सहसा विश्वास ही नहीं हुआ नारायण पारीकर को। पसीने की बूंदें उनके माथे पर चुहचुहा आईं।
“ क्या कहा तुमने ? ” महीन आवाज में उन्होंने फिर पूछा।
नहीं... सुनने में कोई गलती नहीं हुई। लेकिन यह कैसे संभव है ? केवल बयालीस प्रतिशत अंक। उन्हें लगा मानो फूलों से लदा हुआ कोई पेड़ अचानक सूखने लगा हो और फिर सारे फूल मुरझाकर जमीन पर नीचे गिर गए हों।
पत्नी की आवाज उन्हें विचित्र-सी प्रतीत हो रही थी।
“ तुमसे कुछ गलती हुई होगी...” उन्होंने कहना चाहा, पर आवाज फुसफुसाहट में तब्दील होकर रह गई। स्वर उनके कानों तक भी अपना रास्ता नहीं बना पाए।
बच्चे को आईआईटी में दाखिला मिल जाए, वह एक आईआईटियन के पिता कहलाएं बस इतना ही उन्होंने चाहा था। इकलौता लड़का था। जीवन की सारी जमापूंजी यही लड़का था। आदित्य से ही उनके जीवन में प्रकाश था और आदित्य से ही जीवन के सारे सपने जुड़े हुए थे।
एक सरकारी उपक्रम में लोअर डिवीज़न क्लर्क की हैसियत से काम करते हुए कई बार उन्हें बड़ी कठिनाइयों की स्थिति से गुजरना पड़ा... जीवन में कितनी ही बार दुख और अपमान उन्हें झेलना पड़ा। पर यह दुख उनके तमाम दुखों से बड़ा था। उन्हें प्रतीत हुआ मानो पत्थर की एक भारी सिल उनकी छाती पर रख दी गई हो।
भले ही असाधारण प्रतिभावान न हो आदित्य... मगर औसत बच्चों से तो ऊपर ही था। दसवीं में भी अंक उसके कुछ खराब नहीं थे। बल्कि अस्सी प्रतिशत से कुछ अधिक ही अंक थे। दो साल पहले जब दसवीं का रिजल्ट आया था तो उनका सीना चौड़ा हो गया था। हालांकि छोटे भाई ने उन्हें ताना मारा था – “ क्या एट्टी फोर परसेंट गा रहे तुम तब से... आजकल पंचानवे प्रतिशत लाना भी किसी काम का नहीं है। ऐसे में चौरासी प्रतिशत का महत्व ही क्या है? अरे, नाइन्टी फाइव परसेंट वाले बच्चे भी सड़क पर घूमते हैं। ”
छोटा भाई सरकारी महकमे में पर्चेज ऑफिसर है, जहां उसकी बेहिसाब ऊपरी कमाई है। पर्चेज ऑफिसर का बंदर उसके सर पर चढ़ा रहता है और सबको अपने जूतों तले रखना भाई के व्यवहार में शामिल है। पर्चेज ऑफिसर का बंदर वह कंधों पर बैठाकर घर भी ले आता था। घर पर मिलने आने वालों, पड़ोसियों, सगे-संबंधियों पर भी वह बंदर खौंखियाता और गुर्राता रहता था। इन लोगों की अपनी ज़रूरतें थीं और भाई के रुतबे के कारण या अपरिहार्यता में पैसों की ज़रूरत के कारण ये लोग कटखन्ने बंदर को बर्दाश्त करते थे और भाई की प्रशंसा में कसीदे पढ़ते थे। इस छोर से लेकर उस छोर तक दुनिया में सभी को बेइज्जत करने वाला बंदर बस एक भाई की बीवी के सामने भीगी बिल्ली बन जाता था और बीवी के आंख दिखाने भर से उसकी घिग्घी बंध जाती थी। नारायण पारीकर यह भी जानते थे कि भाई के बड़े लड़के ने दसवीं की परीक्षा में छियानवे प्रतिशत अंक लाए हैं। इसलिए उसके नीचे के अंक पाने वाले सभी लोग उसकी नजर में हेय हैं। इस कारण भाई की बातों पर ध्यान देने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं थी। लेकिन अपने बच्चे को इंजीनियर बनाना कब उनके जीवन का सबसे बड़ा सपना बन गया, उन्हें पता ही नहीं चला।
शहर में कुकुरमुत्ते की तरह उग आए आईआईटी कोचिंग क्लासों और इंजीनियरिंग के तमाम प्रशिक्षण संस्थानों की जानकारी उन्होंने पहले ही हासिल कर ली थी। एक्सेल ट्रेनिंग इन्स्टिट्यूट उनकी नजर में उत्कृष्ट था और वहां से काफी बच्चे हर साल आईआईटी कॉलेजों के लिए चुने जाते थे। फीस बहुत अधिक थी वहां की। डेढ़ लाख प्रति वर्ष से भी कुछ अधिक। दो साल की ट्रेनिंग का खर्च लगभग तीन लाख होता था। पर उन्होंने मन में यह बात ठान ली थी कि बेटे को यह प्रशिक्षण दिलाना ही है। अटल विश्वास था कि इस प्रशिक्षण से आदित्य अवश्य आईआईटी कॉलेज के लिए चुन लिया जाएगा।
पत्नी कई बार पूछती भी कि बैंक से कर्जा लेकर इतना कुछ करने का क्या फायदा?
