मंगलवार, 25 सितंबर 2018

कम आवाज़ों का शहर

"कम आवाज़ों का शहर"
ज्ञानप्रकाश विवेक

स्मृति आख्यानों की सर्जना आसान नहीं होती। अतीत की पगडंडियों पर की गयी यात्राएँ हमेशा प्रीतिकर हों, ज़रूरी नहीं! इस सफर में जहाँ सुखद यादों को फिर से जीने का अवसर मिलता है वहीं बीते हुए दुःख और अवसाद के क्षण अवचेतन पर पुनः हावी होने लगते हैं।
ज्ञानप्रकाश विवेक की किताब " कम आवाज़ों का शहर", जिसका लोकार्पण इसी वर्ष दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में हुआ था, के कुछ आरम्भिक पृष्ठों के दौरान ही यह आभास होने लगता है कि स्मृतियों के किस बीहड़ से गुजरने के बाद इस तरह के संस्मरण जन्म लेते होंगे।

लेखक की ये पंक्तियाँ भी शायद इसी विडंबना को बयान करती हैं :

" यादें आखेट पर निकल पड़ें तो इसी तरह शिकार करती हैं। ख़ून का एक क़तरा नहीं गिरता लेकिन बंदा अंदर से लहूलुहान।"

" स्मृति ! जैसे पर्दे के पीछे छुपकर खड़ा कोई गुज़िश्ता वक़्त! स्मृति, जैसे ज़िन्दगी के मुसाफ़िरखाने में खाली बेंच पर बैठी अतीत की गर्द! स्मृति, जैसे कोई कटी हुई पतंग , भटकती हुई, यहाँ वहाँ !
स्मृति! जैसे टेबलफ़ैन के सामने रखी खुली किताब। फड़फड़ाती हुई... जिल्द की क़ैद से रिहा होने को आतुर।

ज़िन्दगी सचमुच खुशफ़हमियों का तलघर है, जहाँ हम अपने आप में ग़र्क जैसे- जहाज समंदरों में, प्यास ज़र्रों में, रेलगाड़ियाँ सफ़र में और परिन्दे उड़ान में, आवाज़ें गुम्बदों में तो उदासियाँ दिल की छावनी में ग़र्क।
यह शहर ज़्यादा दरख़्तों और कम आवाज़ों का शहर था। कई बार यह बयाबां में खड़े किसी पुराने और जर्जर मंदिर की तरह लगता जिसके भीतर रखी देवताओं की सब मूर्तियाँ कोई उठाकर चला गया हो और एवज़ में ख़ामोशी का अधबुझा दीया रख गया हो।
एक ख़ुशनुमा एहसास यह भी था कि इस शहर में सब पैदल चलते। हवा पैदल चलती, धूप पैदल चलती। लोग पैदल चलते और सूखे पत्ते जब दरख़्तों से गिरते तो वो भी नंगे पाँव होते और पैदल चल रहे होते। पैदल शब्द ज़िन्दगी में इस क़दर घुलमिल गया कि जीवन-शिल्प बन गया था। कम्बख़्त दुख भी जीवन में पैदल आते और ख़ुशियाँ भी।
अधिकांश लोग सरहद के उस पार से खाली हाथ आये थे। एक अदद निहत्थी ज़िन्दगी के साथ। कमीज़ की खाली जेबों में और कुछ नहीं था। जो था वो दर्द के खोटे सिक्के थे। विस्थापन का हाहाकार था।
तमाम लोग हँसने मुस्कुराने के बावजूद दुखी नज़र आते। वो हैरान होते कि सुख कहाँ चला गया। वो तो हमसफ़र की तरह था। बेशक! लेकिन वो सुख ज़ंज़ीर खींचकर कहीं पीछे उतर गया था।

2018 की कुछ प्रिय और महत्वपूर्ण किताबों की सूची में शामिल इसी रचना से कुछ चुने हुए अंश...

