और अब वे बेलगाम हो रही हैं’।
.......‘कल बी0एस0ए0 ने सरोजिनी बाला कोे आफिस बुलवाया है। मैं वहीं रहूंगा।’
× ×

अगले दिन निर्धारित समय पर सरोजिनी वाला बी0एस0ए0 दफ्तर में पहुँच गईं। 
-‘बी0एस0ए0 साहब डी0एम0 साहब के यहाँ गये है’। दिनेश बाबू ने सूचना देते हुए बगल मे कुर्सी सरका दी। ‘बैठिये मैडम और कैसे चल रहा है स्कूल.......। काफी त्रस्त कर रखा है आप ने मास्टरो को........’।

-‘कौन कह रहा है। दिनेश बाबू........बताइये तो सही’।

मैंने तो सुन रखा है। आते जाते लोग बताते रहते है........।
तब तक तिवारी जी भी आ गये। तिवारी के आते ही कई बाबू लोग उठ खड़े हुए। उनको बैठने की कुर्सी दी गई और तुरन्त चपरासी भेजकर बड़े बाबू ने चाय नाश्ता मंगवा लिया।
-लीजिए मैडम ये तिवारी भी आ गये.........इनकी भयेहू भी आप के यहाँ टीचर हैं वो भी आप से त्रस्त है शायद। ये तिवारी जी बता रहे थे......।’ दिनेश बाबू  अपने विभाग में काफी मुंहफट बाबू माने जाते हैं। कमाओ खिलाओ.........फिर खिलाओ कमाओ का फंडा जानते हैं दिनेश बाबू। तिवारी जी से खूब छनती है। सरोजिनी बाला ने देखा गौर से तिवारी को.........।
‘........अच्छा आप के बारे में बी0ई0ओ0 साहिबा बता रही थीं। कोई शिकायत थी आपको ......पर आप की भयेहू तो कभी स्कूल आती ही नहीं.....‘ मुँह की बात छीन ली तिवारी ने और बड़े ही सूखे अन्दाज में बोल उठे- ‘देखिए मैडम आप के जूनियर- प्राइमरी के क्या हालत हैं हमसे छुपी नहीं है। आधे कर्मचारी कहाँ ड्यूटी पर आते हैं। आप के स्कूल में ही अभी तक कहाँ सभी टीचर रोज रहा करते थे। आप अध्यापिका हैं, तानाशाह नहीं हैं। संभल कर नौकरी करिये.......’।

-‘तो आप यह कहना चाहते हैं कि जो पढ़ाने नहीं आते उन्हें पूरी छूट दी जाय.....क्यों दिनेश बाबू ऐसा कोई आदेश आप ने जारी करवा दिया है क्या........।’

मामला गरमाता कि घंटी की आवाज सुन चपरासी दौड़ा। शायद बी0एस0ए0 साहब आ गये हैं। कुछ देर बाद बडे़ बाबू को बुलावा आया। दिनेश बाबू ने कनखियों से देखा तिवारी जी को और फिर मैडम की तरफ मुखातिब हुए- ‘देखो मैडम राजकाज यूँ ही चलता रहता है बहुत फटफटाइये तो भी न फटफटाइये तो भी। हर विभाग ने अपनी सुविधानुसार एक ढर्रा बना लिया है उसी पर सब चलते आ रहे हैं। आप बताओ क्या रामराज में सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था? मैं तो बीस बरस से इसी विभाग में हूँ और देखता चला आ रहा हूँ। अधिकारी आते जाते हैं। हेडमास्टर आये-गये, मुझे तो नहीं लगता कि कभी भी चारों कोना दुरूस्त रहा है।’ कहकर लम्बी सांस ली दिनेश बाबू ने। अपनी बातों के समर्थन में उन्होंने औरों की तरफ निगाह डाली, जिनमें अधिकांश टीचर थे और अपना-अपना स्कूल छोड़ कर आये थे। कईयों ने दिनेश बाबू के पक्ष में हाँ में हाँ मिलाया पर मैडम सरोजिनी बाला ने प्रतिकार करते हुए कहा।
‘.......दिनेश बाबू चारों कोना दुरूस्त रह सकता है किन्तु नाकारा और भ्रष्ट लोगों से नहीं होगा यह.....। यह उन लोगों से होगा जिनके अन्दर नैतिक बल है, जो अपनी जिम्मेदारियाँ समझते हैं। जिनकी इच्छा शक्ति ही मर गई हो वे ही इस तरह की निराशाजन्य बातों में विश्वास करते हैं..........हमारा काम, हमारी जिम्मेदारी अन्य विभागों से भिन्न है, हम एक बहुत बड़ी पीढ़ी को प्रशिक्षित करते हैं। हमारे ऊपर नौनिहालों को सभ्य-संस्कारवान और ऊर्जावान नागरिक बनाने की जिम्मेदारी है जो देश के भविष्य के निर्माता बनते हैं। जिला प्रशासन भी वह काम नहीं कर सकता है जो हम करते हैं। रही बात गप्पबाजी की तो चाहे जो जैसे चाहे बतियाता रहे.......तालियां बनाने वालों की, खुशामद करने वालो की कहाँ कमी है?पर दिनेश बाबू जिस दिन जाल में स्वयं शिकारी आता है तब औकात समझ मे आती है.......’

तिलमिला कर रहे गये  दिनेश बाबू........तिवारी जी की मूंछें तो इतने देर में न जाने कितनी बार गिरी उठी होंगी। बात आगे बढ़ती कि चपरासी ने मैडम को अंदर जाने का इशारा किया।
‘......आइये मैडम बैठिये.......
कैसी हैं? स्कूल कैसा चल रहा है। सूना है आप काफी मेहनत कर रही हैं। बी0ई0ओ0 बता रही थीं......’।
‘.......जी सर मैं तो कोशिश में हूँ कि विद्यालय मॉडल स्कूल बन जाय, लोग अपने बच्चों को यहाँ डालने में गर्व महसूस करें। सर आपका सपोर्ट रहा तो स्कूल अच्छा चलेगा....सर कैसे याद किया आपने........कहीं से कोई गड़बड़ी तो नहीं महसूस की आपने........?

-‘नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं हैं पर कुछ लोग तो चाहते ही हैं कि स्कूल व्यवस्था ढीलीढाली हो तो ठीक......सब बहती गंगा में हाथ धोते रहते हैं। फिर भी विभाग का पूरा सपोर्ट है आप को......’ तब तक तिवारी जी अन्दर आने की परमीशन मांग बैठे.......।
‘आइये तिवारी जी, बैठिये ये हरपालपुर की नई हेड मिस्ट्रेस बहुत अनुशासित और कर्तव्यनिष्ठ........।’

‘.......जी इन्हीं की बारे में मैं भी आप से कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। मेरे छोटे भाई की पत्नी इन्हीं के स्कूल में पढ़ा रही हैं। जाने क्यों मैडम उनसे कुछ ज्यादा ही चिढ़ी हुई हैं। अभी बाहर दिनेश बाबू के पास भी आप का मिजाज कुछ गरम किस्म का ही रहा है.......।’
-‘खैर छोड़िए.......’
बी0एस0ए0 ने मैडम की तरफ मुखातिब होकर कहा कि देख लीजिएगा तिवारी के भाई की विधवा है, कोई परेशानी न होने पाये......बाकी पठन-पाठन, अनुशासन-प्रशासन दुरूस्त रखिये मैं यही चाहता हूँ।’
‘.......जी सर मेरी तरफ से किसी से कोई मनमुटाव, चिढ़ जैसी कोई बात नहीं है। हाँ जो लोग स्कूल आते ही नहीं उन्हें रजिस्टर पर कैसे प्रजेंट किया जाय। फिर देर से आना जल्दी भागना और संडे छुट्टी के लिए एक दिन पहले एक दिन बाद में आना न आना जैसी स्थितियां बनाने की कोशिश की जाती है। मैं चाहती हूँ कि टीचर समय से आयें, समय तक रहे मुझे ऐसे लोगों से कोई परेशानी नहीं होगी, पर स्कूल हफ्तों तक न आने वालों की उपस्थिति कैसे अंकित की जा सकती है। अनुपस्थित तो अनुपस्थित......मैं प्रतिदिन अनुपस्थिति की सूचना वी0आर0सी0 भेजती हूँ सर आप बताइये जो विद्यालय आता ही नहीं उसके साथ क्या किया जाए........?’

सरोजिनी बाला की दलील के सामने किसी के पास कौन सा उत्तर होगा भला। तिवारी अन्दर ही अन्दर टीस रहे थे। पर बी0एस0ए0 के सामने ‘ठीक है तिवारी जाओ देखता हूँ’ कहने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। तिवारी उठे और बाहर आ गये। बी0एस0ए0 साहब ने मैडम को सांमजस्य बैठाकर चलने की नसीहत देकर विदा कर दिया।
तिवारी को अब जिले स्तर पर कोई उम्मीद नहीं थी सो उन्होंने राजधानी की तरफ का रूख कर लिया। दो-तीन दिन तक वहाँ जमे रहे और ग्रामीणों के कुछ अप्लीकेशन पर उन्होंने जांच का आदेश करवा दिया। अभिभावकोें को जलील करने, मिड-डे-मील के मानक भोजन में कटौती करने, अध्यापकों को खासकर दलित अध्यापकों को अपमानित करने, बच्चों को पीटने आदि सम्बन्धी कई शिकायती पत्रों पर जांच हेतु डीएम को आदेश हो गया। अगले हफ्ते से ही जांच में तेजी आ गई। डी0एम0 ने एस0डी0एम0 और बी0एस0ए0 के साथ डी0आई0ओ0एस0 को भी जांच के लिए नामित कर दिया। तिवारी को इसकी जानकारी मिल गयी पर वे निश्चिंत थे कि दो अधिकारी तो उनके प़क्ष के ही हैं और वे निश्चिंत हो गये ।
अचानक तीनों की संयुक्त टीम स्कूल में साढे़े ग्यारह बजे पहुँची तो मास्टराइन भौजी के साथ दो अन्य शिक्षक गायब थे। हेडमिस्ट्रेस ने उपस्थित पंजिका पर अनुपस्थिति अंकित  कर रखी थी और सूचना बी0आर0सी0 भेज चुकी थीं। मिड-डे-मील का खाना चेक हुआ, बच्चों से खाने के वक्त सूचना प्राप्त की गई। बच्चों के भोजन को लेकर कोई शिकायत नहीं मिली और स्टॉफ को बुलाकर प्रधानाध्यापिका के रवैये के बारे मे अलग से जानकारी हासिल की गई। जिन अभिभावकों के नाम से शिकायत की गई थी उन्हें गांव से बुलाकर उनका स्टेटमेन्ट लिया गया और टीम वापस हो गयी। इधर जब मस्टराइन भौजी को अन्य दो टीचरों सहित नोटिस तामील कराई गयी तो उनके पैरों तले की जमींन हिलने लगी।
एक हफ्ते बाद जांच अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट शासन को भेज दी। कहीं से शिकायतों की पुष्टि नहीं हो पाई थी। जिन अभिभावकों के हस्ताक्षर से शिकायत की गई उन सबने इस बावत अनभिज्ञता जाहिर करते हुए लिखित उत्तर दे दिया था। अब तिवारी गच्चा खा चुके थे पर वे हार मानने वाले नहीं थे। मास्टराइन भौजी ने अगले हफ्ते से स्कूल जाना शुरू कर दिया, लगभग बीस दिन की अनुपस्थित का वेतन रूक गया था। अब उसे निकालने की जद्दोजहद शुरू हो गई। दो अन्य अध्यापको के वेतन भी 5-5 दिन के प्रभावित हुए थे।
मुफ्त की रोटियां तोड़ने वालों को कार्य संस्कृति अच्छी नहीं लगती.......काम करना उनके लिए अपमान जैसा लगता है। नाकारापन जब अपनी हदें पार कर जाता है तो ईमानदार और कर्मशील व्यक्ति उसे बर्दाश्त नहीं होता है। वह तरह तरह के रूप धारण  करता है। दबंगई, लुच्चई, गुण्डई, बदतमीजी कई रूप हैं उसके.......अन्ततः अपनी सुरक्षा में नाकारापन हमलावर हो जाता है। यह और बात है कि उसे होश आता है पर सब कुछ गंवाकर लेकिन वह बार-बार सच के विरूद्व झूठ को प्रतिस्थापित करने की कुचेष्टाएँ करता ही रहता है। झूठ पर झूठ.......इस पर परदा डालते-डालते हुए अंततः वह बेनकाब ही होता है।
मास्टराइन भौजी के साथ तिवारी सहित कईयों का ऐसा ही सामूहिक कुचक्र चलता रहता है। अपने नाकारापन पर टिप्पणी उन्हें बर्दाश्त नहीं होती और वे जूतम पैजार पर आमादा हो जाते हैं। अहंकार की तुष्टि का शायद यही रास्ता उन्हें अच्छा लगता है। मास्टराइन अब रोज-स्कूल जा रहीं हैं पर पढ़ाना उनके स्वभाव का हिस्सा कहाँ बन पाया है...... कक्षा में बच्चों को डांट डपटकर बैठाये रखना अनुशासन की इतिश्री है उनके लिए.......कक्षा में प्रायः सो जाना उनकी दिनचर्या में शुमार है।
बच्चों के माध्यम से उनके कक्षा में सोने की बात अभिभावकों तक पहुँची और फिर अभिभावकों की तरफ से लिखित शिकायत हेड मिस्ट्रेस और डी0एम0 तक चली गयी। जांच मे वाकई मास्टराइन भौजी सोती हुए मिलीं......सरोजिनी बाला ने उन्हें समझाने की कोशिश की पर नाकारापन हदें पार कर गया था और वह फन काढ़कर काटने दौड़ पड़ा। मास्टराइन की तरफ से शुरू हुई तू-तू, मैं-मैं से अलग हो गयीं प्रधानाध्यापिका और तुरन्त लिखित नोटिस थमा दी गई उन्हें। पर यह क्या नोटिस पाते ही वे इतना तिलमिलाईं कि उन्होंने सरोजिनी बाला पर हाथ उठा दिया.....। उनकी साड़ी पकड़कर खींच ली और मरने-मारने पर आमादा हो र्गइं। स्टाफ के लोग दौड़े पर मास्टराइन के मुँह से कीडे़ पड़ने वाली जुबान से निकलती गालियों की झड़ी से सब सहम गये........तब तक एक शिक्षिका ने पूरे माहौल की फोटो ले ली और रिकार्डिंग भी कर ली। स्कूटी उठाकर हेड मिस्ट्रेस पहले पुलिस थाने पहुंचीं लिखित तहरीर दी और फिर बीआरसी पहुँच कर वहाँ मौजूद अधिकारियों से पूरा हाल कह सुनाया। शाम होते-होते स्कूल की घटना की फोटो रेकॉर्डिंग सहित सोशल मीडिया पर वायरल हो गई।
अगला दिन दुर्भाग्य या सौभाग्य जो भी कहें, घनघोर हंगामे का रहा। स्कूल में विभागीय अधिकारियों, पुलिस वालों की भीड़ इकट्ठा हो गई। मास्टराइन तो गायब थीं पर उनके समर्थन में दो एक अध्यापकों का रवैया सरोजनी बाला को संदिग्ध लगा। उन्होंने उन्हें अपने कक्ष में बुलाया और सीधे टिट-फार टैट के फामूले पर उतर आईं.......‘देखो जो सच है वही कहना है मैं पक्षपात नहीं चाहती पर जो हुआ उसको तोड़ मरोड़कर बयानबाजी करना महंगा सौदा होगा........हमला किसने किया? गाली किसने दी? कारण क्या था इसे सिर्फ सच सच कहना है नहीं तो आप ने मेरे साथ अश्लील अभद्रता का व्यवहार किया मुझे हाथ लगाया.........का इल्जाम जड़ दूंगी। फिर मास्टराइन भौजी द्वारा झूठा इल्जाम लगाने पर हेडमास्टर राधेलाल के साथ जो हुआ वही सेम आप सब के साथ होगा.........समझे सिर्फ सच ही कहना वरना आप जानते हैं.....,
मरता क्या न करता तिकड़ के जाल को तिकड़म से ही काटा जा सकता है शराफत से नहीं........।
सरोजिनी बाला के दिमाग में हेडमास्टर राधेलाल की दुर्दशा हमेशा नाचती रहती। उनका क्या दोष था? सिर्फ यही कि स्कूल में न आने वाले कर्मचारियों को जिम्मेदारी का अहसास करा रहे थे पर मास्टराइन द्वारा लगाया गया चारित्रिक इल्जाम झूठ का पुलिंदा होते हुए उन्हें दण्डित कर गया........ पर मियां की जूती मियां के सर........अब देखिये ये लोग कैसे मछली की तरह छटपटाते हैं।
लछमन तिवारी को अब बचाव की मुद्रा में आना पड़ा। थाने पर कई फोन कराये कि एफ0आई0आर0 न लिखी जाए अगर लिखी भी जाय तो हल्की धारा लगाई जाय। बी0आर0सी0 पर जांच रिपोर्ट को हल्का करने हेतु काफी दौड़ धूप की पर आंशिक सफलता ही मिल पाई। अब मास्टराइन के सामने एक ही चारा था कि वे मेडिकल लगाकर कुछ दिनों के लिए बैठ जायँ......।
× × ×

लछमन तिवारी इधर इस तरह की समस्या में उलझे ही थे कि अगले दिन ही पंचायत चुनाव की अधिसूचना जारी हो गई। अगले हफ्ते नामांकन होना है........काफी दिनों से उनकी तैयारी, चल रही थीं, रामजस रात-दिन जुटा रहता था। मास्टराइन भौजी भी कई गाँवों की महिलाओं के बीच बैठक कर चुकी थी। बहुतों का समर्थन मिल रहा था उन्हें......। काफी लोगों का काम कराते रहे हैं तिवारी.......उसका लाभ तो यही लिया जा सकता है......लेकिन मास्टराइन के स्कूल की समस्या ने उनका ध्यान बांट दिया था। 
सरोजिनी बाला की ससुराल इसी इलाके मेें थी। श्रीवास्तव परिवार काफी सम्पन्न और पहुचे लोग थे.........। यह लड़ाई जो मास्टराइन की ओर से अनायास शुरू की गई थी सरोजिनी बाला के लिए प्रतिष्ठा बन गई थी। चुनाव की घोषणा होते ही उनके दिमाग के किसी कोने में एक आइडिया आया.......लछमन तिवारी को चुनाव लड़ने से कैसे रोका जाय? इस बावत क्यों न तिवारी के प्रबन्धक से मुलाकात की जाय? प्रबन्धक के फोन नम्बर की तलाश की उन्होंने और दूसरे दिन सुबह-सुबह फोन मिला दिया।
.......‘हाँ, प्रबन्धक जी मैं हरपालपुर के जूनियर स्कूल की हेडमिस्ट्रेस बोल रही हूँ। कैसे हैं आप?

