मंगलवार, 25 सितंबर 2018

कम आवाज़ों का शहर

"कम आवाज़ों का शहर"
ज्ञानप्रकाश विवेक

स्मृति आख्यानों की सर्जना आसान नहीं होती। अतीत की पगडंडियों पर की गयी यात्राएँ हमेशा प्रीतिकर हों, ज़रूरी नहीं! इस सफर में जहाँ सुखद यादों को फिर से जीने का अवसर मिलता है वहीं बीते हुए दुःख और अवसाद के क्षण अवचेतन पर पुनः हावी होने लगते हैं।
ज्ञानप्रकाश विवेक की किताब " कम आवाज़ों का शहर", जिसका लोकार्पण इसी वर्ष दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में हुआ था, के कुछ आरम्भिक पृष्ठों के दौरान ही यह आभास होने लगता है कि स्मृतियों के किस बीहड़ से गुजरने के बाद इस तरह के संस्मरण जन्म लेते होंगे।

लेखक की ये पंक्तियाँ भी शायद इसी विडंबना को बयान करती हैं :

" यादें आखेट पर निकल पड़ें तो इसी तरह शिकार करती हैं। ख़ून का एक क़तरा नहीं गिरता लेकिन बंदा अंदर से लहूलुहान।"

" स्मृति ! जैसे पर्दे के पीछे छुपकर खड़ा कोई गुज़िश्ता वक़्त! स्मृति, जैसे ज़िन्दगी के मुसाफ़िरखाने में खाली बेंच पर बैठी अतीत की गर्द! स्मृति, जैसे कोई कटी हुई पतंग , भटकती हुई, यहाँ वहाँ !
स्मृति! जैसे टेबलफ़ैन के सामने रखी खुली किताब। फड़फड़ाती हुई... जिल्द की क़ैद से रिहा होने को आतुर।

ज़िन्दगी सचमुच खुशफ़हमियों का तलघर है, जहाँ हम अपने आप में ग़र्क जैसे- जहाज समंदरों में, प्यास ज़र्रों में, रेलगाड़ियाँ सफ़र में और परिन्दे उड़ान में, आवाज़ें गुम्बदों में तो उदासियाँ दिल की छावनी में ग़र्क।
यह शहर ज़्यादा दरख़्तों और कम आवाज़ों का शहर था। कई बार यह बयाबां में खड़े किसी पुराने और जर्जर मंदिर की तरह लगता जिसके भीतर रखी देवताओं की सब मूर्तियाँ कोई उठाकर चला गया हो और एवज़ में ख़ामोशी का अधबुझा दीया रख गया हो।
एक ख़ुशनुमा एहसास यह भी था कि इस शहर में सब पैदल चलते। हवा पैदल चलती, धूप पैदल चलती। लोग पैदल चलते और सूखे पत्ते जब दरख़्तों से गिरते तो वो भी नंगे पाँव होते और पैदल चल रहे होते। पैदल शब्द ज़िन्दगी में इस क़दर घुलमिल गया कि जीवन-शिल्प बन गया था। कम्बख़्त दुख भी जीवन में पैदल आते और ख़ुशियाँ भी।
अधिकांश लोग सरहद के उस पार से खाली हाथ आये थे। एक अदद निहत्थी ज़िन्दगी के साथ। कमीज़ की खाली जेबों में और कुछ नहीं था। जो था वो दर्द के खोटे सिक्के थे। विस्थापन का हाहाकार था।
तमाम लोग हँसने मुस्कुराने के बावजूद दुखी नज़र आते। वो हैरान होते कि सुख कहाँ चला गया। वो तो हमसफ़र की तरह था। बेशक! लेकिन वो सुख ज़ंज़ीर खींचकर कहीं पीछे उतर गया था।

2018 की कुछ प्रिय और महत्वपूर्ण किताबों की सूची में शामिल इसी रचना से कुछ चुने हुए अंश...

★घर था एक कथानक जैसा

मेरे ख़ुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे
( इफ़्तेख़ार आरिफ़ )

" पिता द्वारा सुनाए गए इस शेर को बहुत बाद में समझा हमने कि हर मकान में एक घर होता है। जिन मकानों में घर नहीं होते, वो मकान आत्मा रहित मकान ही रह जाते हैं।
मनुष्यों की तरह ही मकानों का भी चेहरा होता है। मकान के चेहरों पर मजदूरों, मिस्त्रियों की संघर्ष गाथा के निशान होते हैं। मकान के चेहरों पर वक़्त के पैने नाखूनों की खुरचन भी होती है।"

" बेजान चीजों का रिश्ता बहुत पुराना और चुप भरा होता है। बेजान चीजें मनुष्यों की तरह आपस में कभी लड़ती नहीं बल्कि हर बेजान शय दूसरी बेजान शय के लिए जगह छोड़ देती है।"

" पृथ्वी के पास अपनी खामोशी थी, माँ के पास अपनी। दोनों में असीम धैर्य। शायद यही कारण था कि पृथ्वी पर चलती हुई माँ , पृथ्वी जैसी ही प्रतीत होती।"

" माँ सारा दिन व्यस्त रहती। वो अभी सुबह को विदा कर रही होती कि घर के दर पे शाम की दस्तक आ जाती।"

" माँ गुसलखाने के पास खड़ी पति का इंतज़ार करती। वो आते। माँ लोटे से पानी की बहुत हल्की धार छोड़ती। ऐसा लगता वो पति के हाथ नहीं धुला रही, बादल राग गा रही है।
दो इन्सानों के बीच वो पतली सी पानी की धार कभी कभी संवेदना की छलछल करती नदी का एहसास कराती तो कभी उस दुभाषिये का जो दोनों की चुप की भाषा को जानता हो।
हम भाई बहनों को वो मंज़र ख़ूबसूरत लगता। हम मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करते कि लोटे का पानी कभी न ख़त्म हो। पानी की धार कभी न टूटे।"

" माँ को पता नहीं कैसे मालूम पड़ जाता कि पिता की जेब खाली हो चुकी है। वो मिट्टी की गुल्लक लाकर फ़र्श पर पटक देती। गुल्लक टूट जाती लेकिन दिल जुड़ जाते।
दुख जैसे एक गठरी का नाम हो। दोनों एक साथ खोलते। एक साथ बंद करते।

पिता जब माँ का हाथ थामकर बैठते तो हमें बहुत अच्छा लगता। तब हमें वो प्रेम की कविता प्रतीत होते, कभी अभाव की कविता। दो स्त्री पुरुष, अपनी सारी भाषाओं को त्यागकर चुप के वृक्ष बन जाते और उन वृक्षों पर साथीपन के पत्ते होते। पिता समंदर, माँ नदी ! पिता आसमान, माँ पृथ्वी !"

★★ ज़ाहिद ने मेरा हौसले-ईमां नहीं देखा

बहादुरगढ़ के मशहूर घड़ीसाज और शाइरी के दीवाने वाई डी सहगल के प्रस्ताव पर वहाँ के नक्कारखाने में शेरे शायरी की एक नशिस्त ज्ञानप्रकाश विवेक के शायर पिता प्रीतमलाल 'अरमान' द्वारा ताईद की जाती है। शहर के तमाम शायर इस नक्कारखाने में एकत्र होते हैं और घंटो तक मीर और ग़ालिब के चुने हुए शेरों, बुल्ले शाह की काफियों, वारिस शाह के पदों के अलावा उनके मौलिक शेरों से सजी यह महफ़िल एक यादगार शाम बन जाती है।

★★मैं जा रहा हूँ मगर लौटकर भी आऊँगा :

ज्ञानप्रकाश विवेक कहते हैं कि विस्थापित पिता अभी बहादुरगढ़ शहर में स्थापित भी नहीं हुए थे कि उनका ट्रांसफ़र ऑर्डर आ जाता है। " कम आवाज़ों का यह शहर उन्हें बहुत प्रिय था क्योंकि यह शहर ज़िन्दगी की हथेली पर मुहब्बत की रेखा जैसा प्रतीत होता था।"

अपने सहकर्मियों, परिजनों, दोपहर के भोजन के हिस्सेदार यानी पेड़ के नीचे बैठने वाले भिखारी और दफ़्तर के बाहर बरामदे में बैठे कुत्ते से विदा लेते पिता का यह अध्याय बहुत मार्मिक और अर्थपूर्ण है....

