रविवार, 5 मई 2019

अपवित्र कुंड अर्थात् पवित्र बलात्कार का सहृदय प्रस्ताव : भालचंद्र जोशी

आज आठवाँ दिन था। बेटी को सरकारी अस्पताल में पत्नी के सहारे छोड़ बूढ़ा माँगीलाल थाने के अहाते में बैठा था। उस दीवार के निकट जहाँ लिखा था, जनसेवा - देशभक्ति।

आठ दिन पहले उसकी बेटी लछमी के साथ बलात्कार हुआ था। देह के टुकड़े नहीं हुए थे, लेकिन देह पर कोई ऐसी जगह नहीं बची थी जहाँ नोचने-खसोटने और प्रतिरोध के कारण निर्मम मार के निशान न हो। जिस तरह देह को भभोड़ा था ऐसा तो जंगली कुत्ते मरे बैल की देह को भी नहीं भभोड़ते होंगे। लड़की की छातियों पर दाँत ओर नाखूनों के गहरे घाव थे। डॉक्टर ने बताया था कि योनि में बीअर की बोतल डालने की कोशिश में योनि के बाहर और भीतर गहरे घाव हैं। शायद लड़की ने ज्यादा विरोध किया था। लातों की मार से दो पसलियाँ टूट गई थीं।

पुलिस को कपड़े लड़की की देह पर नहीं, चिंदे-चिंदे कमरे में बिखरे मिले। बेहोश लड़की को चादर में लपेटकर अस्पताल लाया गया था। शहर बड़ा नहीं है इसलिए खबर ओर जनाक्रोश अभी भी मौजूद था। उत्साही ओर खबरातुर पत्रकारों को बताया गया था कि पुलिस मुस्तैदी से अपराधियों को तलाश रही है। एक पत्रकार ने पूछा, - "अपराधी या बलात्कारी?"

- "बलात्कारी भी तो अपराधी होता है।" एस.पी. ने मासूमियत से कहा था।

- "ऐसे तो जेबकतरा भी अपराधी होता है।" एक पत्रकार ने पूछा, - "क्या दोनों एक ही श्रेणी में हैं?"

- "देखिए अपराधी तो अपराधी होता है सजा देना कानून का काम है।" एस.पी. ने पत्रकारों और आक्रोशित भीड़ को कानून समझाया।

- "अपराधी कौन है, यह तो सारा शहर जानता है!" एक बूढ़े पत्रकार ने एस.पी. की आँखों में झाँककर कहा।

- "तो आप बताइए। आप गवाह बन जाइए। हम अभी गिरफ्तार करते हैं।" एस.पी. ने पुलिसिया चतुराई से कहा।

वह बूढ़ा पत्रकार चुप हो गया। एस.पी. मुस्कराने लगा।

दरअस्ल वे चार युवक थे। एक बड़े वकील का बेटा था। दूसरा राजनीतिक पार्टी का कार्यकर्ता, तीसरा शहर के बड़े रसूखदार व्यापारी का बेटा और चौथा विधायक का बेटा था। पेंच यहीं पड़ गया।

