रविवार, 10 मार्च 2019

स्नेहबन्ध : मालती जोशी

स्नेहबन्ध : मालती जोशी

"माँ,ये है मीतू -- मैत्रेयी।"
ध्रुव ने परिचय करवाया तो देखती ही रह गई। कटे बाल के नीचे एक छोटा-सा चेहरा - वह भी आधा गॉगल्स से ढँका हुआ। नेवी ब्ल्यू रंग की जीन्स के ऊपर चटख पीले रंग का पुलोवर। उस पर बने हुए केबल्स इतने प्यारे कि कोई और होता तो पास बिठाकर पहले डिजाइन उतार लेती - बाकी बातें बाद में होतीं।
''पर ये मीतू थी -- मैत्रेयी।''

अपनी सारी प्रतिक्रिया मन ही में समेटकर मैंने सहज स्वर में कहा, " ड्राइंगरूम में चलकर बैठो तुम लोग, मैं पापा को बुला लाऊँ?"
बच्चों के पापा हस्बेमामूल बगिया में ईजी चेयर में लेटे अखबार पढ़ रहे थे। चार पन्नों का अखबार है, लेकिन पढ़ने में सुबह से शाम कर देंगे। अपनी सारी खीज उन पर उँडेलते हुए मैंने कहा, "बहूरानी आई हैं, चलकर मुआयना कर लीजिए।"
"बहूरानी!" उन्होंने चौंककर पूछा, फिर चश्मा उतारकर मुझे सीधे देखते हुए बोले, "बहूरानी आई है तो तुम्हारा स्वर इतना तल्ख क्यों हैं?"

एक-दो नहीं, साथ रहते पूरे अठ्ठाईस साल हो गए हैं। मेरे स्वर का एक-एक उतार-चढ़ाव उन्हें कंठस्थ हो गया है। फिर भी मैंने कोई जवाब नहीं दिया और चाय बनाने के बहाने रसोई में चली गई।

आधा-पौने घंटे बाद जब चाय-नाश्ता सजाकर बाहर ले गई, उस समय ड्राइंगरूम कहकहों से गुलजार था। इस बीच शायद शिव भी कॉलेज से लौट आया था और उसी के किसी चुटकुले पर सब लोग ठहाके लगा रहे थे।

मुझे देखते ही शिव ने आगे बढ़कर ट्रे थाम ली। ध्रुव ने मेज़ से सारा कबाड़ हटाकर जगह बनाई। पानी का जग और चटनी की शीशी अन्दर छूट गई थी। ट्रे रखकर शिव दौड़कर दोनों चीज़ें ले आया। सबकुछ एकदम स्वाभाविक ढंग से ही हो रहा था। जब से सविता ससुराल गई है, बच्चे इसी तरह माँ का हाथ बँटा लेते हैं। पर पता नहीं क्यों आज मुझे यह सब अच्छा नहीं लगा। थोड़ा तो सब्र किया होता इन लोगों ने! मैं भी तो देखती, मीतू नाम की यह लड़की कितना अदब-कायदा जानती है। घर की बहू बन कर आ रही है, यह तो हुआ नहीं कि खुद चलकर किचन तक आती, झूठ-मूठ ही सही, मदद के लिए पूछती। बस, लाट साहब की तरह बाहर बैठी रही। लड़के बेचारे बैरों की तरह दौड़-धूप कर रहे हैं।

नाश्ते के लिए गरम समोसे बना लिए थे। सूजी के लड्डू और घर का बना चिवड़ा भी साथ था। जनता ने नाश्ते का सरंजाम देखा और खुश हो गई।

"हाय माँ! आपने यह सब घर पर बनाया है, "मीता किलककर बोली, "मैं तो बिलीव नहीं कर सकती - रोज़ इतना रिच नाश्ता देती हैं आप! तभी आपके दोनों सुपुत्र मोटूमल हो रहे हैं।"
"ऐ! हमें नज़र मत लगाओ, "ध्रुव ने टोका, "माँ की जीवन-भर की साधना है हमारी पीछे।"
"जानती हैं मीता जी, "शिव ने कृत्रिम गंभीरता ओढ़कर कहा, "माँ ने हमको खिला-पिलाकर ऐसा तैयार कर दिया है कि अब कैसी ही कर्कश बीवी मिलें, हम निपट लेंगे। मैदान छोड़कर भागेंगे नहीं।"
कमरा एक बार फिर हँसी में डूब गया। मुझे लेकिन बड़ा ताव आ रहा था।

मेरे बच्चों को मोटूमल कहने का हक इसे किसने दे दिया? अभी तो घर में आई भी नहीं और रोब झाड़ने लगी? वाह, यह भी कोई बात हुई! तुम्हारे माँ-बाप ने तुम्हें नहीं खिलाया तो हम क्या करें? तुम अपने राज में डबलरोटी खिला-खिलाकर उसे दुबला कर लेना - बस!

"चलूँ माँ," मैंने अपनी तन्द्रा से चौंककर देखा, सब लोग उठ खड़े हो गए थे। मीता नमस्ते कर रही थी। गेट तक छोड़कर हम लोग लौट आए। ध्रुव उसे घर तक छोड़ने चला गया।
"पहली बार आई थी," बच्चों के पापा घर में आते ही शुरू हो गए, "जिस-तिस को तो तुम नेग बाँटती फिरती हो। उसे यों ही खाली हाथ भेज दिया!"