★घर था एक कथानक जैसा

मेरे ख़ुदा मुझे इतना तो मोतबर कर दे
मैं जिस मकान में रहता हूँ उसको घर कर दे
( इफ़्तेख़ार आरिफ़ )

" पिता द्वारा सुनाए गए इस शेर को बहुत बाद में समझा हमने कि हर मकान में एक घर होता है। जिन मकानों में घर नहीं होते, वो मकान आत्मा रहित मकान ही रह जाते हैं।
मनुष्यों की तरह ही मकानों का भी चेहरा होता है। मकान के चेहरों पर मजदूरों, मिस्त्रियों की संघर्ष गाथा के निशान होते हैं। मकान के चेहरों पर वक़्त के पैने नाखूनों की खुरचन भी होती है।"

" बेजान चीजों का रिश्ता बहुत पुराना और चुप भरा होता है। बेजान चीजें मनुष्यों की तरह आपस में कभी लड़ती नहीं बल्कि हर बेजान शय दूसरी बेजान शय के लिए जगह छोड़ देती है।"

" पृथ्वी के पास अपनी खामोशी थी, माँ के पास अपनी। दोनों में असीम धैर्य। शायद यही कारण था कि पृथ्वी पर चलती हुई माँ , पृथ्वी जैसी ही प्रतीत होती।"

" माँ सारा दिन व्यस्त रहती। वो अभी सुबह को विदा कर रही होती कि घर के दर पे शाम की दस्तक आ जाती।"

" माँ गुसलखाने के पास खड़ी पति का इंतज़ार करती। वो आते। माँ लोटे से पानी की बहुत हल्की धार छोड़ती। ऐसा लगता वो पति के हाथ नहीं धुला रही, बादल राग गा रही है।
दो इन्सानों के बीच वो पतली सी पानी की धार कभी कभी संवेदना की छलछल करती नदी का एहसास कराती तो कभी उस दुभाषिये का जो दोनों की चुप की भाषा को जानता हो।
हम भाई बहनों को वो मंज़र ख़ूबसूरत लगता। हम मन ही मन ईश्वर से प्रार्थना करते कि लोटे का पानी कभी न ख़त्म हो। पानी की धार कभी न टूटे।"

" माँ को पता नहीं कैसे मालूम पड़ जाता कि पिता की जेब खाली हो चुकी है। वो मिट्टी की गुल्लक लाकर फ़र्श पर पटक देती। गुल्लक टूट जाती लेकिन दिल जुड़ जाते।
दुख जैसे एक गठरी का नाम हो। दोनों एक साथ खोलते। एक साथ बंद करते।

पिता जब माँ का हाथ थामकर बैठते तो हमें बहुत अच्छा लगता। तब हमें वो प्रेम की कविता प्रतीत होते, कभी अभाव की कविता। दो स्त्री पुरुष, अपनी सारी भाषाओं को त्यागकर चुप के वृक्ष बन जाते और उन वृक्षों पर साथीपन के पत्ते होते। पिता समंदर, माँ नदी ! पिता आसमान, माँ पृथ्वी !"

★★ ज़ाहिद ने मेरा हौसले-ईमां नहीं देखा

बहादुरगढ़ के मशहूर घड़ीसाज और शाइरी के दीवाने वाई डी सहगल के प्रस्ताव पर वहाँ के नक्कारखाने में शेरे शायरी की एक नशिस्त ज्ञानप्रकाश विवेक के शायर पिता प्रीतमलाल 'अरमान' द्वारा ताईद की जाती है। शहर के तमाम शायर इस नक्कारखाने में एकत्र होते हैं और घंटो तक मीर और ग़ालिब के चुने हुए शेरों, बुल्ले शाह की काफियों, वारिस शाह के पदों के अलावा उनके मौलिक शेरों से सजी यह महफ़िल एक यादगार शाम बन जाती है।

★★मैं जा रहा हूँ मगर लौटकर भी आऊँगा :

ज्ञानप्रकाश विवेक कहते हैं कि विस्थापित पिता अभी बहादुरगढ़ शहर में स्थापित भी नहीं हुए थे कि उनका ट्रांसफ़र ऑर्डर आ जाता है। " कम आवाज़ों का यह शहर उन्हें बहुत प्रिय था क्योंकि यह शहर ज़िन्दगी की हथेली पर मुहब्बत की रेखा जैसा प्रतीत होता था।"

अपने सहकर्मियों, परिजनों, दोपहर के भोजन के हिस्सेदार यानी पेड़ के नीचे बैठने वाले भिखारी और दफ़्तर के बाहर बरामदे में बैठे कुत्ते से विदा लेते पिता का यह अध्याय बहुत मार्मिक और अर्थपूर्ण है....