नारायण पारीकर गरम हो जाते थे। एक ही तो लड़का है उनका - “ अरे, हमारे समय में यह सारी सुविधाएं नहीं थीं और हम कुछ नहीं कर सके तो हमारे बच्चे भी कुछ नहीं पढ़ें ? अपनी अगली पीढ़ी को अपने से कुछ बेहतर बनाने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। दादू को ही देखो। खुद चौथी कक्षा तक भी नहीं पढ़े थे दादू , पर उन्होंने बाबूजी को हाई-स्कूल पास करवाया। समझती हो न उस जमाने में हाई-स्कूल पास करने का मतलब ? बाबूजी को कोर्ट में भले ही पक्की नौकरी नहीं मिली पर इतना तो कमा-खा लेते थे कि मुझे बी.ए. कराया उन्होंने। फिर मेरी तो कोशिश यही होनी चाहिए कि मेरा बच्चा साधारण ग्रैजुएट न होकर कुछ बेहतर करे। आईआईटी एक बार कर ले ना... तो समझो कि सारे जीवन का दलिद्दर दूर हो गया अपना। ”
दफ्तर में भी दसवीं के रिजल्ट की मिठाई खिलाते हुए उन्होंने सबको बता दिया था कि भई आदित्य को अब आईआईटी की कोचिंग करानी है... इस छुट्टी में भी कहीं घूमने न जाकर आदित्य को आईआईटी पवई का कैम्पस दिखाने ले जा रहे हैं... और यह तो उसे आईआईटियन बनाने का यह एक कदम भर है।
दफ्तर के सहकर्मी मित्र हमेशा यही कहते थे कि बारहवीं पूरा कर के आपका लड़का आईआईटी कानपुर या आईआईटी खड़गपुर में होगा।
तब वे अपने आपको बहुत विनम्र बनाने का प्रयास करते थे - “ सर.. आप लोगों का आशीर्वाद बना रहे... कितना भी पढ़-लिख जाए... कोई सुरखाब के पर तो नहीं ना लग जाएंगे आईआईटियन में... रहेगा तो आप सबका बच्चा ही ना... हम तो बस उसको सुविधाएं उपलब्ध करा सकते हैं। पर आगे का काम तो उसका है। अगर पढ़ेगा तो आईआईटी करेगा। बड़ी कंपनियों का सी.ई.ओ. बनेगा। लाखों के पैकेज हासिल कर सकता है... और नहीं पढ़ेगा तो मेरी तरह बस की लाइन में खड़ा रहेगा। बस.. आप सब का आशीर्वाद सबसे बड़ी चीज है... ”
एक्सेल ट्रेनिंग इन्स्टिट्यूट की दो साल की कोचिंग के लिए तीन लाख रुपए की रकम तो उन्होंने जुटा ली थी। पर इन्स्टिट्यूट से कोचिंग प्राप्त करना इतना आसान नहीं था। उन्हें हैरानी हुई जानकर कि कोचिंग के लिए भी एन्ट्रेन्स एक्जाम देना था और उसमें चुने जाने पर ही कोचिंग दिए जाने का प्रावधान था।
इस प्रवेश परीक्षा में आदित्य का चयन हो जाए इसके लिए उन्होंने क्या कुछ नहीं किया। आदित्य को इसकी तैयारी कराने के साथ-साथ कोचिंग क्लास के प्रशिक्षकों से मिलकर उन्हें प्रसन्न करने का कोई भी अवसर वे चूकते नहीं थे।
कोचिंग क्लास के लिए एन्ट्रेन्स परीक्षा में आदित्य के सफल होने पर नारायण पारीकर को लगा कि उन्होंने दुनिया फतह कर ली है। उन्होंने समझ लिया कि अब आईआईटी में बच्चे का सिलेक्शन होना ही होना है और अब यह केवल दो साल के समय भर की बात है।