-‘ठीक हूँ........कहिये मैडम कैसे याद किया......?’

-‘........यूँ ही प्रबन्धक जी........कोई खास बात नहीं है.......। आप तो इस क्षेत्र के मानिन्द व्यक्तियों में हैं। अच्छा खासा स्कूल चला रहे हैं।.........पर प्रबन्धक जी, स्कूल वह भी वित्तविहीन चलाना बहुत मुश्किल काम है। यहाँ तो हम सबके सरकारी स्कूलों में लोग काम करना ही नहीं चाहते। स्कूल-कालेजों के हालात तो और बदतर हैं। वैसे लोग बताते है कि आप का स्कूल अच्छा चल रहा है। हम तो अपने स्कूल के आठ पास बच्चों को आप के यहाँ ही भेज देते हैं पर बच्चे बताते हैं कि कुछेक अध्यापक स्कूल आते ही नहीं और दिन भर नेतागीरी करते रहते हैं।.......यह सब थोड़ा दुरूस्त हो जाय तो और प्रगति हो स्कूलों की........।‘‘

.......‘हाँ वो तो है, वजह यह है कि मैं थोड़ा अपने धन्धे के काम से बाहर रहता हूँ तो  थोड़ा बहुत समझौता करना पड़ता है.......।’

‘.......जी सर, कुछ तो मजबूरी होती ही है। पर उसका फायदा उठाने वाले लोग स्कूल को भी, कहीं न कहीं आप को भी बदनाम करते हैं.......।’
सरोजिनी बाला अपने मकसद की ओर धीरे-धीरे बढ़ रहीं थीं। थोड़ी चुप्पी के बाद वे फिर कह उठीं......।
-‘.......सर कभी मौका मिले तो इधर हमारे स्कूल भी आइये वैसे इस चुनाव में आप को खड़ा होना चाहिए.......। इत्ता बड़ा आपका स्टाफ है, मदद में लग जायेगा.......। फिर हम लोग तो हैं ही..... गांव गिरांव में आपकी अच्छी इमेज है। पर वो तिवारी जी हैं न आप के स्कूल के उनकी भयेहू ने और उन्होंने स्वयं भी इमेज खराब कर रखा है। सुना है........तिवारी को आप चुनाव भी लड़ाना चाहते हैं तो और खराब स्थिति हो जायेगी........।

‘.......मैडम जी, यह हमारे वश का काम नहीं है.......।’

‘......प्रबन्धक जी सुनिये तो जरा........चुनाव कन्डीडेट नहीं लड़ता चुनाव सपोर्टर और जनता लड़ती है। प्रधानी हो या फिर ब्लॉक प्रमुखी दोनों में कोई एक पद तो आप के पास आना ही चाहिए इस बार.......तिवारी अगली बार लड़ लेंगे.........आप मीटिंग कर चुनाव लड़ने की घोषणा कीजिए फिर तो सभी मदद में आ जाएँगे........’।

‘......ठीक है मैडम विचारता हूँ.........,।

-‘.......ठीक है सर.......सोचिये मौका अच्छा है.......ईश्वर और जनता आप के साथ जरूर रहेंगे.......।
सरोजिनी बाला ने अपना काम कर दिया था......। चिंगारी परचा दी थी। धुँआ और लपटें तो निकलना ही निकलना था। उधर प्रबंधक ने यह बात पत्नी व परिवार के अन्य सदस्यों तक पहुंचाई.........घर में मीटिंग बैठी और अंतत चुनाव लड़ना तय हो गया। नामांकन के तीन दिन पहले उनकी घोषणा स्कूल कमेटी व कर्मचारियों के बीच सार्वजानिक हो गई। तिवारी जिन्होंने वर्षों से चुनाव लड़ने व जीतने की भूमिका तैयार कर ली थी लगा पहाड़ से हजारों फीट खन्दक में जा गिरे.......... कभी उन्होंने सोचा भी नहीं था कि प्रबन्धक इस तरह का कदम उठायेंगे.......क्या कर सकते हैं......। कुछ बोल तो सकते नहीं......। क्योंकि कमेटी के सदस्यों  और स्टाफ की संयुक्त राय हो चुकी थी।
प्रबन्धक ने तिवारी की ओर देखा और कहा........आप सभी को आज से ही लग जाना चाहिए चुनाव में और तिवारी जी जिसके साथ हैं तो समझो चुनाव जीत लिये हम। लछमन तिवारी‘भई गति सांप छछुंदर केरी’, जैसी हालात में पहुँच चुके थे। हाँ करने के सिवा और कोई चारा नहीं था। 
मीटिंग से बाहर निकलते ही प्रबन्धक ने सबसे पहले फोन किया सरोजिनी बाला को......
-‘हाँ......मैडम आप के सुझाव को हमारे परिवार व स्टाफ ने पसन्द किया और चुनाव लड़ने का निर्णय ले लिया गया है। कैसा रहेगा........अब आप सब के मदद की जरूरत है।’

-‘.......बहुत अच्छा निर्णय लिया आपने, अब चुनाव का कुछ दूसरा ही रूप बनेगा........बहुत बहुत बधाई इस निर्णय के लिए आप को सर.......।

एक मजबूत खम्भा तोड़ कर रख दिया सरोजिनी बाला ने। बिन मांगे मुराद के मिलने  जैसी रही यह आनंददाई सूचना......। अब आयेगा ऊँट पहाड़ के नीचे........। सरोजिनी बाला के होठों पर विजय की सांकेतिक मुस्कान दौड़ गई ।
× × ×

हारे जुआरी की तरह तिवारी जी बुलेट उठाकर घर की तरफ चले तो लगा उनका माथा फट जायेगा.........क्या करें-क्या न करें.......? बगावत कर चुनाव लड़ते हैं तो नौकरी जायेेगी यह तय है।........प्रिंसिपल के बाद सबसे ज्यादा वेतन उठाते हैं तिवारी जी......28 हजार यह भी चली जायेगी तो क्या होगा......इसी नौकरी के बहाने तो उन्होंने इतना बड़ा ताम-झाम फैला रखा है.....। पैसा.......सम्पर्क सब कुछ हैं, इसी के बलबूते......।
विचारों के बंवडर में उड़ते-उड़ते तिवारी जी कब घर के दरवाजे पर पहुँच गये पता ही नहीं चला। उन्होंने बुलेट बंद की। दरवाजे पर खड़ी पुलिस की जीप देखकर वे चौंके सामने दो महिला सिपाही सहित दारोगा जी बरामदे में पड़ी कुर्सियों पर आराम फरमा रहे थे.......।
‘क्यों आये हैं’ सोचा उन्होंने फिर उनकी आशंका बढ़ गई। ‘कहीं स्कूल का प्रकरण तो नहीं.......मास्टराइन कहाँ होगी? दिखाई तो नहीं पड़ रही हैं.......’
सोचते हुए वे दरोगा के पास आ खड़े हुए।
‘.........कहिये दरोगा जी कैसे आना हुआ।’
‘........देखिये तिवारी जी मास्टराइन के खिलाफ एफ0आई0आर0 हुआ है। इन्होंने स्कूल के हेडमिस्ट्रेस को थप्पड़ मारा है। सरकारी कामकाज में बाधा भी पहुंचाई है। जान से मारने की धमकी भी दी है। जांच की गई और वहाँ मौजूद कर्मचारियों ने बयान में इसकी पुष्टि की है। इन्हें थाने चलना है’। पुलिस ने एफ0आई0आर0 की कापी दिखा दी तिवारी को।
तिवारी को काटो तो खून नहीं। वे ठकरा मार गये......पैरवी में कहाँ चूक हो गयी। जिस सरोजिनी बाला को उन्होंने तिनका समझा था वह तो परचती चिनगारी निकली। एक ही साथ दो-दो मुसीबतें........बदनामी अलग से। उन्होंने एक बार घर के अंदर निगाह डाली। मास्टराइन भौजी आंगन में खड़ी सिसक रही थीं। तिवारी के लिए इससे ज्यादा असहनीय व अपमानजनक पीड़ा और क्या हो सकती है। वहीं खड़े-खड़े लछमन तिवारी ने अपने अगल-बगल निगाह दौड़ाई तो देखा कि अधिकांश औरते-बच्चे उनकी तरफ एकटक देख रहे थे। इस तरह झांकते लोगों पर उन्हें खीझ हुई, पर चारों तरफ ताकते लोगों की निगाहों का सामना करना उनके लिए भारी पड़ रहा था। उनका सर चकरा गया। एक क्षण के लिए हिले-सँभलने की कोशिश की पर अचानक कांप कर धड़ाम से गिर पड़े दरवाजे पर............।
मास्टराइन भौजी अन्दर से दौड़ी पर तब तक महिला पुलिस ने उनकी कलाई थाम ली। अगल-बगल की औरतें घर से बाहर निकल आईं पर उनकी हिम्मत आगे बढने की नहीं हुई।
पालतू कुत्ता रोमी दौड़कर आया और तिवारी के पास बैठकर हाँफने लगा.......पुलिस की जीप स्टार्ट हुई और आगे बढ़ गई......। दरवाजे पर सूखने हेतु फैले अनाज पर अभी तक चिड़ियों का जो झुण्ड निश्चिंत होकर दाना चुग रहा था, यकायक एक साथ पंख फड़फड़ाकर उड़ गया।


© शोभनाथ शुक्ल 

शनिवार, 26 दिसंबर 2020

कवि की यात्रा: आलोक भट्टाचार्य

मुम्बई के साहित्यिक परिदृश्य पर कवि, आलोचक, कथाकार  आलोक भट्टाचार्य की लम्बी और सक्रिय उपस्थिति रही है। कुशल मंच संचालन के लिए भी उनका बड़ा नाम था।
आलोक से मुलाक़ात का संयोग तो कभी नहीं बना था किन्तु उनके देहावसान के बाद उन्हीं की लिखी संस्मरणों की एक किताब हाथ लगी-'पथ के दीप' जिसे पढ़कर आलोक के खुरदरे व्यक्तित्व को समझना आसान हुआ। उस किताब में शामिल ज़्यादातर संस्मरण अत्यंत आत्मीय और यादगार बन पड़े हैं।

★'कवि की यात्रा' आलोक भट्टाचार्य की आत्मकथात्मक कृति है। इस किताब की शुरुआत में वे लिखते हैं - "यह पुस्तक खुद एक भूमिका है। मेरे जीवनांश और मेरी कविता की संक्षिप्त भूमिका! चूँकि मेरे कवि-व्यक्तित्व के सीमित दायरे में यह मेरा आत्मकथ्यान्श भी है और आत्मकथा की मर्यादा ही इस बात में है कि लिखो तो सिर्फ़ और सिर्फ़ सच ही लिखो, वरना मत लिखो। सो न चाहकर भी यहाँ मुझे कहीं कहीं कुछ कड़वा कहना ही पड़ा है। किसी को ठेस पहुँचाना मेरा उद्देश्य हो ही नहीं सकता। सिर्फ़ सच ही कहा है- वह भी मेरे ही हिस्से का सच।"

आलोक भट्टाचार्य मूलतः कवि थे और कविता के प्रति उनमें सकारात्मक आस्था थी। पुस्तक के आरम्भ में ही अपने एक दूसरे कथ्यांश में वे लिखते हैं- "कविता दरअसल हाथ पकड़कर आपको ज़िन्दगी का रास्ता बतलाती है। आपको भटकने बहकने नहीं देती। हर तरह के असमंजस और दुविधा से आपको मुक्त रखती है। न सिर्फ़ आपको ज़िन्दगी की समझ देती है, उचित अनुचित का विवेक देती है बल्कि खुद आपको इस लायक बना देती है कि आप दूसरों को यह समझ यह विवेक दे सकें, ज़िन्दगी क्या है, समझा सकें। तभी आपकी कविता मनुष्य के लिए उपयोगी साबित होती है।"

आलोक भट्टाचार्य की इस किताब में जहाँ उनके व्यक्तिगत जीवन के संघर्षों, प्रेम प्रसंगों और व्यक्तिगत आत्मीय सम्बन्धों के तमाम किस्से दर्ज हैं, वहीं उनके समय के तमाम तथाकथित और फर्जी लेखकों, कवियित्रियों की हास्यास्पद सच्ची कहानियाँ भी। आलोक भट्टाचार्य अपनी प्रशंसा में भी कोई कंजूसी नहीं बरतते बल्कि उनके संस्मरणों में अनेक बार उनकी आत्ममुग्धता मुखर हो उठती है। कभी अपनी कविता के लिए प्राप्त प्रशंसा के विवरण तो कभी मंच संचालन हेतु गायकों, संगीतकारों, अभिनेताओं और लेखकों की तारीफ़ के किस्से दर किस्से....
आलोक भट्टाचार्य के गद्य की यह एक बड़ी ताकत है कि उनके आत्मकथ्यों में भी किसी उपन्यास सी रोचकता मौजूद है। 'कवि की यात्रा' के आवरण पर जिन सज्जन की कलाकृति है उन्हें किसी परिचय की ज़रूरत नहीं! पाठक उनकी कलाकृति देखकर स्वयं उनके नाम तक पहुँच जायेंगे। बेहतरीन आवरण के साथ ही किताब के प्रकाशन में प्रयुक्त कागज़ और फॉन्ट आदि भी शानदार हैं।