"कुछ यात्राएँ कितनी लम्बी होती हैं, जिन्हें तय करने में मुद्दतें लग जाती हैं।"

" ज़्यादा सामान का मोह ज़िन्दगी की सादगी में ख़लल डालता है।"

★★ बाज़ीचा ए इत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे

जाखल जंक्शन वह स्थान था जहाँ उनके पिता का स्थानांतरण हुआ था। स्टेशन की इमारत से लेकर रेलवे यार्ड, डिस्पेंसरी, चाय का खोखा, प्लेटफॉर्म नम्बर एक, लकड़ी के उपेक्षित पुराने पुल आदि का जीवन्त चित्रण ज्ञानप्रकाश विवेक जी ने किया है। एक दिन लकड़ी के उसी पुल पर एक अनाथ बूढ़े की मृत्यु हो जाती है। पीछे रोते बिलखते रह गयी नौ दस साल की उसकी लड़की।

" संसार रिश्तों का जश्न मना रहा था। जश्न मनाते संसार में एक अकेला पुल और प्रश्न की तरह एक अकेली लड़की। जटिलता उसके भविष्य की !"

" बूढ़े की चिता तो शान्त हो गयी थी। लेकिन अकेली बेसहारी लड़की जलता हुआ सवाल थी। उस सवाल की आग से सब बचकर निकल गए। पिता उसे घर ले आये। पराए घर में रोने से भी डरती वो। हम उसे चारपाई पर बिठाते, वो फ़र्श पर बैठ जाती। अपनी गठरी के पास जो उसके बाबा की शेष स्मृति थी।"

अगले दिन हॉस्पिटल का कंपाउंडर चरणदास इनके घर आता है। विवेक जी यहाँ बताते हैं--
" वो पहले भी कई बार आ चुका था। हमेशा विनीत, विनम्र! उसे देखकर ऐसा लगता जैसे वो ईश्वर के अतिरिक्त अपनी ज़िन्दगी का भी अहसानमंद है। वो तमाम कायनात का अहसानमंद है।" चरणदास, जिसकी बेटी की मृत्यु दो साल पहले निमोनिया के कारण हो गयी थी, अनुरोध करता है कि वो इस अनाथ लड़की को अपनी बेटी बनाना चाहता है।
बूढ़े की जेब से सत्रह रुपये निकले थे। उसने कहा कि इसे अलग रखेगा और कन्यादान के वक़्त इन रुपयों को भी शामिल कर लेगा।

"ज़िन्दगी एक बीहड़ का नाम है। उसके सारे सवाल बड़े जटिल होते हैं किन्तु कभी कभी इन जटिल सवालों के जवाब बहुत सरल हो जाते हैं।"

★★ ख़ुदा करे, तेरे सारे चराग़ जलते रहें

जाखल से जुड़ी जिन प्रमुख स्मृतियों पर ज्ञानप्रकाश विवेक ने लिखा है उनमें एक अहम प्रसंग लैंपमैन मंगल से जुड़ा है। मंगल के कबीराना स्वभाव, उसके गानों, किस्सों, उसके जीवन के दुःख, होम सिग्नल और आउटर सिग्नल पर लैंप जलाने की उसकी ड्यूटी ये
सब हमें बरसों पहले की एक ऐसी दुनिया में ले जाते हैं, जिनका अस्तित्व अब भले ही न हो, किन्तु इनमें गुंथी हुई संवेदनाएँ हर काल में प्रासंगिक रहती हैं। मंगल के साथ रहने के कारण दूसरे बच्चे विवेक जी को लैम्प मैन या आउटर सिग्नल कहकर चिढ़ाते थे। एक दिन उनके पूछने पर मंगल कहता है : पुत्तर, तू छोटा है अभी। कैसे समझाऊँ तुझे कि " ज़िन्दगी एक स्टेशन की तरह होती है और हम सब उसके आउटर सिग्नल होते हैं।"
ज्ञानप्रकाश विवेक कहते हैं कि : "बड़े होने के बाद जब मैंने साधारण लोगों को टूटते फूटते संघर्ष करते देखा तो महसूस हुआ कि अधिकांश लोग ज़िन्दगी के बाहर खड़े, किसी आउटर सिग्नल जैसे ही हैं.."