विधायक ने पुलिस को समझाया था कि कानून को अपना काम करना चाहिए, लेकिन यह भी देखो कि लड़कों की उम्र पच्चीस से तीस के बीच है। बच्चे हैं सब। सजा मिलने पर इनका भविष्य खत्म हो जाएगा। मेरा बेटा तो पार्टी का अगला उम्मीदवार है। मानता हूँ लड़की के साथ ज्यादती हुई, लेकिन लड़के नशे में थे। वर्ना सभी भले घर के संस्कारी लड़के हैं। होश में होते तो ऐसा करते क्या? लड़कों की मजबूरी भी देखो। एस.पी. लड़कों की नहीं, अपनी मजबूरी समझ रहा था। वह जानता था कि आदिवासी लड़की का बलात्कार हुआ है और अभी यह छोटा-सा शहर है जहाँ पत्रकारों ने इसे अपनी तरह से खबर बनाई है। कुछ को तो उस लड़के के पिता ने लछमी के बलात्कार की खबर दबाने के लिए बड़ी 'लक्ष्मी' भेंट की थी। वह इस शहर का बड़ा व्यापारी है, जिसे पुलिस और प्रशासन पर पूरा भरोसा है क्योंकि उसके आलीशान घर में ठहरी देवी लक्ष्मी ने उसे आश्वस्त कर दिया है। विधायक को अपने राजनीतिक आका की ऊँचाई ने सिर्फ आश्वस्त नहीं किया था, बल्कि पूरा भरोसा दिया था कि उनके बेटे का बाल भी बाँका नहीं होगा। विधायक भी इसीलिए पुलिस की बाल बराबर परवाह नहीं कर रहा था। एस.पी. सोच रहा था कि यदि बात आगे बढ़ी जो कि लड़की के आदिवासी होने के कारण बढ़ेगी तो वह अपना बचाव कैसे करेगा? बड़े अखबार और पत्रिकाओं के पत्रकार यदि आए या स्टेट से कोई जाँच दल बना तो? व्यापारी नवलचंद के दिए दस लाख रुपए से क्या वह इस सांसत से निकल पाएगा? फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि एक बड़े मामले को शुरुआत में सामान्य समझकर दस लाख रुपए पर वह राजी होकर गलती कर बैठा है? इससे ज्यादा बड़ी रकम भी ली जा सकती थी। उसे अपनी जल्दबाजी पर अफसोस हुआ। विधायक देगा नहीं और राजनीतिक कार्यकर्ता प्रभास की देने की हैसियत नहीं। एस.पी. सोचने लगा, अब बचा वकील उससे कुछ रकम वसूली जा सकती है। वह सोचते हुए खुद की सोच के समर्थन में धीरे-धीरे सिर हिलाने लगा।

एस.पी. आज सुबह ही लड़की को देखकर आया था। उसे होश आ गया था, लेकिन घटना की भयावहता की स्मृति ने उसकी लड़की की वाणी को डर की चुप्पी के अँधेरे पानी में उतार दिया था। लड़की की खाली आँखों में गर्मी में सूखे तालाबों-सी गहराई फैली थी। जिनमें झाँकने पर डॉक्टर्स को डर लगता था। विधायक सुन्नीलाल और नवलचंद व्यापारी के कहने पर एक बड़े आधुनिक अस्पताल में दक्ष डॉक्टर्स की टीम उपचार में जुटी थी, क्योंकि विधायक और व्यापारी नहीं चाहते थे कि बात का बतंगड़ बने। वे उससे पहले लड़की को स्वस्थ करके वापस घने जंगलों की उन पहाड़ियों में वापस भेजना चाहते थे, जिनसे उतरकर वह जाने कैसे इन चकमदार, रंगीन और कठोर कांक्रीट के आदमखोर जंगल में आ गई थी।

एस.पी. ने ध्यान से उसे देखा था, लड़की बुरी तरह घायल होने पर भी सुंदर लग रही थी। एस.पी. ने पुलिसिया ढंग से सोचा, लड़की की सुंदरता ही उसकी दुश्मन हो गई। एस.पी. ठीक सोच रहा था। प्रकृति ने उसे अपना सौंदर्य सौंपने में कोई कंजूसी नहीं की थी। गोरे रंग पर फूलों-सी कोमलता उसके पहाड़ी सौंदर्य का अनुपम उपहार थी। कच्ची उम्र वैसी भी अपने उत्साह में प्रकृति से कुछ ज्यादा ही सौंदर्य छीन लेती है फिर लछमी पर तो प्रकृति मेहरबान थी।

एक तो अनिंद्य सुंदरी फिर पहाड़ी आदिवासी लड़की और बेहद गरीब फिर तो शहर के संभ्रांत और अमीर समाज के लड़के उसे हड़पने का अपना हक स्वाभाविक रूप से समझते हैं। राजनीति और अमीरी का नशा लड़कों पर निश्चित रूप से शराब से ज्यादा रहा होगा, घने जंगलों में जंगली जानवरों के बीच सुरक्षित लड़की भीड़ भरे शहर में शिकार हो गई।

