कितने शहरों में कितनी बार
इन्सान जीवन पर्यंत मोह के किसी न किसी धागे में बँधा रहता है। कहीं सम्बन्धों के बंधन तो कहीं शहरों के!
मुम्बई में रहते हुए सपनों का शहर इलाहाबाद (माफ़ करें-- प्रयागराज) प्रायः यादों में आवाजाही करता रहता है और अब....जब यह शरीर इसी नगरी में उपस्थित है तो मुम्बई का नोस्टाल्जिया अवचेतन पर हावी है। वैसे भी जो शहर हमारी कर्मभूमि बन जाय उससे देर सबेर मोहब्बत हो ही जाती है और शहर भी मुम्बई जैसा हो तो क्या कहने! प्राकृतिक और मनुष्य निर्मित आपदाओं के समय वहाँ के रहवासियों का अप्रत्याशित पारस्परिक सहयोग और जान पर खेलकर दूसरों की मदद करने का जज़्बा इतनी बार प्रत्यक्ष अनुभव किया है कि अब आश्चर्य नहीं बल्कि गर्व होता है।
इस शहर के चरित्र का एक और पहलू है नए उभरते लोगों को पर्याप्त प्रोत्साहन और समर्थन देने वाला। बरसों पहले 1989 में जब सचिन तेंदुलकर का नाम पहली बार सुर्खियों में आया था उसी समय उनसे जुड़ा एक किस्सा भी बार बार पढ़ने में आता था कि दिलीप वेंगसरकर इस उभरते सितारे की बैटिंग देखने के लिए किस तरह कपिलदेव को बांद्रा के एक क्लब तक ले गए थे। प्रवीण आमरे ने युवा सचिन को एडिडास का पहला जूता गिफ़्ट किया था।
यह पहली और आख़िरी घटना नहीं थी। आने वाले समय में जाने कितने क्रिकेटरों के उदय के समय इस तरह की प्रेरक घटनाओं का ज़िक़्र पढ़ता रहा।
मुम्बई की साहित्यिक बिरादरी भी इन गुणों से सम्पन्न और समृद्ध है। कुछेक विद्वानों और आत्ममुग्ध लोगों को छोड़कर अधिकांशतः उदारमना और नई पीढ़ी को प्रोत्साहित करने वाले मिले। किताबें पढ़ने की प्रवृत्ति तो बचपन से ही रही किन्तु लिखने की तरफ़ कभी ध्यान ही नहीं गया। मुम्बई के मित्रों ने ही पहली बार जोर देकर इस बात के लिए तैयार किया था कि पढ़ी गयी किताब पर छोटी सी ही सही, किन्तु एक टिप्पड़ी ज़रूर लिखूँ ताकि उस किताब के बारे में कुछ अन्य पाठक भी जान सकें। चूँकि यह बात किताबों की बेहतरी से जुड़ी थी अतः थोड़ी सी कशमकश के बाद मैंने इसे एक चुनौती मानकर स्वीकार कर लिया। हालाँकि मेरे साथ लेखन नैसर्गिक रूप से नहीं जुड़ा है अतः आज भी काफी मशक़्क़त के बाद ही कुछ लिखना सम्भव हो पाता है।
एक पाठक के रूप में पूरे देश की साहित्यिक बिरादरी से अनेकानेक रचनाकारों, मित्रों का प्रोत्साहन, आशीष और समर्थन मिला। साथ ही मुम्बई की उस यशस्वी पीढ़ी का भी अशेष स्नेह और आशीर्वाद मिला जिन्हें पढ़ते और सराहते हुए जाने कितनी पीढ़ियाँ बड़ी हुईं। इन रचनाकारों से प्रेरित होकर जाने कितने लोग गम्भीर लेखन की ओर प्रवृत्त हुए।
पिछले दिनों सूर्यबाला जी ने अपने जन्मदिन पर मुझ जैसे एक सामान्य पाठक की मंच से चर्चा करते हुए अपने हाथों सम्मानित किया। मैं ये नहीं मान पाता कि मैं इसे डिज़र्व करता था या मैंने कोई बड़ा उल्लेखनीय कार्य किया था। यह विशुद्ध रूप से एक बड़े रचनाकार के उदार और स्नेहमयी व्यक्तित्व का एक आश्वस्तिकारक पक्ष था।
चंद रोज बाद एक और सुखद घटना से रूबरू होने का अवसर मिला। 4 नवम्बर की सुबह साढ़े छह बजे पहला सन्देश बधाई के साथ प्राप्त हुआ कि नवभारत टाइम्स के रविवारीय संस्करण में दो छोटी समीक्षाएँ प्रकाशित हुई हैं। दस बजे के बाद थोड़े थोड़े अन्तराल पर उन तमाम लोगों के फ़ोन और सन्देश आते रहे जिनकी आवाज़ सुनना ही दिन सार्थक बना जाता है। इन फ़ोन कॉल्स और सन्देशों ने इस छोटी सी घटना को मेरे लिए बहुत बड़ा बना दिया।
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