दोस्तों के साथ कभी-कभी शराब पी लिया करते थे वे। यह उन्होंने बंद कर दिया। महीने में कभी फिल्म देखने जाया करते थे। इस खर्च पर भी उन्होंने कैंची चला दी। घर में टीवी का केबल कनेक्शन भी कटवा दिया। उन्हें न केवल एक-एक पैसा बचाना था, बल्कि बच्चे को भी पूरी तरह से पढ़ाई में झोंक देना था।
ग्यारहवीं के नतीजे देखकर उन्हें अचरज हुआ था। आदित्य के अंक संतोषजनक तो हरगिज़ नहीं थे। आदित्य ने बताया था कि कोचिंग क्लास में आईआईटी प्रवेश की तैयारी कराई जा रही है और उस तैयारी का ग्यारहवीं या बारहवीं के पाठ्यक्रम से कोई संबंध नहीं है। भाव कुछ-कुछ यह था कि सारा ध्यान आईआईटी की परीक्षा पर होने के कारण ग्यारहवीं में कम अंक आना लाजिमी है। इस दलील से संतुष्ट तो नहीं थे नारायण पारीकर, पर फिर भी उन्हें लगा कि बारहवीं में लड़का कवर कर लेगा।
आदित्य के अंकों को छुपाने की कोशिशों के बावजूद भाई की पत्नी कभी मीठा बोलकर अथवा अन्य किसी प्रकार खबर निकाल लेती थी। अफरात पैसे होते हुए भी भाई पढ़ाई के खर्च या पैसों के इंतजाम के बारे में कभी बात नहीं करता था। पैसों की ज़रूरत है नारायण पारीकर को , इस बात की भनक लगते ही भाई की पत्नी अपनी अमूर्त तकलीफों का रोना रोने लगती थी। तब पर्चेज़ ऑफिसर का बंदर सुसुप्तावस्था में चला जाता था। लेकिन कम अंकों को लेकर या आदित्य को लताड़ने का कोई भी मौका हासिल होने पर बंदर दुगुनी तेजी से सक्रिय होकर कूदना - फांदना शुरू कर देता था।
एक नई समस्या भी इस बीच आ गई थी। पहले आईआईटी की परीक्षा के लिए बारहवीं के अंकों का विशेष महत्व नहीं होता था, पर इस वर्ष ऐसा कुछ नियम बन गया था कि आईआईटी परीक्षा के लिए बारहवीं की परीक्षा के अंकों को भी वेटेज दिया जाएगा। अब आईआईटी एन्ट्रेंस एक्ज़ाम के साथ–साथ बारहवीं में भी अच्छे नंबर लाना आवश्यक हो गया था।
“ सब बेकार की बातें हैं। हर थोड़े दिन में ये लोग रूल्स बदलते रहते हैं... ” वे पत्नी से कहते, “ हमारे समय में सबसे अच्छा था भई। न अंकों को लेकर इतनी टेंशन होती थी, न एडमिशन को लेकर इतने पापड़ बेलने पड़ते थे। ”
वैसे नारायण पारीकर मजबूत व्यक्ति थे और लोग उनकी शालीनता का सम्मान करते थे। उनके विचारों की कदर की जाती थी। वक्त-ज़रूरत लोग विभिन्न महत्वपूर्ण मसलों पर उनसे मशवरा करने भी आते थे। पर बच्चे की आईआईटी की पढ़ाई को लेकर वे कई बार खुद को बहुत कमजोर महसूस करते थे।
पत्नी कई बार कहती थी कि यह कोचिंग का पैसा तो ठीक है, तुमने लोन लेकर इंतजाम कर लिया है, पर यह तो बस तीन लाख की बात है, आईआईटी के लिए तो अलग से व्यवस्था करनी होगी। फिर इन्स्टिट्यूट का खर्चा। होस्टल, खाने-पीने का खर्च, सब कैसे होगा ? आईआईटी की किताबें कोई सौ-पचास वाली थोड़े ही होंगी। वह सब हम कैसे करेंगे?