शाम को वकील एस.पी. से मिलने आया। बच्चे की बेगुनाही की दुहाई देता रहा कि विधायक और अमीर आदमी के लौंडों की संगत में बिगड़ गया वर्ना मेरा बेटा तो बड़ा पूजा-पाठी है। एस.पी. धैर्य से सुनता रहा, जब काफी देर तक कुछ नहीं बोला तो वकील ने एक बड़ा-सा लिफाफा एस.पी. की टेबल पर रखा। फिर गिड़गिड़ाने की बनावटी मुद्रा बनाते हुए नमस्कार किया। एस.पी. के लिफाफा थामते ही वकील के चेहरे पर एक अजीब-सी निश्चिंतता के भाव आ गए यह निश्चिंतता उसे उस लिफाफे से हासिल हुई थी। एस.पी. ने वकील के जाने के बाद लिफाफा खोला, दस लाख रुपए थे। तब एस.पी. ने फिर सोचा कि यानी व्यापारी तो और ज्यादा दे सकता था, शायद पचास लाख तक। सोने-चाँदी और हीरों का व्यापारी था। वह कुढ़कर रह गया। अपने आपको चतुर समझने वाला एस.पी. एक घिसे हुए व्यापारी से ठगा गया था।

उसकी कुढ़न पूरी भी नहीं हुई थी कि विधायक का फोन आ गया।

- "कहिए विधायकजी, कैसे याद किया?" एस.पी. ने अभ्यास से अर्जित एक ऐसी विनम्रता से कहा जो सुनने वाले को साफ संकेत देती थी कि यह विनम्रता बनावटी है।

- "पुलिस वाले कोई याद करने की चीज हैं", विधायक ने भी उसी बनावटी हँसी के साथ कहा फिर संजीदा स्वर में बोला, - "केस में कोई प्रोग्रेस?"

- "क्या प्रोग्रेस हो सकती है?" एस.पी. ने प्रतिप्रश्न करते हुए आगे कहा, - "लड़की होश में आई है, लेकिन सदमे में है। बयान देने की स्थिति में नहीं है। पीड़िता का बयान नहीं, तो कोई गिरफ्तारी नहीं...।" कहकर एस.पी. ने वाक्य अधूरा छोड़ दिया।

- "यानी पूरी तरह ठीक होकर बयान देगी तो गिरफ्तारी तय है?" विधायक के स्वर में किंचित चिंता आई तो एस.पी. को मजा आया।

- "विधायकजी उसके घाव पूरी तरह भर जाएँ। वह चलने-फिरने लायक हो जाए...", एस.पी. ने इत्मीनान से कहा।

- "फिर?" उधर से फिर प्रश्न आया।

- "फिर क्या? लड़की के ठीक होते ही उसे, उसके परिवार सहित उन घने जंगलों वाली पहाड़ी पर उसके घर छोड़ आओ जहाँ किसी खोजी पत्रकार के किसी वाहन से तो दूर पैदल जाना भी नामुमकिन है। यह तो आपके लिए बड़ी बात नहीं है।" एस.पी. ने कहा।

- "हाँ...।" विधायक की आवाज आई जिसमें पता नहीं चलता था कि उसकी आवाज में चिंता बाकी है या निश्चिंतता है। फिर विधायक का एक रस्मी वाक्य, "चलो ठीक है, देखते हैं।" उधर से आया फिर फोन कट गया।