मैंने कोई जवाब नहीं दिया। खाली प्लेट-प्याले समेटकर रसोई में चली आई। हुँह! पहली बार आई थी तो कोई क्या करे! रीति-रिवाजों का ठेका क्या हमने ही ले रखा है! वह क्या एक बार झुककर पैर नहीं छू सकती थी! एकदम ही अंग्रेज़ बनी जा रही थी।

सारी शाम मैं रसोई में ही बनी रही। मुझे मालूम था, मेरी प्रतिक्रिया जानने को सब उत्सुक होंगे। पर मैंने किसी को हवा नहीं लगने दी। शिव तक एक-दो बार आकर मंडरा गया, पर मैं व्यस्त होने का दिखावा करती रही।

रात खाने की मेज़ पर भी एक अव्यक्त तनाव था। बच्चों के पापा ने एक-दो चुटकुले सुनाकर उसे तोड़ने की कोशिश भी की, पर बात कुछ बनी नहीं।

खाने के बाद भी काम कहाँ खत्म होता है! सारे दरवाज़े-खिड़कियाँ मुझी को देखनी होती हैं। घर-भर की बत्तियाँ बुझानी होती हैं। टंकी में पाइप छोड़ना होता है। दूध-दही के बर्तनों को जाली की अलमारी में रखना होता है। आँगन में सूखते कपड़े उतारना होता है।

एक-एक काम निपटाती जा रही थी कि देखा, ध्रुव पास आकर खड़ा हो गया है।
"माँ!" उसने काँपते हुए स्वर में पुकारा।
"क्या है?" तौलिए को तहाते हुए मैंने पूछा।
"तुम्हें तुम्हें मीता कैसी लगी?"
"मेरे लगने का क्या है! तुम्हें पसंद आनी चाहिए, बस!"
"नो ममा। तुम्हारी पसंद बहुत ज़रूरी है। तुम्हारी और पापा की।"

शाम से मन में जो अंधड़ उठ रहा था, ध्रुव के प्रश्न से तीव्र हो उठा। 
"तुमने जवाब नहीं दिया माँ!"
"अच्छा, यह बताओ, क्या उसे पता था कि तुम उसे कहाँ ले जा रहे हो?" मैंने प्रति प्रश्न किया।
"हाँ, क्यों?"
"तो क्या वह ढंग के कपड़े पहनकर नहीं आ सकती थी? कम-से-कम तुम उसे..."
"मैंने कहा था माँ!"
"फिर?"
"वह बोली -- मैं जैसी हूँ वैसी ही उन्हें देख लेने दो। बेकार नाटक करने से फ़ायदा खैर, कपड़ों को छोड़ो। वैसे कैसी लगी, बताओ।"

ध्रुव इतनी अज़िज़ी से पूछ रहा था कि उसका दिल दुखाते न बना। "अच्छी है, "मैंने अनमने ढंग से कहा और बात समाप्त कर दी। वरना सच तो यह था कि मैंने मीता को ठीक से देखा ही नहीं था। पहली ही नज़र में उसका हुलिया देखा और मन खट्टा हो गया था। बहू को लेकर मन में कितनी कोमल कल्पनाएँ थीं, सब राख हो गई थीं, गुस्सा तो अपने लाड़ले पर आ रहा था। प्रेम करते समय इन लोगों की अक्ल क्या घास चरने चली जाती है!

कैसे प्यारे-प्यारे रिश्ते आ रहे थे - पर तक़दीर में तो यह सर्कस-सुन्दरी लिखी थी न!
एक उसांस भरकर रह गई मैं।
एक बार हम लोगों की स्वीकृति की मुहर लगने भर की देर थी - फिर तो सारे काम फटाफट और कायदे से होते चले गए। मीता के पिता जी स्वयं घर आए और उन्होंने औपचारिक रूप से रिश्ते की पहल की। मीता को अपनी बहू बना लेने के लिए करबद्ध निवेदन किया। उन्होंने बताया कि पत्नी की मृत्यु के बाद उनके बच्चे अक्सर होस्टल में ही पले हैं। वे भी हमेशा टूर पर ही बने रहे।

दो साल पहले लड़के की शादी हुई है। तब से घर कुछ आकार ग्रहण करने लगा है। होस्टल में रहने के कारण मीतू काफी कुछ सीखने से वंचित रह गई है। वे तो डर रहे थे, पर ध्रुव ने उन्हें आश्वस्त किया है कि माँ बहुत सहनशील और स्नेहमयी है, वे उसे अपने अनुसार ढाल लेंगी।

उत्तर में ध्रुव के पापा ने भी उन्हें आश्वस्त किया। कहा कि हम लोग इतने दकियानूसी नहीं है कि एक आर्किटेक्ट लड़की मे सोलहवीं सदी की बहू तलाशें।

इस प्रकार बहुत ही सौजन्यपूर्ण वातावरण मे परिचय का पहला दौर समाप्त हुआ। फिर धूमधाम से सगाई हुई। दोनों पक्षों ने जी खोलकर खर्च किया। दान-दहेज तो कुछ लेना था नहीं, लेन - देन की कड़वाहट-भरी चर्चा से बच गए हम लोग। फिर भी मैंने सबकी नज़र बचाकर समधी जी के हाथ में एक लिस्ट थमा दी थी। पहले बेटे की शादी थी। नाते-रिश्तेदारों के नेग तो मिलने ही चाहिए थे। अपनी बेटी को तो लोग देते ही हैं। ज़िन्दगी-भर यह देना समाप्त ही नहीं होता। पर बाकी लोगों को मौका तो सिर्फ़ शादी में ही आता है न।

एक लिस्ट मैंने ध्रुव को भी पकड़ाई थी। लिस्ट क्या थी, होनेवाली बहू के लिए पूरी आचार संहिता थी :
. मीता अब शादी के बाद ही इस घर में आएगी।
. भविष्य में वह बाल नही कटवाएगी।
. हाथ में चूड़ियाँ डालने की आदत डालेगी।
. शादी में सिर ढँकेगी।
. घर में मेहमान रहेंगे तब तक साड़ी पहनेगी।
. लोगों के सामने ध्रुव को नाम लेकर नहीं पुकारेगी।

खूब लम्बी सूची थी। बारीक से बारीक जो भी बात याद आती गई, जोड़ दी थी। शिव ने तो उसका नाम बीससूत्री कार्यक्रम रख दिया था। आते-जाते ध्रुव को छेड़ देता, "दादा भाई, भाभी को कितने सूत्र रटा दिए?"
कभी कहता, "भाभी से कहना, फर्स्ट डिवीजन न आने से भी चलेगा। पर कम-से-कम पासिंग मार्क्स तो आने ही चाहिए।"