आलोक भट्टाचार्य की यह किताब परिदृश्य प्रकाशन, मुंबई से छपी है।

◆ कवि की यात्रा
◆ आलोक भट्टाचार्य
◆ परिदृश्य प्रकाशन मुम्बई
◆ मूल्य- ₹ 225

© गंगा शरण सिंह

सोमवार, 21 सितंबर 2020

कलेजा: राजेन्द्र श्रीवास्तव

कलेजा

प्रबोध नहीं आया था। 
मेरा मन कह रहा था कि वह ज़रूर आएगा। मेरी आंखें स्टेशन की बेतरतीब भीड़ में अब भी उसे तलाश रही थीं। 
सुनंदा हौले से बुदबुदाई, " मैं पहले ही जानती थी...." क्षोभ और विषाद का मिला-जुला एक विचित्र किस्म का भाव उसके चेहरे पर उभर आया था। 
मैंने असहाय भाव से कंधे उचकाए और गहरी निःश्वास छोड़ी। 
अहमदाबाद स्टेशन के विशाल प्लेटफार्म पर हम मानो बिना किसी मकसद के खड़े थे। ट्रेन हमें उतारकर आगे बढ़ चुकी थी।
"शायद रास्ते में कहीं फंस गया हो ... " मैंने धीमे स्वर में कहा। पत्नी को सुनाने से ज्यादा यह अपने आप तक आवाज पहुंचाने की कोशिश थी। कोशिश नाकामयाब रही।
मैंने कमीज की जेब से सिगरेट का मुड़ा-तुड़ा पैकेट निकाला। एक सिगरेट खींचकर मैंने बिना सुलगाए ही होठों में दबा ली। फिर कुछ क्षण मैं सिगरेट उंगलियों में फिराता रहा। अंत में सिगरेट वापस डालकर मैंने पैकेट को फिर जेब में ठूंस लिया। 
"ये लोग बड़े मनी - माइन्डेड होते हैं... मैं पहले ही जानती थी... " सुनंदा ने अबकी पूरे विश्वास से कहा। 
"हर जगह, हर तरह के लोग होते हैं... " मैंने प्रतिवाद-सा किया, " मैं उसे फोन लगाता हूं... "
सुनंदा ने मुंह बिचकाया। मतलब यह था कि जो करना है करो, मेरी बला से। फिर अगले कुछ क्षण मैं फोन पर व्यस्त रहा। 
अक्तूबर की सुबह की धूप भी इतनी तीखी थी कि हम असहज हो रहे थे। सूरज किसी सूदखोर महाजन की तरह मानो कटाई से पहले ही बिलकुल हमारे सर पर आ खड़ा हुआ था। 
फोन बंद कर मैंने सुनंदा की ओर देखा। आंखें ही नहीं, सुनंदा की पूरी देह ही प्रश्न में तब्दील हो गई थी। 
मैं फीकी हंसी हंसा, " वो मौजूद नहीं है घर पर, पर मैसेज रख छोड़ा है हमारे लिए। किसी होटल हाईनेस में कमरा बुक किया है। "
सुनंदा ने " देखा! मैं न कहती थी " वाले भाव से मेरी ओर देखा । मैं कुछ अन्यमनस्क होकर परे देखने लगा। 
दर्शन इतना समृद्ध है कि आम आदमी तक सहजता से इसकी पहुंच है। कोई भी व्यक्ति इसका आधार लेकर कम से कम नसीहतें तो दे ही सकता है। विशेषकर किसी कठिन स्थिति में अथवा किसी समस्या का समाधान उपलब्ध न होने पर, सामने वाले को दिलासा देने के लिए हमारे पास बहुत कुछ है। " नेकी कर दरिया में डाल ", "मोर एक्सपेक्टेशन, मोर फ्रस्ट्रेशन " कह - कहकर मैंने न जाने कितनी बार पत्नी को बहलाया था या आप यूं भी कह सकते हैं कि बेवकूफ बनाया था। पर इस बार वह समझने को तैयार ही नहीं थी। 
हम घूमने आए थे और अब पुरानी बातों को याद करने से कोई फायदा नहीं था, पर मनपसंद भीतर - कचरा बाहर, विचारों की आमद की राह में ऐसा कोई फिल्टर लगाना संभव ही नहीं था। हम चार साल पुरानी बातों को नई टीस के साथ याद कर रहे थे।
तब प्रबोध सीधे घर आ गया था। परिचय कुछ खास था नहीं, बस इतना ही कि हम एक ही थर्मल कंपनी में काम करते थे। मैं मुंबई कार्यालय में मैनेजर था, जबकि वह अहमदाबाद कार्यालय में कैशियर। कंपनी की हाउस मैगजीन में उसकी एक कविता छपी थी- " कलेजा "। कलेजा ही था कविता का नाम। ठीक याद नहीं। कुछ और भी हो सकता है। भाव यह था कि सदियों से सुनसान रास्ते पर चला आ रहा एक युगल इस धरती को प्रकाश देने का प्रयास कर रहा है। यहां तक कि अंधेरा अधिक होने पर दोनों अपना कलेजा जलाकर भी उजाला कर रहे हैं। पर उस रोशनी में भी ये कोई नहीं देख पाता कि हंसती - खिलखिलाती उस लड़की और मुस्कुराते हुए उसके प्रेमी के कलेजे में सदियों पुराना दर्द समाया हुआ है। अब मुझे ठीक याद आ गया, कलेजा ही था कविता का शीर्षक। कविता में कृत्रिमता नहीं थी। एक कच्चापन या कहें कि खुरदुरापन था। यही इस कविता का सबसे मजबूत पक्ष था। यह कविता पढ़कर मुझे वरिष्ठ कवि उदय प्रकाश की लंबी कविता 'औरतें' याद आ गई थी। 'औरतें' की कुछ पंक्तियां तो मैं बार - बार पढ़ता हूं और हर बार स्तब्ध रह जाता हूं। जब मैंने 'औरतें' पहली बार पढ़ी थी, तब मैंने उदय प्रकाश को भी पत्र लिखा था। ठीक वैसे ही मैंने कलेजा पढ़कर प्रबोध से संपर्क किया था। 
प्रबोध। प्रबोध शाह। मातृभाषा गुजराती, पर हिन्दी बड़ी अच्छी जानता था और हिन्दी में कविताएं लिखता था। हमारी ही कंपनी के अहमदाबाद कार्यालय में कैशियर, जो कि एक ट्रेनिंग के सिलसिले में मुंबई आया था और मामूली से परिचय की बिला पर सीधे हमारे घर आ गया था। बिना किसी संकोच के। बेहिचक।
"सर, पूरे पांच दिन तकलीफ़ दूंगा आपको... पर दीदी, तुमको जरा भी  तकलीफ़ नहीं दूंगा... "  वह उत्साह में था और मेरी पत्नी को दीदी कह रहा था। गौरतलब यह था कि वह मुझे 'आप' और सुनंदा को 'तुम' संबोधित कर रहा था। 
"...जरा भी तकलीफ़ नहीं दीदी... जो भी तुम बनाओगी, बस दो रोटी और जोड़ना है... कोई पसंद नहीं खास, सब खाता हूं... बस नॉन-वेज नहीं खाऊंगा, गांधीजी के गांव से हूं... "

मैं चकित था। सुनंदा असहज हुई थी, पर कुछ खास नाराज नहीं लग रही थी इस अनाहूत अतिथि से। जबकि हालत यह थी कि वह तौलिया और मंजन तक हमसे मांग रहा था। 
सुनंदा ने अकेले में मेरी क्लास ली, "तुमने सराय बना दिया है घर को, जिसे देखो मुंह उठाए यहीं आ टिकता है।"

"मैंने बुलाया है इसे? " मैंने उलटे आंखें निकालीं, "मुझे तो पता भी नहीं था कि ये आने वाला है, पता होता तो घर को ताला लगाकर भाग जाता।"

"है तो तुम्हारी ही कंपनी का... चिट्ठी तो तुमने ही लिखी थी कि कविता बड़ी अच्छी है... बड़ी श्रद्धा तो तुम्हारे ही मन में रहती है लिखनेवालों के लिए... " उलाहनापूर्ण स्वर।

" ऐसी चिट्ठियां तो मैं रोज दस लोगों को लिखता हूं, तो क्या सब यहीं बसेरा कर लेते हैं... और फिर दीदी तो तुम्हें ही कह रहा है।" पता नहीं क्यों मैं भी शेर हो गया था। 
सुनंदा ने बुरा सा मुंह बनाया। वह कुछ कहती तब तक बगल के कमरे से प्रबोध की आवाज आई। वह गुजराती में कुछ बोल रहा था। 
पत्नी ने इशारे से पूछा कि क्या कह रहा है।
"पूछ रहा है कि कहां रखा है।" मैंने धीमे स्वर में कहा। स्वर के भाव से इतनी भाषा समझने का दम तो मैं भरता हूं।

"क्या कहां रखा है?"

"मुझे क्या पता, उसी से पूछो।" मैंने नाक - भौंह सिकोड़ी और स्वर में अप्रसन्नता घोलने का भरसक प्रयास किया।

अब सुनंदा जरा समझाने वाले भाव में कहने लगी, " ठीक है , हमारा क्या जाता है, कुछ दिन रह ही ले। सुबह से रात तक तो ट्रेनिंग में ही रहेगा... मैं तो कहती हूं कि भई किसी को बुलाओ ही मत... पर जब कोई आ ही जाए तो मुंह मत बनाओ, ढंग से रहो उसके साथ।"
प्रबोध की सरलता या अपनापन, पता नहीं वह क्या था जिससे वह परिवार का  सदस्य-सा लगने लगा। जब तक वह रहा घर में, एक अव्यक्त गर्माहट हम महसूस करते रहे। यह गर्माहट सर्दियों की रातों में अलाव तापने जैसी सुखद थी। सुनंदा से तो वह ऐसे अधिकार से पेश आता था, मानो उसका छोटा भाई ही हो। 
अपनी पत्नी का जिक्र वह बड़े गर्व से करता - "जितनी सुंदर है विशाखा, उससे ज्यादा स्वादिष्ट खाना बनाती है। खास जूनागढ़ की है विशाखा! अगर उसके हाथ की रसोई जीम ली, तो फाइव स्टार का खाना भूल जाएंगे। आप बस एक दिन रुकिए हमारे घर... विशाखा पूरा गुजरात उठाकर रख देगी - उंदिया, खमण, फाफड़ा, गाठिया, चाट-पापड़ी, खाखरा...
प्रबोध की सूची खत्म ही नहीं होती थी।
सुनंदा कहती, " गुजरात तो मन है ही देखने का, हम तो होटल - वोटल भी पता कर रहे थे बीच में... फिर द्वारका - सोमनाथ भी देखना है... "
"होटल?... होटल?? तुम कदम तो रखो दीदी अहमदाबाद में... फिर वहां तुम्हारी थोड़े ही चलेगी... विशाखा तो तुम्हें खींच कर घर ले जाएगी। कम से कम पंद्रह दिन का प्रोग्राम बनाकर आना," उसका स्वर आदेशात्मक हो जाता,  
"विशाखा जब तक मन भर खिला-पिला न देगी और मन भर सुन-गुन न लेगी, कहीं जाने थोड़े ही देगी तुम्हें..."
मैं अलग से कहता सुनंदा से, "पहला आदमी देखा है, जो दूसरों से अपनी बीबी की तारीफ करते नहीं अघाता।"

"तो क्या हुआ... " सुनंदा मुझ पर नाराज होने लगती, "मैं तो गारंटी देती हूं कि विशाखा भी इसके जैसी सरल मन की होगी।"
"मुझे तो अहमदाबाद दर्शन से ज्यादा इसकी जूनागढ़ वाली बीबी को देखने की इच्छा है..." मैं दबे स्वर में कहता।
सुनंदा के आंखें तरेरने से पहले ही प्रबोध बाहर से आकर हमारी चर्चा में शामिल हो जाता, "दीदी, मैं अहमदाबाद से गुजराती वर्क वाली साड़ी तुम्हारे लिए भेजूंगा, साड़ी पर कढ़ाई तो खुद विशाखा करके देगी।" 
प्रबोध के जाने के बाद फिर संपर्क नहीं हो पाया था। तब मेरे घर पर फोन नहीं था, न ही प्रबोध ने कोई नंबर दिया था। मैंने कुछ ही समय बाद थर्मल कंपनी छोड़ दी थी और एक मल्टीनैशनल कंपनी में लग गया था। 
मैंने अपनी ओर से कभी कोई पहल भी नहीं की थी प्रबोध से संपर्क करने की। पर जब अहमदाबाद की एक संस्था ने अपनी प्रॉपर्टी एग्जिबिशन में शिरकत के लिए आमंत्रित किया, तो मैं अनायास ही स्मृतियों के जालों को साफ करता चला गया। पत्नी भी अहमदाबाद जाने के लिए उत्सुक हो उठी। मैंने थर्मल कंपनी के अहमदाबाद कार्यालय से प्रबोध के घर का नंबर हासिल किया। प्रबोध से बात भी हुई। पर शायद समय की गर्द हमारे संबंधों के बीच अपनी जगह बना चुकी थी, क्योंकि प्रबोध के स्वर में कोई उत्साह नहीं झलक रहा था। घर पर रुकने की जिद भी नहीं की उसने। आगमन का समय और ट्रेन की सूचना भी दी थी उसे। लेकिन हमारे मन की तमाम गवाहियों और तसल्लियों के बावजूद हकीकत यही थी कि प्रबोध स्टेशन पर नहीं आया था। गुजरात घूमने का हमारा उत्साह फीका पड़ चुका था। अब पुरानी बातों को याद करने और प्लेटफार्म पर खड़े रहने से कोई लाभ नहीं था। मैंने भारी मन से कुली को आवाज दी। 
अहमदाबाद देखने की कोई विशेष इच्छा हम दोनों को नहीं थी, लेकिन प्रॉपर्टी एग्जिबिशन के सिलसिले में हमें तीन दिन वहां रुकना ही था। प्रबोध पूरे तीन दिन मिला ही नहीं। समय के साथ-साथ मन की दीवारों पर चिढ़ की परछाइयां गहराने लगी थीं  - "अब अगर बुलाएगा, तो भी नहीं जाएंगे उसके घर।" सुनंदा विषादपूर्ण स्वर में बोली।

"अब जाने का समय भी नहीं है, रात दस बजे की तो ट्रेन है... ". मैंने स्वर को सामान्य बनाते हुए कहा।

"समय होता, तो भी नहीं जाते!" सुनंदा चुनौतीपूर्ण स्वर में कह रही थी, "बातें  तो  बड़ी  करता था अपनी  बीबी की, नहीं खाना हमें उसके  हाथ  के व्यंजन! " 
फिर हम दोनों ने कोई बात नहीं की। होटल छोड़ते समय रिसेप्शन पर बताया गया कि बिल अदा नहीं करना है। प्रबोध ने शायद ऐसी व्यवस्था की थी। 
पत्नी बिफर उठी, "हमें भिखारी समझ लिया है क्या? उसके भरोसे आए हैं हम?" पता नहीं वह होटल के मैनेजर को सुना रही थी या मुझे। उसके बाद पूरा बिल उसने जबरन चुकाया। वैसे प्रबोध की यह हरकत मुझे भी नागवार गुजरी थी। 
समय से काफी पहले ही हम स्टेशन पहुंच चुके थे। भीड़ बिलकुल नहीं थी और प्लेटफार्म खाली पड़ा था। रात गहरा रही थी और गाड़ी चलने में अब कुछ ही देर थी। हम अपनी सीट पर बैठे खिड़की से प्लेटफार्म पर देख रहे थे। हम दोनों ही चुप थे पर हमारी नज़रों में एक अव्यक्त तलाश हर क्षण दोबाला होती जा रही थी। 
बस तभी वह खिड़की पर दिखा। 
वह फीकी हंसी हंस रहा था... " आपके साथ मौका ही नहीं मिला भाईसाहब ... कुछ संजोग नहीं बना इस बार ... " 
"कोई नहीं.." मैंने अचकचा कर कहा। प्लेटफार्म की धुंधली रोशनी में भी प्रबोध के चेहरे पर थकान नुमायां हो रही थी। पत्नी ने भरपूर उपेक्षा करते हुए उसकी ओर देखने की भी जहमत नहीं उठाई। सिर के बाल थोड़े कम लग रहे थे, बाकी कोई खास तब्दीली नहीं आई थी उसमें पिछले चार सालों में। हालांकि यह भी बदलाव ही था कि वह मुझे  भाईसाहब कह रहा था,  जबकि पहले 'सर' कहता था। शायद इस कारण कि तब मैं उसकी कंपनी में था और उसका सीनियर था या शायद हड़बड़ाहट में ऐसा कर बैठा हो। जो भी हो..।
सुनंदा का चेहरा सख्त हो गया था और वह प्रबोध से परे शून्य में देख रही थी । 
"होटल के पैसे आपने दे दिए... ऐसा न करें... " वह बुदबुदाया।
मैं दावे से कह सकता हूं कि प्रबोध के स्वर में याचना थी। वह कह रहा था, "इस बार संयोग नहीं बैठा वरना...अगली बार .."
मैंने मुस्कुराने की कोशिश की।

" अच्छा ये चूनर....." प्रबोध ने सितारा जड़ा परिधान खिड़की से भीतर देने का प्रयास किया ।
पत्नी ने दोनों हाथ छाती पर बांधकर अपनी अस्वीकृति जाहिर कर दी थी और बदस्तूर शून्य में ताके जा रही थी । 
"ये विशाखा ने अपने हाथ से काढ़ा...."  वह बोलते-बोलते चुप हो गया क्योंकि ट्रेन ने सीटी दे दी थी और स्टेशन से सरकने लगी थी। पता नहीं प्रबोध के चेहरे पर क्या था कि मैं बेतरह चाहने लगा कि कि सुनंदा वह चूनर रख ले। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैंने उसे हाथ हिलाने का प्रयास-सा किया। 
मेरे बगल की सीट पर बैठे आदमी ने अचानक जोर से पुकारा "कैसे प्रबोध, इस समय यहां?... अरे भाई ...." 
" कोई नहीं रावल सर ... सब ठीक भैया , सब बिलकुल ठीक" प्रबोध का स्वर इतना सर्द था कि किसी अज्ञात भावना से मेरा दिल धड़कने लगा। तब तक गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली थी । 
"आपका परिचित है क्या?  " मैंने सामने की सीट पर बैठे व्यक्ति से पूछा, जो कि अब भी खिड़की से बाहर देख रहा था।
"पागल है… कहता है कि सब ठीक है, जबकि अभी पिछले ही हफ्ते तो इसकी वाइफ की डेथ हुई है... अरे साहब, मैं तो परेशान हूं कि अभी तेरहवीं भी नहीं हुई इसकी पत्नी की…. यह आदमी यहां कैसे... " 
मुझे लगा कि कोई भारी सी चीज मेरे दिल से आ टकराई हो। पत्नी पलक झपकाए बिना उसे देख रही थी - "कौन ? विशाखा ? " कांपते स्वर में उसने पूछा।
"हां, देखिए ना, पिछले तीन सालों से टाटा मेमोरियल में इलाज चल रहा था। बार-बार मुंबई आना-जाना। पर इस बार डॉक्टर ने जवाब दे दिया था..."
 
"इसने हमें कुछ बताया ही नहीं ..." सुनंदा बदहवास स्वर में बोली, " मुंबई आता रहा और हमें खबर भी नहीं की। यहां भी हम तीन-चार दिन से हैं... यहां भी सब छुपाकर रखा... " 
शहर की झिलमिल करती रोशनियां अब लुप्त हो गई थीं और सन्नाटे को चीरती हुई ट्रेन टूटे हुए बांध के पानी की तरह पूरे वेग से बढ़ी जा रही थी। मुझे अचानक ही प्रबोध की  कविता 'कलेजा' याद आ गई। पता नहीं क्यों ! 

