"ज़िन्दगी एक जैसी शक्ल में सबसे नहीं मिलती और वक़्त के गुजरने के साथ साथ उसके मायने भी बदलते रहते हैं। जिसे कभी एक छोटा सा हादसा समझकर बगल से निकल गए थे, आज बरसों बाद जब उसकी याद आती है तो मालूम पड़ता है कि उस छोटी सी बात के भीतर कितनी बड़ी कहानी छुपी हुई थी, जिसे तब देख ही नहीं पाया था।"
ऐसी ही छोटी छोटी घटनाओं के पार्श्व में छुपी हुई बड़ी कहानियों पर आधारित स्मृति आख्यानों के संग्रह "जीवनपुरहाट जंक्शन" के पहले अध्याय "इंटरव्यू" में ये स्वीकारोक्ति है अशोक भौमिक की! इसी अध्याय में आगे किसी जगह अपने बारे में बड़ी मासूमियत से वे कहते हैं----
"बीसवें दशक की दहलीज से निकल कर इक्कीसवीं के सफर पर निकले एक नौजवान को दुनियादारी के विश्वविद्यालय में दाखिला मिला था- 1974 में। सोचा था सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो दो चार साल में जीवन की सही समझ आ जायेगी मुझे। पर ज़िन्दगी इतने खूबसूरत रंगों को साथ लिए मुझसे मिलती रही कि उसे समझने का वक़्त ही नहीं मिला। दुनियादारी के सवालों ने परेशान करना चाहा, पर मुझे कहाँ वर्तमान में जीना था, जो मैं उन पर सोचता। मैंने सपने देखे , खूब सारे सपने! हमारी उम्र बढ़ती जाती है , साथ के साथी छूटते जाते हैं और वक़्त बालू की मानिन्द हाथ की मुट्ठियों से सरकता जाता है पर सपने साथ नहीं छोड़ते। जुलूस बनकर साथ चलते रहते हैं। शहर बदला, घाट बदले, सफ़र बदला, हमसफ़र बदले। मैं दुनियादारी की पाठशाला में बैठे बैठे पाठशाला की दीवार पर फासिल बन गया, पर दुनियादारी का पहाड़ा नहीं रट पाया। पुरखों ने ताले दिए थे ढेर सारे, चाबियाँ बनाना भी खूब सुन्दर सीखा मैंने, बस किस ताले में कौन सी चाभी लगती है, इसी का इल्म नहीं हुआ मुझे। सो आज तक मैं निहायत ग़ैर ज़रूरी ताले चाभियों का जो बोझ ढो रहा हूँ, उन्हीं में से कुछ आप सबसे बाँट रहा हूँ, यह जानते हुए भी कि ऐसा करने से यह बोझ हल्का होने वाला नहीं।"
इन पंक्तियों को पढ़ते समय मैं सोच रहा था कि अगर उन्होंने ज़िन्दगी को समझ लिया होता तो क्या आज हमारे सामने वो अशोक भौमिक होते जिन्हें इतने ढेर सारे लोग इतनी सारी मोहब्बत करते हैं। और फिर ये किताब भी कहाँ होती... क्योंकि इस संक्रमण काल में जीवन को समझ लेने का दावा करने के बाद ऐसी संवेदनाओं की जाने कितनी अहमियत शेष रहती हो! इस सृष्टि में सौंदर्य, मासूमियत और विश्वास जैसी शय कुछ इस तरह की नासमझियों की बदौलत ही शायद बची रह सकती हों !