नारायण पारीकर मुस्कुराते थे। “ अब कुछ समझ में आए तुम्हारे तब तो बताऊं... अरे भई, एजुकेशन लोन लेंगे। शिक्षा के लिए ऋण तो इसका जब तक चार साल का आईआईटी का कोर्स चलेगा, तब तक चुकाना ही नहीं है। यह तो छोड़ो, कोर्स समाप्त होने के बाद भी एक साल का समय दिया जाता है, ताकि विद्यार्थी इस अवधि में जॉब पर लग जाए और खुद अपना लोन चुकाए। समझती क्या हो तुम ? अरे, ज्यादा से ज्यादा कुछ खर्च हुआ भी तो दस-पंद्रह लाख होगा और आईआईटी के बच्चे को अच्छा पैकेज मिल जाए तो एक साल की नौकरी में वह अपना लोन चुका सकता है।” यह बताते समय उनका चेहरा एक विचित्र-सी आभा से दमकने लगता था और वे देखने लगते थे कि आदित्य एक बहुत बड़े कंपनी के सी.ई.ओ. के रूप में अपने बड़े से केबिन में बैठा हुआ है और अपने किसी प्रोडक्ट को लॉन्च करते हुए फोटो खिंचा रहा है। फिर वे देखने लगते कि किसी कार कंपनी की नई कार के साथ उसका फोटो अखबारों में छपा हुआ है।
कई बार वे कल्पना करने लगते कि वे आदित्य से मिलने उसके ऑफिस गए हुए हैं। पत्नी भी साथ है। जहां आदित्य की सेक्रेटरी उनको अंदर जाने से डपटकर रोक रही है।
“ दिखाई नहीं देता ? पढ़े-लिखे बिल्कुल नहीं हैं आप लोग ? यह सी.ई.ओ. साहब का केबिन है। सीधे अंदर जाने की बात कैसे सोच ली आप लोगों ने। घुसे ही चले जा रहे हैं... अरे कुछ काम है तो कन्सर्न्ड डिपार्टमेंट में जाइए। कोई कम्पलेन्ट है तो शिकायत अधिकारी के पास जाइए। ” नारायण पारीकर देखते कि इसके बावजूद वह पत्नी के साथ अंदर जाने का उपक्रम कर रहे हैं।
सेक्रेटरी ने तब तक सेक्योरिटी ऑफिसर को बुला लिया है। तब वह बता रहे हैं कि भई आप अपने सी.ई.ओ. साहब को बाहर बुला लीजिए। अगर वह हमें कह देंगे कि आप यहां से चले जाएं... तो हम चले जाएंगे। तब कोई आपत्ति नहीं है हमें। सेक्योरिटी ऑफिसर भी उन्हें समझा रहा है कि साहब का अभी लंच अवर्स है। उन्हें डिस्टर्ब मत करो। पत्नी ऐसे समय पर बड़ी समझदार हो जाती है- “ अरे, इतनी सेक्रेटरी बनी हो... तो जरा यह भी देख लो कि यह जो तुम्हारे साहब हैं अंदर आदि... सॉरी..सॉरी.. मिस्टर आदित्य पारीकर साहब... वो मेरी बनाई हुई मूंग की दाल और गोभी की तरकारी खा रहे हैं पराठों के साथ। अंमिया का अचार अलग से। ”
सेक्रेटरी अब शंकित हो रही है- “ मतलब क्या है आपका? ”
“ वही तो कह रहे हैं.... ” कह रहे हैं नारायण पारीकर, “ जरा सीईओ साहब को बाहर बुला दीजिए। वे मना करेंगे तो हम चले जाएंगे। ”
तभी दरवाजा खुलता है और सूट-बूट और टाई में आदित्य बाहर निकल रहा है। वह आश्चर्य से बोलता है, “ अरे मां - पापा आप लोग यहां क्या कर रहे हैं ? फोन कर देते तो नीचे सेक्योरिटी पर्सन्स आपको लेने आ जाते। ”
मुस्कुराने लगते हैं नारायण पारीकर। पत्नी भी मुस्कुरा रही है। बड़े मन का होना चाहिए। अब सेक्रेटरी को क्या पता कि हम लोग कौन हैं? किसी का बुरा नहीं होने देगी पत्नी। प्रत्यक्षत: वह बोलती है, “ अरे बेटा, तुम्हारा सेक्योरिटी ऑफिसर ही हमें यहां तक लेकर आया है और यह तुम्हारी सेक्रेटरी भी इतनी भली है... यह तो हमें अंदर छोड़ने ही जा रही थी... ”
सेक्योरिटी ऑफिसर और सेक्रेटरी दोनो पानी-पानी हो रहे हैं। सेक्योरिटी ऑफिसर ने तो दोनों हाथ जोड़ दिए हैं। पत्नी कह रही है, “ बेटा इतने अच्छे लोग हैं यहां के... थोड़े इंक्रीमेंट वगैरह दो इन लोगों को। बोनस – वोनस दो कुछ स्टाफ को अपने...”
