कहानी
शीर्षक : फिर वापसी...
रचनाकार : राजेन्द्र श्रीवास्तव
फिर वापसी...
दफ्तर का आखिरी दिन है। रिटायर हो रहा हूं। सोचकर बड़ा अजीब लगता है कि कल से इन कार्यों और जिम्मेदारियों से कुछ लेना-देना नहीं। जबकि कल तक तो लगता था कि जरा सा ध्यान नहीं दिया अगर मैंने, तो पता नहीं क्या हो जाए। कहीं कंपनी बंद ही न हो जाए। जैसे मैं ही चला रहा हूं पूरी कंपनी! काम को लेकर हर समय भाग-दौड़। काम में परफेक्शनिस्ट भी माना जाता रहा हूं। अपने मातहतों से भी मेरी अपेक्षाएं बहुत अधिक रही हैं। खुद देर रात तक रुककर और छुट्टियों के दिन भी दफ्तर आकर काम में जुटा रहता हूं। आप समझ सकते हैं कि छुट्टी के दिन मैं अगर दफ्तर में मौजूद रहा, तो विभाग के कर्मचारियों को भी मजबूरी में आना ही पड़ेगा। वह भी बिना किसी ऑफिस ऑर्डर के।
बड़ा खराब उदाहरण है, मगर बता देता हूं। कुछ सहकर्मी मित्र सीधे मुंह पर मेरे कहते हैं कि चलती बैलगाड़ी के नीचे जो कुत्ता चलता रहता है, उसे यही लगता है कि बैलगाड़ी उसके कारण ही चल रही है। वो रुक गया, तो सब कुछ रुक जाएगा।
मेरे अधीन कार्यरत कर्मचारियों की यह भावना है कि ये तो छड़ा आदमी है। पत्नी इसकी मर चुकी है। बेटा घर बसा के दिल्ली में रहता है। तो समय बिताना ही इसकी समस्या है, देर रात तक दफ्तर में न बैठे और छुट्टी के दिन भी ऑफिस न आए... तो टाइम कैसे पास हो इसका।
मेरे समीकरण अलग थे। काम को केवल निपटाने की बजाए बेहतर तरीके से करना तो खैर आदत की बात थी,लेकिन उच्चाधिकारियों को प्रसन्न रखना, काम को लेकर अनावश्यक अपमान या डांट से बचना, असुविधाजनक केन्द्रों पर स्थानांतरण को टालना, अपने हिस्से का प्रमोशन समय पर पाना और सबकी नज़रों में जिम्मेदार अधिकारी के रूप में छवि बनाए रखना आदि कारण मुख्य थे।
बावजूद इन सब बातों के सहकर्मियों का बड़ा सम्मान मिला मुझे। दरअसल किसी को कभी परेशान करने की भावना से कोई काम नहीं किया मैंने। प्रशासनिक निर्णयों को छोड़ दें, तो किसी का बुरा नहीं किया। इससे भी बढ़कर यह कि किसी का बुरा नहीं चाहा मैंने। अधिकतम सुविधाएं प्रदान करने और अपने मातहतों की हर मुश्किल में उनके साथ डटकर खड़े होने के मेरे व्यवहार के कारण आज मेरी विदाई के दिन सभी ग़मगीन हैं।
कैम्पस सिलेक्शन द्वारा मार्केटिंग डिपार्टमेन्ट में लगभग 30 लोगों की युवा टीम का चयन मैंने किया था। वे हाथ जोड़ रहे हैं। एक-दो लड़कियां अपने आंसू पोंछ रही हैं। यकीन मानिए, कुछ मेरे पैर भी छू रहे हैं। एक ब्लेजर मुझे अपने विभाग की तरफ से दिया है उन्होंने।
मैं बहुत भावुक किस्म का व्यक्ति हूं, किंतु हमेशा ऊपर से सामान्य दिखने की कोशिश करता हूं। पर हकीकत यही है कि आज खुद को नियंत्रित करना मुश्किल हो रहा है। पत्नी की याद बहुत आ रही है। वैजयंती जीवित होती तो आज के दिन की बात ही कुछ और होती। कई बार हम रिटायरमेन्ट के बाद की सुखद योजनाओं पर चर्चा करते थे। इसमें मेरा देर तक सोना, मन भर कर किताबें पढ़ना,फिल्में देखना और यात्राएं आदि आदि बहुत कुछ शामिल था।
