शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

नामवर स्मृति : जीतेन्द्र पांडेय

*भारतीय साहित्य के पुरोधा थे डॉ. नामवर सिंह*

     पूर्णमासी के चाँद की शीतल किरणें धरती पर अमृत बरसा रही थीं । पहाड़ की ऊँचाइयों से घंटों  निहारता रहा उसे, बिल्कुल चकोर की नाईं । टहटह अँजोरिया । आँखें दुखने लगीं किंतु मन सोम-रस के लिए अतृप्त रहा ।  प्रातः भ्रमण के लिए उठा तो चंद्रमा का चमकदार गोला धरती के और करीब आ गया था । प्राची दिशा क्रमशः रक्ताभ हो चली किंतु रजनीश विदा होने का नाम नहीं ले रहा था । इसी बीच मोबाइल ऑन किया तो हृदयेश मयंक की वाल पर लिखा था - "ढहना एक शिखर का -
सुबह-सुबह खबर मिली कि नामवर जी नहीं रहे।साहित्याकाश का एक शिखर पुरुष हमसे विदा हो गया । जितनी प्रशंसा व जितनी निन्दा उनकी होती रही शायद अन्य किसी को नहीं मिलीं । कुछ आलोचक उन्हें गरियाकर तो कुछ उनकी चापलूसी कर साहित्य में अपनी रोटियां सेकते रहे।मैं चिन्तित हूँ कि अब उनका क्या होगा? उनके जैसा वक्ता, उनके जैसा चिन्तक हमें कहीं दूर- दूर तक दिखलाई नहीं पड़ता । उनका जाना हिन्दी साहित्य की अपूरणीय क्षति है । मैं चिंतनदिशा परिवार की ओर से उनके  निधन पर श्रद्धांजलि व्यक्त करता हूँ ।"
              कश्मीर के पुलवामा में शहीद जवानों के दुःख से उबरा भी न था कि नामवर जी के दिवंगत होने की ख़बर ने झकझोर कर रख दिया । उनके वे सभी बिंब ज़ेहन में उभरने लगे जो कई मुलाकातों के दौरान मेरे मानस में बन पाए थे । एक गोष्ठियों-संगोष्ठियों वाली छवि तो दूसरी छात्रों के बीच अलमस्त फकीरों वाली । घुटने से थोड़ा नीचे तक लंबा कुर्ता और सलीके से पहनी गई धोती बनारसी सज-धज को प्रदर्शित करती । पान खाते-खाते बिना व्यवधान के बतियाते रहना उनकी आदत थी किंतु स्थायी संगिनी तो सुर्ती थी । रौबदार चेहरे पर मर्मभेदी आँखें किसी का अंतस्थल पढ़ने में पूर्णतया सक्षम थीं । नामवर सिंह की यह विशेषता थी कि व्यक्तिगत बातचीत में अपने विराट व्यक्तित्त्व की दविश सामने वाले पर तनिक न होने देते थे, बिल्कुल उसी के रंग में रंग जाते । जब वे मंच पर होते तो नामवर होने का अर्थ पता चलता । वाकपटुता ऐसी कि सभी मंत्रमुग्ध । क्या समर्थक ? क्या विरोधी ? सब पर एक-सा जादू । जब यह समाप्त होता तो दर्शक अपने होने का मतलब ढूँढ़ने लगते ।
               मुझे एक वाकया याद आ रहा था जब नामवर जी मुंबई विश्वविद्यालय की एक राष्ट्रीय संगोष्ठी  में बतौर उद्घाटक आमंत्रित थे । अध्यक्षता विश्वविद्यालय के प्रो वाइसचांसलर कर रहे थे । डॉ. नामवर सिंह जी ने अपने वक्तव्य में तर्क और प्रामाणिकता की झड़ी लगा दी । रसिया, फ्रेंच, अंग्रेजी आदि भाषाओं के दिग्गज लेखकों को सिलसिलेवार उधृत करते जा रहे थे । अपने उद्बोधन में उन्होंने समूचे विश्व-साहित्य का आसव निचोड़ दिया ।  सूट-बूट धारी मुंबई विश्वविद्यालय के प्रो वाइसचांसलर हतप्रभ थे । अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा, "कोई इतना विद्वान कैसे हो सकता है ? वह भी एक धोती-कुर्ता पहना व्यक्ति विश्व-साहित्य की इतनी गहरी समझ और पकड़ कैसे रख सकता है ? अविश्वसनीय । अकल्पनीय ।" प्रिय पाठकों, नामवर सिंह उच्चकोटि के मेधा संपन्न साहित्यकार थे । जितना पढ़ा, पचा लिया । लोक और शास्त्र के सेतु थे । संत कवियों की वाचिक परंपरा के संवाहक । ऐसा करते हुए उन्होंने  अन्वेषण की लौ सदैव जलाए रखी । संभवतः इसी लिए दूसरी परंपरा की खोज की आवश्यकता पड़ी होगी । जीवन के उत्तरार्ध में तो वे स्वयं की  स्थापनाओं को कई वक्तव्यों में खारिज करते दिखाई दिए ।