एस.पी. रिसीवर को कुछ देर तक हाथ में थामे रहे फिर क्रेडिल पर रखकर सोचने लगा, विधायक ने आज लड़कों के भोले और मासूम होने की दुहाई नहीं दी। जाने कितनी कमीनगी की योग्यता के बाद ऐसा राजनीतिज्ञ बनना नसीब होता होगा? एस.पी. अभी तक जानता था कि मूर्खता ही एकमात्र प्रमाण पत्र है जिससे ऐसे लोग विधायक बनते होंगे, लेकिन अब लगने लगा कि मूर्ख दिखाई देते रहने का काइयाँपन ही राजनीति में प्रवेश का आधार है। इस तरह की राजनीति में बड़े राजनीतिज्ञ को अपने से छोटा राजनीतिज्ञ मूर्ख चाहिए जो सवाल न करे, सिर्फ भीड़ इकट्ठी करे और भीड़ के साथ जय-जयकार करे। कितनी अजीब बात है। स्साला कमीनापन न हो तो क्या इन्हें राजनीति से बाहर कर देंगे?

विधायक खुद अगली बार सांसद का टिकिट चाहता था और खुद के विधानसभा क्षेत्र से बेटे को खड़ा करना चाहता था। सारी गोटें फिट कर रखी थी। अपनी योजना पर उसे भरोसा था। ऊपर से आश्वासन भी मिल गया था, लेकिन ऐन वक्त पर हरामखोर बेटा सुनहरे भविष्य के नक्शे पर मूत दिया।

पहली बार उसने अपने जवान बेटे पर हाथ उठाया था। वह अपने गुस्से पर काबू नहीं रख पाया था। उसने बेटे को घर से बाहर निकलने पर सख्त रोक लगा दी।

- "जब तक मामला न सुलझे, बाहर जाने की जरूरत नहीं।" उसने गुस्से से कहा था तो बेटा चुपचाप गरदन झुकाए खड़ा रहा। बेटे की चुप्पी से विधायक और भड़क गया था।

- "स्साले अब तो घोड़े की शकल बनाकर गरदर झुकाए खड़ा है। उस दिन क्यों इतनी आग मूती?"

- "बाबूजी, हम सबको ज्यास्ती हो गई थी।"

- "हरामी के मूत! जब ज्यादा चढ़ जाती है तो इतनी पीते क्यों हो?" विधायक झल्लाया, - "हम भी पीते हैं मजाल है जो कभी कदम भी लड़खड़ाए। जानते हैं हम, अब पुराना वक्त नहीं रहा। दो-चार नहीं सौ आँखें टिकी है हम पर। गलती करें कि राजनीति से बाहर। अगला लाईन में खड़ा तैयार है। तू प्रजापत को क्या समझता है, हमारे पैर दबाता है। हमारी रैलियाँ आयोजित करता है, लेकिन जिस दिन मौका मिला, वही हमको धक्का देगा। जानते हैं हम, इसीलिए उसको साथ रखा है कि उस पर नजर रख पाएँगे।" कहते-कहते विधायक हाँफने लगा। गुस्से से ज्यादा उस पर कुढ़न भारी हो रही थी।

- "स्साले अच्छे नेताओं और बाबाओं के काम लग गए। बंबू ठोक दिया जनता ने। ये जब से चैनल वाला न्यूज का धंधा आया है ना, सब को नंगे करने पर उतारू हैं। मौका मिलना चाहिए कि स्साले हमारे बेडरूम तो क्या संडास में भी घुस जाएँगे।" विधायक का गुस्सा बढ़ते बी.पी. के कारण लंबी साँसों में भरने लगा था।

- "बाबूजी, अब नहीं पिएँगे हम।" बेटा धीरे से बोला।

- "देखो बेटा पीने से कौन मना कर रहा है?" बाबूजी समझाने पर उतर आए थे। - "पियो, लेकिन जितनी सँभले उतनी पियो। स्साली इतनी पी तुमने कि एक भिलनी को देखकर पजामे का नाड़ा टूट गया?" बेटा कुछ आगे बोलता तभी वे फिर बोले थे, - "हमें देख, कभी कहीं ताका-झाँकी तक नहीं की। अभी हमने तुमको बताया कि समय खराब आ गया है। वर्ना तूने अपनी माँ को देखा है? सात बच्चे पैदा करके खाद की बोरी हो गई है। लेकिन फिर भी हम उसी से काम चला रहे हैं। चला रहे कि नहीं?" बाबूजी अब अपनी बेबसी पर झुँझलाने लगे थे। अब धीमे स्वर में कुढ़ने लगे थे, - "स्साली ऐसी जोरू है कि पहाड़ पर जंगल में छोड़ आओ तो बंदर ना हाथ लगाए, लेकिन हमको उसी को रंभा समझना पड़ता है। हम इनसान नहीं है क्या? हमें कोरे, नए माल की जरूरत नहीं महसूस होती, पर क्या करें, राजनीति में खुद मरवा रहे हैं तो कहीं और क्या देखें?"

