रविवार, 11 नवंबर 2018

अनुभव

आग लगने पर पानी डालना चाहिए, घी या मिट्टी का तेल नहीं।

यह किसी किताब का अंश नहीं है बल्कि एक बुजुर्ग महिला सहयात्री ने से हुए वार्तालाप के दौरान प्रसंगवश निकला वाक्य है। उत्तर भारत की यह विशेषता है कि चलते फिरते जान पहचान हो जाती है और बहुत थोड़े समय में इतनी बातें हो जाती हैं कि कुछ न कुछ सीखने और समझने का अवसर हाथ लग ही जाता है। 
खिड़की के पास बैठीं इन सौम्य महिला से मैंने यूँ ही पूछा था कि कहाँ तक जाएँगी और उन्होंने बताया कि घर से तीस चालीस किलोमीटर की दूरी पर कहीं नजदीकी संबन्धी हैं और वहीं किसी मन्दिर में यज्ञ भी हो रहा है। बहुओं ने जिद करके भेजा कि "आप हमारे चक्कर में कभी निकल नहीं पातीं। इसी बहाने सबसे मिल लेंगी और यज्ञ में भी शामिल हो सकेंगी।"
फिर खुद ही बताने लगीं कि हम युवावस्था में बहुत कुछ चाहकर भी नहीं कर पाते कि जब बच्चे बड़े हो जायेंगे और थोड़ा अवकाश मिलेगा तब कर लेंगे जबकि वास्तविकता ये है कि पूरी ज़िन्दगी ज़िम्मेदारियों से छुट्टी नहीं मिलती। इससे पहले कि मैं जिज्ञासावश कुछ कहता उन्होंने स्वयं बताया कि " दोनों बहुएँ बहुत अच्छी और प्यारी हैं। दिन में जब ये लोग काम पर गए होते हैं, मैं घर की देखभाल करती हूँ और शाम को उनके लौटने के बाद क्या मजाल है कि एक गिलास पानी भी मुझे खुद से लेना पड़े। दोनों हमेशा मेरी चिन्ता करती हैं जबकि मैं उन्हें समझाती हूँ कि मैं भी ईश्वर से यही प्रार्थना करती हूँ कि जब तक जियूँ अपने हाथों पैरों के दम पर। कभी ऐसा वक़्त न आये कि तुम लोग घर से बाहर रहो और मेरे बारे में चिन्ता करते हुए तुम्हारा ध्यान मेरे ऊपर लगा रहे।"

फिर अचानक उन्होंने ये भी बताया कि "सदा से छोटा परिवार रहा। पति के एक छोटे भाई हैं जो चालीस सालों से साथ ही रहे। बच्चों ने भी कभी अपना पराया नहीं समझा। किन्तु पति की मृत्यु होते ही उनकी नज़र बदल गयी। उन्होंने बहुत सारे कमरों में ताले लगा दिए और घर का पेपर छुपाकर रख लिया जो आज तक नहीं मिला।
अपनी इकलौती बहू से भी उनका।व्यवहार ठीक नहीं। हालाँकि बातचीत करने के मौके नहीं देते वे लोग किन्तु जब भी ऊपर नीचे आते जाते मिलती है तो इतना ज़रूर कहती है कि मैं भी तो आपकी ही बहू हूँ। दो तीन दिन पहले मायके जाते समय मिलने का अवसर नहीं बना तो दूर से पाँव छूने का संकेत किया उसने।"

उनकी यह छोटी सी कहानी सुनकर मन को अजीब सी शान्ति मिली। जिस घर में एक दूसरे की चिन्ता करने वाले इस तरह के सदस्य हों उनका जीवन कितना सुगम और सरल बन जाता है। पिछली पीढ़ी भले ग़लत रास्ते पर चली गयी हो किन्तु नई बहू की रिश्तों के प्रति समझ और संवेदना भविष्य की बेहतरी की तरफ़ संकेत करती है।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

रतिनाथ का पलंग: सुभाष पंत

◆रतिनाथ का पलंग ◆सुभाष पंत बावन साल की उमर में रतिनाथ की जिन्दगी में एक ऐसा दिन आया जब वह बेहद खुश था और अपने को दुनिया का सबसे सुखी प्राणी ...