मंगलवार, 6 नवंबर 2018

प्रतिनिधि कहानियाँ : अखिलेश

प्रतिनिधि कहानियाँ: अखिलेश

अखिलेश हमारे समय के उन कथाकारों में हैं जिनमें किस्सागोई की परम्परा बड़ी जीवन्तता से मौजूद है। उनकी कहानियों की संरचना देखने में जटिल होते हुए भी पाठक को अपने प्रभाव में जकड़ लेती है। वर्तमान समय की सामाजिक और राजनीतिक विडंबना, विवशता , चालाकी और क्रूरता के दृश्य उनकी रचनाओं में बार बार आते हैं।
राजकमल प्रकाशन की प्रतिनिधि कहानियों की श्रृंखला में प्रकाशित इस कहानी संग्रह का सम्पादन किया है प्रसिद्ध कथाकार मनोज कुमार पाण्डेय ने। अपने समकालीन लेखकों शिवमूर्ति और उदयप्रकाश की ही तरह अखिलेश भी ज्यादा नहीं लिखते। अब तक प्रकाशित तीन कहानी संकलनों में शामिल उनकी अधिकांश कहानियाँ बहुचर्चित और बहुपठित रही हैं और ऐसी स्थिति में इन कहानियों में से कुछ का चुनाव करना बहुत कठिन कार्य है। मनोज कुमार पाण्डेय ने बड़ी सावधानी से छह ऐसी कहानियाँ चुनी हैं जो अखिलेश की कथायात्रा के विकास और उनकी समग्र विशेषताओं का प्रतिनिधित्व कर सकें।

संग्रह की पहली कहानी है "श्रृंखला"। कुछ बरस पहले 'नया ज्ञानोदय' में पहली बार प्रकाशित होने के साथ ही यह उनकी बहुचर्चित कहानियों में शामिल हो चली थी। फतांसी, कल्पना और सत्य से बुनी गयी इस कहानी के नायक रतन कुमार की आँखों की रौशनी जितनी कम है, स्मरणशक्ति उतनी ही विलक्षण। एक अखबार के लिए कॉलम लिखते हुए अनायास उसकी बातें सत्ता और अन्य प्रभावशाली लोगों को नागवार गुज़रती हैं। सत्ता और पावर किसी इंसान को किस तरह पंगु, निरीह और समाप्तप्राय बना सकते हैं, यह कहानी बखूबी बयान करती है।

वजूद : जयप्रकाश नामक ऐसे शख़्स की कहानी है जिसने अपने बचपन में गाँव के प्रभावशाली वैद्य द्वारा अपने पिता की अमानवीय और अपमानजनक हत्या को प्रत्यक्ष देखा है। जिस समय पिता मारे जा रहे थे उसी समय बीमार माँ की तीमारदारी में लगी महिलाएँ वैद्य जी की संभावित नाराज़गी के डर से उसे छोड़कर भाग जाती हैं और इस तरह जयप्रकाश एक ही दिन में माँ और पिता को खोकर अनाथ हो जाता है।

अखिलेश लिखते हैं-
" जैसा कि जीवित होने पर होता है, वह धीरे धीरे बड़ा भी होता रहा। जयप्रकाश की स्मृति में माँ की मृत्यु से अधिक माँ का जीवन बसा था और पिता के जीवन से अधिक पिता की मृत्यु बसी थी।"

अपमान और अवहेलना की स्मृतियाँ बरसों बरस बीत जाने पर भी अवचेतन में दबी रहती हैं और एक दिन जब उसके भविष्य....

★ "यक्षगान" कहानी की पृष्ठभूमि भी राजनीतिक है। प्रेम विवाह के नाम पर घर से भागी सरोज पाण्डेय का बाहुबलियों द्वारा जमकर शोषण किया जाता है। जब एक महिला नेता निरायास हाथ लगे इस अवसर को भुनाते हुए सरोज को उनके चंगुल से निकालकर मुद्दा मीडिया के हवाले करती है तो सत्ता पक्ष का शातिर खेल आरम्भ हो जाता है। बिकने के लिए सदा तैयार मीडिया भी उनके इस दुष्चक्र में सहायक बनता है और यह पूरी घटना महज़ एक रोचक कथा बनकर रह जाती है।

"जलडमरूमध्य" एक उम्रदराज़ व्यक्ति के जीवन के अन्तिम दिनों की मार्मिक दास्तान है जो धीरे धीरे अपने चारों तरफ फैली अराजकता, दंगे फ़साद और बाजार के बढ़ते कदमों से भयभीत या त्रस्त हो उठता है। जिस शहर से कभी एकाध महीने की अनुपस्थिति भी उसे सह्य नहीं थी उसी शहर को हमेशा के लिए छोड़कर गाँव जाने का निश्चय करते हैं सहाय बाबू। हालाँकि गाँव जाकर भी उनकी मानसिक स्थिति ठीक होने के बजाय क्रमशः बिगड़ती चली जाती है। पति पत्नी अपने बेटे के पास दिल्ली चले आते हैं। यहाँ भी हालात बहुत अच्छे नहीं हैं। भ्रष्ट बेटे-बहू की संगति उन्हें बेहतर नहीं होने देती।

शाप ग्रस्त अखिलेश की पुरानी और चर्चित कहानी है जिसका नायक दुःखी होने के प्रयास में अनगिनत असफल प्रयास करता है। सरकारी नौकरी खोकर एक समाचार पत्र से जुड़ने के बाद भी उसकी दुखी होने की इच्छा अपूर्ण ही रह जाती है। यह एक प्रतीकात्मक कहानी है जिसमें अखिलेश अपने चिरपरिचित हथियारों से लैस दिखाई देते हैं।

संग्रह की अन्तिम कहानी "चिट्ठी" प्रशासनिक सेवा की तैयारी में लगे युवाओं को निरन्तर मिलती असफलता और बेरोजगारी के दंश को दर्शाती एक यादगार और चर्चित रचना है। कहानी का अंत बहुत मार्मिक बन पड़ा है। हारे हुए कुछ युवा अपने अपने घर लौटते समय वादा करते हैं कि " जीवन में जब भी हममें से कोई सुखी होगा तो वो अन्य मित्रों को चिट्ठी लिखेगा" और कहानी का वह पात्र जो इस पूरी कहानी को आत्मकथात्मक ढंग से बयान करता है, कहता है कि बरसों बीत गए किन्तु आज तक हममें से किसी को कोई चिट्ठी नहीं मिली और न ही मैंने कभी किसी मित्र को चिट्ठी लिखी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विरह विगलित कदंब: पुष्पा भारती

विरह विगलित कदंब पुष्पा भारती साहित्य सहवास में चारों ओऱ बड़े करीने से हरियाली उग आई थी। अपनी मेहनत की सफलता पर खुश भी थे भारती जी कि सहसा उ...