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सोमवार, 27 जुलाई 2020

किस्सा जानकी रमण पांडे : जाकिया मशहदी

◆ किस्सा जानकी रमण पांडे
● जाकिया मशहदी

अब कोई पूछे इन जानकी रमण पांडे एडवोकेट से कि अच्छे-भले इलाहाबाद में थे, रसूलपुर कहां जा मरे। वह भी मुहावरों में नहीं, बल्कि सचमुच। यूं तो आम विश्वास है कि मरने की साअत और जगह पहले से तय होती है। (वैसे मरने से पहले उससे भी बड़ी कुछ घटनाओं की साअत पहले से तय होती है जैसे शादी) लेकिन सवाल यह है कि विश्वास यह कहता है तो फिर हंगामा है क्यों बरपा? मगर क्या कीजिए एक से एक जोड़-जोड़ लगाने वाले टेढ़े दिमाग मौजूद हैं। उनका मानना है कि मरने की साअत और जगह तो ऊपर वाले हाकिम ने तय कर दी अब कुछ तो हमारे हाथों में भी रहे। हम मुर्दे पर नौ मन मिट्टी डालें या मिट्टी का तेल (यूं तो जिन्दों पर भी मिट्टी का तेल डालकर फूंकने की परम्परा, काफी दिन हुए कि कायम हो गई है) या उसे चील कौओं को खिलाएं। और भाई, सौ बातों की एक बात यह कि आस्थाएं वही अच्छी लगती हैं जो अपनी मर्जी और सुविधा से मेल खाएं वरना उठाया डंडा और अपनी मर्जी मनवाने पर तुल गए। हमारा विश्वास तो यही है। अब देख लीजिए पांडे जी की हाल।
पांडे जी का किस्सा तो के.के. मामा सुनाते थे। के.के. यानि कृष्णकान्त। इसी उपनाम से जाने जाते थे। जाति सूचक टाइटिल लगाना उन्होंने बहुत दिन पहले से छोड़ रखा था। कहते थे इस कलयुग में सारे ब्राह्मण-पंडित, चूड़े-चमोरे हमारे साथ उठने बैठने लगे, खान-पान तक का परहेज न रहा। काहे को बाप-दादों का नाम कीचड़ में घसीटें लेकिन कृष्णकान्त के सारे चेले चपाटी जानते थे कि यह इनके हर समय हंसी-ठिठोली करने वाले स्वभाव का अंग था। वह जात-पात का कड़ा विरोध करने वालों में से थे। सरनेम न लगाना दरअसल उनके इस विरोध का सूचक था। के.के. का अपना भांजा तो शायद कोई था भी नहीं। न जाने किसने उन्हें मामा कहना शुरू किया और वह जगत मामा बन गए। लम्बे समय से लखनऊ में रह रहे थे, अच्छी उर्दू बोलते थे और किस्से सुनाने में पारंगत। नख्खास के किसी दास्तान गो की आत्मा ने उनके अन्दर प्रवेश पा लिया था। (ऐसा विचार कभी जानकी रमण पांडे ने ही ज़ाहिर किया था) मामा पान एक गाल से दूसरे गाल में ठेलते और मुंह ऊपर करके कि पीक की छींटें सुनने वालों पर न पड़ें अजीब गोलमोल लहजे में बोलते लेकिन न जाने कैसा जादू डालते थे कि श्रोता उठने का नाम न लें। दे किस्से पे किस्सा।
श्रोता गणों में विशेष थे लम्बे चौड़े परिवार के सारे युवक, दो एक अड़ौसी-पड़ौसी जिनमें मिर्जा अनवर बेग की पत्नी नय्यरा बेग भी शामिल थीं और जो आया गया हो वह अलग। अनवर बेग शायद अकेले ऐसे इंसान थे जो के.के. मामा से चिढ़ते थे ''जनखा कहीं का'' उनकी टिप्पणी होती थी। ''औरतों जैसी गप्पे लड़ाता है। खानदान ने फलाना यूं और ठिकाना यों जैसी गप्पे लड़ाता है।" परन्तु अनवर बेग कुछ भी कहें, के.के. की लोकप्रियता में कभी बट्टा नहीं लगा सके। वह आए नहीं कि जमघट लगा। विशेष कर जाड़ों में कि मूंगफलियों की देरी और गर्मागरम चाय की पियालियां सामने हों, तस्ले में आग जल रही हो और सामने बैठे हों दुलाई में लिपटे के.के., अच्छे खासे जोकर लगते हुए मनोरंजन के नये नये अध्याय खुलते चले जाते।
ऐसे ही किसी ठंडे मौसम में उन्होंने जानकी रमण पांडे एडवोकेट, जो इधर अचानक बैठे बैठे रसूलपुर जा मरे थे और अजीब क्राइसिस पैदा कर गए थे, का किस्सा बयान किया था जो कुछ इस तरह था:
''पांडे जब छोटे थे (और इस बात को बहोत दिन हुए कि पांडे छोटे थे) इनकी अम्मा जो पंडिताइन कहलाती थीं, परलोक सिधार गयी। वह हमारी अम्मा के फुफेरे भाई की साली के जेठ की चचेरी बहन होती थीं रिश्ता तो था ही, सम्बन्ध भी अच्छे थे।''
''जितना रिश्ता था उतने ही सम्बन्ध थे या कुछ कम-बेश?'' बिपिन भय्या को लगंड़ी लगाने की आदत थी चाहे दास्तान हो या जिन्दगी।'' अब भय्या सम्बन्धों की गहराई नापने का कोई आला तो हमने रेज नहीं किया मगर हां सम्बन्ध थे और बहुत गहरे थे और रिश्ता भी कौन सा कम था। अरे मियां पहले लोग चिट्ठी में लिखवाते थे 'थोड़े लिखे तो बहुत जानियो', सो लिखे को ही नहीं, थोड़े रिश्ते को भी जानते थे और निभाते थे हम भी उन्हीं में से हैं'', मामा ने छाती पर हाथ मारकर कहा। पीक की कुछ छींटें उड़ीं और इधर-उधर मिल गई। उन्होंने बाहें पोछीं।
''अच्छा, खबरदार... अब जो कोई बीच में बोला।'' बिपिन भय्या को नय्यरा बेग ने डांटा। वैसे भी सब को डांटने का ठेका उन्होंने ले ही लिया था, विशेष कर अनवर बेग को।
''तो बिटिया, पांडे की अम्मा मरीं तो कुछ दिन बाद उनके अब्बा ने कर लिया दूसरा ब्याह। उस समय लोग बाग जरूरत जानते तो पत्नी के मरने का इंतजार भी नहीं किया करते थे। मज़े से दूसरा ब्याह कर लाते थे उन्होंने पत्नी के मरने के बाद किया तो कौन सा पाप किया। वह भी परिवार की बड़ी बूढ़ियों के आग्रह पर कि ''कि आय हाय पंडित बिन मां का बच्चा कैसा रूल रहा है। दूसरा ब्याह कर लो ना। पांच वर्ष का लड़का कैसे पालोगे?''
नय्यरा बेग ने अभी बिपिन बिहारी को डांटा था लेकिन अपने आप को न रोक सकीं। टप से बोलीं, ''और जो कहीं पंडित जी मरे होते तो कोई न कहता कि आय हाय पंडिताइन दूसरा ब्याह करलेव और तब कोई न सोचता कि पांडे कैसे पलेंगें अगर उनकी अम्मा बिन ब्याह किए रह गईं।''
''ले, तो पांडे को कोई उनकी दूसरी अम्मा ने पाला? पिता श्री ने कर लिया दूसरा ब्याह और अब की जो पत्नी लाए वह पांडे की बड़ी, शादी शुदा बहन उमा से कोई साल भर छोटी थीं।''
''अय हय मामा, साल भर छोटी कि साल भर बड़ी?'' नय्यरा बेग ने फिर टहोका दिया।
''अब नय्यरा बीबी, रहीं तो वह साल भर छोटी। तुम्हारी जी चाहे तो कह लेव कि बड़ी थीं।'' मामा ने पान की गिलौरी फिर इधर से उधर ठेली।
''मामा अब की कोई बोले तो झाड़िये उसको एक लप्पड़'' कान्ती दी ने कहा। वह किस्सा आगे न बढ़ पाने के कारण चिढ़ी हुई थीं।
''तो भय्या!'' मामा ने पनडिब्बा खोल के थोड़ा सा खुशबूदार तम्बाकू और मुंह में डाला। अब हम क्या लप्पड़ झप्पड़ करें, बस तुम अब आगे की सुन लेओ। तो पंडित जी की जो बिटिया इलाहाबाद में बियाही गई थीं वह सबसे बड़ी थीं। नाम तो उमा था पर सारे लड़के वाले उन्हें दिद्दा कहते थे। बस कोई अट्ठारह बरस की थी। उन्होंने मायके के रंग ढंग देखे कि नई मां तो माथे पे टीका सजाए पायल छनकाती रून्न झुन करती घूमती हैं और पिताश्री मर्दाने घर में नई मां के आगे पीछे घूमते दिखाई देते हैं तो उन्होंने ससुराल आके किया यह कि अटवाटी खटवाटी ले के पड़ गईं और पति से कहा कि मान्यवर हम तो भय्या को साथ रखेंगे। तीन बहनें बीच में मर के तब यह भाई पैदा हुआ था और उस पर विमाता मक्खियां भिनका रही है। एक कटोरा दूध को तरसता है जबकि घर में दो गऊएं बंधी हैं। पति ने कहा "भाई हमने कब इनकार किया। तुम यही बात सीधे स्वभाव नहीं कह सकती थीं? यह रानी कैकेई बनने की क्या जरूरत थी जबकि तुम हमारी इकलौती पत्नी हो। रानी भी-तुम, पटरानी भी तुम।" दिद्दा खुश। दूसरे ही दिन वापस आईं और पांडे को लिवा ले गईं। विमाता भी खुश, एक ही कांटा था सो निकल गया। हल्दी लगी न फिटकरी। उनकी पायल के घुंघरू और ज़्यादा छनकने लगे।
पांडे को दिद्दा प्यार से भय्यन कहती थीं और भाई नहीं बेटा समझती थीं। अपने लड़के बाले हो गए तो भी भय्यन का रूतबा कम नहीं हुआ। उनके पति ओंकार नाथ मिश्र ने भी साले को कम मान-दान नहीं दिया। दिद्दा जैसी पत्नी पाकर धन्य थे। मुखड़े पर ब्राह्मणी का तेज, वादा निभाने में राजपूतनी, हिसाब-किताब रखने और जमीन-जायदाद देखने में वैश्य और खट कर सेवा करने में शूद्र। ओंकार उनकी हर बात मानते। भय्यन को उन्होंने भरपूर शिक्षा दी।
बी.ए. के दूसरे व अंतिम वर्ष में थे कि अरमानों भरी बहन जा के उनका रिश्ता तय कर आई।
के.के. मामा ने गिलौरी के साथ पहलू भी बदला और किस्से में तनिक नाटकीयता पैदा की। श्रोता गण मामा के सम्मोहन में बंधे आदर के साथ बैठे कहानी के चरम बिन्दु की प्रतीक्षा कर रहे थे।
''अब भय्या यह सुन लेव कि इधर दिद्दा रिश्ता तय करके आईं, उधर किसी ने जाके भय्यन के कान में फूंक दिया कि लड़की तो जी खोल के काली है। भय्यन का दिल डूबने लगा। बड़ा साहस बटोर के दिद्दा के पास गए। वह तख्त पर चढ़ी बैठी धोबी का हिसाब कर रही थीं। तभी चोर जैसा चेहरा बनाए, आंखें नीची किए, कुर्ते का कोना मरोड़ते भय्यन दबे पांव आकर पीछे खड़े हो गए। पीछे इसलिए कि दिद्दा की सीधी नजरों से बचे रहें और मन की बात उनके कानों में डाल सकें।
''दिद्दा'' कुछ देर बाद उनके मुंह से मरी हुई आवाज फूटी।
''अय हय मरा फिर बटन तोड़ लाया'' भय्यन गड़बड़ा गए। बचपन में निकर, कमीज़, कुर्ता-सबके बटन चबाते और दिद्दा से बड़ी डांट सुनते थे। लेकिन अब... क्या अब भी कोई बटन टूटा है?'' नहीं तो दिद्दा... कहां? वह जल्दी से बटन टटोलने लगे।
''अरे तू? यहां कहां खड़ा है रे? तुझे नहीं इस मरे धोबी को कह रही थी। धोतियां चार, चादरें दो, जाकेट एक...'' ''दिद्दा...'' भय्यन ने इत्मीनान की सांस लेकर सिर खुजाया ''क्या है रे टपक पड़ता है वक्त-बेवक्त। न सुबह देखे न शाम'' ''अच्छा दिद्दा'', भय्यन फिर गड़बड़ा गए। ''हम फिर बात करेंगे।'' ''तुझे नहीं, इस मरे धोबी को कह रही थी। आ बैठ.... बैठ न.... पीछे काहे को खड़ा है।'' उन्होंने लादी सरका के भय्यन के बैठने को जगह बनाई। ''देख न, नाश्ते का समय है और पहुंच गया। उस पर तुर्रा यह है कि कपड़े पटके और नदारद हो गया 'हिसाब करके रखिए, पड़ौस होकर आते हैं।' उन्होंने धोबी की नकल बनाई। ''अब तू बोल क्या कह रह है...?''
''दिद्दा...'' पांडे ने हिम्मत जुटाई और अपने हिसाब से बम का गोला फोड़ा। ''सुना है मिर्जापुर वाली बहुत काली है और तुम बात पक्की कर आईं।''
''क्या?'' दिद्दा के हाथ से धोबी की कापी पेंसिल समेत गिर पड़ी। भय्यन से ऐसी बेशर्मी की उम्मीद नहीं की थी। पेट के जाए जैसे भाई को उन्होंने घूरकर देखा। पांच साल का था कि ले आई थीं। पाला-पोसा। पूरी सेवा की। पढ़ाया लिखाया। उसकी यह मजाल। हालांकि पांडे बेचारे की क्या मजाल थी जो पूरी बात कह पाते। जब से ब्याह की बात सुनी थी एक चांद सा मुखड़ा आंखों में कौंधने लगा था और कहां अचानक उस पर कालिख पुत गई। आने वाले समय की यह तस्वीर तो बड़ी भयानक थी कि सबेरे सबेरे आंख खुली नहीं और काली माई हाजिर। उन्होंने यह सब कहा भी नहीं। बस ढकी छुपी छोटी सी बात कही थी।
''सुनो भय्यन!'' दिद्दा ने नाराज़ होकर धोबी की गठड़ी पर हाथ मारकर कहा। ''सूरत देखी जाती है रंडी की। बिटिया का तो खानदान देखा जाता है। सो खानदान सौ में क्या हज़ार में एक है। संस्कारी लोग हैं। कोई शराब को तो क्या मांस-मच्छी को भी हाथ नहीं लगाता। फिर बिटिया ने हाईस्कूल की परीक्षा भी दी है। अगले मंगल को बरीच्छा है। हां मगर आप फिलहाल पढ़ाई में ध्यान लगाएं।''
इस बीच नाश्ते के लिए गुहार लगाते ओंकार नाथ मिश्र उर्फ भय्यन के जीजा जी उधर को आन निकले थे और होने वाली सलहज के पूरे गुण सुन लिए थे। बड़े गंभीर स्वर में बोले ''बरखुरदार, पहले खानदान वाली से ब्याह कर लो, बाद में कभी एक सूरत वाली भी ले आना।''
दिद्दा ने अपनी बड़ी बड़ी सुन्दर आंखें तरेरते पति को घूर कर देखा लेकिन पांडे ने बात गांठ में बांध ली। खुशी खुशी काली माई को ब्याह कर ले आए। आंगन में पायल छनकारी बहू घूमने लगी। पांडे को दिद्दा से बहुत प्यार था। होना भी चाहिए था। लेकिन वह अपने पिता समान बहनोई की क़द्र भी कम नहीं करते थे। जिस बाप के बीज से जन्मे थे उसने शायद ही कभी उलट कर पूछा था। सारा कुछ बहनोई का ही दिया हुआ था। वकालत भी इसीलिए पढ़वा रहे थे कि खुद वकील थे। भय्यन को घर में ही अच्छी ट्रेनिंग मिल जाएगी। अब ऐसे देवता समान बहनोई की बात वह कैसे उठा देते। सो तालीम पूरी करने के कुछ समय बाद जब उनकी वकालत चल निकली और अच्छा पैसा आने लगा तो वह एक सूरत वाली भी ले आए।''
किस्से की इस पायदान पर पहुंच कर के.के. मामा ने एक ठंडी सांस भरी। गरम चाय दुबारा मंगवाई। श्रोतागणों की उत्सुकता में भी गरमी आई। मामा ने उस समय एक नाटकीय ब्रेक लिया।
ब्रेक में बिपिन भाई साहब ने छत-उखाड़ ठहाका लगाया। कहने लगे यह तो हम सब को मालूम है कि वह सूरत वाली मुसलमनटी थीं लेकिन उससे परिचय कब और कैसे हुआ यह तो मामा ही बताएंगे।
जवाब में मामा ने गिलोरी फिर एक गाल से दूसरे गाल में ठेली और पीक को मुंह में संभाला।
''अबे चुप!'' दूसरे ने उसे झाड़ा। ''चाय आने दे। मामा ज़रा फ्रेश हो जाएं।''