पत्नी को भी मेरे देर तक काम से शिकायत थी। कभी-कभी छोटे बच्चे की तरह मुंह भी फुलाती थी, लेकिन समर्थन पूरा था। कहने में संकोच नहीं कि मेरा बड़ा ध्यान रखती थी। ‘केयरिंग’ शब्द ही सटीक होगा। कंपनी की अपनी कैन्टीन है। एग्जिक्यूटिव्स के लिए भोजन की व्यवस्था है, लेकिन सुबह नौ बजे हर दिन मेरा डब्बा तैयार रहता था। मजे की बात देखिए... शाम का नाश्ता भी होता डब्बे में। कभी सूजी का हलवा, कभी फलों की चाट, बेसन का चिल्ला, कभी निमकी, ठेकुआ या कभी पिट्ठा । ‘सो क्यों भई?’ ‘नहीं, आपको घर आने में देर होती है, तो शाम को कुछ खा लिया कीजिए।’ बीमार हो या कोई और मजबूरी... मुझे याद नहीं कि पत्नी के रहते मैंने कैन्टीन का खाना कभी खाया हो। देहांत के एक दिन पहले तक उसने खाने का डब्बा दिया था।
वैजयंती कई बार कहती, “इतने मन से इतना बड़ा मकान बनवाया हमने, पर इसमें रह भी नहीं सकेंगे…।” घर बड़ा था। सामने की तरफ छोटा सा बगीचा था, जिसमें फूलों की कुछ किस्मों के साथ-साथ पत्नी ने तुरई, धनिया, पालक, टमाटर आदि सब्जियां बो दी थीं। बाईं ओर लगकर आउटहाउस था, जिसमें बाबूजी के समय से गांव से आकर बड़ा हुआ नौकर और उसकी घरवाली रहते थे।
“इस घर में थोड़े ही रहना है, हमें तो बच्चों के साथ ही रहना है। जहां अपना अमोल, वहीं हम... ” उसके स्वर में एक काश-भाव होता और बेटे के साथ रहने के सुख की अव्यक्त खुशी भी।
मैं हंसता – “जानती हो, क्या चल रहा है दुनिया में? आज के बच्चे मां-बाप का झंझट पालना ही नहीं चाहते। उनकी अपनी दुनिया है और इसमें किसी का हस्तक्षेप उन्हें पसंद नहीं। इतने वृद्धाश्रम खुल रहे हैं। वो तो गनीमत है कि लोन लेकर ये मकान बनवा लिया है।”
“चुप रहिए,” पत्नी तुनक जाती – “अपना अमोल रह ही नहीं सकता हमारे बिना। हीरा है अपना बेटा तो...”
“वो ‘वापसी’ कहानी सुनाई थी ना तुम्हें। गजाधर बाबू वाली। कैसे थोड़े दिन में ही परिवार से अलग होकर अकेले रहने को मजबूर हो जाते हैं? ”
“आपकी किताबों में सब बुरा ही बुरा क्यों रहता है जी, ”वैजयंती अब सचमुच नाराज होती - “कोई अच्छी बात इन लेखकों को दिखाई नहीं देती?”
“लेखक तो वही लिखता है, जो दुनिया में देखता है। रिश्तों की ऊष्मा में कमी और संवेदनशून्य होता मनुष्य। यही आज के समय की सबसे बड़ी सच्चाई है। अब तुम सच से ही परहेज करने लगो, तो बड़ी मुश्किल है। सच होता ही है कड़वा... ”
“रहने दीजिए आपका किताबी सच... और आज के समय को क्यों दोष दें भला? अच्छे-बुरे दोनों तरह के लोग हर दौर में होते हैं...” पत्नी पटाक्षेप के भाव में कहती।
“अब अमोल की बीबी वैसे तो कितनी भली है...पर साथ-साथ रहने पर ही सब पता चलता है...”
और कैसे रहा जाता है साथ? कितनी बार तो हम गए हैं दिल्ली... कितनी बार तो वो लोग आकर रहे हैं यहां। हर दूसरे-तीसरे दिन खुद फोन करती है प्रियंका। कोई तीज-त्यौहार नहीं छूटता...किस्मत वालों को ही ऐसी लड़की मिलती है...” पत्नी के स्वर में प्रार्थना का-सा भाव है कि जो वह कह रही है सच ही निकले।
मैं उसे तंग करता – “तुम्हें किस बात की चिन्ता है। रघु काका और सुलक्षणा तो हैं ही हमारे केयर के लिए यहां...”