यह छेड़छाड़ सिर्फ़ मज़ाक के तौर पर नहीं होती थी। इसमें एक अव्यक्त आक्रोश भी था। माँ के कारण उन लोगों की इमेज एकदम पुराणपंथी हो गई थी। ध्रुव मुँह से तो कुछ नहीं कहता था, पर शिव के छेड़ने पर जैसी उदास हँसी हँस देता, उससे यह स्पष्ट हो जाता था।

आखिर एक दिन मैंने कह ही दिया, "देखो शिव, ये मजाक उड़ानेवाली बात नहीं हैं। ये मत सोचो कि मैं अपने लिए कुछ कर रही हूँ। मेरी तो बस यही इच्छा है कि नई बहू की आते ही आलोचना न शुरू हो जाए। आखिर मेरी भी तो वह कुछ लगती है - और तुम तो जानते हो - शादियों में कुछ लोग आते ही इसी मकसद से हैं कि नुक्स निकालें और आलोचना शुरू कर दें।"

बच्चे इसके बाद चुप हो गए थे।
वैसे मैंने एकदम ग़लत भी नहीं कहा था। शादी में सचमुच कुछ लोग मीनमेख निकालने के लिए ही आते हैं। नई-नवेली दुलहनों को सबसे ज़्यादा आलोचना झेलनी पड़ती है। झूठ क्यों बोलूँ - खुद ही मैं कई बार इस अभियान में सम्मिलित हुई हूँ। दोनों ओर के परिवारों में अब तक जितनी बहुएँ आई हैं, सबके लिए मेरे पास कहने के लिए कुछ-न-कुछ है। सुरेश की बहू रसोई तक में चप्पलें पहनकर घूमती है। महेश की बहू नौ बजे से पहले बिस्तर नहीं छोड़ती। राजन की बहू रसोई में झाँकती तक नहीं। आलोक की बहू चौबीसों घंटे उसके नाम का जप करती रहती है। जेठ, ससुर तक का उसे होश नहीं रहता। निखिल की बहू तो और भी तीसमारखाँ हैं। जहाँ पति को चार लोगों के बीच हँसते-बोलते देखेगी, बच्चे को लद्द से लाकर गोद में पटक देगी। उस पर तुर्रा यह कि "कोई मेरी अकेली का नहीं है, जो दिनभर मैं ही लादे फिरूँ।"

सुन-सुनकर कान पक गए तो बुआ जी ने एक दिन कह ही दिया, "बहू! सब जानते हैं कि बच्चे कोई अकेले नहीं पैदा करता, पर उसका कोई इस तरह ढिंढोरा नहीं पीटता।"
ये सारे नमूने मेरी आँखों के सामने थे। इसीलिए मन में एक आदर्श बहू की कल्पना थी। सोचा था कि ध्रुव के लिए जो लड़की लाऊँगी वह इन सबसे अलग होगी।
पर अपना सोचा सब कहाँ हो पाता है!

"तुम्हारी सारी शर्तों का पालन करेगी तब तो तुम्हें वह अच्छी लगेगी न माँ!" ध्रुव ने एक दिन गले में बाँहें डालकर बड़ी आशा से पूछा था। तब यही सोचकर सन्तोष कर लिया था कि लड़का आज भी मुझे कितना चाहता है। आसपास के वातावरण को देखते हुए यह भी कम न था।
शादी हुई और खूब धूमधाम से हुई।
घर की पहली शादी थी। अनगिनत मेहमान आये थे। उनमें से कइयों को निराश लौटना पड़ा। टीका-टिप्पणी का एक भी मौका हाथ नहीं लगा।

मैं खुद बहुत डरी हुई थी। एक तो लड़की की माँ नहीं थीं। कर्ता-धर्ता बड़ी बहन थी, जो अमेरिका में ही बस गई थी। पति-पत्नी दोनों डाक्टर थे। भैया-भाभी तो अभी नए ही थे। पर स्वागत-सत्कार में, खान-पान में कहीं कोई त्रुटि या अव्यवस्था नहीं हो पाई थी।

मीता के पापा तो बिछे जा रहे थे, पर बहन-बहनोई, भैया-भाभी, चाचा-ताऊ सभी सौजन्य और विनम्रता की मूर्ति बने हुए थे। और जयमाला के समय जब मीता को देखा तो बस आँखें जुड़ा गई। अपना यह रूप-लावण्य इतने दिनों तक उसने कहाँ छिपा रक्खा था। लाल, सुर्ख बनारसी साड़ी में लिपटी वह किसी सलौनी गुड़िया-सी लग रही थी।

अन्तर्जातीय विवाह को लेकर एक शूल था मन में, वह भी जाता रहा। इसी बात को लेकर ननदरानी कोंचती रही हैं। अब सर उठाके सबके सामने कह सकूँगी, "भाई, हमने तो लड़की का रूप-गुण देखा, विद्या-बुद्धि देखी और घर-परिवार देखा। बस, जात-पांत को आजकल पूछता ही कौन है?"

आठ-दस दिन घर में मेला-सा लगा रहा।
मीता जितने दो-चार दिन रही, ननदों के बीच दबी-ढ़ँकी बैठी रही। उनके बच्चों का लाड़-दुलार करती रही, रिश्ते की सास और जिठानियों की मान-मनुहार करती रही। सभी लोग प्रसन्न थे और जाते समय हर कोई मुझे बधाई देता हुआ गया।



शादी के बाद दोनों ८-१० दिन के लिए मसूरी घूमने चले गए थे। उनके लौटने तक मैंने सविता को रोक लिया था। सोचा, ननद-भौजाई थोड़े दिन साथ रह लेंगी।
दूसरे दिन सुबह-सुबह मैं रसोई में व्यस्त थी कि सविता पास आकर फुसफुसाई, "माँ! बहूरानी को तो देखो।"
देखा, बड़े-बड़े पीले फूलोंवाली मैक्सी पहनकर वह मेज पर प्लेटें लगा रही है।

मैं और सविता - दोनों एक-दूसरे का मुँह ताक रहे थे। इस बात को कौन उठाए, और कैसे? मैं तो आजकल लड़कों से खौफ़ खाने लगी थी। पर सविता तो उन दोनों को घास नहीं डालती थी। दनदनाती हुई बाहर चली गई और बोली, "मीतारानी, आज ये कौन-सी ड्रेस निकाल ली?"