"कुछ यात्राएँ कितनी लम्बी होती हैं, जिन्हें तय करने में मुद्दतें लग जाती हैं।"

" ज़्यादा सामान का मोह ज़िन्दगी की सादगी में ख़लल डालता है।"

★★ बाज़ीचा ए इत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे

जाखल जंक्शन वह स्थान था जहाँ उनके पिता का स्थानांतरण हुआ था। स्टेशन की इमारत से लेकर रेलवे यार्ड, डिस्पेंसरी, चाय का खोखा, प्लेटफॉर्म नम्बर एक, लकड़ी के उपेक्षित पुराने पुल आदि का जीवन्त चित्रण ज्ञानप्रकाश विवेक जी ने किया है। एक दिन लकड़ी के उसी पुल पर एक अनाथ बूढ़े की मृत्यु हो जाती है। पीछे रोते बिलखते रह गयी नौ दस साल की उसकी लड़की।

" संसार रिश्तों का जश्न मना रहा था। जश्न मनाते संसार में एक अकेला पुल और प्रश्न की तरह एक अकेली लड़की। जटिलता उसके भविष्य की !"

" बूढ़े की चिता तो शान्त हो गयी थी। लेकिन अकेली बेसहारी लड़की जलता हुआ सवाल थी। उस सवाल की आग से सब बचकर निकल गए। पिता उसे घर ले आये। पराए घर में रोने से भी डरती वो। हम उसे चारपाई पर बिठाते, वो फ़र्श पर बैठ जाती। अपनी गठरी के पास जो उसके बाबा की शेष स्मृति थी।"

अगले दिन हॉस्पिटल का कंपाउंडर चरणदास इनके घर आता है। विवेक जी यहाँ बताते हैं--
" वो पहले भी कई बार आ चुका था। हमेशा विनीत, विनम्र! उसे देखकर ऐसा लगता जैसे वो ईश्वर के अतिरिक्त अपनी ज़िन्दगी का भी अहसानमंद है। वो तमाम कायनात का अहसानमंद है।" चरणदास, जिसकी बेटी की मृत्यु दो साल पहले निमोनिया के कारण हो गयी थी, अनुरोध करता है कि वो इस अनाथ लड़की को अपनी बेटी बनाना चाहता है।
बूढ़े की जेब से सत्रह रुपये निकले थे। उसने कहा कि इसे अलग रखेगा और कन्यादान के वक़्त इन रुपयों को भी शामिल कर लेगा।

"ज़िन्दगी एक बीहड़ का नाम है। उसके सारे सवाल बड़े जटिल होते हैं किन्तु कभी कभी इन जटिल सवालों के जवाब बहुत सरल हो जाते हैं।"

★★ ख़ुदा करे, तेरे सारे चराग़ जलते रहें

जाखल से जुड़ी जिन प्रमुख स्मृतियों पर ज्ञानप्रकाश विवेक ने लिखा है उनमें एक अहम प्रसंग लैंपमैन मंगल से जुड़ा है। मंगल के कबीराना स्वभाव, उसके गानों, किस्सों, उसके जीवन के दुःख, होम सिग्नल और आउटर सिग्नल पर लैंप जलाने की उसकी ड्यूटी ये
सब हमें बरसों पहले की एक ऐसी दुनिया में ले जाते हैं, जिनका अस्तित्व अब भले ही न हो, किन्तु इनमें गुंथी हुई संवेदनाएँ हर काल में प्रासंगिक रहती हैं। मंगल के साथ रहने के कारण दूसरे बच्चे विवेक जी को लैम्प मैन या आउटर सिग्नल कहकर चिढ़ाते थे। एक दिन उनके पूछने पर मंगल कहता है : पुत्तर, तू छोटा है अभी। कैसे समझाऊँ तुझे कि " ज़िन्दगी एक स्टेशन की तरह होती है और हम सब उसके आउटर सिग्नल होते हैं।"
ज्ञानप्रकाश विवेक कहते हैं कि : "बड़े होने के बाद जब मैंने साधारण लोगों को टूटते फूटते संघर्ष करते देखा तो महसूस हुआ कि अधिकांश लोग ज़िन्दगी के बाहर खड़े, किसी आउटर सिग्नल जैसे ही हैं.."

इस स्मृति कथा का अंत बहुत रोचक और रोमांच से भरपूर है-

" उस दिन तेज हवा थी और जब मंगल सुदूर आउटर सिग्नल पर लैंप जलाने के लिए पहुँचकर माचिस की डिबिया खोलकर देखता है तो सिर्फ़ पाँच तीलियाँ बची हैं। चार तीलियाँ उस तेज हवा का शिकार हो जाती हैं। लैम्प न जला तो रेलगाड़ी को सिग्नल का पता नहीं चलेगा। अचानक हम सब मंगल और उनके साथ आये उस आठ नौ साल के बच्चे के साथ प्रार्थना करने लगते हैं।
" एक तीली कितना बड़ा सरमाया थी। यह एक तीली जैसे उस लैम्प मैन की पूरी दुनिया हो। जैसे मेरी मासूम सी उम्मीद हो।"

इसी कड़ी में लैम्पमैन बद्री पर लिखा गया संस्मरण भी यादगार बन पड़ा है।

ऐसा ही एक और प्रसंग राका मसीह का जो एक चाय का ठीया चलाता था।

" यह चाय का ठीहा नहीं बल्कि ज़िन्दगी का ठीया लगता था। ऐसा लगता जैसे ज़िन्दगी अपनी सवारी गाड़ी को रोककर राका मसीह के ठीये पर चाय पीने और गुफ़्तगू करने बैठ गयी हो।"
तीन साल से मुअत्तल राका ने न माफ़ीनामा भेजा न रेलवे ने बहाल किया। अफ़सर भी जानते थे वो बेकसूर है लेकिन फ़ाइलों में वो कसूरवार था।
स्कूल जा रहे छोटे छोटे बच्चों को रेल फाटक पार कराने के लिए राका मसीह सब काम छोड़ देता था।

उसके पास भी किस्सों की भरमार! एक ऐसा ही साँस रोक देने वाला किस्सा सुनाया था राका ने जब इंजन को लूप लाइन पर खड़ा करके वो टिफ़िन खाने के लिए उतरा और उसके फायरमैन रामदयाल ने कुछ छेड़खानी कर दी जिससे इंजन चल पड़ा। जब तक उसका ध्यान गया तब तक इंजन दूर!
इंजन का ड्राइवर ज़मीन पर और इंजन ट्रैक पर दौड़ता हुआ! फिर राका की दौड़ ज़िन्दगी और मौत के बीच की दौड़ बन जाती है जब
उसे दूर उसी रेलवे लाइन पर खड़ी गाय और उसका बछड़ा नज़र आते हैं।