“आप भी ना... मुझे तो अगर वो मालविका मिल जाए, ‘वापसी’ कहानी की राइटर, तो मैं कहूं कि भई हमारे अमोल पर भी एक कहानी लिखिए, श्रवणकुमार को ध्यान में रखकर…”
“मालविका नहीं प्रियंवदा...”
“हां, वही। प्रियंवदा...”
“उषा प्रियंवदा... नाम तक तो याद नहीं तुम्हें कहानीकार का ठीक से, कहानी के भाव क्या समझ में आएंगे तुम्हें...?”
“खूब याद है कहानी, पर अपना अमोल तो लाखों में एक है और प्रियंका भी वैसी ही है... लाssखों में एक !”वैजयंती शब्द को खींचकर पूरे विश्वास से कहती।
पत्नी को मैं चिढ़ाने भर के लिए यह सब कह रहा था। मुझे खुद इतमीनान था। बेटा घर से जुड़ा था और पिछले दस सालों में बहू भी परिवार में घुल मिल गई थी। परिवार से उनका लगाव हम महसूस कर सकते थे। प्रियंका ने एमबीए किया था। दिल्ली में ही एक फर्म में काम करती थी। उनके दोनों बच्चे, जुड़वां, ईशा और आदी, स्कूल जाने लगे थे।
मुझे दो साल पहले की दुर्घटना भी याद आ गई। दुर्घटना के बाद वैजयंती की मौत से कुछ घंटे पहले, पहली फ्लाइट लेकर भागते-दौड़ते दोनों बच्चे अस्पताल पहुंचे थे। प्रियंका ने अपनी सास का हाथ पकड़ा तो मुझे लगता है कि उसकी मौत के बाद ही छोड़ा। अमोल तो सकते में था। वैजयंती ने मुझसे अपने कंगन मंगवाए थे। जड़ाऊ कंगन थे। कुंदन पर नफासत से मीनाकारी की गई थी। बड़ी वाली अलमारी में एकदम सहेजकर रखे हुए। त्यौहार या विशेष मौकों पर वैजयंती ये कंगन पूजा में रखती थी। मैं रक्तविहीन चेहरे के साथ उसका हर कहा पूरा कर रहा था।
अपने असह्य दर्द को दबाकर हंसी थी वैजयंती। एक चमक उभरी थी उसकी आंखों में।
“ये कंगन पहन ले बेटा, मेरे बाद ये अब तेरे पास रहने चाहिए... संभाल कर रखना हमेशा इन्हें... ” प्रियंका को पहनाने लगी थी कंगन। बड़ा अजीब लग रहा था। अस्पताल में यह सब।
“पागल हो गई हो क्या...” मैंने नाराजगी दिखाने की असफल कोशिश की, “हुआ ही क्या है तुम्हें?”
“आप नहीं समझेंगे,” वैजयंती की हंसी में पीड़ा छुपी हुई थी, लेकिन आंखों की चमक बरकरार थी - “ये कंगन अम्मा जी ने मुझे दिए थे... वैसे रुपयों में लगाई जा सकती है इनकी कीमत। पर हैं ये अनमोल। कितनी बार जरूरत पड़ी पैसों की...पर मैंने बेचा नहीं कभी। जी कड़ा करके जतन से संभाल कर इन्हें रखा है। अब प्रियंका को सौंपती हूं ये विरासत...”
मैंने मुंह चढ़ा लिया – “ज्यादा फिल्मी स्टाइल मत दिखाओ। अब दो दिन में ठीक हो जाओगी... बकवास क्या कर रही हो तुम... फिर वापस मांगेगी न बेटा, तो करना मत वापस ये कंगन... ”
वैजयंती अब खुल कर हंसी थी। जोर से। उसकी हंसी में यह भी था कि बहलाओ मत मुझे।
इस घर को छोड़ते हुए उसकी हंसी अब भी मेरे कानों में गूंज रही है। रघु काका और उसकी घरवाली सुलक्षणा दोनों रो रहे थे –
“ऑफिस छूटा तो आप हम लोगों को भी छोड़ दे रहे हैं मालिक...”