"घर की ड्रेस है दीदी!" फिर सविता की प्रश्नार्थक दृष्टि को समझते हुए बोली, "माँ का आर्डर था कि मेहमानों के सामने साड़ी पहननी होगी। इसलिए इतने दिन पहनती रही। पर इतना बँधा-बँधा लगता है उसमें।"
"तो हमें मेहमानों में नहीं गिनती तुम?"
"आप तो घर की हैं - दीदी हैं अपनी।"

और कोई वक्त होता तो मैं इसी बात पर निहाल हो जाती, पर इस समय समस्या जरा नाजुक थी। मैंने आगे बढ़कर कहा, "बेटै, घर में जब-तब कोई आ निकलता है और लोग अक्सर तुम्हें देखने के लिए ही आते हैं।"
"पर माँ, साड़ी पहनकर जरा भी कम्फर्टेबल नहीं लगता। काम तो कर ही नहीं सकती मैं। बस, गुड़िया की तरह सजने-सँवरने के ही दिन हैं। काम करने की तो ज़िन्दगी पड़ी है। और अभी तो मैं बैठी हूँ।"
"ठीक है। लेकिन माँ, आफिस में तो साड़ी पहनकर जाना ज़रूरी नहीं है न? मुझसे तो गाड़ी चलाते न बनेगी।"

गाड़ी का मतलब लूना। ये भी एक शूल था मन में। शादी के सामान के साथ लूना देखकर मेरी भाभी फिच्च-से हँस दी थी, "वाह ध्रुव जी! सीधेपन की हद कर दी आपने। आजकल बजाज सुपर से नीचे कोई बात नहीं करता। आप कम-से-कम..." 
"मामी जी," ध्रुव बात काटकर बोला, "यह मेरी नहीं, मीता की गाड़ी है। मेरे पास तो अपनी प्रिया है। मीता ने पापा से कहा था कि जेवर चाहें न दें, पर एक गाड़ी ज़रूर दें।"

यानी सब-कुछ अपने-आप ही तय हो गया था। मन इतना खट्टा हो गया था! स्कूटर ही ले लेते तो क्या हो जाता! प्रिया-शिव के काम आ जाती। स्कूटर पर तो दोनों ही जा सकते थे। तब यह पहनने-ओढने का झंझट भी न खड़ा होता।

"दफ्तर सलवार-कमीज़ पहनकर जाया करना, "मैंने फैसला सुना दिया। लेकिन बहू घर में आती है तो समस्या सिर्फ़ पहनने-ओढ़ने की ही तो नहीं रहती।

उसका घर-भर में उन्मुक्त होकर घूमना, खिलखिलाना, दिन-भर ध्रुव डार्लिंग की रट लगाना, शिव से छीना-झपटी करना, भूख लगने पर नाश्ते के डिब्बे टटोलना, बात-बात पर गले में झूल जाना - सब-कुछ आँखों में खटकने लगता।

बच्चों के पापा तक को तो उसने नहीं बख्शा था। सुबह वे पेपर पढ़ते तो उनकी कुर्सी के हत्थे पर बैठकर ही पूरा पेपर पढ़ जाती। घर में रहती तब तक उनके आसपास मंडराया करती, पापा का जाप किए जाती। उन्हें इसरार कर-करके खाना खिलाती, दवाई समय पर न लेने के लिए डांटती। शाम को लौटती तो चाय का कप हाथ में लेकर सीधे बगिया में पहुँच जाती और छोटे से पीढ़े पर बैठकर उनसे बतियाती रहती। उस समय तो सचमुच मेरा खून जल जाता। घर में तो जो चल रहा था, ठीक ही था। बाहर उसका प्रदर्शन करने की क्या ज़रूरत थी? आसपास के घरों में कई जोड़ी आँखें उस समय खिड़कियों पर टँग जाती थीं।

हैरत तो यह थी कि बच्चों को, उनके पापा को यह सब सहज-स्वाभाविक लगता था। उनके माथे पर शिकन तक न आती थी। उस दिन तो हद ही हो गई। रोज़ की तरह हम लोग दोपहर की चाय ले रहे थे कि मीता आँधी की तरह घर में घुस आई। "अरे, आज इतनी जल्दी!"
"पहले आप लोग आँखें बन्द कीजिए, प्लीज़!"
"क्या बात है?"
"पहले आँखें बन्द!"

और हमारे पलक झपकाते ही उसने दोनों के गले में एक-एक फूलमाला डाल दी और तालियाँ बजाते हुए किलकने लगी, "मेनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ द डे।"
"अरे, बात क्या है... मैंने कहना चाहा और एकदम मुझे याद आ गया - आज १२ दिसंबर थी, हमारी शादी की सालगिरह। दूसरी-दूसरी बातों में इतनी खो गई थी कि इसकी याद ही न आई थी।

मेरा चेहरा देखते ही मेरे गले में झूल गई - "पकड़ी गई न! आप लोगों ने सोचा होगा, चुप्पी लगा जाएँगे तो सस्ते में छूट जाएँगे। ऐसा नहीं होगा। पापा जी, तीन-चार कड़कते नोट तैयार रखिए। हम लोगों की नियत आज अच्छी नहीं हैं।"
"तुम्हें कैसे पता चला बेटे! हमें तो याद ही नहीं रहा था।" इन्होंने गद्गद होते हुए पूछा।
"लंच के समय ध्रुव की डायरी उलट-पलट रही थी। तब नज़र पड़ी। उसकी तो ऐसी ख़बर ली है मैंने। इतनी इम्पार्टेंन्ट चीज़ भूल गया।"