राका मसीह अपने इसी ठीये पर ज्ञानप्रकाश विवेक के पिता प्रीतम लाल जी के संस्मरणों का इंतज़ार किया करता था। यहीं पर एक दिन वे लाहौर के रेलवे ट्रेनिंग स्कूल का वो किस्सा सुनाते हैं जब उनकी एक नज़्म से नाराज़ अंग्रेज अफ़सरों ने उन्हें ट्रेनिंग के लिए क्वेटा से साठ मील दूर कानमित्रजेई नामक बेहद डरावनी जगह पर भेज दिया था जहाँ के पठानों और वज़ीरों के बारे में कहा जाता था कि वे जरा जरा सी बात पर क़त्ल कर देते थे।
वहाँ पहुँचकर उन्हें पठानों के उस इलाक़े, उनकी हुक़ूमत और कायदे कानून का पता चलता है।
चार्ज देने के साथ ही उनके वरिष्ठ अधिकारी उन्हें एक सलाह देते हैं कि " रास्ते के दो तीन गाँव के लोगों को पानी की क़िल्लत है। यह कमी उन बहादुर लोगों को कमजोर और उग्र बनने को मजबूर करती है। आप मालगाड़ी को रन थ्रू न देकर थोड़ी देर के लिए रोक देना जिससे मालगाड़ी में लगी हुई पानी की टंकी से इन लोगों को पानी मिल सके। "
प्रीतमलाल जी न सिर्फ़ उनकी सलाह पर अमल करते हैं बल्कि पानी के बदले पैसे लेने पर भी रोक लगा देते हैं। उनके इस क़दम से वहाँ के पुराने कर्मचारी ज़रूर नाराज़ होते हैं लेकिन वो ग़रीब लोग मुरीद हो जाते हैं। सवाल पैसों का नहीं, जज़्बे का था।

दस महीने बाद तबादले की ख़बर पाकर वहाँ से चलते समय उस गाँव के लोग जिस उदासी और भरी आँखों से उन्हें अलविदा कहते हैं वह सज़ा के तौर पर भेजे गए उस शख़्स के जीवन का बहुत बड़ा हासिल बनकर रह जाता है।

★★ ज़िन्दगी का रक़्स था

" हमारी बहुत सारी चीजों से यूँ ही दोस्ती हो जाया करती थी थी। मरफ़ी रेडियो के विज्ञापन दीवारों पर चिपके होते। मरफ़ी रेडियो का प्यारा सा, गोल मटोल बच्चा। अपने दूधिया दाँतों में उंगली दबाए। वो अपने दांतों से उंगली कभी बाहर नहीं निकालता था। हम चाहते थे वो एक अपनी उंगली दांतों से बाहर निकाले और हम उसकी उंगली चूम लें।"

" रास्ते में डाकघर आता। पोस्ट ऑफिस हमें पराया शब्द लगता। सबके अपने अपने घर थे। मछलियों का घर पानी, परिन्दों का घर वृक्ष। हवाएँ पत्तों पर अपना घर बनातीं या फिर खिड़की के पर्दों के पीछे उनका घर होता। धूप पूरी पृथ्वी पर अपना घर बना लेती। चाँद का घर आसमान होता। चिट्ठियों का घर डाकघर!
डाकिये छोटे छोटे खानों में चिट्ठियाँ डालता तो ऐसा लगता जैसे वो ज़िन्दगी के ख़ानों में चिट्ठियां डाल रहे हों। ज़िन्दगी के भी तो छोटे छोटे खाने हैं-- दुःख, सुख, उदासी, ठहाके,आँसू..."

पीछे छूटती चीजों की यही तो फ़ितरत होती है, वो ठोस रूप में पड़ी रहती है। अमूर्त में साथ चल पड़ती है।

★★ मैं हूँ अपने शिकस्त की आवाज़

यह खंड समर्पित है होम्योपैथी के डॉक्टर चटर्जी पर जिनके क्लीनिक के सामने से निकलते हुए एक ज्ञानप्रकाश विवेक नाम का एक बच्चा उन्हें आवाज़ लगाता था :--डॉक्टर.. चटर्जी...
वो देखते , मुस्कुराते और कहते - नॉटी बॉय।

" उनके और मेरे बीच यही रिश्ता था-आवाज़ का। आवाज़ एक धागे की तरह हम दोनों के बीच जुड़ी थी। एक बूढ़े और बच्चे के बीच कुल दो शब्दों का पुल..."

" बाद में डॉक्टर साहब की नज़रें कमजोर होती गयीं। वक़्त ने धीरे धीरे उनकी दृष्टि और आवाज़ दोनों छीन लिया। फिर भी वे क्लीनिक में आते। बहुत मुश्किल से ताला खोलते। अब उन्हें रोगियों की प्रतीक्षा भी नहीं रहती थी। वो इंतज़ार की दुनिया से बाहर थे।
उनकी मृत्यु से कुछ महीने पहले जब मैं धीरे से आवाज़ देता तो वे अपना दायाँ हाथ उठाकर हिलाते धीरे से.. जैसे कह रहे हों - नॉटी बॉय। फिर धीरे धीरे मैंने आवाज़ देना छोड़ दिया । मैं वहाँ रुकता और वे मेरे होने को महसूस कर लेते।उनके होंठ थरथराते। पलकें झपकतीं। दाएँ हाथ को उठाने में अब उनकी बहुत ऊर्जा खर्च होती। पल भर के लिए उनका हाथ उठता और हमारे बीच का रिश्ता जीवित हो उठता।"

★★ ज़िन्दगी तुझको ढूंढ़ती है अभी

इस संवेदनात्मक खंड का नायक है चपरासी रामलाल। वही रामलाल जो दिन भर बच्चों के शोर शराबे से परेशान रहता और जब छुट्टी के बाद सारी आवाज़ें लापता हो जातीं तो इतनी सारी आवाज़ों के बाद की यह चुप्पी बेचैन कर जाती उसे। बच्चों को बेतहाशा याद करता। तब उसे एहसास होता कि उसकी ज़िन्दगी के लिए इन बच्चों का होना कितना ज़रूरी है। बच्चों की आवाज़ें उसकी वीरान ज़िन्दगी में सुख की छोटी।छोटी कथाएँ हैं।

सारे कमरों में ताला लगाते रामलाल को ऐसा एहसास होता कि " उसकी ज़िन्दगी भी किसी ऐसे ताले की तरह है जिसकी सारी चाबियां कहीं पीछे गुम हो गयीं।"

तक़सीम के समय उसकी पत्नी उससे बिछड़ गयी थी। "बिछड़े हुए लोग मर जाने वाले अपनों से ज्यादा दुख देते हैं .. एक ऐसा न ख़त्म होने वाला इंतज़ार भी दे जाते हैं जो आँखों का पानी सुखा देता है और दिल को किसी अंधी और गूँगी चिमनी में बदल देता है ।"

"गुज़िश्ता वक़्त के पीछे भागनेवाले और किसी की यादों को ज़िन्दगी का मर्कज़ बना देने वाले लोग कुछ न कुछ लोग पागल ही होते हैं या हो जाते हैं। सामान्य लोगों की दुनिया से रफ़्ता रफ़्ता कटते चले जाने वाले लोगों के चेहरे, बुझे हुए सूरज जैसे हो जाते हैं।"

★★ तमाशा ए अहले करम देखते हैं

" गर्मियों में प्रत्येक वृक्ष अपने हिस्से की धूप में झुलस रहा होता और अपने हिस्से की ठण्डी छाँव पृथ्वी पर रख रहा होता।"