चाय तुरन्त ही आ गई। नय्यरा बीबी ने सबके लिए प्यालों में उड़ेली और आंखें तरेर कर बिपिन से बोलीं, 'इस 'मुसलमनटी' पर तो मैं बाद में तुम से निपटूंगी, ज़रा मामा से किस्सा सुन लूं पहले।' इस पर बिपिन ने तड़ से जवाब दिया, ''तुम हम से क्या निपटोगी नय्यरा भाभी। इतनी बार कहा कोई अपनी जैसी खूबसूरत मुसलमनटी ढूंढ कर ला दो, आज तक न लाईं। हम तो अब तुम्हीं पर आशिक होने वाले हैं। इस साले अनवर के भाग। वह जो कह गए कोई उस्ताद कि ब'पहलू-ए-हूर में लंगूर...' 
नय्यरा ने बिपिन की गर्दन पर थोड़ी सी गरम चाय छलकाई। ''मर, कमबख्त हिन्दुचे।''
गिलोरी का मलबा थूक कर कुल्ली करने के बाद चाय सुड़कते हुए मामा ने दास्तान का सिरा फिर पकड़ा। श्रोता मंडली भी चाय की चुस्कियां ले रही थी।
''बातें तो बहुत उड़ाईं यार दोस्तों ने। उसे रन्डी-मुन्डी तक बना दिया। लेकिन ऐसी बात नहीं थी। उनका खानदान ऐसा हेटा भी नहीं था। रहा मुसलमन्टे-मुसलमन्टी का सवाल मियां कोई कहदे इन नय्यरा बीबी की सूरत देख के कि ये हिन्दू हैं या मुसलमान। माथे पर न कोई ज़ात लेके घूमता है न मज़हब। और मियां हमारा बस चले तो हम दुनिया के सारे मज़हबों को बैन करा दें। इंसानों के बीच इन से ज्यादा फूट किसी ने नहीं डलवाई...'' मामा ने यह अन्तिम वाक्य इतने तैश में आके कहा कि श्रोता पल भर को सुन्न हो गए। वह पल गुज़र गया। मामा फिर सामान्य हो गए।जैसे लोग तैश में आने के बाद प्राय: हो ही जाते हैं।
''पांडे के जीजा जी पंडित ओंकार नाथ मिश्र के पुराने वफ़ादार मुंशी थे, रजब अली। उम्र में मिश्रा जी से कुछ बड़े। पुश्तैनी रिश्ता था। रजब अली के पिता इम्तियाज़ अली बड़े मिश्र जी की ज़मीन जायदाद देखते थे। बड़े मिश्र जी के कहने पर रजब अली को पढ़ाया लिखाया गया। बड़े हुए तो वकील साहब के मुंशी बना लिए गए। दिद्दा, जो घर की बहू थीं उन्हें रजब अली भाई साहब कहतीं। जब कभी इम्तियाज़ अली के सामने पड़तीं तो घूंघट काढ़ कर प्रणाम करतीं। हां उन लोगों के घर का खाना नहीं खाती थीं। मियां यह वह ज़माना था जब लोग एक दूसरे के घर खाएं न खाएं, सौहार्द्र ज़रूर बनाए रखते थे। अब रोटी का रिश्ता तो बना लिया लेकिन दिल के रिश्ते तोड़ लिए। धिक्कार है।'' मामा ने पनडिब्बे से फिर गिलौरी निकाली।
''परहेज़ पके हुए खाने और गीली चीज़ों का था। सूखे सामान, पान, फल, तमाखू वगैरह से कोई परहेज नहीं था। सो ईद में रजब अली के यहां से थाल लग कर आता। तांबे की नई सेनी पर सूखी सिवईयां, लच्छे, फेनियां, सूखे मेवे, शक्कर और तमाशा यह है कि दूध के लिए एक किनारे कुछ रकम रखी होती। सारे लड़के वालों के लिए नाम बनाम लिफ़ाफों में ईदी। यह सारा सामान्य थाल समेत दिद्दा के सामने रखा जाता। दिद्दा बार बार कहतीं अरे रजब अली भाई साहब, फिर नया थाल। कहां न हमें उन बर्तनों से परहेज़ नहीं जिसमें खाना पकता या खाया न जाता हो। पुरानी सेनी ले आया कीजिए और वापस ले जाइए। मगर रजब अली एक न सुनते। रजब अली के गुज़र जाने के बाद दिद्दा ठंडी सांस भर कर कहा करती थीं 'सारी सेनियां भंडार घर में रखी हैं। जाओ गिनो तो मालूम होगा कितनी ईदें साथ गुज़र गईं।
इन्हीं रजब अली की एक विधवा बहन थीं। उम्र में रजब अली से बहुत बड़ी। उन बहन की एक नातिन थी जिसकी मां जवानी में जल बसी थीं और बाप ने दूसरा निकाह कर लिया था। रजब अली विधवा बहन और अनाथ नातिन को साथ ही रखते थे। अपनी कोई बेटी नहीं थी इसलिए उसे बहुत चाहते थे। बड़े अरमान से ब्याह किया। दिद्दा ने भी जोड़े-बागे भेजे। कुछ ही समय में मालूम हुआ कि जिस लड़के से निकाह हुआ था वह मानसिक रोगी था। आखिर को लड़की को खुला दिलाना पड़ा। लड़की घर आकर बैठ गई। एक चुप लग गई थी उसे। रजब अली की असमय मौत भी शायद इसी सदमे से हुई। उनकी मौत पर पांडे उनके घर आए तो पहली बार इस लड़की पर पांडे की नज़र पड़ी। लगा खोपड़ी भक् से उड़ गई। दिन रात में बदला था और चांद धरती पर उतर आया था। रोया-रोया दुखी चेहरा, आंखों में गुलाबी डोरे। वह रोज से ज्यादा खूबसूरत लग रही थी! और निरीह। इस समय पांडे की उम्र काफ़ी हो गई थी। चालीस पार कर चुके थे। बहुत सी अच्छी सूरतें भी देख चुके थे लेकिन दिल यूं कभी नहीं हारा था।
रजब अली की पुरानी सेवाओं का बदला चुकाने के बहाने पांडे ने उनके घर आना जाना बढ़ाया। उपहारों से लाद दिया। बेचारी रजब अली की बीबी, सीधी सादी घरेलू औरत। उस पर से पति की अचानक मौत और लड़की पर जो बीती उसके सदमे से और भी बदहवास। बहुत दिन तक कुछ समझ ही न पाईं। रहीं दिद्दा तो उन्हें बसंत की खबर ही न थी। चौंकी तो पानी सिर के ऊपर बह रहा था। हर हर हर....
''अरे भय्यन! हम यह क्या सुन रहे हैं?''
भय्यन चुप तो चुप।
''अरे बोलता क्यों नहीं? यही मिली थी। एक तो जात-धरम अलग ऊपर से तलाक शुदा!''
''अरे हम पत्थर से बात कर रहे हैं क्या?'' दिद्दा ने फुसुर फुसुर रोना शुरू कर दिया। इश्क तो अच्छे अच्छों की मति फेर देता है। दिद्दा ने ज्यादा शोर मचाया तो पांडे, जो कई साल पहले चुप-चुपाते बहन की पसंद के आगे सिर झुका के सात फेरे ले आए थे, मुंह खोल कर बोल पड़े। हालांकि बोले पूरे आदर के साथ और धीरे स्वर में।
''दिद्दा आप मां समान हैं। अम्मा आज जिन्दा होतीं तो इससे ज्यादा आदर मान हम उनका भी न कर पाते। हमने आपकी लाज रखी।आप हमसे पूछे बिना हमारी ज़िन्दगी का फैसला कर आईं, हमने सिर आंखों पर उठाया। वह पटरानी है, रहेगी। लेकिन यह हमारा प्यार है, वह भी रहेगी।''
दिद्दा सुन्न हो गईं। भय्यन ने उन्हें जवाब दिया था। अब इसके आगे तो कुछ कहने सुनने को ही नहीं रह गया था।
''वह भय्यन साहब वाह। बड़े सूरमा निकले। एक यह हमारे बिपिन भय्या हैं। लड़की का धर्म दूसरा नहीं था, सिर्फ जात दूसरी थी, अम्मा ने डांट पिलाई बस झपट के उन्हीं के आंचल तले आन छिपे।'' एक श्रोता ने कहा।
''शेम शेम!'' कोरस में सब ने आवाज़ बुलन्द की।
''और ज़रा 'जेनरेशन गैप' की बात करने वालों के मुंह पर तो टेप लगाओ जाके। लोग बिना कारण आज के लोगों को बदनाम करते हैं। यह पिछले कुछ कम थे क्या?'' एक और टिप्पणी।
बिपिन को सांप सूंघ गया। उनका रुआंसा चेहरा देख कर कोई उनकी मदद को आगे आया। ''अच्छा मामा, फिर आगे क्या हुआ? आगे भी तो कुछ हुआ होगा।''
''आगे जो हुआ वह विधाता का किया हुआ था। उसमें पांडे, दिद्दा या उस मिर्जापुर वाली का कोई हाथ नहीं था। जब पांडे ने उस सूरत वाली से ब्याह किया उस समय उनकी दो बेटियां थीं। यही कोई पांच-छ बरस की। उधर उन्होंने दूसरा ब्याह किया उधर साल भर के अन्दर पट से बेटा। फिर दूसरे बरस एक और बेटा। इधर तीसरी भी बेटी। अब दिद्दा से न रहा गया। बधावा लेकर गईं। बड़े बड़े पुश्तैनी झुमके भावज को पहनाए। भतीजों का मुँह देख कर निहाल हो गईं। चांद-सूरज की जोड़ी थे। उनकी खूबसूरत कम उम्र मां ने झुक कर आदाब किया तो उसकी बलैयां ली। 'दूधों नहाओ, पूतों फलो' कहकर आशीर्वाद दिया। उसके हाथ से पान की गिलौरी लेकर खाई। पांडे पानदान सजा कर रखवाते थे, पान की लत थी।
घर वापस आकर दिद्दा ने सतनारायण भगवान की कथा रखवाई। प्रसाद लेकर एक बार फिर उस विधर्मी भाभी के घर गई। साफ़ साफ़ तो कुछ नहीं कह सकीं बस प्रसाद आगे बढ़ाया जो उसने मुस्कुरा कर दोनों हाथों का कटोरा सा बना कर बड़े आदर के साथ लिया, फिर माथे पर छुआ कर पी गई। कमबख्त कैसी सुन्दर है, हाथ तो देखो चांदी के बने लगते हैं। दिद्दा ने सोचा-अरे यह तो बड़ी संस्कारी, बड़ों का आदर मान करने वाली लड़की है। फिर तनिक रुक कर बोलीं, भय्यन के साथ तुम्हारी जोड़ी राम-सीता की जोड़ी लगती है। आज से हम तुम्हारा नाम जानकी रखते हैं। मालूम है, सीता मय्या का ही यह एक और नाम है। भय्यन के नाम में भी जानकी जुड़ा हुआ है।'' रौशन आरा मुस्कुराई (''नाम में क्या रखा है'' कह गए मियां शेक्स्पियर सदियों पहले। कुछ महानुभावों ने उन्हीं पर उनकी सूक्ति अज़माई। कहा उनका नाम तो शेखपीर था)।
लड़कों के नाम रखे गए थे आमिर और साबिर। दिद्दा ने आमिर को अमर और साबिर को सुवीर कर दिया। इस तरह सबको ख़ानदान में शामिल करके सतनारायण भगवान का प्रसाद चखा के लौटी। इस्लाम और हिन्दू धर्म के बीच की खाई उन्होंने पल भर में पाट के रख दी। इतनी जल्दी तो हनुमान जी की सेना भारत और श्रीलंका के बीच का पुल भी न बना पाई होगी। लेकिन इस सारी कार्रवाई का 'फ़ॉल आउट' ज़रा गड़बड़ रहने लगी थी। मियां, यह सास-ननदों वाले झगड़े होते तो हर घर में हैं लेकिन शरीफ़ घरानों में ज़रा ढके छिपे रहते हैं।
''हां साहब, राजकुमार ऐन और प्रिन्सेस डायना में कभी नहीं बनी।''
वाह साहब सीधे इंगलिस्तान पहुंच गए। अपनी देसी सफ़दर जंग रोड को क्यों भूल रहे हैं?
बात पांडे से राजनैतिक हस्तियों तक आ गई। चाय के साथ मूंगफलियों और परनिन्दा का दौर बहुत देर तक चला। ख़ासी तफ़रीह रही। बकौल मुश्ताक़ यूसुफ़ी गीबत (परनिन्दा) और मूंगफलियां ज़ाड़े में बहुत मज़ा देती हैं।
...यह बैठकें अब भी होती थीं लेकिन वह मज़ा नहीं रह गया था। के.के. मामा केवल पचपन वर्ष की अल्पायु में, जिसे वह भरी जवानी कहा करते थे, कैंसर का शिकार हुए और अगले दो साल के अन्दर चटपट चले गए। उनकी कहानी के नायक भी कुछ ऐसे बूढ़े नहीं हुए थे। बस साठ से पांचेक बरस ऊपर आए थे। हृष्ट पुष्ट देह थी। मरने के लक्षण कहीं से भी नहीं दिखाई देते थे। लगता था अस्सी पचास्सी से पहले तो एक ईंट भी नहीं खिसकने की। इमारत की कौन कहे।
हां, दिद्दा स्वर्ग सिधार चुकी थीं और लड़कियां सयानी थीं इसलिए पत्नी का दबाव उन पर बढ़ गया था। दूसरे घर जाते भी तो जल्दी चले आते। इस बार गए तो सारा अगला पिछला हिसाब चुकता कर दिया। वहीं मर गए। बस यूं ही, अचानक बैठे बैठे। के.के. मामा तो हैं नहीं वर्ना कहते अब मियां, न किसी पे दिल आ जाने का कोई समय निर्धारित है न आंधी, शादी और मौत का। कभी कभी ऐसे अचानक आती है कि पूछो मत। अब देख लेव अच्छे भले पांडे घर में बैठे थे यह रसूलपुर कहां जा मरे। माना कि वह वहां रह रही थी, उनकी चहेती बीबी रौशन आरा लेकिन उस घड़ी न जाते तो शायद मरते ही नहीं। और मरते बेशक पर रसूलपुर में तो न मरते।
पांडे ने जब रौशन के सामने ब्याह का प्रस्ताव रख रख के उनकी नाक में दम कर दिया था तो उसने एक दिन कहा था, ''मगर पंडित, (वह पांडे को इसी तरह सम्बोधित करती थी) तुम्हारा और हमारा धर्म अलग है। उस पर तुम ठहरे शादीशुदा, दो बच्चियों के बाप। अब तुम लाख कहो कि तुम हम पर ज़हर खाते हो...''
" मज़हब! धर्म! हां है तो। तुम मुसलमान, हम हिन्दू। रही बात हमारे शादीशुदा होने की तो उसे क्यों बीच में लाती हो। तुम्हारे मज़हब में तो चार की इजाज़त दे रखी है।"
रौशन मुस्कुराई। ''हिन्दू के ऊपर तो कोई पाबन्दी सिरे से है ही नहीं। चार करो या चालीस।''
पांडे झुंझलाए ''अरे सरकार ने लगा दी न वर्ना हमारे पुरखों में एक महानुभाव थे, एक ही घर से एक के बाद एक चार बहनें ब्याह लाए। फिर वहां लड़कियों का स्टॉक खतम हो गया तो एक कोठे वाली रख ली। मगर तुम पर तो अब भी पाबन्दी नहीं है न...''
रौशन आरा ने आंखें निकालीं, ''हम पर तो है, हमारे मर्दों पर नहीं। बाई द वे पंडित तुम हमें समझते क्या हो?''
''जान-ए-पंडित''
''इस ख़ालिस हिन्दू लफ़्ज के साथ इज़ाज़त अच्छी नहीं लगती, जैसे हमारी तुम्हारी जोड़ी। अनमिल-बेजोड़।''
''रौशन आरा तुम हम से पिट जाओगी।''
रौशन अचान गंभीर हो उठी। ''पिट तो हम चुके हैं। जिन्दगी की बिसात पर एक बेबज़ाअत (तुच्छ) मोहरे की तरह। पंडित, अब हम क्या करें?'' वह हाथ मलने लगी थी। उसके स्वर में बला की लाचारी थी।
''कुछ मत करो। बस चुपचाप हम से ब्याह कर लो।''
''तुम्हे मज़हब बदलना पड़ेगा। हम कोर्ट मैरेज नहीं करेंगे।''
''कोर्ट मैरेज तो वैसे भी नहीं हो पाएगी। घर पर वह जो है न मिर्जापुर वाली उससे कैसे इनकार करेंगे। वह हमारी ब्याहता है। विधि-विधान से ब्याह कर लाई गई पत्नी।'' ''तो हमें रखैल बनाओगे क्या?''
अबकी बार गंभीर होने की बारी पांडे की थी। जिसे यूं टूटकर कर चाहे उसका यह घोर अनादर! पल भर को वह जड़ हो गए।
''बोलो पंडित।'' रौशन आरा के स्वर में एक अन्तिम जवाब का आग्रह साफ़ था।
''हम निकाह करेंगे।'' पांडे का अन्तिम निर्णय भी साफ़ था।
''मज़हब बदलना पड़ेगा, जानते हो न?''
''अब वकील को तुम पढ़ाओगी रौशन आरा बेगम। तुम, एक औरत, जिसके बारे में बुजुर्ग कह गए कि उसकी अक़्ल एड़ी में होती है।''
''एड़ी में किसकी अक़्ल होती है यह फैसला बाद में करेंगे। पहले तुम यह सोच लो कि रास्ता कांटों भरा है। अपने पुरखों का मज़हब छोड़ के...''
''ऐसी की तैसी...'' पांडे ने होंठ काटे।
''किसकी ऐसी तैसी कर रहे हो, मज़हब की या बुजुर्गों की?"