आदित्य – “ देखेंगे ... देखेंगे मां ... आइए आइए, आप लोग अंदर तो आइए, अंदर तो आइए पापा...”
खींचकर अंदर ले जाता है आदित्य। बाप रे... केबिन क्या है , पूरी दुनिया है भीतर। डिज़ाइनर इंटीरियर। एक तरफ सोफे हैं। एक तरफ डायनिंग टेबल-चेयर्स। अंदर चलें। आदित्य की कुर्सी है या महाराजा का सिंहासन। यहां स्टडी-कॉर्नर। कांच के बुक शेल्फ में करीने से सजी किताबें। इतनी किताबें पढ़ता है क्या आदित्य...?? ये हेनरी मूर का बनाया हुआ विख्यात पत्थर का पुतला... इधर दूसरी तरफ इटैलियन चित्रकार माइकेल एंजेलो की दुर्लभ पेन्टिंग... अरे बाबा... इतना बड़ा एलईडी टी.वी. ...
तंद्रा टूटती है नारायण पारीकर की।
“ क्या हुआ पारीकर जी... ? कमलकांत रस्तोगी पूछ रहे हैं, “ यह फोन हाथ में लेकर क्यों खड़े हैं आप। क्या बड़े साहब ने कुछ काम बता दिया है? ”
“ नहीं...नहीं .. ” संभलते हैं वे और फोन रख देते हैं। पसीना पोंछते हैं नारायण पारीकर।
पहला झटका उन्हें तब लगा था जब आईआईटी के लिए योग्यता की परीक्षा में आदित्य के अंक बहुत कम आए थे और वह आईआईटी में दाखिला लेने की पात्रता से ही बाहर हो गया था। कंप्यूटर पर उसके नाम और नंबर के आगे गाढ़े लाल रंग में “ नॉट एलिजिबल ” लिखा देखकर वह स्तब्ध रह गए थे। अरे, ये कैसे संभव है। यानी आईआईटी की परीक्षा में एपियर भी नहीं हो सकता आदित्य ?
उनके भीतर कुछ ‘चटाख’ की आवाज़ के साथ टूटा था। पता नहीं क्या। कोई बात नहीं, आईआईटी एन्ट्रेन्स परीक्षा अलग चीज़ है और बारहवीं की परीक्षा अलग चीज़। सिर्फ आईआईटी से ही बाहर हुआ ना ? सिर्फ आईआईटी से ही बाहर हुआ ना ? दूसरे बड़े इंजीनियरिंग कॉलेज अभी बाकी हैं। कोई बात नहीं।
उम्मीद अभी बाकी थी। अगर बारहवीं में अच्छे अंक उसे मिल जाते तो वह किसी बड़े इंजीनियरिंग कॉलेज से इंजीनियरिंग कर सकता था। कोई बात नहीं। आईआईटी इतना आसान थोड़े ही है? अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज से भी इंजीनियर बन गया तो भी पद, पैसा, प्रतिष्ठा कहीं नहीं गया।
और अब बारहवीं के अंकों की सूचना पत्नी ने फोन पर दे दी थी। फोर्टी टू परसेंट। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था कि वे क्या करें।
मल्होत्रा साहब केबिन से बाहर निकलकर उसके सामने आ खड़े हुए थे- “ पारीकर जी नेट पर बारहवीं का रिज़ल्ट आ गया है। क्या हुआ भई आपके बेटे का ? ”
“ हां SSS ... ” मुंह खुला का खुला रह गया नारायण पारीकर का।
“ अरे भई मार्क्स पता चले कि नहीं आपके बेटे के अभी तक। ”
“ फर्स्ट डिवीजन है सर… ” बहुत ताकत के साथ उन्हें कहना पड़ा। “ क्या पता कहां गड़बड़ हो गई, ज्यादा अच्छे अंक नहीं आए। सिक्सटी परसेन्ट मिले हैं... ” बयालीस प्रतिशत कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाए वह। एक विचित्र-सी शर्मिंदगी उनके दिलोदिमाग पर तारी हो गई। उफ ! इतनी बेइज्जती। आदित्य ने तो किसी को मुंह दिखाने के लायक भी नहीं छोड़ा। उन्हें याद आने लगा कि इम्तिहान से पहले कैसे आदित्य अपने दोस्तों के साथ पिकनिक मनाने चला गया था। पूरा एक दिन बरबाद कर दिया था उसने पूरा एक दिन। याद आता है नारायण पारीकर को। नए साल का पहला दिन। जब वह कई दोस्तों के साथ फिल्म देखने गया। शाम को फुटबॉल खेलने जाना... या साइक्लिंग करने निकल जाना... ये तो लगभग रोज की बात थी।
कुछ और सहकर्मी आ गए हैं – “ अरे भई, मिठाई खिलाइए। फर्स्ट डिवीजन में पास हुआ है लड़का। छोटी बात थोड़े ही है। ”