दसवीं की परीक्षा के बाद छुट्टियों के चार महीने के लिए ज्ञानप्रकाश विवेक को रेलवे के एक विभाग में अंग्रेजी पत्रों का अनुवाद करके हिन्दी में लेटर तैयार करने की टेम्परेरी नौकरी मिल जाती है। वे लिखते हैं : " मेरी अंग्रेजी बहुत खराब थी और उस दफ़्तर में काम करने वाले बाकी अधिकारियों की हिन्दी बहुत खराब , इसलिए मैं चार महीनों तक यह नौकरी आराम से कर सका।" ☺️

" मैं जिस कमरे में बैठता वहाँ सब के सब तनाव में। हमेशा झगड़ने को आतुर! मैं उनको लड़ते देखकर इस नतीजे पर पहुँचा कि लड़ाई के लिए किसी मुद्दे की ज़रूरत नहीं होती। वो तो मिल ही जाते हैं, बस बंदा थोड़ा कुंठित हो। इनसे मुक्ति पाने के लिए मैं वर्कशॉप में चला जाता। क्लास फोर के बंदे मुझे देखकर खुश हो जाते। मैंने वहाँ महसूस किया कि जलती हुई भट्टी इनकी ज़िन्दगी का भी प्रतीक है। भट्ठी जैसी ही लपटें इनके जीवन में भी थीं। सबके सब जीवंत! ख़ुशबास। बेलौस ।"
किताब के इस आख़िरी अध्याय में उस विभाग के अधिकारी के मानसिक रूप से अस्वस्थ पुत्र की मार्मिक कहानी है जो इंसानों की दुनिया से विस्थापित होकर पेड़ पौधों की दुनिया में चला आता था और वहीं धाराप्रवाह अंग्रेजी में उनसे बातें किया करता था। वही उसकी कक्षा होती जिसका हेडमास्टर वो ख़ुद होता था। उस पर ध्यान देने वाली सिर्फ़ एक बहन थी जो बीच बीच में आकर उसे घर ले जाती थी। इस कहानी का अंत नहीं बतायेंगें ताकि किताब पढ़ते समय पाठक इस खूबसूरत किस्से का आनन्द उठा सकें।

शुक्रवार, 21 सितंबर 2018

विस्थापन

विस्थापन

गर्मियों की अलसायी हुई, उमस भरी धूसर साँझ। उदासी और तन्हाई से लबरेज़। परछाइयाँ धीरे धीरे लम्बी हो चली थीं। आकाश में तैरते बादलों के छोटे छोटे टुकड़े ढलते सूरज की रंग बिरंगी किरणों का स्पर्श पाकर विविधवर्णी हो गए थे। दिन और रात की ये संधि वेला उसे अक्सर बेचैन कर जाती थी। खुले आसमान के नीचे तो शाम का ये वक़्त अच्छे से गुज़र जाता था पर बंद दरवाजों के बीच अकसर बोझिल हो उठता.....

जेल की चारदीवारी के भीतर गुज़रते ये दिन कल सुबह अतीत बन जायेंगे.... अपनी दुनिया से निर्वासित होकर बिताए गए निष्क्रिय, व्यर्थ आठ साल जो स्मृतियों के कैनवास पर इस कदर बेरंग से बिखरे पड़े हैं कि कभी उन पर यादों की कूची फिराने का मन नही हो सकेगा। इंसान की छोटी सी ज़िन्दगी में आठ वर्षों की कितनी अहमियत होती है! पर दुर्भाग्य के लंबे हाथ किसी न किसी तरह इंसान के जीवन मे दीमक लगा ही जाते हैं !
अफ़सोस के कई ऐसे लम्हे हैं जो अनवरत अवचेतन मन में चलते रहते हैं। कभी कभी लगता है कि काश ये सब एक दुःस्वप्न होता। नींद खुलती और....जागने के साथ ही इन दुखों का अंत हो जाता।

उस सड़क दुर्घटना में जिस शख्स की मृत्यु हुई थी क्या वह मात्र एक व्यक्ति का अंत था या फिर उससे जुड़े अन्य तमाम लोगों के सपने, उनकी खुशियों और उनके भविष्य का भी अंत था। प्रत्यक्ष रूप से यद्यपि वही शख़्स दोषी था जो दौड़कर सड़क पार करने के चक्कर मे खुद उसकी मोटर साईकल के नीचे आया था, पर अपराधबोध से ग्रस्त उसका मन प्रायः ये सोचने लगता था कि यदि उसके वाहन की गति थोड़ी कम रही होती क्या तब भी ये दुर्घटना इतनी भयावह होती ? एक पल की चूक से दो जीवन नष्ट हो गए।

.....बिटिया आस्था कितनी बड़ी हो गयी होगी अब तक।  मुश्किल से दो बरस की थी जब उसे सजा सुनाई गई थी। जिस उमर में बच्चों के साथ साथ हमारा बचपन भी वापस लौट आता है उसी उम्र में ऐसा दुर्योग आया कि ये सारे बेशकीमती दिन व्यर्थ बीत गए। बेटी को देखने के लिए मन कभी कभी बहुत परेशान होता था पर स्वयं उसने ही पत्नी दीप्ति को मना कर रखा था कि कभी उसे यहाँ न लाये। बच्चों के पास जिज्ञासाओं का अनंत संसार होता है। उसके यहाँ होने के बारे में वो यक़ीनन सवाल कर बैठती और फिर उसे समझाना बहुत कठिन होता।

एकाध महीने से घर का कोई समाचार उसे नही मिल सका जबकि उसने रिहाई की तिथि निश्चित होते ही ख़त भेज दिया था। शायद इसीलिये आजकल उसके मन में एक अजीब सी उदासीनता भरती चली गयी।
इतने वर्षों में दीप्ति बमुश्किल तीन चार बार ही मिलने आयी वो भी शुरू के सालों में। निखिल ने जैसे ही उसके आने के पीछे छुपी औपचारिकता और अनिच्छा को समझा, उसने उसे आने से मना कर दिया। कभी कभार उसकी चिट्ठियाँ आ जाती थीं तो घर का हालचाल मिल जाता था। छुट्टियों में अरविन्द भी मिलने आया कई बार और उसके आने से निखिल को वाकई खुशी होती थी। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं कि वो जहाँ पहुँच जाएँ वहाँ का मौसम ख़ुशगवार हो उठता है।

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जेल के साथियों ने उसे नम आँखों से अलविदा कहा और आगामी जीवन की शुभकामनाएं दीं। एक थैले में समाए अपने थोड़े से सामान के साथ बाहर निकला तो ऐसे लगा जैसे किसी और दुनिया की तस्वीर सामने प्रकट हो गयी हो। बरसों बरस हम एक चारदीवारी में क़ैद हों तो बाहरी दुनिया का तसव्वुर धुंधला पड़ता जाता है। रहता सब कुछ वही है पर एक अजनबीयत का आवरण बीच में आ जाता है। मेन रोड लगभग दस मिनट की दूरी पर था।
सड़क के किनारे घने पेड़ों के नीचे चलते हुए कहीं सुदूर किसी रेडियो पर बर्मन दा की मार्मिक आवाज़ में बजते शैलेन्द्र के कालजयी गीत की ये पंक्तियाँ सहसा सुनाई पड़ीं..
" कहते हैं ज्ञानी, दुनिया है फ़ानी
पानी पे लिखी लिखायी
है सबकी देखी, है सबकी जानी
हाथ किसीके न आयी
कुछ तेरा ना मेरा, मुसाफ़िर जायेगा कहाँ…