इस स्मृति कथा का अंत बहुत रोचक और रोमांच से भरपूर है-

" उस दिन तेज हवा थी और जब मंगल सुदूर आउटर सिग्नल पर लैंप जलाने के लिए पहुँचकर माचिस की डिबिया खोलकर देखता है तो सिर्फ़ पाँच तीलियाँ बची हैं। चार तीलियाँ उस तेज हवा का शिकार हो जाती हैं। लैम्प न जला तो रेलगाड़ी को सिग्नल का पता नहीं चलेगा। अचानक हम सब मंगल और उनके साथ आये उस आठ नौ साल के बच्चे के साथ प्रार्थना करने लगते हैं।
" एक तीली कितना बड़ा सरमाया थी। यह एक तीली जैसे उस लैम्प मैन की पूरी दुनिया हो। जैसे मेरी मासूम सी उम्मीद हो।"

इसी कड़ी में लैम्पमैन बद्री पर लिखा गया संस्मरण भी यादगार बन पड़ा है।

ऐसा ही एक और प्रसंग राका मसीह का जो एक चाय का ठीया चलाता था।

" यह चाय का ठीहा नहीं बल्कि ज़िन्दगी का ठीया लगता था। ऐसा लगता जैसे ज़िन्दगी अपनी सवारी गाड़ी को रोककर राका मसीह के ठीये पर चाय पीने और गुफ़्तगू करने बैठ गयी हो।"
तीन साल से मुअत्तल राका ने न माफ़ीनामा भेजा न रेलवे ने बहाल किया। अफ़सर भी जानते थे वो बेकसूर है लेकिन फ़ाइलों में वो कसूरवार था।
स्कूल जा रहे छोटे छोटे बच्चों को रेल फाटक पार कराने के लिए राका मसीह सब काम छोड़ देता था।

उसके पास भी किस्सों की भरमार! एक ऐसा ही साँस रोक देने वाला किस्सा सुनाया था राका ने जब इंजन को लूप लाइन पर खड़ा करके वो टिफ़िन खाने के लिए उतरा और उसके फायरमैन रामदयाल ने कुछ छेड़खानी कर दी जिससे इंजन चल पड़ा। जब तक उसका ध्यान गया तब तक इंजन दूर!
इंजन का ड्राइवर ज़मीन पर और इंजन ट्रैक पर दौड़ता हुआ! फिर राका की दौड़ ज़िन्दगी और मौत के बीच की दौड़ बन जाती है जब
उसे दूर उसी रेलवे लाइन पर खड़ी गाय और उसका बछड़ा नज़र आते हैं।

राका मसीह अपने इसी ठीये पर ज्ञानप्रकाश विवेक के पिता प्रीतम लाल जी के संस्मरणों का इंतज़ार किया करता था। यहीं पर एक दिन वे लाहौर के रेलवे ट्रेनिंग स्कूल का वो किस्सा सुनाते हैं जब उनकी एक नज़्म से नाराज़ अंग्रेज अफ़सरों ने उन्हें ट्रेनिंग के लिए क्वेटा से साठ मील दूर कानमित्रजेई नामक बेहद डरावनी जगह पर भेज दिया था जहाँ के पठानों और वज़ीरों के बारे में कहा जाता था कि वे जरा जरा सी बात पर क़त्ल कर देते थे।
वहाँ पहुँचकर उन्हें पठानों के उस इलाक़े, उनकी हुक़ूमत और कायदे कानून का पता चलता है।
चार्ज देने के साथ ही उनके वरिष्ठ अधिकारी उन्हें एक सलाह देते हैं कि " रास्ते के दो तीन गाँव के लोगों को पानी की क़िल्लत है। यह कमी उन बहादुर लोगों को कमजोर और उग्र बनने को मजबूर करती है। आप मालगाड़ी को रन थ्रू न देकर थोड़ी देर के लिए रोक देना जिससे मालगाड़ी में लगी हुई पानी की टंकी से इन लोगों को पानी मिल सके। "
प्रीतमलाल जी न सिर्फ़ उनकी सलाह पर अमल करते हैं बल्कि पानी के बदले पैसे लेने पर भी रोक लगा देते हैं। उनके इस क़दम से वहाँ के पुराने कर्मचारी ज़रूर नाराज़ होते हैं लेकिन वो ग़रीब लोग मुरीद हो जाते हैं। सवाल पैसों का नहीं, जज़्बे का था।