''समाज की जिसने मज़हब बनाया। मगर हां, तुम्हारा मज़हब तो आसमान से उतरा है।''
''अभी हिन्दू हो इसलिए जो जी चाहे कह लो। मुसलमान हो गए तो बेअदबी की इजाज़त नहीं होगी।''
''यार तुम्हारे मज़हब में बड़ा रेजीमेन्टेशन है।''
''शायद'' रौशन आरा ने सोचा लेकिन कुछ कहा नहीं।
रात को घर जाकर पांडे पत्नी की बगल में लेटे तो उन्हें नींद नहीं आई। वह सिग्रेट सुलगा कर बरामदे में जा बैठे। शादी के कुछ दिन बाद दिद्दा ने अपने बंगले के बगल में खाली पड़ी जमीन पर बनी कॉटेज में उन्हें अलग कर दिया था ताकि दोनों परिवारों में सौहार्द बना रहे और दूर भी न हों। दोनों घरों का साझा कम्पाउंड था और दिद्दा की देख-रेख में निपुण माली के हाथों सजाया गया बाग। ऐसे खूबसूरत पेड़ पौधे, ऐसे हरे भरे कि देखते रह जाओ। हवा उनके बीच से होकर आई तो कुछ ज्यादा शीतल महसूस हुई। चांद आसमान के बीचों बीच नीली छतगीरी में फ़ानूस की तरह टंगा हुआ था। मौलसिरी की सुगन्ध तम्बाकू की महक पर हावी होकर किसी तांत्रिक के फूंके मंत्र की तरह उनके चारों ओर मंडराती रही।
अभी सवेरा होने में कुछ देर थी कि वह कुरसी से उठकार दिद्दा की ओर चल पड़े। एक तरफ सफ़ेद मुसंडे के बड़े बड़े झाड़ खड़े हुए थे। एक जातक कथा के अनुसार महात्मा बुद्ध अपने किसी जन्म में श्रीलंका के जंगलों में भटक गए थे। अमावस की रात और घना जंगल। टटोलते आगे बढ़ रहे थे कि अचानक मुसंडों के झुंड में चांदनी जैसे फूल खिल उठे। सारा जंगल रौशनी से भर उठा। यहां से वहां तक चांदनी बिखर गई। चांद की नहीं, फूलों की चांदनी। तब महात्मा बुद्ध ने मुसन्डे को आशीर्वाद दिया। उस आशीर्वाद की छाया आज तक उस पर है। उसमें सारे साल फूल खिलते हैं। पांडे को यह कहानी बहुत पसंद थी। अब पता नहीं उसका असर था या वास्तव में इन फूलों में ऐसा कोई गुण था कि देखो तो मन-मस्तिष्क में एक शीतलता भर उठे। क्या यह महात्मा बुद्ध का आशीर्वाद था? लेकिन क्या बुद्ध जी ने मानव मात्र के कल्याण की दुआ न की होगी? सद्बुद्धि की दुआ? मन की कटुता दूर होने की कामना? बुढ़ापे, बीमारी, मृत्यु, जन्मजात स्वार्थ से मुक्ति की इच्छा? उस इच्छा के पूरा होने का आशीर्वाद? यह सब तो आज भी उतने ही भयावह हैं, उसी तरह हृदय को आतंकित करते रहते हैं। अम्मा, प्यारी अम्मा.... युवावस्था में परलोक सिधारने वाली मां को याद करके पांडे की आंखें भर आईं। रात के इन अन्तिम पहर में उनके मन में हूक सी उठी। अम्मा मर के कहां गई होंगी? क्या सचमुच उन्हें वैतरणी पार करनी पड़ी होगी? क्या इस जहां से आगे और भी जहां है? क्या मरने के बाद पांडे अम्मा से मिल सकेंगे? जीवनकाल में नन्हें दुधमुंहे बेटे को हर समय कलेजे से लगाकर रखने वाली अम्मा क्या उनके लिए व्याकुल होती होंगी? हर साल गया जाकर पिंड दान करने से क्या सचमुच उनकी आत्मा को शान्ति मिलती होगी? आत्मा? आत्मा क्या है?
(रौशन आरा भी मुंशी रजब अली के नाम से फ़ातेहा पढ़ के कहती है कि इससे इनकी रूह को सुकून मिलता होगा और सवाब भी) यह गुनाह और सवाब क्या है? रौशन ने इन्हें कभी चुम्बन नहीं लेने दिया, सिर्फ हाथ पकडऩे की इजाज़त थी। यह गुनाह है... वह कहती थी (वैसे तो रौशन बीबी तुम्हारी आस्था के मुताबिक तुम्हारा मुझसे मिलना, या औरत-मर्द के बीच आकर्षण को राह देना ही गुनाह है) किसने बनाए यह पाप-पुण्य के पैमाने? वह तेज़ तेज़ चलने लगे.... अगर वह कलमा पढ़ के कहते हैं कि मैं मुसलमान हूं तो भी वह जानकी रमण पांडे ही रहेंगे या कुछ और हो जाएंगे?
फिर उन्होंने पूरे अदालती तर्क-वितर्क के बाद फैसला किया कि रहेंगे तो वह वही जो हैं... अपने सारे विवेक, सारे ज्ञान, अपने शरीर, अपने रंग-रूप, अपनी भावनाओं और संवेदनाओं, अपनी त्रुटियों, अपने स्वार्थ, अपने हर राग-द्वेष के साथ... राग अनुराग... उनकी दो बेटियां थीं और एक पत्नी। पत्नी के लिए उन्होंने किसी ऐसे मोह, भावनाओं के ऐसे ज्वार को नहीं महसूस किया था जैसे रौशन आरा के लिए लेकिन थी तो वह उनकी जीवन संगिनी। उसने कभी शिकायत का मौका नहीं दिया था। और फिर दिद्दा और बेटियां? क्या उनके लिए उनके मन में प्यार सिर्फ इसलिए कम हो जाएगा (या खत्म) के वह अपने ऊपर एक नया लेबेल लगा लेंगे? यह कैसे हो सकता है जानकी रमण पांडे! उन्होंने अपने आप को झाड़ पिलाई। फिर यह कौन से झगड़े हैं, यह अल्लाह-भगवान के फ़र्क। (यह कभी मिटते नज़र नहीं आते। उन्होंने बड़ी पीड़ा के साथ सोचा)
अगले सप्ताह उन्होंने रौशन आरा से जा कहा कि वह कलमा पढ़ने को तैयार हैं।
''मगर रौशन'' उन्होंने झुकी पलकों और रौशन चेहरे वाली रौशन से कहा, ''मैं विष्णु का भक्त हूं। दिल से उन्हें नहीं निकाल सकूंगा। तुम यह समझ लो कि यह सारे नाम, यह सारी परिकल्पनाएं इन्सानों ने अपने बुनियादी सवालों के जवाब में ढूंढ़े हैं। यह दुनिया किसने बनाई? लोग मरते क्यों हैं? मरने के बाद कहां जाते हैं, क्या होता है? क्या दुनिया में जो अन्याय, जो दुख हैं उनकी कहीं कोई भरपाई है? जिन्हें कानून सजा नहीं दे पाता उन गुनाहगारों के लिए कहीं कोई सज़ा है? क्या परहित करने वालों को कहीं उनके अच्छे कर्मों का फल मिलेगा? रौशन बेगम, दुनिया में बड़े पाप, बड़े जुल्म हैं। धर्म न होता तो उनकी और भी बाढ़ आ जाती। धर्म कहो या मज़हब यह इन्सान में घुसे शैतान के सामने लक्ष्मण रेखा खींचता है, दुख में, क्राइसिस में धीरज बंधाता है, उम्मीदें जगाता है रौशन, तुम्हारा अल्लाह रहमान व रहीम है, पालनहार है, गुनाहों को माफ़ भी करता है और उनकी सज़ा भी देता है। मेरे विष्णु में भी लगभग यही गुण हैं और हां, वह मुस्कुराए, ''तुम्हारा अल्लाह जो रब्बु-उल-आलमीन (सम्पूर्ण संसार का ईश्वर) कहलाता है, रब्ब-उल-मुस्लिमीन (केवल मुसलमानों का ईश्वर) नहीं... क्या मेरा रब नहीं हुआ? अब मैं उसी को बीच में डालकर तुम्हारा हाथ थामूंगा, हां उसकी पूजा अर्चना उसके उसी रूप में करता रहूंगा जिस रूप में करता आया हूं।''
''दूसरी बात यह रौशन बेगम कि मैं अपनी पत्नी और दोनों बच्चियों को नहीं छोड़ सकता। वह जैसी भी है सात फेरे डालकर ब्याही बीबी है, उसकी पीठ पर हमारे पूरे समाज का हाथ है। किसी एक रिश्ते पर सबको बलि नहीं चढ़ाया जा सकता।'' वह तनिक रुके। लम्बी सांस ली और मुस्कुराए। मिसेज़ सिम्पसन् वाले किंग एडवर्ड का नाम मत लेना। वह ठहरे राजा। वह भी इंगलिस्तान के। हम आम आदमी, जनता जनार्दन, वह भी भारत के बड़े ही पुराने गूढ़ वर्णाश्रम का एक हिस्सा।''
हाथों के कटोरे में चेहरे का चांद थामे बड़े ध्यान से पांडे का प्रवचन सुनती रौशन हंसी। एक दुख भरी हंसी। ''पांडे मैंने अपना दिल तुम्हारे हवाले करते वक़्त यह नहीं सोचा था कि तुम जानकी रमण पांडे हो और मैं रौशन आरा। जब मैंने नामों के पीछे छिपे फ़र्क को पहचाना, उस वक़्त बहुत देर हो चुकी थी। तुम्हारा जो जी चाहे करते रहना। बस कलमा पढ़ के उंगली में जरा सा ख़ून लगा के शहीदों में शामिल हो जाओ क्योंकि निकाह के अलावा साथ रहने की कोई सूरत मुझे मंजूर नहीं है। मैं तो तुमसे गोश्त खाने को भी नहीं कहूंगी। जब मेरे यहां आओगे, गाय बैल का चारा डाल दिया करूंगी तुम्हारे आगे'' वह शरारत से मुस्कुराई फिर एकाएक गंभीर हो गई। तुम्हारी बीबी का हक़ छीनने की बात सोचूं भी तो सुअर खाऊं। मेरे यहां अपने की बात यह है कि जब चाहो आना और इतने ही दिन रहना जितने में तुम्हारा अमन-चैन खतरे में न पड़े।''
अगले हफ़्ते दोनों का निकाह हो गया। जानकी रमण पांडे ने निकाह से पहले एक डरे-सहमे, बेचारे से मौलवी के सामने इस्लाम कबूल किया। उस समय रौशन की नानी यानि रजब अली की बीबी बहुत उदास थीं और बहुत परेशान भी। अपनी परेशानी में उन्हें यह परवाह भी नहीं रह गई थी कि रौशन ने एक हिन्दू से निकाह किया है। कलमा पढ़ना कोई मानी नहीं रखता। यह महज़ सहूलियत के लिए है। उन्हें दुख यह था कि वह ओंकार नाथ की बहू को क्या मुंह दिखाएंगी, किस मुंह से उन्हें ईद की सिवईयां भेजेंगी। उसका दिमाग़ सुन्न हो रहा था। इस घर से इतने पुराने सम्बंध हैं। यही घर रह गया था सेंध मारने के लिए। अब जानकी रमण ठहरे मर्द, उन्हें कोई कुछ न कहेगा हालांकि रौशन न उनको देखते ही उनके ऊपर आशिक़ हुई थी, न उसने आने जाने और हेल मेल बढ़ाने के बहाने ढूंढे थे। बल्कि शुरू में तो वह जानकी रमण की आर-जार को बड़े शक की नजरों से देखती थी। लेकिन वह ज़िन्दगी के बेहद नाजुक दौर से गुज़रती एक कम उम्र की अकेली पड़ी लड़की थी। तवज्जो और प्यार पाया तो लुढ़क गई। लेकिन यह सब कौन देखता सुनता और कौन यह स्पष्टीकरण पाने को दम भर रुकना पसंद करता। और फिर यही हुआ। किसी ने पांडे जी को कुछ न कहा, सब कूद पड़े रौशन आरा पे।
कुलटा, कुलच्छिनी। पहले पति को छोड़ आई। ऐसी सुंदर औरत को कोई मारता है भला? आवारा होगी इसीलिए मार खाती होगी। उस पर दोष लगा दिया की दिवाना, पागल है। पास न आने देती होगी तभी तो तीन बरस में भी चूहे का बच्चा तक न जनके गिया। और यहां... इधर पांडे से ब्याह रचाया उधर बेटा। क्या पता पांडे से तभी से आशनाई रही हो। बेसुआ। धर्म अधर्म की भी नहीं सोची। ब्राह्मण का धर्म भ्रष्ट किया, सीधी नरक में जाएगी। अरे इसे तो नरक में भी जगह न मिलेगी। न जाने क्या क्या खिला रही होगी उन्हें।
फिर दुनिया जहान की सुनते, कुछ स्वयं कहते पत्नी ने पांडे से कहा। ''तुम वहां खा के आते हो, अपने बरतन अलग कर लो। यहां हमारे थाली कटोरों में मत खाना।''
पांडे पत्नी के साथ बड़ी नरमी बरतते थे। न जाने किस तरह अपना बचाव किया था और न जाने कैसी कैसी पट्टी पढ़ाई थी लेकिन खाने की बात पर गीता उठा के ले आए। उस पर हाथ रखकर सौगंध खाई। ''हमारे 'वहां' रहने पर बिल्कुल अलग बर्तनों में खाना बनता हैं। 'वह' स्वयं उन दिनों मांस-मछली नहीं खाती। शुद्ध सात्विक खाना होता है।'' इस 'वह' पर मिर्जापुर वाली के तन बदन में आग लग जाया करती थी। लेकिन गीता पर हाथ रखकर सौगंध उठाते पांडे ऐसे निरीह, ऐसे सच्चे, इतने दुखी लगे कि उसके बाद उसने इस खाद्य-अखाद्य के मसले पर रार मचाना छोड़ दिया।
खाने को तो पांडे ने कसम खा ली लेकिन उस दिन से बड़े शोकाकुल रहने लगे थे। जीवन में पहली बार अपने आप को सच्चा साबित करने के लिए इस अन्तिम हद से गुज़रना पड़ा था। लगा वह वकील नहीं हैं, मुजरिम के कटघरे में खड़े हैं। रामायण का वह प्रसंग याद आया जहां सीता अग्नि परीक्षा से गुज़री थीं। वह बहुत देर तक बैठे सोचते रहे। यह हलाल-हराम, खाद्य-अखाद्य है क्या? कोई गोश्त खाए या न खाए। कोई गोश्त खाता भी हो तो सूअर न खाए या फिर गय्या को वर्जित जाने। सब्ज़ी तक में कहीं कहीं प्याज़ के पकौड़े बनवाने शुरू कर दिए थे। दिद्दा के ससुराल में इनके जेठ के दो लड़कों के घरों में इस खान पान को लेकर चूल्हा अलग हो गया था। बरसों से चला आ रहा संयुक्त परिवार बिखर गया। दिद्दा के जेठ बहुत दुखी रहा करते थे। उनके एक लड़के ने न जाने किस की संगत में गोश्त खाना शुरु कर दिया था। उसकी पत्नी किसी नेवल ऑफिसर की बेटी थी। कॉफ़ी मॉर्डन। उसने मना करना तो क्या इस बात को बहुत पसंद किया। प्याज़ लहसुन का इस्तेमाल तो जी खोल कर हो ही रहा था। गोश्त चोरी छुपे पहले तो होटलों पर सीमित रहा फिर जब हियाव कुछ और खुला तो बिरयानी और मुर्गा नाश्ते दान में भर भर कर घर तक आने लगे। चतुर्वेदी ब्राह्मण के यहां यह अनर्थ। राम राम राम! दोनों भाइयों के यहां खुल के झगड़ा हुआ। बड़ा बेटा पुराने विचारों का था और बाप को बहुत प्यार भी करता था। इनकी ज़िन्दगी तक यह सब न होता तो बात इतनी न बढ़ती। छोटे का चूल्हा अलग करा दिया गया। बड़ा सा दो तल्ला घर दो अलग अलग घरों में बंट गया। मां-बाप बड़े बेटे के साथ हो गए। चूल्हा अलग हुआ तो उन सब छोटी छोटी बातों को लेकर लड़ाई होने लगी जो पहले अनदेखी कर दी जाती थीं। एक दिन मज़ाक ही मज़ाक में बड़ा हंगामा हो गया। देवर ने बड़ी भावज से कहा- भाभी एक दिन मुर्गे की टांग चबा कर तो देखो, मुर्गा तो क्या आदमी तक खाने लगोगी। 
भाभी इतना चिल्लाई कि सारा घर इकट्ठा हो गया। ऐसी रार मची कि जमीन जायदाद के बटवारे तक की बात होने लगी। (बटवारे की बात सच पूछा जाए तो पहले से मन में थी। उसका अच्छा मौक़ा मिल गया।) इन्सान कितने मूर्ख हैं। कब तक रहेंगे भला? रौशन आरा बता रही थीं कि उनकी अम्मा कभी सूअर का नाम नहीं लेती थीं। 'बुरा' कहती थीं या सूरत हराम। कहती थीं सू्अर का नाम लेने से घर में रहमत के फ़रिश्ते नहीं आते।
''और बीबी रौशन आरा तुम वह लोग हो जो मुर्गा, बकरा, गाय-भैंस, यहां तक कि ऊंट-घोड़ा सब खा डालते हो।''