"ध्रुव है कहाँ?" मैंने पूछा।
"शिव को लेने कॉलेज गया है। हमने तड़ी मारी है तो उसे पढ़ने थोड़े ही देंगे। आज तो हंगामा होगा।"
थोड़ी देर में वे दोनों भी आ गए। फिर तीनों में मिलकर हम दोनों की आरती उतारी, पैर छुए और उपहार भी दिए। मेरे लिए प्योर सिल्क की साड़ी और पापा के लिए पुलोवर। उसी समय दोनों चीज़ों का उद्घाटन करना पड़ा। फिर अमरीका से उपहार में मिले कैमरे से घर पर रंगीन तस्वीरें खींची गईं। फिर सब लोग फेमस स्टूडियो गए। वहाँ एक ग्रुप फोटो के लिए मीता पारंपारिक बहू की वेशभूषा में सजी थी और मेरे पीछे खूब अच्छे से सिर ढककर खड़ी थी। शिव बार-बार उसे छेड़ रहा था।

फर्स्ट शो हम लोगों ने 'अंगूर' देखी। फिर ब्ल्यू डायमंड में खाना खाया। क्वालिटी में आइसक्रीम और बनारसी पानवाले के यहाँ का पान खाकर लौटे ते रात के ग्यारह बज रहे थे। बेतरह थक गई थी मैं, पर यह थकान भी कितनी मीठी थी!
"बाप रे, थक गई मैं तो! इन लोगों ने सचमुच एक हंगामा कर डाला। अब इतनी उछल-कूद के लायक थोड़े ही रह गए है हम।" रात मैंने हँसते हुए कहा।
पर देखा, ये चुप हैं और आग्नेय दृष्टि से मुझे घूर रहे हैं।
"क्या हुआ?" मैंने घबराकर पूछा।
"वह लड़की बेचारी माँ-माँ कहकर मरी जाती है, और तुम?"
"क्यों, मैंने क्या किया है?" मैंने खीझकर कहा। मन में छाई खुशी भाप बनकर उड़ने लगी थी।
"मुझसे क्या पूछती हो? अपने-आप से पूछो कि तुमने क्या नहीं किया है! वह बेचारी बिना माँ की लड़की!"
"बिना माँ की हैं तो मैं क्या करूँ!" मैं एकदम फट पड़ी। शाम ममता का एक सोता फूट पड़ा था, अन्तस में वह जमने लगा था, "बिना माँ की है तो मैं क्या करूँ, यह तो बताइए! गोद मे लेकर घूमूँ या लोरी गाकर सुनाऊँ?"

उन्होंने जवाब नहीं दिया और करवट बदलकर लेट गए। इतना गुस्सा आया। यह अच्छा तरीका है, जवाब देते न बने तो बात ही खत्म कर दो!
"अजीब मुसीबत है," मैं बुदबुदाई, "दिनभर घर मे धींगामुश्ती चलती रहती हैं। छोटे-बड़े का भी लिहाज नहीं रखा जाता। फिर भी मुझे चैन नहीं हैं। पराई लड़की पर तो लोगों को इतनी ममता हो जाती है! साल-छ: महीने में अपनी जाई घर आती है, उसका तो कभी ऐसा लाड़-दुलार नहीं होता।
लाड़ दुलार क्या खाक करूँगा? वह तो तुम्हारे अनुशासन में पली हुई बिटिया है। आज तक कभी खुलकर बात भी की है उसने मुझसे?" अब चुप रहने की बारी मेरी थी।

जनवरी के प्रथम सप्ताह में ध्रुव को अचानक छ: महीने की ट्रेनिंग के लिए जर्मनी जाने का आदेश मिला। घर में एक खुशी की लहर दौड़ गई। कितने सारे लोगों में सिर्फ़ उसी का चयन हुआ था। गर्व से हम लोगों के कलेजे गज-गज भर के हो गए थे।

ज़ोर-शोर से तैयारियाँ शुरू हो गई और मेरा दिल बैठने लगा। लड़का पहली बार इतनी दूर, परदेश में जा रहा था। और फिर नयी-नवेली बहू को पीछे छोड़कर जा रहा था।
"मीतू को भी क्यों नहीं ले जाते? घूम आएगी।" इन्होंने कहा था। लेकिन मीता ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। वह बोली, "बेकार रुपए फेंकने से क्या फ़ायदा पापा जी! ध्रुव का खर्च तो कम्पनी देगी। मेरा तो हमीं लोगों को उठाना पड़ेगा। कभी अपना भी चान्स आएगा। है न शिव?"

वह हमेशा की तरह हँसमुख बने रहने का भरसक प्रयास करती, पर कभी-कभी उसका चेहरा बेहद उदास हो आता। स्वाभाविक भी था। पर मुझे चिन्ता हो चली थी। आखिर मैंने एक दिन ध्रुव से कहा, "बेटे, तुम्हारे लौट आने तक मीता अपने पापा के यहाँ रहे तो कैसा है?"
"कहीं भी रह लेगी माँ! छ: महीने की तो बात है। पलक झपकते बीत जाएँगे। और सब-कुछ ठीक-ठाक रहा तो लौटते समय पन्द्रह-बीस दिन के लिए उसे बुला लूँगा। घूम-घाम लेंगे।"

उसने तो बात समाप्त कर दी थी, पर मेरी चिन्ता वैसी की वैसी बनी हुई थी। बच्चों के पापा का इन दिनों कुछ ठीक नहीं था। वह यहाँ उदास बनी रहेगी तो उसका सम्बन्ध सीधे मुझसे जोड़ देंगे। इसीलिए डर लग रहा था।

