#किताबें_2020
#लॉकडाउन_डायरी
जाने कितने दिनों के बाद...
पूरी हुई तीसरी किताब!
इस लम्बे लॉकडाउन में हालात कुछ ऐसे रहे कि एक के बाद एक तमाम किताबें सिरहाने जुटती चली गईं। मंगला से शयन तक, बेगम समरू का सच, जनता स्टोर, दूसरी शुरुआत, जो घर फूँके आपना, बारिशगर, एक लड़की पानी पानी, लिट्टी चोखा, हाशिमपुरा 22 मई ( विभूतिनारायण रॉय ), दावानल (बालशौरि रेड्डी), विष्णुगुप्त चाणक्य ( वीरेंद्र कुमार गुप्त )... किसी की भूमिका पढ़ी गई, किसी के शुरुआती चार छह पन्ने तो किसी संग्रह की दो चार कहानियाँ...। कविता वर्मा के उपन्यास के बाद एक बैठक वाली किताब मिली नहीं। इधर टुकड़ों टुकड़ों में पढ़ने के कारण कोई किताब पूरी ही नहीं हो रही थी। इसी अराजक मनःस्थिति में एक दिन ध्यान आया कि राजनारायण बोहरे जी का उपन्यास 'मुख़बिर' भी अरसे से अधूरा पड़ा है।【 इसका आगाज़ नवम्बर के आख़िरी दिनों में इंदौर में हुआ था। निरन्तर यात्राओं के कारण यह पूरा नहीं हो सका था।】
और फिर... इसे भी ढूँढ़कर सिरहाने रख लिया।
हमारी पीढ़ी बचपन से ही डाकुओं के किस्से सुनते, पढ़ते और शोले जैसी फ़िल्मों में देखते हुए बड़ी हुई। साहित्य में इस पृष्ठभूमि पर संभवतः कम लिखा गया है। यदि लिखा भी गया होगा तो शायद उन किताबों तक पहुँचना सम्भव न हुआ हो। बोहरे साहब मूलतः चम्बल क्षेत्र से हैं और यकीनन उनके पास देखे, सुने गए अनुभवों और स्मृतियों की ऐसी पुख़्ता ज़मीन मौजूद थी जो इस उपन्यास के कथा-धरातल की रचना में स्वाभाविक रूप से मददग़ार सिद्ध हुई।
राजनारायण बोहरे जी का यह उपन्यास हैरतअंगेज़ घटनाओं और सूक्ष्म विवरणों के जरिए चम्बल घाटी के जनजीवन, मुख़बिरों, डाकुओं और पुलिस महकमे की कार्यशैली का यथार्थपरक चित्रण करता है।
'मुख़बिर' में कल्पना और सत्य का प्रतिशत क्या है, यह तो नहीं मालूम, किन्तु यह कहानी पाठकों को डिस्टर्ब ज़रूर करती है। परिवेश को यथार्थवादी और विश्वसनीय बनाने के लिए देशज बोली, कहावतों और स्थानीय गालियों का प्रयोग भी हुआ है।( हालाँकि गालियाँ सांकेतिक रूप से आधी अधूरी ही लिखी गई हैं। )
पुलिस और डाकुओं के बीच मुख़बिर उसी तरह पिसते हैं , जैसे गेहूँ के साथ घुन। उनके लिए इस विडम्बना में फँसना जितना आसान है , इससे बाहर निकल पाना उतना ही असंभव! यह उपन्यास उन जातिगत अत्याचारों और अमानवीयताओं पर भी रौशनी डालता है जिसके कारण दलित और शोषित वर्ग के पास चम्बल की घाटियों में कूद जाने के सिवा कोई और विकल्प शेष नहीं रहा था।
एक नई और लगभग उपेक्षित पृष्ठभूमि पर लिखे गए इस महत्वपूर्ण उपन्यास के लिए राज बोहरे भाई साहब को हार्दिक शुभकामनाएँ। उनकी किस्सागोई आश्वस्त करती है। वैसे भी महानगरों की राजनीति से दूर रह गए नगरों और कस्बों में किस्से कहानियों की परम्परा कहीं ज़्यादा बेहतर और जीवंत नज़र आती है।
● किताब : मुख़बिर
● लेखक : राजनारायण बोहरे
● प्रकाशक: प्रकाशन संस्थान, दिल्ली
● पृष्ठ: 183
● मूल्य : ₹ 250
#लॉकडाउन_डायरी
जाने कितने दिनों के बाद...