“ अरे नहीं भई... ” फीकी हंसी हंसने की कोशिश कर रहे हैं नारायण पारीकर, “ फर्स्ट डिवीजन तो आजकल सभी आ जाते हैं। उम्मीद के अनुसार नहीं कर पाया लड़का। लगता है… मां पर गया है। ” पूरी ताकत लगाकर वो हंसने की कोशिश करते हैं, पर सफल नहीं हो पाते। रोने की तरह हंस रहे हैं। या फिर हंसने की तरह रो रहे हैं। दोनों में से जो भी स्थिति हो... पर रोना कॉमन है।
पहले वे कहते थे , “ भई, लड़का आआईटी की तैयारी में लगा है, तो बारहवीं में अच्छे अंकों की कोई गारंटी नहीं है।” कभी इसके उलट बात करते थे - “ ऐसा है कि असली तैयारी तो लड़का अपना बारहवीं की परीक्षा की कर रहा है, आईआईटी की पढ़ाई के लिए समय ही कहां बचता है उसके पास ? जान लीजिए, आईआईटी में अच्छे नंबर लाना टेढ़ी खीर है। ”
अब दोनों ही परीक्षाओं के परिणाम आ गए हैं। और दोनों में ही आदित्य के इतने कम अंक। नारायण पारीकर को कुछ सूझ ही नहीं रहा है।
इस लड़के को लैपटॉप दिला के गलती हो गई। गलती हो गई … ? गलती... ? गलती कैसी...? गलती कहां हुई ...? अरे हमने तो यही सोचकर दिलाया न... कि अपनी पढ़ाई से जुड़ी चीजें नेट पर देखेगा। अपनी पढ़ाई में एक्सेल करेगा। पर आजकल तो नेट पर इतनी अश्लीलता, इतनी अनैतिकता, इतना अंधविश्वास और इतना पाखंड धरा पड़ा है कि कोई भी इसके बहकावे में आसानी से आ जाए। भई सदुपयोग करो तो वही चीज अच्छी है और दुरुपयोग करो तो वही चीज खराब। लैपटॉप तो दिलाना ही था। काहे की गलती ? वाह रे...
हां... गलती हुई स्मार्ट फोन दिला कर। हुई गलती। जहां गलती हुई, वहां मानने में कैसी हिचक। पत्नी ने मना भी किया था। लेकिन फेस्टिवल एडवांस मिला था। पूरे पंद्रह हजार रुपए। खुद लेकर आए थे वो आदित्य के लिए नया, चमचमाता स्मार्ट फोन। पर्पल-ब्लैक रंग। आदित्य के साथ बैठकर सारे फीचर्स देखते-पूछते-समझते रहे थे उस दिन देर रात तक। ब्लू-टूथ, क्रोम, एनएफसी टेक्नॉलॉजी से लेकर व्हाट्सएप तक।
कौन जाने व्हाट्सएप पर लड़कियों से चैटिंग ही करता रहता हो। क्या भरोसा... क्या भरोसा s s s s
वैसे तो सत्रह ही पूरे किए हैं अभी... लड़की का चक्कर ... अम्मम् ... लगता तो नहीं। एक रुचिता बस घर पर आती है। बारहवीं में इसी के साथ थी। लड़ती-झगड़ती है आदित्य से। पर बड़ी प्यारी बच्ची है वो तो... कितना तो सहज व्यवहार है... कितना तो हम लोगों का रिसपेक्ट करती है... चक्कर वाली बात तो कुछ लगती नहीं भई।
कौन जाने कोचिंग क्लास में ही कोई मिल गई हो... दूसरों पर क्या दोष डालें, हमारा अपना सिक्का ही खोटा निकल गया भई...
खून उबलने लगा है नारायण पारीकर का। कनपटियां तपने लगी हैं। तीन लाख तो इसके कोचिंग पर खर्च किए केवल। बयालीस प्रतिशत उफ् बयालीस प्रतिशत। यानी कि फोर्टी टू परसेन्ट ओनली ?? !!! क्या नहीं किया इस लड़के के लिए। सबसे आला कॉलेज में डाला। सबसे उम्दा कोचिंग दिलाई। ए टू जेड बेस्ट ! घर में सारी सुविधाएं दीं... और यह दिन दिखाए इसने। उन्हें याद आता है कि बताते हुए पत्नी शायद रो रही थी। जरूर रो रही थी। न रोती, तो आश्चर्य की बात होती। क्यों न रोए ? रो ही रही होगी। बात ही है रोने की।
गुस्से से नारायण पारीकर का चेहरा भिंच जाता है। कभी हाथ नहीं उठाया उन्होंने आदित्य पर। हाथ नहीं उठाया। इसीलिए शायद यह नौबत आ गई है।
इतना बड़ा दुख उन्हें शायद कभी नहीं हुआ। बाबूजी के मरने पर भी नहीं ... उन्होंने सोचा। इससे बड़ा दुख भला क्या हो सकता है...?