''हम तो नहीं खाते ऊंट-घोड़े। और बीफ़ तुम्हारी वजह से छोड़ दिया।"

"हलाल तो हैं न ऊंट-घोड़े। तुम्हारे वह दूर के रिश्तेदार जो हैं, अरे वह..बद्दन मियां। उन्होंने छ बेटियों के बाद बेटा होने पर ऊंट की कुर्बानी दी थी। तुम्हारे यहां हिस्सा भिजवाया था। लोग बेटी पैदा होने पर ऊंट क्या बकरी की भी कुर्बानी न दें। लाख तुम कहते रहो कि इस्लाम में औरत का दर्जा बुलन्द है लेकिन धर्म और सामाजिक रीतियों में टकराव हर जगह दिखता है... पंडित ने यह भी कहा था।"

''हम ने कहां खाया वह ऊंट?''

"फिर वही मुर्गे की एक टांग! अरे हलाल है न, तुम्हारे धर्म भाई खाते हैं। तुम खाओ या मत खाओ।"

"मुर्गे की एक टांग तो तुम ने लगा रखी है। लगता है रेकार्ड पर सूई अटक गई।"

''सूई इसलिए अटकी कि तुमने यह नहीं बताया कि तुम लोग सूअर से इतना क्यों बिदकते हो? याद है एक वादा तुमने कुछ इस तरह किया था कि तुम्हारी बीबी का छीनूं तो सूअर खाऊं।''

''शायद इसलिए कि बड़ा ही गन्दा और घिनावना लगता है।''

"सो तो हमें भी लगता है लेकिन तुम्हारे यहां तो गधा भी हराम है और कुत्ता भी। तो तुम लोग नाराज़ होकर 'सू्अर खाना' क्यों कहते हो, गधा खाना, कुत्ता खाना क्यों नहीं कहते?'

''इस पहलू पर हमने कभी ध्यान नहीं दिया। हां अब तुम इस पर रिसर्च कर लो।"
रौशन आरा ने आंखें निकालीं... अरे पंडित घर में ही दंगा कराओगे क्या? बाहर तो बहुत करा लिए तुमने!'' 
पांडे खिलखिला कर हंसे।
हाल ही में एक दंगा होते होते बच गया था। कोई टेढ़े दिमाग वाला मस्जिद में गोश्त की पोटली फेंक गया था। अब वह गोश्त किस का था यह जानकारी तो नहीं ली जा सकी लेकिन मस्जिद में फेंका गया इसलिए जरूर किसी नापाक जानवर का ही रहा होगा। भड़के हुए नौजवानों को समझा बुझा कर ठंडा करने में पांडे आगे आगे रहे। वह इन दिनों रौशन आरा के पास रसूलपुर आए हुए थे।
''तुम लड़कर उनसे नहीं जीत सकोगे जो संख्या में तुमसे इतने ज्यादा हैं। तुम्हारी गलतियां तुम्हारे लोगों के बड़े नुकसान का कारण बनेंगी। धैर्य रखो। छोटी छोटी बातों से आपे से बाहर मत हो जाओ।'' पांडे ने समझाया था।"

''यह छोटी बात है?'' कुछ लड़कों ने आंखें निकाली थीं।

''समझो तो छोटी ही है। पोटली उठाकर फेंक दो। मस्जिद का आंगन धो डालो किस्सा खतम। जो तुम्हें चिढ़ा कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं वह भी एक दिन शान्त हो जाएंगे।'' मगर बड़ी देर लगी जोश में आए लोगों को ठंडा करने में। पांडे ने स्वयं पोटली उठा कर कूड़े पर फेंकी। फिर बाल्टी भर भर पानी लाए। गरम माहौल ठंडा पड़ा और कोई बड़ी घटना होने से टाली जा सकी।

(''बड़ी घटना होती भी कैसे? मुसलमानों में दम है कहीं? कुछ फुटर फुटर करेंगे तो तुम उन्हें पीट पाट के रख दोगे। कब्रिस्तानों पर कब्जा भी करोगे और उन्हें कब्रिस्तान भेजने की धमकी भी दोगे। पाकिस्तान तो हम जाने से रहे'' रौशन की टिप्पणी थी। बाबरी मस्जिद का मामला उन दिनों गरम हो रहा था। कोई रौशन के दरवाज़े पर खरिया मिट्टी से लिख गया था 'मुसलमानों के दो स्थान - पाकिस्तान और कब्रिस्तान।)

रौशन बिल्कुल जड़ हो गई थी। चेहरा ऐसा जैसे आसपास किसी चीज़ का होश न हो। लम्बे लम्बे बाल जो उस रात पांडे ने खोल कर अपने शानों पर बिखराए थे, उसी तरह बिखरे हुए थे और थोड़ा उलझ चले थे। आंखों के नीचे काले घेरे उभर आए थे। आंखें, जो अब भी रौशन और चमकदार थीं उनमें किसी ने आश्चर्य जैसे कूट कूट कर भर दिया था। आश्चर्य इस अनहोनी पर जो हो चुकी थी। मन उसे स्वीकार नहीं कर पा रहा था। कहीं यह बात भी कचोट रही थी कि पांडे उसके पास आकर ही क्यों मरे (लेकिन शायद वह अपने घर पर रहकर परलोक सिधारे होते तो उसको यह सदमा चैन न लेने देता कि उनके अन्त समय में वह उनका मुँह न देख सकी।) पता नहीं वहां लोग क्या सोचेंगे। दोनों बेटे तो थे ही, और बहुत से लोग इकट्ठे हो गए।
पांडे पास पड़ौस में बहुत लोकप्रिय थे। लेकिन रौशन की समझ में नहीं आ रहा था कि जो आज तक लोगों को पता नहीं चला वह राज कैसे खोले। कैसे कहे कि उसका शौहर मुसलमान नहीं है, उसका क्रिया-कर्म हिन्दू रीति से होना चाहिए। वह पूरा गांव मुसलमानों का था कुछ ब्राह्मण और राजपूत घर थे। गांव के हाशिए पर कुछ दलितों की झोपड़ियाँ थीं। मगर क्या पांडे को किसी खांचे में रखा जा सकता था? किस खांचे में?
काफी समय गुजरा। एक रात जब वह रौशन के इन्हीं लम्बे, काले घने बालों में उंगलियों से कंघी करते, उसका सिर अपनी छाती पर टिकाए लेटे हुए थे तो रौशन ने कहा था, "पंडित तुम कितने बड़े रियाकार (धूर्त) हो। जुमे के दिन मस्जिद में जाके नमाज भी पढ़ आए। सच कहना नमाज में क्या पढ़ा था? गायत्री मंत्र या हनुमान चालीसा?"

पांडे हंसे थे। हमें सातों कलमें याद हो गए हैं और अलहम्द (कुरान की एक सूरह) भी। वही हेर फेर के पढ़ लिए। बाकी उठ्ठक-बैठक बस इमाम साहब के पीछे वैसे ही करली जैसे दूसरे कर रहे थे। फिर वह अचानक ही गंभीर हो उठे, 'दो मुल्लाओं के बीच मुर्गी हराम होते कभी देखी है रौशन?''

''क्यों मुर्गी कहां से सूझ गई पंडित? वह भी हलाल-हराम के फ़र्क से। खाओगे क्या?''

''रौशन''। पांडे गंभीर ही रहे! हम सीधे सादे हिन्दू थे। तुम्हारे चक्कर में नकली मुसलमान बने। फिर असली हिन्दू भी न रहे। पक्के नास्तिक हो उठे। वह क्या कहा जाता है नेचरी।

रौशन ने एक झटके से घने बाल पीछे फेंके और उठकर बैठ गई। ''वाही तबाही मत बका करो। चलो खाना लगाती हूं।'' वह किचन की तरफ़ बढ़ गई। देखा पंडित पीछे पीछे चले आ रहे हैं। फिर वह गैस के चूल्हे से कोहनी टिका कर खड़े हो गए।

''रौशन, पहले कभी हमने अल्लाह, भगवान, मज़हब-इन सब पर इतना विचार करने की जरूरत नहीं समझी थी। हम समझते थे हां है एक पालनहार और संध्या आरती करते उनके प्रति अपने सारे फ़र्ज़ पूरे कर लेते थे। आस पास दूसरे धर्म की बड़ी नुक्ता चीनी सुनते थे। हमें भी लगता था हमारा धर्म ही सबसे अच्छा है। फिर हमने दुनिया को ग़ौर से देखा। तुमसे मिलने के बाद तुम्हारे मज़हब को समझने की कोशिश की। पहले हम निरे वकील थे। कानून के अलावा कुछ नहीं जानते थे। बाद में बहुत कुछ पढ़ा, हिस्ट्री, सोशियालॉजी, एन्थ्रोपॉलोजी, धर्म। और अब-अब हम सारे ख़ानों, तहख़ानों से ऊपर उठ चुके हैं।''

''सुनो पंडित'', रौशन ने चने की दाल भरे टिन्डे कढ़ाई से निकाल कर एक फूलदार डिश में रखते हुए संजीदगी से कहा, ''हमारे किसी मज़ाक पर सीरियस मत हो जाया करो। बा खुदा तुम्हारे मज़हब से हम ने कोई मतलब नहीं रखा। हमारे लिए तुम सिर्फ तुम हो। एक इन्सान जिसने हमें भरपूर प्यार दिया और तहफ़्फुज़ (सुरक्षा)।''

''जानते हैं रौशन और हमने भी सिर्फ तुम्हारी अच्छी सूरत को नहीं चाहा। तुम्हारी गहरी सूझ बूझ, तुम्हारी खुशमिजाज़ी, तुम्हारी ईमानदारी, धर्म से ऊपर उठकर लोगों को परखने की सलाहियत... यह सब हमने अपनी धर्म पत्नी में चाहा था। वहां नहीं मिला तभी तुम्हारी ओर ढुलक पड़े। आज हम तुमसे कुछ कहना चाहते हैं। हमें कह डालने दो रौशन! हमने बड़ी गहराई से महसूस किया है कि इस कायनात के रहस्यों ने, ज़िन्दगी और मौत ने, बुढ़ापे और दुख ने, कुदरत की रंगारंगी ने हर दौर, हर रंग और हर नस्ल के इन्सानों में एक ऐसी शक्ति की कल्पना जगाई जो इन सारे गोरख धंधे के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सके। जिसे संसार कहते हैं। वह शक्ति एक पिता की तरह मुहब्बत करने वाली है, उससे हम सच का पक्ष लेने और झूठ का विरोध करने की अपेक्षा करते हैं। वह हर शय से ऊपर है, हर समय जागती और हर प्राणी पर नज़र रखती है। उससे हम सब कुछ मांग सकते हैं। इस शक्ति, इस हस्ती को खुश रखने, उसके गुस्से, उनकी अनदेखी से बचने के लिए हमने पाप और पुण्य के नियम गढ़े। बुनियादी तौर पर सारे पाप वह थे जिनसे दुख या नुकसान पहुंचे और पुण्य वह जो किसी को सुख पहुचाएं, दुख में मदद करें। लेकिन फिर उनमें बहुत कुछ ऐसा भी जुड़ता गया जो इतना स्पष्ट, इतना साफ नहीं था। इन तसव्वरात को विकसित करते करते हम यह भूल गए कि वक्त, जगह और सोच के हिसाब से लोगों को तसव्वरात का अलग अलग होना फ़ितरी था चाहे उनका बुनियादी मक़सद एक ही क्यों न रहा हो यानि उस क़ादिर-मतलक़ तक पहुंचना जो हमारा ख़ालिक है। लेकिन हम में से ज्यादातर सिर्फ उसी तरीके को सही समझते हैं जो उनका अपना है। जो हमारे दायरे से बाहर थे उनसे हमने नफरत की। कभी-कभी तो उनका सिर काट देना जायज ठहराया। फिर पाप पुण्य में भी ऐसी ऐसी शाखाएं फूटीं जिनके कोई मानी ही नहीं रह गए।''
''रौशन, लेकिन मैं एकेश्वरवादी हूं। मतलब जानती हो? एक ईश्वर, चाहो तो खुदा कह लो, में यक़ीन रखने वाला। मेरे सनातन धर्म में एकेश्वरवाद रहा है। मैं तुम्हारे पैग़म्बर साहब की बड़ी इज्ज़त करता हूं। उन्हें मैं और कुछ समझूं या नहीं, बहुत बड़ा इन्कलाबी सुधारक मानता हूं।''

''फिर भी तुम मुसलमान नहीं हो।''

"मैंने कहा न रौशन, मैं अब हिन्दू भी नहीं हूं। मैं एक इंसान हूं। मुझे चिड़ियों की चहचहाहट में, खुशबू में, आकाश में बिखरे तारों में, नदियों के पानियों में, उगते और डूबते सूरज के हुस्न में, उस परमपिता का नूर दिखाई पड़ता है। शायद सूरज की पूजा भी हमारे ऋषियों-मुनियों ने इसीलिए करनी शुरु की थी। और पेड़ों और नदियों की भी। यह सब उसी एक शक्ति के रूप हैं। और रौशन, मैं हर व्यक्ति के लिए उसकी व्यक्तिगत आस्था और धर्म के अधिकार को मानता हूं। वह जिस तरह भी चाहे, अपने भगवान तक पहुंचने का उपक्रम करे, उसे जो चाहे नाम दे। लेकिन दुख की बात यह है कि धर्म के नाम पर जितनी दीवारें उठीं, जितने ज़ुल्म हुए, शायद किसी और मुद्दे पर नहीं हुए होंगे। अमेरिका की खोज के बाद जब स्पेनी वहां पहुंचे तो बारूद और चेचक के साथ वह वहां के मूल वासियों के लिए तोहफ़े में एक नया खुदा भी ले गए थे। बेशक उन्हें इस नए ईश्वर के साथ ताल मेल बैठाने में परेशानी हुई होगी। उन्हें वक़्त लगा होगा अपने पुरखों की उन आत्माओं को भुलाने में जिन्हें वह पूजते चले आए थे, उन पवित्र भैंसों की हत्या होते देख कर दुख न करने में... जर्मनी के कुछ कबीले ओक के पेड़ों की पूजा किया करते थे। ईसाई मिशनरियों ने उन्हें कटवा दिया।
और रौशन माफ़ करना, तुम्हारे यहां भी धर्म प्रचार की बड़ी अहमियत है। मैं यह नहीं कहूंगा कि इस्लाम केवल तलवार के ज़ोर पर फैला लेकिन इसके फैलने में मुसलमान आक्रमणकारियों और उनकी विजय का काफ़ी हाथ जरूर रहा है। इसलिए कि जो पराजित होते हैं उन्हें विजेताओं का धर्म अपनाने में कई फ़ायदे नज़र आते हैं। फिर धीरे धीरे बदलता समाज और बदलते धार्मिक विचार अपना असर डालते चले जाते हैं।''

''और तुमने बौद्धों को मार मार के भगा दिया। उनके मठ तबाह किए। महात्मा बुद्ध को विष्णु का नवां अवतार मानकर उनको हड़प कर गए। यह बुद्ध धर्म को खत्म करने का हथकन्डा था।'' रौशन के चिढ़ कर कहा। फिर हंस के बोली, ''लेकिन मुझ मुसलमान को महात्मा बुद्ध से बड़ी अक़ीदत है। काफ़ी प्रवचन दे लिए तुमने घास खोर, चलो तुम्हारा खाना लगा दिया है।''

''रौशन, तुम्हारे महात्मा बुद्ध ने मूर्ति पूजा का विरोध किया था और सारे कर्मकाण्ड का भी। लेकिन उनके पैरूकारों ने सारी दुनिया में उन्हीं की मूर्तियां लगा दीं और वह सारा कुछ करने लगे जिसे नकारा गया था। बात दरअस्ल यह है कि रौशन की खुदा या भगवान इनसानों की जरूरत है। वह भी ऐसा जो दिखाई-सुनाई दे। तुम्हारे निर्गुण निराकार खुदा की पूजा अर्चना बड़ी कठिन है भाई। उसके लिए जो गहरी सूझ बूझ दरकार है वह आम लोगों में कहां मिल पाती हैं। हां लाठी हाथ में हो तो दूसरों के शरीर और आस्था, दोनों पर करेर वार करना सबको आ जाता है। इन्सान में जो शैतान छुपा हुआ है उसे बस में करना... अब देखो न, बामियान में बुद्ध जी की इतनी विशाल और भव्य मूर्तियों को तुम्हारे तालिबान ने...।''

रौशन इस बार सचमुच नाराज़ हो गई। ''तालिबान मेरे क्यों? इसलिए कि मेरा उनका मज़हब एक है? मेरा सिर शर्म से झुक जाता है पंडित। इन मूर्तियों को अफ़गानिस्तान के किसी फ़ातेह ने हाथ नहीं लगाया था। बुत-शिकन कहलाने वाले महमूद ने भी नहीं।'' उसके गुस्से में दुख घुला हुआ था।

''हर मज़हब अपनी अस्लियत में कुछ था, पैरूकारों ने उसे कुछ और बना दिया। एक बात बताओ रौशन, पांडे ने अचानक हंस कर कहा, हम मर जाएंगे तो हमारी अंत्येष्टि किस धर्म के मुताबिक होगी? भाई हमें दफ़नाए जाने से बड़ा डर लगता है। कब्र में आके तुम्हारे मुनकिर-नकीर परेशान करेंगे सो अलग। तुम हमारी उल्टी सीधी झेल लेती हो वह तो गदा उठाकर सीधे शुरू हो जाएंगे दे दना दन....