"जीवनपुरहाट जंक्शन" में कुल बाइस स्मृति आख्यान हैं, जिनमें से कुछ "नया ज्ञानोदय" में लगभग एक वर्ष तक नियमित प्रकाशित होकर पाठकों तक पहले ही पहुँच चुके हैं। इस धारावाहिक श्रृंखला के समय किसी ने मुझसे प्रश्न किया था कि "संस्मरण और स्मृति-आख्यान में क्या अंतर है।"
इन दोनों विधाओं का शास्त्रीय भेद तो विद्वान लोग ही जानते होंगे। मुझे लगता है कि संस्मरण लिखते समय रचनाकार का ध्यान पात्रों , तथ्यों और घटनाओं की प्रामाणिकता पर अधिक रहता होगा जबकि स्मृति आख्यानों में कई घटनाएँ मिलकर एक घटना में तब्दील हो जाती हैं। एक कहानी का पात्र दूसरी कहानी के पात्र से जुड़ जाता है। चूँकि इन आख्यानों में कोरी कल्पना नहीं होती अतः इन्हें कहानी न कहकर स्मृति आख्यान कहते हैं।
अपनी स्मरणीय भूमिका (जिसे पहले ही इस मंच पर साझा किया जा चुका है) के साथ ही अशोक भौमिक हमें जीवनपुरहाट जंक्शन में प्रवेश करा देते हैं और इन बाइस आख्यानों की यादगार पाठकीय यात्रा के दौरान ऐसे किरदारों से पाठकों की भेंट होती है जो बरबस हमारी स्मृतियों का स्थायी हिस्सा बनते जाते हैं। अशोक भौमिक की तस्वीरों में ज़िन्दगी के जितने रंग दिखाई देते हैं उससे कहीं ज्यादा इन कहानियों में। इस किताब में शामिल इन स्मृति-आख्यानों में ज़िन्दगी इस कदर साँस लेती है कि काग़ज़ के पन्नों पर लिखी हुई तहरीर अचानक उनकी तस्वीरों की तरह ही हमारे सामने जीवन्त हो उठती है। मर्म और संवेदना का एक अद्भुत संयोजन जिसकी गूँज बड़ी देर तक जेहन मे कायम रहती है।
"सुरजीत" के मुख्य किरदार
को चौरासी के सिख विरोधी दंगों के समय इनके बॉस वीरेन दा कई दिनों तक एक होटल में छुपाकर बचाने में सफल होते हैं । कई दिनों बाद जब शहर की हालत थोड़ी बेहतर होती है तो एक दिन होटल में ही नाई लाकर उसके केश कटवाते हैं। उसे उसके घर बरेली छोड़ने के लिए रवाना होने से पहले अशोक जी को अलग बुलाकर बताते हैं कि 31 अक्टूबर को ही उसके दो भाइयों को दंगाइयों ने जिन्दा जला दिया था। लौटते समय शेर-दिल सुरजीत का उनके गले लगकर रो पड़ना मानवता के असमर्थ और उन्माद के अमानवीय चेहरे को अनावृत कर जाता है।
"आंटी जी" नामक आख्यान में प्रौढ़ावस्था की दहलीज पर खड़ी एक महिला की पाक मोहब्बत है, जो एक लम्बी दूरी तय करके आख़िरी साँसें गिन रहे अपने अविवाहित प्रेमी से मिलने
पहुँचती है। मृत्यु शय्या पर पड़े उस शख़्स की बहन और आंटी की परस्पर समझ और अनुराग के क्षण भी मार्मिक बन पड़े हैं।
"शरफुद्दीन" एक ऐसे गरीब किन्तु खुद्दार और ईमानदार शख़्स की स्मृति कथा है जो एक डाकबंगले का चौकीदार है। उसकी जवान बेटी का शव पाँच घंटों तक फर्श पर पड़ा रहा और वो उन मेहमानों के स्वागत सत्कार में लगा रहा जो उसकी नज़र में भगवान जैसे होते हैं। इन मेहमानों में अशोक भौमिक और उनका धूर्त एवं मक्कार मित्र चंद्रमोहन है जो सेवा में लगे शरफुद्दीन को अपनी बेहूदी माँगों से लगातार परेशान रखता है और उसे बेईमान भी बताता चलता है। देर रात जब चंद्रमोहन सो चुका होता है और अशोक भौमिक अपनी देर तक जागते रहने की आदत से लाचार तब उन्हें शरफुद्दीन के घर की तरफ़ से आ रहे रोने के हल्के स्वरों को सुनने के बाद इस विडंबना का पता चलता है। पाँच घंटों बाद शरफुद्दीन अब अपने बेटी की मिट्टी की तैयारी शुरू कर पाता है।
अगले दिन जो माली इन्हें पहुँचाने स्टेशन जाता है वो एक पर्ची और कुछ रुपये वापस लौटाता है। पर्ची में पिछली रात खाने की व्यवस्था के लिए दिए गए पचास रुपयों का हिसाब किताब होता है। अशोक भौमिक उस पर्ची को अपने पढ़े लिखे तथाकथित सभ्य मित्र को थमाते हुए सोचते हैं कि "हिसाब की इस पर्ची में हमारी मक्कारियों का हिसाब कहीं भी दर्ज़ नहीं था।"