मोबाइल घनघनाता है। छोटे भाई का फोन है। उसे रिज़ल्ट का पता चल गया है । भाई इतनी जोर से चिल्लाकर बोल रहा है कि विचलित हो जाते हैं नारायण पारीकर - “ क्या कर रहा था यह लड़का... ? सो रहा था क्या दो साल तक... सो रहा था क्या...हां आं ?? अरे जब कैपैसिटी नहीं है लड़के में तो बड़े-बड़े ख्वाब क्यों देखते हो तुम लोग? ” आवाज इतनी तेज है कि उन्हें घबराहट होने लगती है।
भाई हमेशा की तरह बकबक कर रहा है। अब उसका स्वर व्यंग्यात्मक हो गया है – “ फोर्टी टू परसेंट में इंजीनियर बनेगा। हवाई जहाज में ऑटो-रिक्शा का इंजन लगा देगा। कश्मीर से कन्याकुमारी तक यात्रा करने वाली साइकिल बनाएगा। बिल गेट्स बनेगा ये लड़का... ” पर्चेस ऑफिसर का बंदर भाई के सिर पर नृत्य कर रहा है। अपनी पूरी ताकत से वह सामने वाले को जलील करता है। कमजोर रग देखकर वार करना भाई के व्यवहार की विशेषता है।
जानते हैं नारायण पारीकर कि बिल गेट्स इंजीनियर नहीं बन सका था।
शनै-शनै नारायण पारीकर का गुस्सा बढ़ रहा है।
दुख के एक पूरे समंदर के बीच डूबते – उतराते उन्होंने अपना सामान समेटना शुरू किया। ऑफिस से निकलकर वे कब घर पहुंचे उन्हें पता ही नहीं चला। रास्ते में कौन मिला, कौन दिखा, उन्हें कुछ पता नहीं। रात हो गई थी। पत्नी ने दरवाजा खोला था।
“ कहां है ये नालायक ? ” लगभग घरघराते स्वर में पूछा नारायण पारीकर ने।
संतुलन नहीं है उनके व्यवहार में। पत्नी भांप लेती है। जानती है कि होश नहीं रहता गुस्से की अधिकता में। कुछ कम-ज्यादा न कर बैठें - “ हाथ – वाथ मत उठाना... वह पहले ही बहुत दुखी है। कुछ खाया भी नहीं। रो भी रहा है। ”
रो रहा है ?
झटका सा लगता है नारायण पारीकर को।
रो रहा है ? अच्छा रो रहा है.... मतलब कि रो रहा है ?
लड़के को रोते हुए उन्होंने देखा ही नहीं लंबे समय से। ये क्या बात हुई भला। कमरे में घुसते हैं नारायण पारीकर। लड़का कुर्सी पर बैठा है अपनी मेज़ के सामने। किताब खुली है रोज की तरह। खड़े हो जाते हैं वह दरवाजे पर और चिथड़ा हो चुकी भारी आवाज में पूछते हैं - “ इतने कम मार्क्स क्यों आदित्य ? सारे सपने ही तोड़ दिए तूने। क्या करता रहा इतने दिन तक… ”
मुड़ कर देखता है आदित्य। देखते हैं उसे ध्यान से नारायण पारीकर। नहीं, रो तो नहीं रहा। चेहरा ज़रूर उतरा हुआ है, लेकिन रो किधर रहा है ? दिमाग तो नहीं खराब हो गया – पत्नी के बारे में सोचते हैं वे।
“ पापा, मेरा तो सपना ही नहीं था कभी आईआईटी करने का…” आवाज टूटी हुई है आदित्य की।
“ मतलब... मतलब ? क्या मतलब .. हाएं .. ”
“ मेरी तो कभी समझ में नहीं आई यह सारी चीजें। मेरा मन ही नहीं लगता था। दो साल तक पूरे दिन–दिन भर टेबल पर बैठा रहता था। कई बार तो सुबह जो पेज खोलकर बैठता था न पापा... रात को सोते समय भी वही पेज खुला रहता था। दो साल तक सिर्फ आपका मन रखने के लिए बैठा रहा मैं टेबल पर... लेकिन मेरा कोई सपना नहीं टूटा। फिर आपका सपना कैसे टूट गया भला...? ”