रौशन होंठ दबा कर दूसरी तरफ़ देखने लगी। पांडे की कतरनी जैसी ज़बान चालू थी... ''और रौशन, हम कबीर नहीं हैं कि मरें तो हमारे शरीर की जगह फूल आ जाएं। आधे तुम बांट लो और आधे वह, हमारी पहली महल।'' रौशन ने पांडे को घूर कर देखा। होंठों से मुस्कुराहट की महीन सी रेखा ग़ायब हो गई थी। 
पांडे हंस पड़े। ''अच्छा यह एक बात और बताओ। यह सारे चमत्कार पिछलों के साथ ही क्यों होते थे जिन्हें हमने देखा जाना न हो। हमारे साथ ही क्यों नहीं होते? आज, अब? वैसे एक अच्छी बात तो है। हमें मर कर दोहरा पुण्य मिलेगा। पिंड दान तो होगा ही। तुम भी फ़ातेहा जरूर पढ़ोगी जैसे अपनी मां के लिए पढ़ती हो और रजब अली चाचा के लिए।''
रौशन ने थाली पटक दी। खाना सामने रखकर ऐसी अपशुकनी बातें!
''रौशन हम तुमसे बहुत बड़े हैं इसलिए तुमसे पहले हमारी मौत लगभग तय है।'' लगभग हमने इसलिए कहा कि कहीं हमसे तंग आकर तुमने आत्महत्या की ठान ली तो...? मगर नहीं, तुम ऐसा नहीं करोगी। हमें अकेला छोड़ कर तुम नहीं जाओगी'' उन्होंने उसके लम्बे, मुलायम बालों को मुट्ठी में जकड़ लिया। ''अच्छा, सच कहो क्या करोगी जो हम मर गए?''

''करेंगे क्या?'' रौशन ने अचानक उमड़ आने वाले आंसू पी लिए। ''अब भी राजी व  रज़ा हैं, तब भी वैसे ही रहेंगे।''

''राज़ी-ब-रज़ा'' तीनों शब्दों को पांडे ने अलग अलग करके दोहराया। ''यानी जाहि बिधि राखें राम ताहि बिधि रहियो।''
''राम'' वही है, वही सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान जिनके सिर सब कुछ मढ़ कर हम अपनी ज़िम्मेदारियों से बरी हो जाते, दुखों को आसानी से झेल लेते हैं। यह दसरथ पुत्र राम नहीं, वेदों के ब्रहमन् हैं। कबीर के राम भी वही थे और गांधी के राम भी वही। हम कोई सा भी धर्म अपनाए, लेबेल कोई भी लगा दो, हम वही रहेंगे और एक इन्सान की हैसियत से अपना फ़र्ज भी निभाएंगे। हमने अपनी आधी जायदाद तम्हारे और तुम्हारे दोनों बेटों के नाम कर दी है और आधी तीनों बेटियों के नाम। हां जिस घर में रहते चले आए हैं वह पत्नी को दे दिया है।''

''पंडित, हमें कुछ नहीं चाहिए। रसूलपुर में रहने का ठिकाना तुमने कर ही दिया है। दोनों लड़के पढ़ रहे हैं, वह खुद बहुत कमा लेंगे। तुमने उन्हें बाहर रखकर अच्छे स्कूल-कॉलेज में पढ़ाया, इतना खर्च किया, अब और क्या दोगे। हमारा सिर फटने लगता है जब हम सोचते हैं कि इन्सान बुनियादी तौर पर कितना खुदगर्ज और नीच है। एक नीचता तो हमने भी दिखाई कि एक बेचारी औरत के शौहर पर अधिकार जमा लिया।''

''वह औरत ऐसी बेचारी भी नहीं है रौशन। उसे हमारा भरपूर साथ मिला है। समाज ने उसे जो कुछ दिया, वह हम तुम्हें न दे सके समाज से कट के व्यक्ति अकेला हो जाता है। सच पूछो तो हम तुम्हारे गुनहगार हैं। तुम्हें बिना किसी मदद के, बेसहारा छोड़ कर हम अपने पापों को बढ़ाना नहीं चाहेंगे। हमारी दिली इच्छा है कि मरें तो तुम्हारे पास हों...''
के.के. मामा होते तो कहते, 'अरे वह तो सदा से काली जीभ वाला था। जो बुरी बात मुंह से निकालता, पूरी हो जाती। लेकिन के.के. मामा तो काफी समय पहले ही गुजर चुके थे। न अब वह किस्से थे न बैठकें। सदा रहे नाम अल्लाह का जो अनादि है और अनन्त। अछेद और और अभेद्य। जो जीवन व मृत्यु दोनों से बालातर है (हम इन्सान तो बस मौत के ऊपर उठने की इच्छा ही करते और अगले जहान गढ़ते रहे)
दरवाज़े पर शोर बढ़ता जा रहा था। लोगों के हाथों में लाठियां थीं। कुछ लाठियों पर सान चढ़े हुए फल भी चमक रहे थे। लाठियों वाले लोकल लोग थे। इलाहाबाद से पांडे के तीनों दामाद, उनके एक दूर के रिश्तेदार और दिद्दा के जेठ के परिवार वाले थे। दिद्दा के अपने दोनों बेटों ने खुद की इस टन्टे से अलग रखा था। माँ के नाम पर गन्दी गालियां सुनी तो रौशन के लड़कों से न रहा गया। वह निहत्थे ही बाहर निकल आए। अन्दर रौशन हाथों पर कुरान उठाए थर थर कांप रही थी।
कुछ ही देर में वह खुद भी बाहर निकल आई और बेटों के सामने ढाल बन कर खड़ी हो गई।
''यह तुम्हारे रिश्तेदार हैं, तुम्हारे भाई। जानकी रमण पांडे की अपनी सन्तानें...'' उसने चिल्ला कर कहा।

''पहले तो इस कुल्टा को ही मारो।'' भीड़ में से कोई जवाब में चिल्लाया।

''तुम लोग काग़ज ले आओ। अमन चैन से हमारे साथ बैठो। हम तीनों उस जायदाद से दस्तबरदार होते हैं जो पंडित हमारे नाम कर गए हैं।'' रौशन को अच्छी तरह याद था कि दिद्दा के जेठ के यहां गोश्त खाने न खाने को लेकर जो तकरार हुई थी वह जमीन जायदाद के बटवारे पर जाकर खत्म हुई। लड़कों को पीछे धकेल कर उसने यह बात भी चिल्ला कर कही।
तभी किसी अनहोनी के डर से जीप लेकर भागे चले आ रहे बुजुर्ग ओंकार नाथ मिश्र मौके पर पहुंच गए। सत्तर से ऊपर थे। दिद्दा के गुज़र जाने के बाद लगभग सन्यासी की जिन्दगी बिता रहे थे। दुनिया की ऊंच नीच देख चुके थे और लोगों के स्वभाव को अच्छी तरह समझ चुके थे। दुनिया चार दिन की है, यह विचार भी मानस पटल पर लिखा जा चुका था। पांडे रसूलपुर में मरे, वहां लोगों ने बाकायदा जनाज़े की नमाज़ पढ़कर उन्हें कब्रिस्तान में दफना दिया है, यह पक्की खबर आ चुकी थी। मरने से पहले उन्होने लगभग आधी जायदाद रौशन और लड़कों के नाम कर दी थी, यह भी लोगों को मालूम हो चुका था। इधर चुनाव करीब आ रहे थे। रसूलपुर में आईएसआई के एजेन्टों की घुसपैठ की अफ़वाह भी कभी कभार कान में पड़ रही थी। सब कुछ मिला जुला कर स्थिति बड़ी खतरनाक थी। ओंकार नाथ कमर पर हाथ रख कर उठे। पांडे की पहली पत्नी माथे तक घूंघट खींच कर पास आईं।
''भाई साहब, लड़कों और उनकी मां पर आंच न आने दीजिएगा। रौशन आरा ने 'उन्हेंं' कभी हमसे छीना नहीं। रहे लड़के तो वह तो 'उन्हीं' का खून हैं। धर्म दूसरा होने से खून नहीं बदलेगा।'' उनकी आवाज़ भर्रा गई। ''दामादों को हम कुछ न कह सके।''

ओंकारनाथ को भी सूखी, सूनी आंखों में नमी का एहसास हुआ। पत्नी की मौत के बाद पहली बार खुल कर रोने को जी चाहा। कुछ रुक कर बोले, ''भगवान से मनाओ हमारे जाने से पहले कोई अनर्थ न हो चुका हो।'' और उठ खड़े हुए। उनकी स्वर्गवासी पत्नी भाई पर जान देती थीं। यही कारण था कि उन्होंने रौशन और उसके पैदा होने वाले दोनों लड़कों को स्वीकार किया था। लेकिन इस समय स्वयं उनके बेटे जानकी रमण के दामादों का साथ दे रहे थे। बेशक वह उनके साथ मरने मारने नहीं निकले थे लेकिन समझाने या रोकने की कोशिश भी नहीं की थी। और ओंकारनाथ के भाई के लड़के? वह तो साथ भी चल दिए थे। इस समय उन्हें अपने सारे रिश्ते-नाते निभाने का ख़याल आ गया था।

जानकी रमण के सोने के दिल वाली काली पत्नी की प्रार्थना सुन ली गई थी। ओंकार नाथ सही समय पर पहुंच गए थे वर्ना वास्तव में कुछ अनर्थ हो जाता। मामला सुलझ गया। ज़मीन जायदाद से रौशन ने अपना अधिकार वापस ले लिया। यह वादा, कुछ और शर्तें और कब्र से उखाड़ कर निकाला गया पांडे का पार्थिव शीर लेकर लोग वापस आ गए।

''छोटी बहू, - ओंकार नाथ पहली बार रौशन से रू-ब-रू हुए थे!'' इजाज़त दे दो।'' उन्होंने नर्मी से कहा था। 
''वर्ना तुम तो सिर्फ तीन हो, गांव में न जाने कितने ऐसे निर्दोष मारे जायेंगे जिनका तुम्हारे इस गोरखधन्धे से कोई वास्ता नहीं है। वातावरण में तनाव है, खुद ही कह दो कि ठीक है, ले जाइए। इसी में भलाई है, सद्भाव बना रहेगा। जिनकी मति पलट गई हो हम उनसे लड़ नहीं सकते बेटा।"

पंडित के शरीर की ऐसी दुर्दशा! रौशन पछाड़ें खाने लगी। कितना कहा था गांव के लोगों से, बेटों से, कि उसे उनके घर इलाहाबाद पहुंचा दिया जाए पर लोग नहीं माने।

''छोटी बहू, मरा हुआ इन्सान सड़ने के लिए नहीं छोड़ा जाता। न घर में न सड़क पर, यह सभी जानते हैं।'' लोगों के लाश ले जाने के बाद ओंकार नाथ कुछ देर के लिए वहीं बैठ गए थे। ''अब उसे जलाओ या दफ़न करो, वह तो इस संसार से गया। पंच तत्व, पंच तत्व में मिल जाते हैं। जलकर भी यही होता है और गाड़ दिए जाने पर भी यही। अन्तर सिर्फ इतना ही है कि मिट्टी में यह क्रिया बहुत धीरे धीरे होती है। मगर लोग इस बात को नहीं समझेंगे। मरने के बाद की सारी रस्में केवल उनकी तसल्ली के लिए होती हैं जो अभी जीवित हैं। हम तो साधारण आदमी हैं। ऋषियों मुनियों ने शरीर को चोला माना है जिसे आत्मा बदलते रहती है। आत्मा, जो अजर और अमर है। यह मानें तो दफ़न किए जा चुके आदमी को उखाड़ कर निकालना बिल्कुल बेमानी हो जाता है। मगर हम क्या करें बेटा, भगवान को भी मूर्खों से विशेष लगाव है इसीलिए उसने इतनी बड़ी तादाद में मूर्ख पैदा किये हैं। क्या करोगी, सब्र करो।''

''ओंकार भाई साहब'', रौशन ने आंसू भरी आंखे उठा कर उन्हें देखा। धरती आप जैसे देवता समान लोगों पर टिकी हुई है। इतनी मेहरबानी हम पर और कीजिए, हमें इलाहाबाद ले चलिए। कहीं ठहरा दीजिएगा। रजब अली नाना तो पहले ही चले गये थे अब नानी भी नहीं रहीं। दूसरे रिश्तेदारों ने नाता तोड़ रखा है।'' वह फफक फफक कर रोने लगी।

... शांति से हौले हौले बहती गंगा मय्या के किनारे धू धू कर जलती चिता। शाम के धूमिल अंधेरे में लपकती लाल पीली लपटें। आकाश पर इक्का दुक्का बादल तैर रहे थे। हरियाली में छिपे झींगुरों ने शोर मचा रखा था। आदमी जन जा चुके थे। लकड़ियों की तड़तड़ाहट, मेंढकों, झींगुरों और दरिया की तिरल तिरल गुनगुनाहट के बावजूद फैला सन्नाटा। अनन्त, असीम और अनादि। आग की और भी कई ढेरियां थीं जो इन्सानों को खा रही थीं। पांचों तत्व, पांचों तत्वों में विलीन हो रहे थे।
नदी रे नदी कितने लोगों को फुंकते देखा? इस किनारे और उस किनारे। यहां से वहां तक-तहां से तू आती है और जहां जाकर विलीन हो जाती है?

पेड़ों के झुरमुट के पीछे से निकल कर वह सामने आ गई। एक ओर जमीन थोड़ी ऊंची थी। उसी के पीछे एक कतार में पेड़ थे। हरे भरे, अजर अमर। वह उस ऊंची जमीन पर खड़ी हो गई। हल्के फुल्के शरीर की, लम्बी गोरी (उस समय कागज जैसी सफेद) स्त्री। हवा के झोंके से उसकी महीन, किनारीदार सफ़ेद साड़ी का आंचल फडफ़ड़ाया। अचानक ऐसा लगा जैसे वह इस पूरे दृश्य पर हावी हो उठी है।
यह आदमी जो आग की लपटों के हवाले किया गया, जिसके घने बालों को आग ने एक लमहे, केवल एक लमहे में चाट लिया, जिसके मज़बूत सिर को कपाल क्रिया के दौरान लाठी मार कर फोड़ा गया, उसका कौन था? क्यों आई थी वह यहां शमशान घाट पर जहां स्त्रियों को आने की इजाज़त नहीं है? यह सारे इन्सान कौन है जो कब्र के कीड़ों और चिता की शरीर चाटने वाली लपटों को भुला कर जान लेने और जान देने पर तुल जाते हैं? क्यों इन्होंने अपने और अपने जैसे दूसरे लोगों के बीच नफ़रत की दीवारें खड़ी कर रखी हैं?

''किसी भुलावे में मत रहना रौशन आरा बेगम। यह दूसरी दुनिया की कल्पना हम इन्सानों की सदा जिन्दा रहने और मौत पर विजय पाने की ख्वाहिश के अलावा और कुछ नहीं। यह आत्मा का अजर-अमर होना बिल्कुल बकवास है। हमारा तुम्हारा साथ बस इत्ता ही है जितने दिन हम जिन्दा हैं। अब तुम्हारा जी न माने तो हमारे नाम से भी फ़ातेहा पढ़ लिया करना।'' फिर वह शरारत के साथ मुस्कुराए। 
''मगर क्या तुम्हारी फ़ातेहा हम तक पहुंचेगी? हम ठहरे...''

बुझती चिता के धुएं की तरह बेचैनी ने रौशन के भीतर चक्कर काटे।
''सारे स्वर्ग, सारे नरक, हम इसी संसार में झेल लेते हैं और यह हमारे ही रचे हुए होते हैं, हमारे अपने कर्मों के फल''
रौशन आरा ने आंसू पोंछे। अलविदा, जानकी रमण पांडे, अलविदा।

【 उर्दू से लिप्यांतरण : स्वयं लेखक। पहल अप्रैल 2017 अंक से साभार 】

तमाचा: गोविंद सेन

दिनेश आज असहज थे । कई दिनों से वे मन ही मन इस दिन का सामना करने की तैयारी कर रहे थे । आखिर वह दिन आ ही गया था । कितने ही भाव उनके मन में उमड़...