बरबस ही गाइड का वो दृश्य याद आ गया जब देव आनंद जेल से बाहर निकलकर एक अनिश्चित गंतव्य की तरफ़ चलते रहते हैं और इसी तरह पार्श्व में ये गीत चलता रहता है। इस समय इस गीत का यूँ सुनाई पड़ जाना भी अजब सा संयोग लगा। देवानंद द्वारा निभाये राजू गाइड के उस किरदार के बारे में सोचकर मन जाने कैसा हो आया। मुद्दतों बाद कोई अपने  घर लौटे और घर पर कोई इंतज़ार करने वाला ही न हो तो इंसान किस साहस से अपने ही घर की देहरी लांघे और अपनी वापसी का जश्न मनाये ?  उदासी के इन्हीं लम्हों में बरबस ये खयाल भी मन मे तैर आया कि इसी दुनिया में जाने कितने लोग ऐसे भी हैं जिनके नसीब में सर छुपाने को न तो घर है न ही किसी की इंतज़ार करती आंखें।
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दोपहरी का सूरज सर पर तप रहा था और तीखी धूप शरीर में काँटों जैसी चुभ रही थी। घर के सामने पहुँचते ही पाँव बरबस ठिठक गए। घर के दरवाजे पर ताला लटका था। नज़र इस उम्मीद से एक बार फिर ताले पर गयी कि शायद कोई पर्ची वहाँ लगी हो पर कहीं कुछ नही था सिवाय धूल की एक मोटी परत के जो इस बात का गवाह थी कि कई दिनों से इस दरवाजे पर किसी इंसान के हाथों का स्पर्श नही हुआ है। आस पास देखा कि शायद कहीं कोई दिख जाए तो कुछ पता लगे पर दुपहरी का वक़्त होने के कारण कोई भी अपने घर के बाहर नही दिखा। थोड़ी देर तक इसी उधेड़बुन में खड़ा रहा कि अब क्या किया जाय। प्यास के मारे गला भी सूख गया था और लम्बी यात्रा की थकान शरीर पर धीरे धीरे हावी हो रही थी।

अचानक ध्यान आया कि पहले जब कभी बाहर जाते थे तो मेन रोड पर स्थित अपने पारिवारिक मित्र-दम्पत्ति अनीता और अरविन्द के यहाँ चाबी छोड़ दी जाती थी। थके थके क़दमों से उनके दरवाजे तक का सफ़र किसी तरह पूरा हुआ और हलके हाथों से कॉलबेल बजा दिया। दरवाजा अनीता ने खोला। एक पल के लिए उसके चेहरे पर अपरिचय की छाया सी उभरी और फिर पहचान कर हड़बड़ाते हुए उसे अंदर आने को कहा। लम्बे अंतराल और जेल के रहन सहन ने इतना परिवर्तन तो ला ही दिया था कि एक नज़र में कोई सहसा पहचान न सके।
"अनीता, घर की चाबी है क्या तुम्हारे यहाँ?" संकोच में डूबे स्वर किसी तरह बाहर निकले।

"हाँ, बिलकुल है ,पर तुम पहले अंदर तो आओ।"
जिस घर में बेहिचक समय-असमय आना जाना रहा उसी घर मे आज अंदर आते समय संकोच सा हो आया। ...बहुत दिनों बाद देखने पर अपना घर भी अजनबी सा लगने लगता है।

वाश-बेसिन पर हाथ मुँह धोकर आने तक अनीता ने मेज पर गुड़ की डली और पानी रख दिया था।
निखिल, तुमने सूचित क्यों नही किया कि तुम
कब रिहा हो रहे हो? दिन और तारीख तो तुम्हें काफी समय पहले ही मालूम पड़ गया होगा।" अनीता की आंखों में शिकायत थी।

"दीप्ति को खत भेजा था मैंने। उसने तुम लोगों से ज़िक़्र नहीं किया? " निखिल ने उसकी तरफ़ देखा।

"नहीं, उसने हम दोनों से बिल्कुल नही बताया। हद है यार बेवकूफ़ी की। इतनी बड़ी बात बताना कैसे भूल गयी वो...."

थोड़ी देर बाद उसे नहाने के लिए कहकर अनीता दोपहर के खाने की तैयारी करने चली गयी।

थोड़ी देर बाद निखिल ने बैग से कपड़े निकाले और नहाने चला गया। वापस आते समय सामने टंगी हुई अनीता और अरविंद की मुस्कुराती तस्वीर पर नज़र पड़ी तो उसे लगा कि दोनों एक साथ कितने खूबसूरत लगते हैं जैसे एक दूसरे के पूरक।
अकेले होते ही गुज़री ज़िन्दगी के पन्ने उसकी स्मृतियों में आकर फिर से फड़फड़ाने लगे। अनीता उसके बचपन के उन दिनों की दोस्त थी जब ज़िन्दगी फूलों और तितलियों के बीच बेपरवाह फिरा करती थी। बीतते वक़्त के साथ वे पहले स्कूल और फिर कॉलेज पहुँच गए। दोनों के लिए एक दूसरे का संग इतना खुशनुमा और प्रेरक था कि बड़ी आसानी से अपने पढ़ाई के दिनों को सीढ़ी दर सीढ़ी सफलता से पार कर रहे थे। बी.ए. अंतिम वर्ष में परीक्षा से दो महीने पहले ही उसके दादा जी गंभीर रूप से बीमार पड़े। अपनी अंतिम इच्छा के रूप में उन्होंने उसके विवाह की बात की। आनन फानन में जो रिश्ते उन दिनों आये हुए थे उसी में से एक को चुनकर कर घरवालों ने उसका विवाह कर दिया।
चाहतों को जाहिर होने के पल भी नसीब नही हुए । उनकी दुनिया बसने से पहले ही उजड़ चुकी थी। एक तरफ़ कॉलेज का आख़िरी और सबसे महत्वपूर्ण लम्हा तो दूसरी तरफ़ व्यक्तिगत जीवन की अनपेक्षित उलटफेर। अपने आत्मबल की सीमा तक संघर्ष करके दोनों ने किसी तरह परीक्षा की तैयारियाँ की। कॉलेज की परंपरागत विदाई पार्टी के समय जब किसी ने  " फूलों की तरह दिल में बसाये हुए रखना, यादों के चराग़ों को जलाये हुए रखना, लंबा है सफ़र इसमें कहीं रात तो होगी" गाया तो उनके सभी ख़ास दोस्तों की आँखें उन दोनों पर ही लगी हुई थीं। पर निखिल और अनीता के आँखों की नमी तब तक एक स्थायी बंजर में तब्दील हो चुकी थीं।

ज़िन्दगी सपनों की दुनिया से बाहर निकलकर वास्तविकता की कठोर धरती पर आ पहुँची थी। परीक्षा देकर अनीता अपनी मौसी के पास शहर चली गयी। निखिल ने परिवार की जरूरतों के चलते एक छोटी नौकरी करते हुए दीप्ति के साथ अपने पारिवारिक जीवन का अगला अध्याय शुरू किया। उसका मन जैसे छोटे बड़े दो हिस्सों में बंट गया था। एक छोटे हिस्से में उसके विगत की तमाम यादें सुरक्षित थीं और दूसरा हिस्सा जीवन-संघर्ष के साथ साथ वर्तमान के नाम पूरी तरह समर्पित। निखिल ने सदैव इस बात का ध्यान रखा कि दोनों हिस्सों में एक सुरक्षित दूरी हमेशा बनी रहे। दीप्ति ने भी अपनी जिम्मेदारियों को ठीक से सहेज लिया था। समय अपने मंथर गति से निरंतर चल रहा था। देखने में यूँ तो सब कुछ व्यवस्थित और सामान्य था, पर कहीं न कहीं जीवन से वो उमंग अनुपस्थित थी जो एक नए परिवार के वर्तमान को मादक और भविष्य को आशावान बनाये रखती है । कोई अदृश्य सा कुहासा था जो छंट नही रहा था। दीप्ति जब कभी अपने मायके जाती, उसके स्वभाव में एक अलग ही उल्लास और रौनक आ जाती। उन दिनों कभी जब निखिल ससुराल जाता तो दीप्ति को देखकर उसे बड़ा आश्चर्य होता। एक अलग तरह की रौनक से चमचमाता हुआ उसका चेहरा निखिल के लिए नितान्त अजनबी सा होता। जब भी उसने इस बारे में बात करने की कोशिश की तो दीप्ति से सहयोग नही मिला। उसका उदासीन व्यवहार देखकर निखिल भी धीरे धीरे असंपृक्त सा होता गया। उसे ये एहसास हो चला था कि रिश्तों की डोरी उलझ जाय तो ज्यादा छेड़छाड़ करना भी ठीक नही होता। बहुत सी गांठें सिर्फ़ समय ही सुलझा पाता है।