“नहीं, नहीं, रघु काका...दिल्ली में बच्चे हैं... ईशा और आदी हैं...फिर मैं तो आता-जाता रहूंगा। घर है इतना बड़ा। किताबें हैं मेरी इतनी। कहां जाऊंगा ये सब छोड़कर।”
दोनों हाथ जोड़े खड़े थे।
आंखें मेरी भर आई थीं। दोनों ने इतने बरसों से हमारी निःस्वार्थ सेवा की थी। घर के सदस्य जैसे ही थे दोनों। मैंने बात बदलकर कहा – “इस बार तुरई खूब अच्छी हुई है, लताएं छत पर चढ़ गई हैं... बगीचे में पानी रोज देना रघु काका। इतवार वाले दिन घर खोलकर भीतर से साफ करना...अपना खयाल रखना...”
दिल्ली में बच्चों ने मुझे घेर ही लिया। अमोल बड़ा नाराज हुआ। बस से आने की क्या जरूरत थी? इतनी गर्मी है। बारह घंटे का रास्ता। फ्लाइट है जबकि। आदि आदि।
फ्लैट खूब बड़ा था। तमाम आधुनिक सुख-सुविधाओं से संपन्न। पिछले साल ही यह फ्लैट खरीदा है अमोल ने। अमोल और प्रियंका दोनों काम पर निकल जाते हैं और देर रात लौटते हैं। ईशा और आदी स्कूल के बाद शाम को घर आ जाते थे। तब थोड़ा समय उनके साथ बिता लेता था।
कई बार ‘वापसी’ के गजाधर बाबू विचारों के प्रदेश में एक कोना हथिया लेते। मुझे बड़ी हंसी आती। आखिर क्या हो गया है सोच को। भला यह भी कोई बात हुई। लेकिन हकीकत यही थी कि यहां रहते हुए मैंने कई बार गजाधर बाबू की छोटी-छोटी बातों से तुलना की।
मुझे बड़ा सा कमरा दिया गया था। डेढ़ टन का ए.सी. लगा था कमरे में। लकड़ी का कस्टमाइज्ड पलंग काफी बड़ा था। स्याह-मरून रंग। यह पेन्ट नहीं था, लकड़ी का स्वाभाविक रंग था। एक मेज-कुर्सी भी थी कमरे में, जिस पर सुंदर सा टेबिल-लैम्प भी था। मेरी देर रात तक लिखने-पढ़ने की आदत बेटा खूब जानता है। कर्ल-ऑन के आरामदेह गद्दे पर लेटते समय मुझे गजाधर बाबू की पतली-सी चारपाई का ध्यान आ जाता। बैठक में चारपाई डालकर किसी मेहमान की तरह उनके रहने का अस्थायी प्रबंध किया गया था।
गजाधर बाबू को गाढ़ी मलाईदार और खूब मीठी चाय पसंद थी। अपने परिवार के साथ रहते हुए गरम पूरियों और जलेबी की भी याद गजाधर बाबू को आई थी। अब गजाधर बाबू की फीकी चाय से मैं तुलना इसलिए नहीं करता था, क्योंकि एक तो मुझे डॉक्टर ने वैसे ही कम दूध और कम चीनी की हिदायत दे रखी है। दूसरे पूरी तो मैं खा ही नहीं सकता। बिना तेल-घी की सादी रोटी। मैं अब जाकर कहानी के इस मर्म को समझ पाया कि उनके विस्थापन में परिवार की आर्थिक स्थिति की बड़ी भूमिका थी। यानी कि लंबी दाढ़ीवाला महान विचारक इस कहानी में भी घुस गया था। संतोष हुआ कि बेटा-बहू दोनों आर्थिक दृष्टि से संपन्न हैं और मेरी भी अपनी जमा-पूंजी है। किसी पर वैसे निर्भर नहीं मैं!