पूरी हुई तीसरी किताब!
इस लम्बे लॉकडाउन में हालात कुछ ऐसे रहे कि एक के बाद एक तमाम किताबें सिरहाने जुटती चली गईं। मंगला से शयन तक, बेगम समरू का सच, जनता स्टोर, दूसरी शुरुआत, जो घर फूँके आपना, बारिशगर, एक लड़की पानी पानी, लिट्टी चोखा, हाशिमपुरा 22 मई ( विभूतिनारायण रॉय ), दावानल (बालशौरि रेड्डी), विष्णुगुप्त चाणक्य ( वीरेंद्र कुमार गुप्त )... किसी की भूमिका पढ़ी गई, किसी के शुरुआती चार छह पन्ने तो किसी संग्रह की दो चार कहानियाँ...। कविता वर्मा के उपन्यास के बाद एक बैठक वाली किताब मिली नहीं। इधर टुकड़ों टुकड़ों में पढ़ने के कारण कोई किताब पूरी ही नहीं हो रही थी। इसी अराजक मनःस्थिति में एक दिन ध्यान आया कि राजनारायण बोहरे जी का उपन्यास 'मुख़बिर' भी अरसे से अधूरा पड़ा है।【 इसका आगाज़ नवम्बर के आख़िरी दिनों में इंदौर में हुआ था। निरन्तर यात्राओं के कारण यह पूरा नहीं हो सका था।】
और फिर... इसे भी ढूँढ़कर सिरहाने रख लिया।
हमारी पीढ़ी बचपन से ही डाकुओं के किस्से सुनते, पढ़ते और शोले जैसी फ़िल्मों में देखते हुए बड़ी हुई। साहित्य में इस पृष्ठभूमि पर संभवतः कम लिखा गया है। यदि लिखा भी गया होगा तो शायद उन किताबों तक पहुँचना सम्भव न हुआ हो। बोहरे साहब मूलतः चम्बल क्षेत्र से हैं और यकीनन उनके पास देखे, सुने गए अनुभवों और स्मृतियों की ऐसी पुख़्ता ज़मीन मौजूद थी जो इस उपन्यास के कथा-धरातल की रचना में स्वाभाविक रूप से मददग़ार सिद्ध हुई।
राजनारायण बोहरे जी का यह उपन्यास हैरतअंगेज़ घटनाओं और सूक्ष्म विवरणों के जरिए चम्बल घाटी के जनजीवन, मुख़बिरों, डाकुओं और पुलिस महकमे की कार्यशैली का यथार्थपरक चित्रण करता है।
'मुख़बिर' में कल्पना और सत्य का प्रतिशत क्या है, यह तो नहीं मालूम, किन्तु यह कहानी पाठकों को डिस्टर्ब ज़रूर करती है। परिवेश को यथार्थवादी और विश्वसनीय बनाने के लिए देशज बोली, कहावतों और स्थानीय गालियों का प्रयोग भी हुआ है।( हालाँकि गालियाँ सांकेतिक रूप से आधी अधूरी ही लिखी गई हैं। )
पुलिस और डाकुओं के बीच मुख़बिर उसी तरह पिसते हैं , जैसे गेहूँ के साथ घुन। उनके लिए इस विडम्बना में फँसना जितना आसान है , इससे बाहर निकल पाना उतना ही असंभव! यह उपन्यास उन जातिगत अत्याचारों और अमानवीयताओं पर भी रौशनी डालता है जिसके कारण दलित और शोषित वर्ग के पास चम्बल की घाटियों में कूद जाने के सिवा कोई और विकल्प शेष नहीं रहा था।
एक नई और लगभग उपेक्षित पृष्ठभूमि पर लिखे गए इस महत्वपूर्ण उपन्यास के लिए राज बोहरे भाई साहब को हार्दिक शुभकामनाएँ। उनकी किस्सागोई आश्वस्त करती है। वैसे भी महानगरों की राजनीति से दूर रह गए नगरों और कस्बों में किस्से कहानियों की परम्परा कहीं ज़्यादा बेहतर और जीवंत नज़र आती है।
● किताब : मुख़बिर
● लेखक : राजनारायण बोहरे
● प्रकाशक: प्रकाशन संस्थान, दिल्ली
● पृष्ठ: 183
● मूल्य : ₹ 250
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