निर्वासन- अखिलेश
बीसवीं सदी में आज़ादी के समय से ही देश में नैतिक पतन का जो सिलसिला चला वो सदी के अंत तक नये नये आयाम रचता चला गया। भ्रष्टाचार, आतंकवाद, पुराने एवं शाश्वत मूल्यों का निरंतर क्षरण और भूमंडलीकरण के दौर में पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति का अंध अनुकरण बढ़ता रहा और आज स्थिति ये है कि बाजार घर के अंदर पहुँच कर अपनी जड़ जमा बैठा है।
इस औपनिवेशिक माहौल की त्रासदी से जन्मे विचलन और इन सबको अस्वीकार करने की प्रतिक्रिया में अपने घर परिवार और समाज से निर्वासित होते चले जाने की महा गाथा है "निर्वासन"।
गिरमिटिया मजदूरों के तौर पर अपने घर परिवार और देश से दूर गए गरीब इंसानों की कहानी उस समय मौज़ूद सामजिक वर्गभेद और जाँति पाँति की पृष्ठभूमि में सजीव हो उठती है। अपनी जड़ों से विस्थापित हो जाने का दर्द बेहद प्रभावशाली ढंग से उभरकर सामने आता है।
उपन्यास का उत्तरार्ध बेहद समसामयिक और विचलित कर देने वाला है। कथानायक लंबे अरसे बाद अपने गाँव जाता है जहाँ स्वार्थ और बाज़ार वाद ने पाँव पसार लिया है । संबंधों में न तो ऊष्मा बची है न ही लगाव। हर कोई सिर्फ़ अपने अपने हो सकने वाले लाभ के प्रति सचेत है। इस चिंतनीय माहौल में प्रतिरोध के प्रतीक बन कर खड़े है चाचाजी जिन्होंने अपने परिवार की संवेदनहीनता से ऊबकर अपने घर में एक दीवाल खींचकर खुद को सबसे अलग कर लिया है। आधुनिक सुविधा साधनों से दूर... मिट्टी के बर्तनों में पकता भोजन, न टीवी न फ़ोन। उनके परिजनों का आरोप है कि वो पागल हो चुके हैं, किन्तु नायक के सवालों के जवाब में जब इस प्रकरण का दूसरा पक्ष सामने आता है तो पाठक स्तब्ध रह जाता है। इस अंश में पाठकों का साक्षात्कार आत्मीय रिश्तों को खोखला और अर्थहीन बना रही संवेदनहीनता के एक भयावह पहलू
से होता है।
अखिलेश अपने वक़्त की नब्ज़ पर नज़र रखने वाले उन चुनिंदा लेखकों में हैं जिन्होंने अपने लेखन के नए मापदण्ड स्थापित किये और हमारे दौर की विसंगतियों और सामाजिक विषमताओं के अनेक यादगार दृश्य उनकी रचनाओं में दर्ज़ हुए।
उनके लेखकीय जीवन की अवधि जितनी लंबी है किताबों की संख्या उतनी ही कम क्योंकि उनका बहुत सा वक़्त "तद्भव" नामक उस पत्रिका के सम्पादन और प्रकाशन में भी लग जाता है जिसने समकालीन साहित्य जगत में नए मापदंड खड़े किये।
उपन्यास का पूर्वार्द्ध कई अवान्तर कथाओं और कुछ अनावश्यक विवरणों के कारण कमजोर होने के साथ ही पठनीयता को भी बाधित करता है। बावजूद इन खामियों के निर्वासन निस्संदेह हमारे समय की बेहद महत्वपूर्ण रचना है !!
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