वापस ‘वापसी’ पर आता हूं। गजाधर बाबू परिवार का हिस्सा ही नहीं बन पाए और उनकी राय को महत्व भी नहीं दिया जाता था। ग़नीमत है कि यहां प्रियंका और अमोल अपने दफ्तर के कार्यों में भी मुझसे सलाह-मशविरा करते थे। रही बात अपने ही घर में अजनबी और अस्तित्वहीन हो जाने के बोध की, तो भई मेरे मामले में यह विकल्प ही नहीं था। कुछ कम-ज्यादा हो मेरे साथ, तो मैं खुद भी एडजस्ट कर लेता हूं और मेरी किताबें तो रहती ही हैं मेरे साथ।
वैजयंती के कहे पर तो मुझे पहले ही यकीन था। अब पुख्ता हो गया। वैजयंती कहती थी कि हम तो अपने बनवाए घर में रह ही नहीं पाएंगे। जहां हमारे बच्चे वहीं हम। लेकिन अब उसे कैसे बताऊं कि चैन से बच्चों के साथ रहते हुए भी उषा प्रियंवदा की कहानी से पीछा ही नहीं छूट रहा।
सोमवार को मैं सुबह जल्दी उठ गया था। नहा-धोकर ड्राइंग रुम में आ गया। बच्चे अभी स्कूल के लिए निकले नहीं थे। कामवाली ने नाश्ते के लिए दो बार पूछा था। चाय के लिए भी। मैंने मना कर दिया था। प्रियंका और अमोल साथ ही अपने कमरे से निकले। कुछ हड़बड़ी में। दोनों रोज साथ ही जाते थे। प्रियंका के फर्म पर उसे ड्रॉप कर अमोल अपने ऑफिस चला जाता था।
“नाश्ता कर लिया पापा आपने...” प्रियंका ने सहज भाव से पूछा और उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना दोनों बाहर निकलने लगे। प्रियंका के स्वर में प्रश्न जैसा कुछ नहीं था।
“बेटा मैं...” मैंने कुछ कहना चाहा। पता नहीं अनुरोध अथवा याचना।
“पापा... कुछ दोस्त भी आ रहे हैं, आपके साथ नाश्ता नहीं कर सकते...” अमोल बोला - “हमें आज नरूला में नाश्ता करना है... मेड ने बताया नहीं आपको? ”
मेरे कलेजे में हूक-सी उठी। कुछ हिचक कर, मानो अपराध कर रहा हूं, मैंने कहा – “आज तेरी मां की बरसी है बेटा, तो पूजा नहीं करेगा...
अमोल सिटपिटा गया – “ध्यान है पापा मुझे ! रात में भी हमने इस पर बात की थी। है ना प्रियंका?”
प्रियंका ने जोर से सिर हिलाया।
“पूजा क्या करनी है पापा…!” अमोल ने बात आगे खींची – “और आप कब से पूजा-पाठ में विश्वास करने लगे पापा। आप तो मां पर भी नाराज होते थे व्रत वगैरह रखने पर... ”
“पूजा...मतलब, पूजा की क्या बात? हां, मां की फोटो पर हार चढ़ा लेते। समझ रहे हो ना? अगरबत्ती दिखा देते... और क्या? ”
“अब पापा! ये तो दिल्ली है। और वो भी इतनी पॉश कॉलोनी। यहां कहां सुबह-सुबह फूल-हार मिलेगा? मैं शाम को लेता आऊंगा। अभी देर हो रही है हम दोनों को।” अमोल ने जल्दबाजी में कहा।
बाहर जाते हुए प्रियंका ने कहा – “आप ध्यान रखिए अपना... और नाश्ता कर लीजिएगा पापा... टेबल पर ढंककर रख दिया है।”
मैंने नि:श्वास छोड़ी। ये बच्चे भावनाओं को समझना ही नहीं चाहते। और हर समय जल्दी। पर बेचारे क्या करें। महानगर की भागदौड़ और आपाधापी।
खैर! मैंने बालकनी का दरवाजा बंद किया। फ्लैट से बाहर निकलकर ताला लगाया फ्लैट को। ग्राउंड फ्लोर पर आने के बाद काफी देर पता नहीं क्या सोचता रहा। फिर सोसायटी के वाचमैन से पूछ कर एक आटो-रिक्शा पकड़कर मैं बसंत-कुंज पहुंच गया। हार-फूल और अगरबत्ती का पैकेट लेकर लौटा तो ग्यारह बज चुके थे।
वैजयंती फोटो में मुस्करा रही थी। उसकी आंखों में चमकीलापन था। मुझे लगा कि वह पूछ रही है कि नाश्ता क्यों नहीं किया अब तक। पूछ सकती तो ज़रूर पूछती। उसे पता जो था कि मैं नौ बजे तक तो छटपटा जाता हूं भूख से।
बड़े जतन से मैंने फोटो को साफ कपड़े से पोछा। हार चढ़ाया। फूल रखे सामने। अगरबत्ती जलाकर बैठा रहा वैजयंती के सामने। लगा कि वो भी मेरे साथ बैठी हुई है।
दोपहर चढ़ रही थी। खाने की इच्छा न होने पर भी मैंने मुंह जुठाया।
रात को अमोल और प्रियंका देर से लौटे। डिनर पार्सल करा लाए थे। मैंने कहा कि मैंने फोटो पर हार चढ़ा दिया है। तुम लोग मां को प्रणाम कर लेना।
ईशा और आदी ने पार्सल खोलकर चिकन टिक्का निकाल लिया था और चाव से खा रहे थे।
मैं निष्प्रभ रहा - “बेटा आज नॉनवेज क्यों खा रहे हो, मां की बरसी है आज तो!”