कई वर्षों बाद एक नई कंपनी में नियुक्त होकर निखिल इस शहर में आया। यहीं पर आस्था का जन्म हुआ। उन्हीं दिनों किसी पार्टी में निखिल की मुलाक़ात अनीता और उसके पति अरविंद से हुई। अनीता के जीवन साथी के रूप में अरविन्द के सरल स्नेहिल स्वभाव को देखकर अच्छा लगा । उनकी परस्पर मित्रता भी खूब जम गयी और सुख दुःख में परिवार के सदस्यों की तरह सब एक दूसरे का ख़याल रखने लगे। परदेस में भी घर सा माहौल बन गया। जब ये कॉलोनी नई नई बसनी शुरू हुई तो दोनों ने छोटे छोटे प्लॉट लेकर घर बनवा लिए। अरविन्द ने पहले लिया तो उसका कॉलोनी के मेन रोड पर और निखिल का थोड़ा दूर दूर गली के अंदर।

अनीता ने डाइनिंग टेबल पर खाना रखना शुरू किया तो उसकी आहट पाकर निखिल अपने माज़ी से बाहर आया। "काफी कमजोर हो गए हो निखिल.. तुम्हें पहचानने में कुछ पल लग गए।" अनीता ने ध्यान से उसके चेहरे को देखते हुए कहा।

"इतने वर्षों में कुछ फ़र्क़ तो पड़ना ही था अनीता।" और फिर एक छोटी सी बेबस मुस्कान होठों पर लाते हुए हँसी के स्वर में कहा- " जेल को ससुराल भले कहते हैं पर वो ऐसी ससुराल है जहाँ की खातिरदारी बहुत भारी पड़ जाती है। "
अनीता के चेहरे पर भी एक बेबस सी मुस्कान आकर चली गयी। कहने सुनने को बहुत कुछ था पर कुछ पूछने और बताने का साहस दोनों में नही था। जीवन में जिस वक़्त साहस की जरूरत होती है उसी समय यदि कदमों को पीछे खींचना पड़ जाय तो कायरता का एक बोध ता-उम्र अवचेतन में बना रह जाता है।
दोनों चुपचाप खाना खाते रहे। खाने के बाद निखिल ने चलने की बात की तो अनीता उठकर अंदर गयी , चाबी लेकर वापस आयी और बोली -" पंद्रह बीस दिन पहले जब दीप्ति ये चाबी छोड़ने आई तो मैं बाथरूम में थी। उसने अरविन्द को थमाया और चलते समय बोली कि उसे अचानक कुछ जरूरी काम से गाँव जाना पड़ रहा है ।"

"कुछ बताया था कि कब तक वापस लौटेगी ?"

"नही, बहुत जल्दी में थी। बोली कि बाहर ऑटो खड़ा है। और निकल गयी। निखिल, इस समय घर जाकर क्या करोगे? पूरा घर गन्दा पड़ा होगा। यहीं आराम करो। शाम तक कुछ साफ सफाई की व्यवस्था करते हैं।

"नही अनीता.. इतने सालों से आराम ही तो कर रहा हूँ। वैसे भी घर पहुँचकर और करना भी क्या है। तुम भी घर के और काम कर लो। रात को मिलते हैं। तब तक अरविन्द भी आ जायेंगे"
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घर के अंदर हर तरफ़ और हर चीज पर धूल की एक परत बिछी हुई थी। देखकर ही लग रहा था कि अरसे से इस घर को किसी इंसान का हाथ नसीब नही हुआ है। एक दो कुर्सियों और मेज को थोड़ा साफ़ किया। मेज पर एक डायरी भी पड़ी थी। उसे भी साफ करके फिर से वहीं रख दिया। अंदर पलंग को भी थोड़ा झाड़कर साफ़ किया और लेट गया। थकान धीरे धीरे चेतना पर हावी हुई और शरीर गहरी नींद के हवाले ।
शाम हुई तो बाहर की किसी आहट से नींद अपने आप खुल गयी। उठकर देखा तो सूर्यास्त हो चुका था। अपने लिए एक कप काली चाय बनाया और आकर कुर्सी पर आराम से  टिककर बैठ गया। चाय पीते पीते डायरी उठाया। उसे पलटा तो अंदर कुछ पन्ने तह करके रखे हुए दिखाई पड़े। खोलकर सीधा किया तो पता चला ये तो दीप्ति की चिट्ठी है, जो शायद उसी के लिए डायरी में रखी गयी है। अचानक उसके थके हुए जिस्म में हल्की सी उत्तेजना जागी और वो सीधा होकर कुर्सी पर बैठ गया। चिट्ठी खोला और शुरुआत की कुछ पंक्तियाँ पढ़ते ही शरीर और आत्मा जैसे एक दूसरे से परे हो गये। जाने कितने देर की चेतना- शून्यता के बाद धीरे धीरे उसके आसपास की दुनिया जाग्रत हुई। चाय का कप यूँ ही पड़ा था मेज पर। उठाकर एक लम्बा सिप लिया और खोयी हुई चेतना के तारों को फिर से हिलाया। आँखें पुनः पत्र के आरम्भिक हिस्से पर जा पहुँचीं.....

निखिल,

घर छोड़कर जा रही हूँ।
हमारे बीच की भाषा इतनी औपचारिक कभी नही रही। पर क्या करूँ, कुछ और लिखने या कहने का साहस अब नही रहा। ये अधिकार शायद उसी दिन ख़त्म हो गया था जब मेरे जीवन मे किसी दूसरे शख़्स का प्रवेश हुआ । उस व्यक्ति का नाम या उसका ज़िक्र यहाँ मायने नही रखता क्योंकि इस सारे प्रकरण में उसका कोई दोष नही है। यदि है तो थोड़ा तुम्हारी अनुपस्थिति का है जिसने मुझे घर से बाहर निकलकर नौकरी करने पर बाध्य किया और बाकी मेरी उन अतृप्त लालसाओं का है जिन्होंने बरसों बरस मुझे मरुभूमि के मुसाफिर की तरह तरसाया ।
मेरे घर वालों ने बग़ैर मेरा मन समझे असमय विवाह के इस बंधन में बाँध दिया जिसमें जकड़ कर मेरे जीवन के बहुत से अरमान भी सूख चले।
निखिल, मुझे नही पता कि मेरे इस पलायन को तुम किस नज़र से देखोगे पर जीवन के भौतिक और शारीरिक सुखों के प्रति हर इंसान के अनुराग का पैमाना अलग अलग होता है। कोई तुम्हारी तरह बहुत थोड़े में संतुष्ट होकर आसानी से अपने हिस्से का जीवन जी लेता है और किसी के लिए ये जीवन सिर्फ़ बीतते दिनों का पुलिंदा भर बन के रह जाता है। मेरे अंतर्जगत में भी कहीं न कहीं ये अतृप्ति बोध बरसों से छुपा रहा, जो अवसर पाते ही सर उठाकर खड़ा हो गया। ऐसा नही है कि मैंने संस्कारों में मिली पाप और पुण्य की परिभाषा को याद नही रखा या फिर परिवार के प्रति अपनी नैतिकता को अनदेखा किया पर एक दिन ऐसा लगा कि बस... अब नकली जीवन और नही जीना।