दस महीने बाद तबादले की ख़बर पाकर वहाँ से चलते समय उस गाँव के लोग जिस उदासी और भरी आँखों से उन्हें अलविदा कहते हैं वह सज़ा के तौर पर भेजे गए उस शख़्स के जीवन का बहुत बड़ा हासिल बनकर रह जाता है।

★★ ज़िन्दगी का रक़्स था

" हमारी बहुत सारी चीजों से यूँ ही दोस्ती हो जाया करती थी थी। मरफ़ी रेडियो के विज्ञापन दीवारों पर चिपके होते। मरफ़ी रेडियो का प्यारा सा, गोल मटोल बच्चा। अपने दूधिया दाँतों में उंगली दबाए। वो अपने दांतों से उंगली कभी बाहर नहीं निकालता था। हम चाहते थे वो एक अपनी उंगली दांतों से बाहर निकाले और हम उसकी उंगली चूम लें।"

" रास्ते में डाकघर आता। पोस्ट ऑफिस हमें पराया शब्द लगता। सबके अपने अपने घर थे। मछलियों का घर पानी, परिन्दों का घर वृक्ष। हवाएँ पत्तों पर अपना घर बनातीं या फिर खिड़की के पर्दों के पीछे उनका घर होता। धूप पूरी पृथ्वी पर अपना घर बना लेती। चाँद का घर आसमान होता। चिट्ठियों का घर डाकघर!
डाकिये छोटे छोटे खानों में चिट्ठियाँ डालता तो ऐसा लगता जैसे वो ज़िन्दगी के ख़ानों में चिट्ठियां डाल रहे हों। ज़िन्दगी के भी तो छोटे छोटे खाने हैं-- दुःख, सुख, उदासी, ठहाके,आँसू..."

पीछे छूटती चीजों की यही तो फ़ितरत होती है, वो ठोस रूप में पड़ी रहती है। अमूर्त में साथ चल पड़ती है।

★★ मैं हूँ अपने शिकस्त की आवाज़

यह खंड समर्पित है होम्योपैथी के डॉक्टर चटर्जी पर जिनके क्लीनिक के सामने से निकलते हुए एक ज्ञानप्रकाश विवेक नाम का एक बच्चा उन्हें आवाज़ लगाता था :--डॉक्टर.. चटर्जी...
वो देखते , मुस्कुराते और कहते - नॉटी बॉय।

" उनके और मेरे बीच यही रिश्ता था-आवाज़ का। आवाज़ एक धागे की तरह हम दोनों के बीच जुड़ी थी। एक बूढ़े और बच्चे के बीच कुल दो शब्दों का पुल..."

" बाद में डॉक्टर साहब की नज़रें कमजोर होती गयीं। वक़्त ने धीरे धीरे उनकी दृष्टि और आवाज़ दोनों छीन लिया। फिर भी वे क्लीनिक में आते। बहुत मुश्किल से ताला खोलते। अब उन्हें रोगियों की प्रतीक्षा भी नहीं रहती थी। वो इंतज़ार की दुनिया से बाहर थे।
उनकी मृत्यु से कुछ महीने पहले जब मैं धीरे से आवाज़ देता तो वे अपना दायाँ हाथ उठाकर हिलाते धीरे से.. जैसे कह रहे हों - नॉटी बॉय। फिर धीरे धीरे मैंने आवाज़ देना छोड़ दिया । मैं वहाँ रुकता और वे मेरे होने को महसूस कर लेते।उनके होंठ थरथराते। पलकें झपकतीं। दाएँ हाथ को उठाने में अब उनकी बहुत ऊर्जा खर्च होती। पल भर के लिए उनका हाथ उठता और हमारे बीच का रिश्ता जीवित हो उठता।"

