सोमवार, 12 नवंबर 2018

दुष्यंत स्मृति

दुष्यंत को पहली बार महज़ एक शेर की वजह से जाना था। इससे पहले ग़ज़लों और शेरों की जिस दुनिया से थोड़ी जान पहचान थी, वहाँ कभी इस तरह की असरदार पंक्तियाँ सामने आयी ही नहीं थीं जिन्हें पढ़कर इस कदर ठिठक जाना पड़ा हो। शेर था--
कहाँ तो तय था चरागां हरेक घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए....

हुस्न, इश्क़, मीना और सागर से परे ये एक अलग सी भाषा और भाव-भूमि थी। मूल ग़ज़ल तक पहुँचने में काफी वक़्त लगा। जब इसका मुक़म्मल स्वरूप देखा तो दरख़्तों के साये में धूप लगने का बिम्ब मन में स्थायी रूप से घर कर गया--

यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिए

सामाजिक असमानता और विडंबना को इससे अधिक मर्म और तंज से उनसे पहले शायद ही कोई व्यक्त कर पाया हो---

न हो कमीज तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए|

खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही
कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिए|

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेकरार हूँ आवाज में असर के लिए

और जब इसका मक़्ता पढ़ा तो
गुलमोहर लफ़्ज़ भी मोहब्बतों में शामिल हो चला--

जिएँ तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए|

इंटरनेट और गूगल की दुनिया तो बहुत देर में आई। ढूँढने और पढ़ने की इतनी सहूलियत उस दौर में कहाँ थी। उनकी अन्य ग़ज़लें इंटरनेट आने के बाद ही पढ़ने को मिल सकीं।

हो गयी पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

जैसी ग़ज़लें पढ़कर दुष्यंत के प्रति जितना गर्व और सम्मान जागा मन में उतनी ही कसक। कसक इसलिए कि इतने बड़े शायर को कितनी छोटी सी उम्र मिली थी.. 42 वर्ष की उम्र भी भला कोई उम्र होती है जाने की। ये अलग बात है कि इन्हीं बयालीस सालों में अपने लेखन की बदौलत दुष्यंत को जो उपलब्धियाँ हासिल हुईं उसका कोई सानी नहीं !

बरसों बाद किताबों की दुनिया तक पहुँचने की राह निकली और हाथों में आया - " साये में धूप " उनका इकलौता ग़ज़ल संग्रह। क्या संयोग है कि जिस विधा ने उन्हें अमर बनाया उस विधा की मात्र एक किताब उनके नाम पर दर्ज़ है, जबकि उपन्यास और कविता संग्रह एकाधिक। इस छोटे से असली बेस्ट
सेलर एलबम की शानदार भूमिका कमलेश्वर ने लिखी थी, जिसके आख़िर में उन्होंने दुष्यंत का एक ऐसा शेर उद्धृत किया था जिसे पढ़कर किताब बेशक़ीमती लगने लगी--

हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए

जिस ग़ज़ल से यह शेर उठाया गया है वह एक चर्चित और प्यारी ग़ज़ल है--

ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए
पर पाँव किसी तरह से राहों पे तो आए

हाथों में अंगारों को लिए सोच रहा था
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए

जैसे किसी बच्चे को खिलौने न मिले हों
फिरता हूँ कई यादों को सीने से लगाए

चट्टानों से पाँवों को बचा कर नहीं चलते
सहमे हुए पाँवों से लिपट जाते हैं साए

यों पहले भी अपना—सा यहाँ कुछ तो नहीं था
अब और नज़ारे हमें लगते हैं पराए

उनके असंख्य मुरीदों को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि ग़ज़ल के शास्त्रीय उस्ताद उनकी ग़ज़लों में अहर और बहर की कमियाँ बताते हैं। उनकी लोकप्रियता और रचनाओं की गुणवत्ता इन तमाम दुनियावी चीजों से बहोत बहोत ऊपर की चीज बन चुकी है।

दुष्यंत एक अच्छे कवि भी थे और उनके कई कविता संग्रह राजकमल और वाणी से प्रकाशित हैं। चलते चलते उनकी एक छोटी सी कविता से इस तब्सरे को विराम देता हूँ। जय हिन्द !!

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।

चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।

हँसें
मुस्कुराएँ
गाएँ।

हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलाएँ।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

दुष्यंत कुमार

© गंगा शरण सिंह

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