शिव और मीता उसे छोड़ने बम्बई तक गए थे। लौटकर मीता अपने पापा के यहाँ चली गई। उसकी भाभी के यहाँ लड़का हुआ था। फिर महीने-भर बाद भाभी अपने पीहर चली गई तो उसने घर की देखभाल के लिए वहाँ रह जाना चाहा तो हमने कोई आपत्ति नहीं की।
घर एकदम सुनसान हो गया था।

बच्चों के पापा ध्रुव से ज़्यादा मीता को मिस कर रहे थे। हर चौथे-आठवें दिन समधियाने पहुँच जाते। कभी घसीटकर साथ मुझे भी ले जाते। तब समधी जी चुटकी लेते, "अपने बच्चों के लिए कैसे दौड़-दौड़कर आ जाते हैं आप। मुझ गरीब की तो कभी सुध भी न ली।"
शिव भी अक्सर देर से घर लौटता। कभी भाभी के साथ शॉपिंग करनी होती थी या कभी उन्हें मूवी दिखानी होती थी।

कभी-कभार वह भी घर पर आ जाती, पर पहले का-सा तूफ़ान बरपा नहीं करती। हँसती - खिलखिलाती, पर उसमें पहले की-सी जीवंतता नहीं थी। जब वह चली जाती तो यह कहते, "कहा था, साथ चली जाओ। तब नहीं मानी, पैसे का मुँह देखती रही। अब मन-ही-मन घुल रही है।"

मार्च का अंतिम सप्ताह रहा होगा। एक रात इनके पेट में ज़ोर का दर्द उठा। पत नहीं कितनी देर से तड़प रहे थे। मेरी तो अचानक नींद खुली तो देखा, पेट पकड़े बैठे हैं। चेहरा सफ़ेद पड़ गया है।
"क्या हुआ?" मैंने घबराकर पूछा, "क्या पेट दर्द कर रहा है?"

उन्होंने जवाब नहीं दिया। मैं उठी, पानी गरम किया। रुई में हींग की डली लपेटकर उसे जलाया। फिर प्लेट में अजवायन, काला नमक, हींग और गरम पानी लेकर इनके पास आई। वे मना करते रहे, पर जब मैं बार-बार आग्रह करने लगी तो चिढ़कर बोले, "ज़रा बात तो समझा करो। वैसा दर्द नहीं है भाई!"
"फिर कैसा है?"
"मैं मैं दोपहर से बाथरूम नहीं गया हूँ।"
"और अब बता रहे हैं!" मैं फटी-फटी आँखों से उन्हें देखती रह गई। 
शिव के पेपर्स चल रहे थे। पढ़कर शायद अभी-अभी सोया था, पर उसे जगाना पड़ा। उतनी रात जाकर वह डॉ. शुक्ला को लिवा लाया।
उन्होंने मुआयना किया और पूछा, "ये तकलीफ़ कब से है आपको?"
"जी, १५-२० दिन से थोड़ा कष्ट हो रहा था।"

इतना ताव आया मुझे। इतने दिनों तक चुप बने रहने में क्या तुक थी! शिव बोला, "माँ! यह समय गुस्सा करने का नहीं है। बाद में निपट लेना। पहले उन्हें सम्हालो।"
राम-राम करके वह रात बीती। सुबह भर्ती होना ही पड़ा। प्रोस्टेट की शिकायत थी। ऑपरेशन ज़रूरी था। इन्होंने पहले ही अपने आदेश सुना दिए :
प्राइवेट नर्सिंग होम नहीं जाएँगे।

सरकारी अस्पताल में भी प्राइवेट वार्ड नहीं लेंगे। जनरल में रहेंगे। इस ऑपरेशन के बाद नर्सिंग की बहुत ज़रूरत होती है। प्राइवेट वार्ड में कोई झाँकता भी नहीं। दस बार बुलाने जाना पड़ता है।

उनकी बात न मानने का कोई उपाय नहीं था। खजाने की चाबी उन्हीं के पास थी। ध्रुव यहाँ होता तो बात दूसरी थी, पर अब उतनी दूर से बुलाने का कोई मतलब भी न था।



जनरल वार्ड में जो एक रात गुज़ारी है - उफ! ज़िन्दगी-भर याद रहेगी। इनकी वैसी हालत में नींद आने का कोई प्रश्न ही नहीं था। पर आसपास के वातावरण ने मन को इतना बोझिल कर दिया कि सुबह उठकर लगा, मैं ही बीमार हूँ। और दुर्गन्ध अब भी याद आती है तो मन पर काँटे-से उग आते हैं। सुबह शिव कहीं से चाय लाया था मेरे लिए, पर घूँट भर भी गले से नहीं उतरी।

दस बजे ऑपरेशन होने को था। नौ बजे ही इन्हें स्ट्रेचर पर डालकर ले गए। मैं और शिव भी पीछे-पीछे चल पड़े। जहाँ तक जाने दिया वहाँ तक गए। फिर मैं वहीं बैठकर इष्टदेव का जाप करने लगी। शिव बेचारा दौड़-धूप में व्यस्त हो गया।
"नमस्ते बहिन जी!"
मैंने चौंककर देखा - मीता के पापा थे।
"आपने तो ख़बर भी नहीं की। इतने बेगाने हो गए हैं हम लोग !"
उनके स्वर में आक्रोश था, शिकायत थी। मैं क्या जवाब देती।
"वो तो मीतू अभी किसी काम से घर गई थी, तब पड़ोस के मेहता साहब ने बताया।"
"सब-कुछ इतना अचानक हो गया," मैंने अपराधी स्वर मे कहा, "शिव बेचारा एकदम अकेला पड़ गया था। सारी दौड़-भाग उसी के ज़िम्मे थीं।"
"यही तो मैं कह रहा हूँ। उसे अकेले सारी दौड़-भाग करने की क्या ज़रूरत थी! हम लोग किसलिए हैं? कल को ध्रुव सुनेगा तो क्या कहेगा?"