सड़क पर चलते हुए दुर्घटनाएं बहुतों के साथ हो जाती हैं और इसके लिए हमारे यहाँ का कानून भी कोई ऐसा सख़्त नही है। ज्यादा से ज्यादा छह महीने तक की सजा ही होती है। अब ये तो हमारा दुर्भाग्य ही था कि जो इंसान उस दुर्घटना के दौरान मरा उसके परिवार के साथ तुम्हारी पुरानी रंजिश निकली और इसी का फ़ायदा उठाते हुए उसके परिवार वालों ने इसे आम दुर्घटना की बजाय "सोची समझी साजिश के तहत की गयी हत्या" सिद्ध करा दी।

तुम आने वाले हो और मुझे अब यहाँ से निकलना होगा । जाना शायद टल भी सकता था पर इस तरह का निष्ठा रहित जीवन जीकर भी आखिर क्या हासिल होता। शरीर कहीं और, मन कहीं और । हर समय अपनी ग़लती का एहसास.......
एक बार ये भी सोचा कि तुमसे सब कुछ कहकर क्षमा माँग लूँ और यदि सम्भव हो तो पहले की तरह ही साथ रहें पर...चाहे जितना कोशिश कर लें अब पहले जैसा नही बन सकेगा ये जीवन। माज़ी की अच्छी यादें इंसान के वर्तमान को भले ही बेहतर न बना सकें किन्तु अतीत के दुखद और अप्रिय प्रसंग बार बार सामने आकर हमें सहज नही रहने देते।

मुझे मालूम है कि तुम्हें अकेलेपन का ये दुख देकर सुख मेरे हिस्से में भी स्थायी नही रहने वाला। पर अपने इस विस्थापन की जिम्मेदार भी स्वयं मैं हूँ। किसी चिर-वंछित को पाने के लिए कुछ न कुछ त्याग तो करना ही पड़ेगा।

हमारी बेटी इस अप्रिय प्रसंग से दूर रहे, इसलिए उसे देहरादून के एक बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया है। हालाँकि बोर्डिंग को मैंने बच्चों के लिए कभी ठीक नही समझा पर वर्तमान स्थिति में उसके लिए इससे बेहतर विकल्प भी नही । उसके स्कूल का पता भी नीचे लिख रही हूँ ताकि तुम जब भी उससे मिलना चाहो मिल सको।"

पत्र पूरा हो चुका था पर बेखयाली में न जाने कितनी देर तक उसकी उंगलियो  के बीच अटका रहा। समय का पहिया जैसे बीच रास्ते में कहीं अटक कर रह गया था। यंत्रणा का जो अध्याय बरसों पहले जेल की सजा के साथ आरम्भ हुआ था वो अब भी पूरा नही हुआ था और दुःख अपना रूप बदलकर उसके आने से पहले ही उसके घर में आकर बैठ गया था।
आँखें बंद करके कुर्सी की पुश्त पर सर टिका लिया उसने। दिन पहले ही बीत चला था। शाम के अँधेरे ने पूरे कमरे को अपने आगोश में ले लिया.....
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"निखिल, क्या हो रहा है भाई " कहते हुए अरविन्द ने उढ़के हुए दरवाजे को धीरे से खोला और अंदर दाखिल हुआ। पूरा घर अँधेरे में डूबा हुआ था। धीरे से टटोलकर रौशनी की तो देखा निखिल अपनी आराम कुर्सी पर सर टिकाये आँखें बंद किये पड़ा है। सामने चाय का खाली कप और ऐश ट्रे में सिगरेट के कई टुकड़े पड़े थे। मेज पर खत खुला पड़ा था। अरविन्द ने एक कुर्सी अपने लिए खिसकाई तो उसने आँखे खोल दी और सीधा होकर बैठ गया।

निखिल, क्या बात है? क्या हुआ?

उसने अरविन्द का सवाल सुना पर उसकी चेतना तक उन शब्दों के अर्थ नही पहुँच सके। अरविन्द की आँखों ने उसकी खोयी हुई नज़रों का पीछा किया और तब उसके संज्ञान में मेज पर पड़ा वो पत्र आया । उसने झिझकते हुए उसे उठा लिया , एक पल ठहरकर सोचा कि इसे खोले या नही पर बगैर पढ़े कुछ समझना भी मुश्किल था।
पढ़ने के बाद बहुत देर तक वो भी सन्नाटे में बैठा रहा। वो यही नही समझ पाया कि ये क्या हो गया। बोलने के लिए उसके पास न तो लफ़्ज़ थे न साहस। काफी समय तक दोनों निस्तब्ध अपनी अपनी जगह बैठे रहे और उनके बीच चुप्पी भी उसी तरह पसरी रही। आखिरकार हिम्मत करके अरविन्द धीरे से उठा और जाकर उसके कंधे पर हाथ रख दिया। निखिल की आँखें उसकी तरफ़ मुड़ी और उसकी आँखों में देखते ही अरविन्द को डर सा लगा। किसी जीवित व्यक्ति की इस तरह की निर्जीव आँखें शायद उसने पहले बार देखा था।
'चलो, 'अरविन्द ने उसके कन्धों पर उठने के लिए हल्का सा दवाब दिया। निखिल धीरे से उठा। अरविन्द ने लाइट ऑफ किया और बाहर निकलने के बाद घर के दरवाजे पर ताला लगाकर चाबी अपने पैंट की जेब में रख लिया।
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ऊपरी मंजिल पर एक छोटा सा खूबसूरत कमरा था जहाँ कभी कभी अरविन्द और निखिल देर देर तक बैठा करते थे। जगजीत सिंह और पंकज उधास की ग़ज़लों की धीमी सुर लहरियों के बीच दोनों ड्रिंक्स के छोटे छोटे दौर का आनंद लेते। शराब उनकी आदत में शुमार नही थी। कभी कभी दोनों यूँ ही बैठ जाते थे और खाने के पहले एकाध पैग ले लेते थे। शराब दोनों की आदत में नही थी। ज्यादातर उसी नफ़ासत से कोल्ड ड्रिंक्स काँच के गिलासों में डालकर घंटों सिप करते।

उसी कमरे में इस समय तीनों आमने सामने बैठे थे। अनीता दीप्ति का पत्र पढ़ चुकी थी और उसके समझ में ये नही आ रहा था कि क्या कहे और कैसे समझाए निखिल को। वो उसके बचपन का ऐसा दोस्त था जिसके संवेदनशील व्यक्तित्व के रेशे रेशे से वो वाक़िफ़ थी। तनाव के हालात झेलना निखिल के लिए कभी भी आसान नही था। बहुत जल्दी टूट जाता था। अरविन्द धीरे से उठ कर निखिल के पास गया और उसके कन्धों पर अपने सांत्वना के हाथ रख दिये। निखिल का सिर्फ़ शरीर उनके पास था।
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धीरे धीरे कई दिन बीत गए। अरविन्द और अनीता ने निखिल को उसके घर भी नही जाने दिया क्योंकि वहाँ अकेले पड़कर वो और अधिक अवसाद ग्रस्त हो जाता। हर बीतते दिन के साथ वो अपनी अनवरत चुप्पी से क्रमशः बाहर आ रहा था।
एक दिन शाम को अनीता और निखिल चाय पीने साथ बैठे तो अनीता ने धीरे से बातों का सिलसिला शुरू करने की कोशिश की।