आदित्य की आवाज में इतना दर्द है और अपराध बोध भी कि स्तब्ध रह जाते हैं नारायण पारीकर। लड़का क्या कह रहा है, उनकी समझ में नहीं आ रहा।
“ मैं तो हमेशा से ही चाहता था पापा कि लिटरेचर पढूं... मुझे समझ ही नहीं आती ये फिजिक्स की बातें, सेन्टर ऑफ मास एंड लिनियर मोमेन्टम, वेव्स, काइनेटिक थ्योरी, थर्मोडायनेमिक्स। काँसेप्ट ही क्लीयर नहीं होता। आगे मैथेमैटिक्स का चक्कर... बायोनोमियल थ्योरम, पैराबोला, हाइपरबोला... पता तो चले कि मामला क्या है। फिर केमिस्ट्री... एल्डीहाइड एंड कीटोन्स, बेन्जीन, ऐटॉमिक थ्योरी, स्टाइश्योमेट्रिक कैलकुलेशन्स, इक्विलीब्रियम, मैट्राइसेस... करूंगा क्या मैं केमिस्ट्री पढ़कर... जीवन में किसी काम ही नहीं आएगी केमिस्ट्री मेरे तो... ” अजीब सी घबराहट भी है आदित्य की आवाज में।
अवाक हैं नारायण पारीकर। इतना समझने की क्षमता है उनमें कि लड़का उनका बहुत कठिन समय से गुजर रहा है। न जाने कितना बड़ा दुख भोग रहा है... वो भी न जाने कब से... उसके चेहरे की जुंबिश... गहरे कुएं के भीतर से आती हुई-सी आवाज, आंखों का खालीपन, स्वर का कंपन... उफ् इतना बड़ा दुःख ! उफ् ... ये मैंने क्या खिलवाड़ कर दिया अपने बच्चे की जिन्दगी के साथ।
फिर भी वो पूछते हैं - “ तो फिर जब कोई सपना टूटा ही नहीं ... तो इतना दुखी क्यों है... इतना गिल्ट क्यों... ? रोया भी था ना आज ? ”
“ पापा आपने इतने सपने देखे थे मुझे लेकर। वे तो सब टूट गए न... ” लड़का संयत होने की कोशिश कर रहा है। “ क्या जवाब देंगे आप अपने ऑफिस के लोगों को ? अभी तो मोहल्ले वाले भी पूछेंगे... कैसे सामना करेंगे रिश्तेदारों की बातों का... ? ”
नारायण पारीकर स्तंभित से देख रहे हैं कि लड़का उनका इतना बड़ा हो गया है, इतना परिपक्व, इतना समझदार। किसी भी बड़ी से बड़ी कंपनी के सी.ई.ओ. से ज्यादा समझदार। सोचते हैं नारायण पारीकर… इतने बड़े दुख से गुजर रहा है मेरा बच्चा। इतने समय से संचित दुख है। इससे बड़ा दुख क्या होगा। बेटे को गले लगा लेते हैं नारायण पारीकर और... सहसा फूट-फूट कर रोने लगते हैं।
पत्नी से गलती यह होती है कि ऐसे समय वह कमरे में घुस रही है जब बरसों बाद बेटे को गले लगाया है उन्होंने। अचानक गरजना शुरू कर देते हैं वह पत्नी पर - “अरे बेटा पास हुआ है न... तो कुछ मिठाई – विठाई नहीं बनानी चाहिए थी आज ? क्या दुनिया में जिन्होंने आईआईटी नहीं की… वे बड़े नहीं बने। हमारा बच्चा तो हीरा है हीरा। सुन रही हो ... ही..ईई... ईई...रा ssss .... चलो जरा बढ़िया खाना लगाओ हम दोनों के लिए। सूजी का हलवा भी बनाओ... और आईस-क्रीम भी मंगाओ बेटू के लिए नुक्कड़ से .... ”
पत्नी हंसी रोकने की कोशिश कर रही है।
XXX
राजेन्द्र श्रीवास्तव
सहायक महाप्रबंधक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र , प्रधान कार्यालय,
लोकमंगल, शिवाजीनगर, पुणे – 411005
फोनः कार्यालय - 020/25520409 , निवास - 020/25204105 ,
मोबाइल - 09604641228 , ई-मेल - rajendra2012s@gmail.com
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