★★ ज़िन्दगी तुझको ढूंढ़ती है अभी

इस संवेदनात्मक खंड का नायक है चपरासी रामलाल। वही रामलाल जो दिन भर बच्चों के शोर शराबे से परेशान रहता और जब छुट्टी के बाद सारी आवाज़ें लापता हो जातीं तो इतनी सारी आवाज़ों के बाद की यह चुप्पी बेचैन कर जाती उसे। बच्चों को बेतहाशा याद करता। तब उसे एहसास होता कि उसकी ज़िन्दगी के लिए इन बच्चों का होना कितना ज़रूरी है। बच्चों की आवाज़ें उसकी वीरान ज़िन्दगी में सुख की छोटी।छोटी कथाएँ हैं।

सारे कमरों में ताला लगाते रामलाल को ऐसा एहसास होता कि " उसकी ज़िन्दगी भी किसी ऐसे ताले की तरह है जिसकी सारी चाबियां कहीं पीछे गुम हो गयीं।"

तक़सीम के समय उसकी पत्नी उससे बिछड़ गयी थी। "बिछड़े हुए लोग मर जाने वाले अपनों से ज्यादा दुख देते हैं .. एक ऐसा न ख़त्म होने वाला इंतज़ार भी दे जाते हैं जो आँखों का पानी सुखा देता है और दिल को किसी अंधी और गूँगी चिमनी में बदल देता है ।"

"गुज़िश्ता वक़्त के पीछे भागनेवाले और किसी की यादों को ज़िन्दगी का मर्कज़ बना देने वाले लोग कुछ न कुछ लोग पागल ही होते हैं या हो जाते हैं। सामान्य लोगों की दुनिया से रफ़्ता रफ़्ता कटते चले जाने वाले लोगों के चेहरे, बुझे हुए सूरज जैसे हो जाते हैं।"

★★ तमाशा ए अहले करम देखते हैं

" गर्मियों में प्रत्येक वृक्ष अपने हिस्से की धूप में झुलस रहा होता और अपने हिस्से की ठण्डी छाँव पृथ्वी पर रख रहा होता।"

दसवीं की परीक्षा के बाद छुट्टियों के चार महीने के लिए ज्ञानप्रकाश विवेक को रेलवे के एक विभाग में अंग्रेजी पत्रों का अनुवाद करके हिन्दी में लेटर तैयार करने की टेम्परेरी नौकरी मिल जाती है। वे लिखते हैं : " मेरी अंग्रेजी बहुत खराब थी और उस दफ़्तर में काम करने वाले बाकी अधिकारियों की हिन्दी बहुत खराब , इसलिए मैं चार महीनों तक यह नौकरी आराम से कर सका।" ☺️

" मैं जिस कमरे में बैठता वहाँ सब के सब तनाव में। हमेशा झगड़ने को आतुर! मैं उनको लड़ते देखकर इस नतीजे पर पहुँचा कि लड़ाई के लिए किसी मुद्दे की ज़रूरत नहीं होती। वो तो मिल ही जाते हैं, बस बंदा थोड़ा कुंठित हो। इनसे मुक्ति पाने के लिए मैं वर्कशॉप में चला जाता। क्लास फोर के बंदे मुझे देखकर खुश हो जाते। मैंने वहाँ महसूस किया कि जलती हुई भट्टी इनकी ज़िन्दगी का भी प्रतीक है। भट्ठी जैसी ही लपटें इनके जीवन में भी थीं। सबके सब जीवंत! ख़ुशबास। बेलौस ।"
किताब के इस आख़िरी अध्याय में उस विभाग के अधिकारी के मानसिक रूप से अस्वस्थ पुत्र की मार्मिक कहानी है जो इंसानों की दुनिया से विस्थापित होकर पेड़ पौधों की दुनिया में चला आता था और वहीं धाराप्रवाह अंग्रेजी में उनसे बातें किया करता था। वही उसकी कक्षा होती जिसका हेडमास्टर वो ख़ुद होता था। उस पर ध्यान देने वाली सिर्फ़ एक बहन थी जो बीच बीच में आकर उसे घर ले जाती थी। इस कहानी का अंत नहीं बतायेंगें ताकि किताब पढ़ते समय पाठक इस खूबसूरत किस्से का आनन्द उठा सकें।

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