उनसे तो जो भी कहेगा, मुझे तो अपनी चिन्ता हो गई थी। ध्रुव मुझसे क्या कहेगा? इन पर इतना ताव आ रहा था। दर्द से तड़प रहे थे, पर मजाल है जो बटुए की पकड़ ज़रा-सी ढीली हो जाए। जनरल वार्ड में रहेंगे। वहाँ नर्सिंग अच्छी होती है - हुँह! अब इतने बड़े आदमी को उस नर्क में ले जाऊँगी तो कैसा लगेगा!
अपनी उस दुश्चिन्ता में यह पूछना भी याद न रहा कि मीता कहाँ है।

साढ़े ग्यारह बजे उन्हें थियेटर के पासवाले कमरे में लाकर रक्खा गया। ऐसे हट्टे-कट्टे, हँसते-बोलते व्यक्ति को इस तरह असहाय अवस्था में देखकर मेरी तो रुलाई फट पड़ी। मीता के भाई नरेश मुझे सहारा देकर बाहर ले आये और वापस बेंच पर बिठा दिया। असहाय-सी मैं वहाँ बैठी रही।

दो घंटे बाद उन्हें वार्ड में ले जाने की अनुमति मिली। ये दो घंटे मेरे लिए दो युग हो गए थे।
वार्ड में वापसी के समय काफिला जरा बड़ा था। घर-परिवार के लोग थे और स्टाफ के भी। ढेर-सी शीशियाँ स्ट्रेचर के साथ चल रहीं थीं और सब लोग उन्हें उठाए हुए थे।
"माँ, तुम सीढ़ियों से आ जाओ। लिफ्ट में तुम्हें परेशानी होगी।" शिव ने कहा तो मैं सीढ़ियों की ओर मुड़ गई।

हाँफती-हाँफती ऊपर पहुँची, तब तक स्ट्रेचर शायद वार्ड में पहुँच चुका था, क्योंकि गलियारे में उसका कहीं पता नहीं था। मैं वार्ड तक पहुँची ही थी कि नरेश जी की आवाज़ आई, "माँजी, इधर आइए।"
उनके पीछे चलती हुई मैं गलियारे के छोर तक पहुँची। डीलक्स रूम का दरवाज़ा खुला और खाली स्ट्रेचर थामे लोग बाहर निकले।
'यह कमरा!" मैंने अस्फुट स्वर में कहा।
"भाभी ने बुक करवाया है।" मेरा असमंजस ताड़कर शिव पास आकर फुसफुसाया।
"ये उसके बस की ही बात थी जी," उसके पापा गर्व से बता रहे थे, "सुपरिंटेंडेंट से जाकर भिड़ गई। खड़े-खड़े रूम अलॉट करवा लिया। बहुत लड़ाकू है यह लड़की।" 
मैंने मीता की ओर देखा। वह चुपचाप इनके पलंग के पास खड़ी थी।

"घर पर तो तिनका भी नहीं उठाती, "नरेश बोले, "यहाँ आई है, तब से सफ़ाई में जुटी है। तीन बार तो घर के चक्कर लगा आई है।"
"ये सास जी को खुश करने के फार्मूले हैं।" समधी जी ने स्नेहसिक्त स्वर में कहा।

कमरा सचमुच धुला-पुछा चमक रहा था। दोनों पलंगों पर घर की साफ़ चादरें और तकिये रखे हुए थे। टेबल पर सफ़ेद टेबल क्लाथ था। अलमारी में काग़ज़ बिछे हुए थे। उसमें मेरे और इनके कुछ कपड़े तहाकर रक्खे हुए थे। चाय, शक्कर, कप, प्लेटें, माचिस कुछ भी नहीं भूली थी वह। बाथरूम में बाल्टी, मग, तौलिया, चौकी - सब व्यवस्थित ढंग से सजा हुआ था।
थोड़ी देर में स्टोव की घरघराहट शुरू हो गई। देखा, मीता चाय बना रही थी।

"माँ, चाय पी लीजिए।" थोड़ी देर में वह मेरे सामने खड़ी थी। कमरे में आने के बाद से उसने पहली बार बात की थी और उसका स्वर अत्यंत सपाट था।
"चाय! यहाँ?" मैंने एक बेमतलब-सा जुमला उठाया।
"तो कहाँ पीएँगी! क्या पापा को इस हालत मे छोड़कर आप घर जाएँगी?"

उसकी बात में तर्क था, पर उससे भी ज़्यादा वज़नदार उसकी आवाज़ थी। मैंने चुपचाप प्याला ओठों से लगा लिया। मेरे चाय लेते ही सबने जैसे राहत महसूस की, क्योंकि सभी थके हुए थे। 
बहुत बेमन से प्याला उठाया था मैंने, पर सच कहूँ तो पीने के बाद जी एकदम हलका हो गया। सुबह से सिर भारी हो गया था। यह भी थोड़ा उतर गया।

पाँच बजे के करीब उन्हें कुछ होश आया। मीता उनके पास ही बैठी हुई थी। उसे देखकर उतनी पीड़ा में भी वे थोड़ा-सा मुस्करा दिए। तब मुझे अहसास हुआ कि सचमुच उनकी यंत्रणा बहुत भीषण रही होगी। नहीं तो क्या ऑपरेशन से पहले एक बार भी अपनी लाड़ली बहू को याद न करते?