"चौकीदार" हरिराम नामक आजाद हिंद फौज के एक ऐसे सिपाही की दास्तान है जो आजादी के बाद अपनी जीविका चलाने के लिये चौकीदारी करने पर मजबूर है। अशोक भौमिक अपने आजमगढ़ प्रवास के समय प्रायः देर रात तक जागते रहते थे और उनसे प्रायः हरिराम की मुलाकात हो जाती थी। कभी कभी देर रात स्टेशन जाकर हरिराम इनके लिए सिगरेट आदि भी ले आया करते थे। वो कहते हैं कि जिस दिन मुझे हरिराम की वास्तविकता मालूम पड़ी उसके बाद कभी उनसे सिगरेट मँगाने की हिम्मत नही पड़ी।
एक बेटे द्वारा जायदाद के लिए अपनी माँ के साथ किये गए अविश्वसनीय से लगते छल की कथा कहती है "जायदाद"... माँ भी ऐसी जिसके लिए कोई अजनबी नहीं था। शहर के उन अधिकांश युवाओं को उनका स्नेह और पार्टी मिलती रहती थी जो अपने घर से दूर इस शहर में रह रहे थे।
विदेश में बस गया उनका इकलौता उच्चशिक्षित बेटा सुकुमार बोस अपनी माँ को विदेश ले जाने का छलावा देकर यहाँ की सारी संपत्ति बेच देता है और माँ को दिल्ली हवाई अड्डे पर छोड़कर फ़रार हो जाता है। जिन सज्जन को वो घर बेचा गया था, उन्हीं को माँ फ़ोन करती है। अगली फ्लाइट से वो दिल्ली जाते हैं और उन्हें वापस लाकर घर में उसी तरह रखते हैं जैसे वो पहले रहा करती थीं। किन्तु इस घटना के बाद उनकी जिजीविषा ख़त्म हो जाती है और थोड़े दिनों में ही उनका देहान्त हो जाता है। डॉक्टर से जब ये पूछा जाता है कि वो बीमार तो थी नहीं फिर कैसे अचानक ये सब हो गया तो उसका जवाब था कि " शी डाइड ऑफ इंसल्ट "
अपने ही संतान द्वारा अपमानित एक माँ के अंत का कितना अर्थपूर्ण विश्लेषण है ये!
प्रेमचन्द की अमर कहानी ईदगाह के हामिद की याद दिलाते एक छोटे से मासूम बच्चे की कहानी "छोटा हामिद" हमें लखनऊ के उस दौर में ले जाती है जब साठ के दशक में वहाँ ऐसी बाढ़ आयी थी जिसनें जाने कितने घरों का अस्तित्व ही मिटा दिया था। ये छोटा बच्चा अपनी माँ के साथ नाना के घर शरण पाता है। उसकी माँ एक छोटे से बस्ते में दैनिक उपयोग की छोटी छोटी वस्तुएँ और उसकी जेब में उनकी रेट लिस्ट रख देती थी। भौमिक साहब के पिताजी उन दिनों लखनऊ में थे। इन्हीं के बरामदे में वो हामिद आकर अपनी दुकान लगा देता था और दोपहर में अपने छोटे से टिफ़िन की रोटियाँ खाकर सो जाता था। बरसों बाद एक बड़े डॉक्टर के सामने बैठे हुए अशोक भौमिक को बातचीत के दौरान जब ये पता चलता है कि डॉक्टर का बचपन उसी मोहल्ले में बीता है तो वो समझ जाते हैं कि वो छोटे हामिद ही आज के ये डॉक्टर हैं किंतु उनके आरंभिक कोच की एक सीख कि---"मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव और डॉक्टर के बीच एक मेज होती है, एक रिप्रेजेन्टेटिव को ये कभी नहीं भूलना चाहिए।" उनके और डॉक्टर के बीच आ जाती है।
अशोक भौमिक ने अपने इन आख्यानों के जरिये उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल और आसपास के अन्य क्षेत्रों के कई दशकों के सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश को बेहद यादगार और शानदार तरीके से याद किया है। समाज से धीरे धीरे लुप्त होती जा रही देशज परम्पराओं और पारस्परिक सम्बन्धों की अनेक छटाएँ इन स्मृति कथाओं के बहाने ताजा हो उठी हैं।
हमें मालूम है कि उनकी यादों के खजाने का ये बहुत छोटा सा हिस्सा हमारे सामने आया है। जीवनपुरहाट जंक्शन के अगले खंड की प्रतीक्षा के साथ उन्हें सादर हार्दिक शुभकामनाएँ!
और चलते चलते इस किताब की भूमिका से ये छोटा सा प्रिय अंश....
" जो लोग दूसरों की आँखों में तकलीफ़ के उमड़ते समन्दर को देख पाते हैं और यकीन करते हैं कि इस दुनिया को जितनी जल्दी हो सके , बदल देना चाहिए- मैं उन लोगों पर ईश्वर से ज्यादा यकीन करता हूँ।"
जीवनपुरहाट जंक्शन
अशोक भौमिक
प्रकाशक-- भारतीय ज्ञानपीठ
वर्ष-- 2017
मूल्य- ₹ 300
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