"निखिल, मुझे मालूम है इस तरह किसी को समझाना बहुत आसान होता है क्यूँकि जिसके ऊपर बीतती है, एहसास उसी को होता है। पर किसी तरह इस दर्द से बाहर निकलने की कोशिश करना ही होगा तुम्हें। जब तक ये साँसे चल रही हैं ,कहीं न कहीं ये दुःख, सुख, जय, पराजय भी साथ लगे ही रहने हैं। इस दुनिया में जिसने भी जन्म लिया वो इनसे नही बच सका चाहे वो कोई सामान्य मानव हो या महामानव।"

"जीवन के शेष दिनों को किसी न किसी तरह तो बिताना ही पड़ेगा अनीता और इस तरह नही बीतेगा, ये भी सच है।
पिछले दिनों बीते हुए जीवन की फ़िल्म बार बार मन के पर्दे पर रिवाइंड होती रही...कई बार सोचा, पर कहीं से कुछ ऐसा नज़र नही आया जहाँ ऊँगली रखकर कह सकूँ कि हाँ इसी जगह मुझसे भूल हुई। ये सच है कि मेरा विवाह बग़ैर मेरी इच्छा पूछे या समझे कर दिया गया था और उम्र के उस नाजुक मोड़ पर मैं प्रतिरोध भी नही कर सका था। पर, अपना अगला जीवन मैंने पूरी ईमानदारी से जिया और परिवार के लिए अपनी क्षमता भर जो भी सम्भव था, किया। उस सड़क दुर्घटना और आजीवन कारावास की सजा के पीछे मेरी क्या ग़लती थी आखिर?

"तुम्हारा नही, ये सब परिस्थितियों का दोष है निखिल। नियति के क्रूर हाथों ने ठग लिया तुम्हें।"

कुछ देर तक दोनों शांत बैठे रहे। चाय ख़त्म करके निखिल उठा और खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया। सामने निरभ्र आकाश था। शाम हो जाने पर भी गर्मी कम नही हुई थी और दूर दूर तक सन्नाटे का ही साम्राज्य कायम था। परिंदे भी कहीं छाँव में ही दुबके पड़े थे। घर के पास एक नीम का पेड़ था जिसकी पत्तियाँ हवा के किसी अदृश्य प्रभाव से बेहद हौले हौले हिल रही थीं।

निखिल वापस आकर अपनी जगह बैठा और बोला---
अनीता, सोच रहा हूँ सबसे पहले देहरादून जाकर आस्था से मिलूँ । बरसों से उसका चेहरा देखने को भी तरस गया हूँ। इस विस्थापित ज़िन्दगी में अब वही तो शेष है। मुझे उसके लिए हर हाल में जीना होगा।

"तुम तो वहीं हो निखिल जहाँ तुम्हें होना चाहिए । निर्वासन तो दीप्ति को मिला और संयोग देखो कि ये उसका खुद का चुनाव है। विस्थापन क्या सिर्फ़ घर, शहर या देश से ही होता है? इनसे कहीं अधिक कठिन है अपने मन, अपने एहसास और उन रिश्तों से विस्थापित हो जाना जिनसे हमारी सांसों की डोर जुडी होती है।"

अनीता, दीप्ति ने जो रास्ता चुना है उसका कुछ तो दुर्दम्य आकर्षण यकीनन होगा ही उसके लिए। यदि स्थितियाँ उसके अनुकूल रहीं तो शायद धीरे धीरे मानसिक स्तर पर वो इस गुज़रे जीवन से निस्पृह भी हो जाय पर मेरे सामने तो पलायन का कोई रास्ता ही नही। छोड़ने को तो ये बस्ती ये शहर सब छोड़ दूँ। पर उससे हासिल भी क्या होगा।

" क्या तुम ये शहर छोड़ देने को सोच रहे थे?" अनीता के चेहरे पर आशंका की एक हल्की सी परछाईं आकर ठहर सी गयी।

"इस बारे में भी कई बार सोचा। ऐसा लग रहा था कि यदि कहीँ दूर निकल जाऊँ तो शायद इस दर्द से कुछ राहत मिले। जहाँ न कोई पहचानने वाला हो न कोई अतीत की याद दिलाने वाला। पर इस पलायन के लिए मेरा मन तैयार नही क्योंकि ये दंश मेरा पीछा कहीं नही छोड़ने वाला है। तुम्हे याद है जब हमारे घर बन रहे थे। मैं निदा फ़ाज़ली की ग़ज़ल का ये शेर गुनगुनाता था --
घर की तामीर चाहे जैसी हो,
इसमें रोने की कुछ जगह रखना
और तुम मुझे चिढ़ाया करती थी कि "ठीक है तुम अपने घर में एक कोना रोने के लिए छोड़ देना। हम सब वहीँ बारी बारी से रो लिया करेंगे।" अब इतने मन से खड़े किये घर को छोड़कर रोने के लिए और कौन सा कोना खोजूँ अनीता ?" मुस्कुराने की असफ़ल कोशिश की निखिल ने।
"अनीता, फिर मुझे लगा कि अब कहीं नही जाना। नियति का जो भी खेल शेष रह गया होगा यहीं रहकर उसका सामना करूँगा। तुम लोगों के आसपास रहकर अकेलेपन का ये दंश कुछ तो कम होगा।"

"बस निखिल, यही सुनना चाहती थी मैं। वैसे भी तुम कहीं जाने की सोचते तो हम तुम्हें कहाँ जाने देते। पारंपरिक रिश्ते नातों का अधिकार भले मेरे पास न हो, पर फिर भी तुम्हारे बचपन की दोस्त और वो भी 'पहली ' होने पर इतना हक़ तो मेरा बनता ही है।"

निखिल भी उसकी बात सुनकर हलके से मुस्कुरा उठा। ये पहला अवसर था जब उन दोनों में से किसी ने अपने मन की बात एक दूसरे से की थी।

" जान पहचान बहुत पुरानी तो नही है भाई पर थोड़ा बहुत अधिकार मेरा भी है " अपने पुराने खिलंदड़े अंदाज में कहते हुए अरविंद अंदर आया। " मैंने यात्रा की पूरी व्यवस्था कर ली है। तुम लोग भी अपनी तैयारी कर लो। कल सुबह हम सब देहरादून के लिए निकल रहे हैं। पहले आस्था बिटिया से मिलेंगे और जी भर के बातें करेंगे और फिर देहरादून की ख़ूबसूरती का कुछ आनंद उठाएंगे। ज़माना हो गया है ये शहर छोड़कर कहीं घूमने गए हुए।"
" अरविन्द, देहरादून जाने की बात तो अभी तक मन ही में थी। तुमने कैसे जान लिया भाई?"
"जान नही लिया प्यारे ,महसूस कर लिया। हम जिस पर अपना अधिकार समझते हैं उसके विषय मे बहुत कुछ महसूस कर लिया करते हैं," मुस्कुराते हुए जवाब दिया अरविन्द ने।

निःस्वार्थ रिश्तों की इस आत्मीयता से घर का हर कोना महक उठा।

विरह विगलित कदंब: पुष्पा भारती

विरह विगलित कदंब पुष्पा भारती साहित्य सहवास में चारों ओऱ बड़े करीने से हरियाली उग आई थी। अपनी मेहनत की सफलता पर खुश भी थे भारती जी कि सहसा उ...