"पापा, आप और भैया अब घर जाइये।" मीता का फरमान छूटा, 'रात को मेरा और माँ का खाना लेकर भैया आएगा। आप अब सुबह आइएगा।"
"मैं फल-फूल खा लूँगी।" मैंने हल्का-सा प्रतिवाद किया।
"आपके लिए पक्का खाना बन जाएगा।" उसने मेरी ओर बिना देखे जवाब दिया।
"वैसे बहन जी, चाहें तो हमारे साथ घर चलकर..."
"पापा, प्लीज!" उसने जैसे सारे विवाद को समाप्त करते हुए कहा और उन दोनों को जबरन घर रवाना किया। फिर शिव के साथ बैठकर उसने सारे पर्चे पढ़े और फिर शिव को दवाइयाँ लाने भेज दिया और खुद इनके पलंग के पास स्टूल खींचकर बैठ गई।

दूसरे पलंग पर मैं चुपचाप पड़ी रही। बोलने की शक्ति ही नहीं रह गई थी। दो रातों का जागरण था, थकान थी, तनाव था। कब झपकी लग गई, पता ही नहीं चला। मीता ने खाने के लिए जगाया, तब जाकर आँख खुली।
समधी जी से रहा नहीं गया होगा। खाना लेकर खुद आ गए थे। बदले में लाड़ो की फटकार भी सुननी पड़ी। वे शिव का भी खाना लाए थे, पर मीता ने उसे अस्पताल में खाने नहीं दिया।
"तुम पापा के साथ घर जाओगे और सुबह पेपर के बाद ही यहाँ आओगे। समझे?"
"लेकिन भाभी - यहाँ " वह मिमियाया।
"यहाँ की चिन्ता मत करे। यहाँ मैं हूँ, माँ हैं, भैया है।"

शिव बहुत कुनकुनाया, पर आखिर उसे जाना ही पड़ा। उन लोगों को छोड़ने के लिए नरेश जी नीचे तक गए। मीता ने उनसे मेरे लिए पान मँगवाया। पान के बिना आज पूरा दिन हो गया था, पर मुझे याद ही नहीं आई थी। पर पता नहीं कैसे मीता जान गई थी कि खाने के बाद मुझे तलब ज़रूर आएगी।

खाने के बाद उसने मेरा बिस्तर ठीक किया। फिर बाथरूम में जाकर सारी प्लेटें-गिलास धो ड़ाले। दूध एक बार फिर गरम किया और सोने की तैयारी करने लगी।
"भैया, बारह बजे तक मैं एक झपकी ले लूँ। फिर ड्यूटी पर आ जाऊँगी। फिर चाहे आप पूरी रात सोये रहना।" उसने कहा और आरामकुर्सी में हाथ का तकिया बनाकर लेट गई।
नरेश जी पलंग के पास एक कुर्सी खींचकर बैठ गए। मेरे आराम में ज़रा भी खलन न डालते हुए दोनों भाई-बहन नाइट ड्यूटी निभाने को तत्पर थे। मुझे कैसा तो लगा।
"मीता!" मैंने स्नेहसिक्त स्वर में आवाज़ दी, "भैया आरामकुर्सी में लेट जाएँगे। तू इधर पलंग पर आ जा ना, दिन-भर खड़ी की खड़ी है।"

पता नहीं मेरी आवाज़ में कुछ था या उसने प्रतिवाद नहीं करना चाहा। वह चुपचाप मेरे पास आकर लेट गई। "आप सोने लगें तो मुझे जगा लीजिएगा भैया, "उसने कहा और आँखें मूंद ली। नरेशजी आरामकुर्सी पलंग के पास खिसकाकर उसमें लेट गए। कमरे में एक अजीब-सी शांति छा गई।

मैंने मीता की ओर देखा। पता नहीं क्यों उसे देखकर मुझे सविता की याद हो आई। दो बच्चों की माँ हो गई है, पर अब भी कभी-कभी उस पर बचपन सवार हो जाता है। माँ के पास लेटने का मोह हो आता है। उन क्षणों में वह एकदम नन्हीं सवि बन जाती हैं।

मेरे पास लेटी यह नन्हीं-सी-लड़की! इसका भी तो कभी-कभी मन होता होगा! तब किसके आँचल में मुँह छुपाती होगी। बड़ी बहन है, वह सात समन्दर पार इतनी दूर है। भाभी तो खुद ही लड़की है अभी।

वह मेरी ओर पीठ करके लेटी थी निस्पंद। सलवार-सूट उतारकर उसने नाइटी पहन ली थी। उसमें वह एकदम बच्ची-सी लग रही थी। दिनभर किसी उग्र तेज़ से दपदप करता उसका चेहरा अब एकदम निरीह, निष्पाप शिशु का-सा लग रहा था।

ममता का एक ज्वर-सा उठा मन में। एकदम उसे अंक में भर लेने की इच्छा हुई। पर संकोच से मैं बस उसकी पीठ पर, बालों पर हाथ फेरती रही। वह मेरे वात्सल्य के उद्रेक से अनजान वैसी ही निस्पंद पड़ी रही।

अचानक मेरी उँगलियाँ उसकी पलकों को छू गई। वे गीली थीं। 
"क्या हुआ बेटे?" मैंने प्यार से पूछा।
वह कुछ नहीं बोली। बस, जैसे रुलाई रोकने के लिए होंठ सख्ती से भींच लिए।
"अपने पापा जी के लिए परेशान हो? पर डॉक्टर साहब तो कह रहे थे, वे एकदम ठीक हैं। ऑपरेशन बहुत अच्छा हुआ है। बस, एक-दो दिन में उठकर बैठ जाएँगे। यही कह रहे थे न!" कहते-कहते मैं भी शंकाकुल हो उठीं।

वह एकदम पलटी। कुछ क्षण मुझे देखती रही, फिर मेरी छाती में मुँह छुपाकर सुबकते हुए बोली, "पहले यह बताइये, आपने हमें ख़बर क्यों नहीं की? पापा जी इतने बीमार हो गए और किसी को मेरी याद भी न आई?"
यही तो। अपने-आपको कटघरे में खड़ा करके मैं बार-बार पूछ रही थी - मुझे उसकी याद क्यों न आई? अपनी बिटिया को कैसे भूल गई थी मैं?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

विरह विगलित कदंब: पुष्पा भारती

विरह विगलित कदंब पुष्पा भारती साहित्य सहवास में चारों ओऱ बड़े करीने से हरियाली उग आई थी। अपनी मेहनत की सफलता पर खुश भी थे भारती जी कि सहसा उ...