           डॉ. नामवर सिंह का विवादों से गहरा नाता था । वे अक्सर कहा करते थे मैं विवादों को ओढ़ता नहीं, बिछा लेता हूँ । रामविलास शर्मा की बरसी पर "आलोचना" की संपादकीय नामवर जी ने लिखी थी । उस पर काफी विवाद हुआ । राष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिका 'दस्तावेज़' की लंबी संपादकीय में विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने लिखा, "रामविलास जी ने तो जो बात कही है वही बुद्ध ने कही थी और वही उपनिषद के ऋषि ने भी । नामवर जी अपनी संपादकीय (इतिहास की शव-साधना) में जिस कौशल से दोनों को अलग करने की कोशिश करते हैं उसी को बाल की खाल निकलना कहते हैं ।" इसके अलावा अपने एक भाषण में सुमित्रानंदन पंत के साहित्य को कूड़ा कहकर उन्होंने मुसीबत मोल ले ली थी । इसके लिए सारे देश में उनके पुतले जलाए गए । सही बात तो यह थी कि उनकी चर्चा सभी करते थे -'रीझि भजै या खीझ ।'
               डॉ. नामवर सिंह हिंदी साहित्य की रीढ़ थे । उनका जाना एक रिक्तता छोड़ गया । शास्त्र और लोक के बीच लंबा-चौड़ा और गहरा अंतराल आ गया । हमारे युवा रचनाकार और साहित्य के विद्यार्थी इस बात को लेकर इतरा सकते हैं कि उन्होंने नामवर जी को सुना, देखा और  उनसे बातें की हैं । प्रखर वक्ता । संस्कार, स्वभाव और परंपरा में अपने गुरु के अनुगामी एवं अग्रदूत । साक्षात आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का प्रतिरूप । आचार्य द्विवेदी जी कहा करते थे, मेरे दो प्रिय शिष्य हैं  - शिवप्रसाद सिंह और नामवर सिंह । एक कुशल गोताखोर तो दूसरा दक्ष तैराक। डॉ. नामवर विश्व-ज्ञान की अनमोल धरोहर हैं । उनके निधन पर महामहिम राम कोविंद ने कहा, "डॉ. नामवर सिंह का जाना हिंदी ही नहीं, भारतीय भाषाओं के साहित्य के लिए बड़ा आघात है ।" वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया, "नामवर सिंह के निधन से गहरा दुःख पहुंचा है । उनका जाना साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति है ।"
              समकालीन हिंदी साहित्य के संरक्षक और मार्गदर्शक का अस्त होना एक युग का अंत है । ऐसा युग जहाँ से भावी पीढ़ी ऊर्जा और प्रेरणा लेती रहेगी । लेना भी चाहिए । नामवर सिंह जी ने स्वयं कहा था कि धनुष की डोरी जितना पीछे खींची जाती है, उससे निकला तीर उतना ही आगे जाता है । अस्तु ।

- डॉ. जीतेन्द्र पांडेय

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विरह विगलित कदंब: पुष्पा भारती

विरह विगलित कदंब पुष्पा भारती साहित्य सहवास में चारों ओऱ बड़े करीने से हरियाली उग आई थी। अपनी मेहनत की सफलता पर खुश भी थे भारती जी कि सहसा उ...