प्रियंका ने कहा – “पापा हम नहीं खा रहे, ये तो बच्चों के लिए लाए हैं। कल दोनों को बाहर नहीं ले जा सके थे। संडे था कल फिर भी...”
मैं चुप रहा।
अमोल ने कहा – “पापा, आप तो कहते थे कि मनुष्य का प्रारंभिक भोजन तो मांस ही था। खेती तो बहुत बाद में सीखा मनुष्य ने। फिर आज नहीं खा सकते हैं, कल खा सकते हैं, इन बातों का क्या मतलब...अपने सारे सिद्धांत क्यों बदल रहे हैं आप...?”
“सिद्धांत!” मैं शांत भाव से हंसा - “तुम खा लो बेटा, मैं तो यूं ही कह रहा था।” मुझे भी लगा कि किन निरर्थक बातों पर मेरा ध्यान जा रहा है। ऊलजलूल बातों में उलझ रहा है मन। प्रियंका से कहा मैंने - “बेटा मां को प्रणाम कर लो और अपने कंगन ले आओ। मां के सामने रख दो कुछ देर।”
प्रियंका कंगन का जोड़ा लेकर आई भीतर से।
“नहीं, ये कंगन नहीं बेटा, वो जो मां ने तुम्हें दिए थे। मां पूजा में वही कंगन रखती थी...” कुछ बेचैन होकर मैंने कहा।
“पापा वो कंगन सोने के थे, लेकिन आउटडेटेड थे। बिलकुल ऑर्डिनरी... और कीमत भी कुछ खास नहीं थी। मैंने कुछ पैसे मिलाकर उन्हें बदलकर पूरा सेट ले लिया। हमारे देश में तो पापा, जीवन भर किसी उपयोग में नहीं लाते लोग सोना चांदी। सिर्फ सेफ में भरकर रखते हैं।”
मैंने अमोल की ओर देखा। अमोल खीझ गया – “आप क्यों परेशान हो रहे हैं पापा? अभी आप मेरे लैपटॉप पर देख लीजिए। सब कुछ ऑनलाइन उपलब्ध है। एक से बढ़कर एक कंगन मिल जाएंगे। आप अपनी पसंद से ऑर्डर कर दीजिए। और पैसों की चिंता मत कीजिएगा। दो-चार लाख के गहने तो प्रियंका की ही हैसियत है खरीदने की।”
“पापा का मन आज ठीक नहीं है,” प्रियंका अमोल से बोली, “कल आप छुट्टी ले लीजिए ऑफिस से…और उन्हें घुमाने ले जाइए।”
अगले दिन सुबह मैं अपने कमरे से बाहर आया। मैंने अपना बैग रात को ही पैक कर लिया था। अमोल और प्रियंका चौंक गए। यह उनके लिए अप्रत्याशित था।
“बात क्या है पापा?” अमोल ने उद्विग्न स्वर में पूछा।
“कुछ नहीं बेटा! जाऊंगा। घर बड़े दिनों से छूटा हुआ है।”
“फिर क्या हुआ, रघु काका हैं ना वहां देखभाल के लिए...”
“जाना होगा बेटा” मैंने ठंडे स्वर में कहा।
“पापा को मां की याद आ रही है।” प्रियंका थूक गटककर बोली।
“मैं तो आता-जाता रहूंगा बेटा। दस-बारह घंटे का तो रास्ता है। और हवाई जहाज से तो घंटे भर में तुम्हारे पास!”
“सो तो ठीक है पापा... थोड़े दिन रुक जाते अभी…” बहुत मुश्किल से कह पाया अमोल।
“नहीं बेटा। अभी सुबह बस मिल जाएगी। रात तक मैं घर पहुंच जाऊंगा।” मैंने ईशा और आदी को प्यार किया।
अमोल मेरे आवाज की दृढ़ता को पहचानता है।
उसने बैग उठा लिया और निःशब्द मेरे साथ बाहर के दरवाजे की ओर बढ़ा।
XXX
राजेन्द्र श्रीवास्तव
सहायक महाप्रबंधक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र , प्रधान कार्यालय,
लोकमंगल, शिवाजीनगर, पुणे – 411005
फोन : मोबाइल - 09604641228
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