बेटा अपने बाप का एकालाप, प्रलाप सुनता रहा। फिर बाप के संकेत पर कमरे से बाहर चला गया था। बाप तो विधायक भी था इसलिए ज्यादा कुढ़ रहा था। स्साले नादान लौंडे! बलात्कार के बाद मारकर कहीं जमीन में गाड़ देते। लेकिन स्साले लेकर भी सरकारी गेस्ट हाउस में गए। उनको सूली पर चढ़ाने का पूरा प्रबंध किया था। ऐसी ही औलाद को दुश्मन कहा गया है।

बेटे की शादी वह प्रदेश के अपनी ही पार्टी के एक बड़े नेता जगतरामजी की बेटी से तय कर चुका था। उन्हीं नेता के प्रभाव और पावर के सहारे वह सांसद बनने के और बेटे को विधायक बनाने के सपने देख रहा था। कि वह उन्हीं नेता से इस संकट में प्राण बचाने की गुहार लगा रहा था। राजधानी के बड़े नेता क्या सोचते होंगे कि विधायक का अपने क्षेत्र में प्रभाव नहीं है। विधायक कुढ़ कर रह गया।

रोज की तरह दिन भर थाने में बैठकर रात को माँगीलाल वापस अस्पताल आ गया। माँगीलाल जो कभी माँगीलाल भूरिया था फिर माँगीलाल हुआ फिर माँग्या होकर रह गया था। उससे जितना कुछ छीना जा सकता था, शहर छीनता जा रहा था।

अपने पति की शक्ल देखकर लछमी और लछमी की माँ समझ गई कि आज भी वह खाली हाथ लौटा है। एक भी बलात्कारी नहीं पकड़ा गया है। अस्पताल में ही पति-पत्नी का खाना आता था। सारा इंतजाम नवलचंद सेठ ने कर रखा था। लेकिन माँगीलाल का मन हताशा से भरा था इसलिए उसकी संगत में पेट ने भी भरे होने के संकेत दिए।

- "मन नहीं है सांगली!" माँगलाल ने पेट के खालीपन को हताशा से भरे मन से जोड़ लिया था।

- "मन तो कभी नहीं करेगा, तो कभी नहीं खाओगे? बूढ़ी पत्नी ने कहा तो वह चुप हो गया। क्या जवाब देता। चुपचाप खाने बैठ गया। कोई और वक्त होता तो इतना अच्छा खाना जो उसने खाना तो दूर देखा भी नहीं था, सोचा भी नहीं था, वह बहुत उत्साह और स्वाद से खाता, लेकिन मन की उदासी और हताशा ने जबान के स्वाद के लिए उत्साह खत्म कर दिया था। अच्छे खाने के स्वाद में इजाफा तो मन की खुशी करती है। लेकिन मन की खुशी तो कहीं गुम हो गई थी। उसके मन में उसके अपने गाँव जैसे खूब ऊँचे पहाड़ और घने जंगल बन गए थे। वहीं कहीं खुशी गुम थी। थोड़े ही दिनों में वह बरसों का बूढ़ा हो गया था। चेहरे पर उसके सूखे खेतों जैसा उजाड़ फैला था। चेहरे पर की सूखी सिलवटों और मिचमिचाई आँखों में एक अजीब-सी करुण अनिश्चितता थी।

सांगली की आँखों से नित बहते आँसू उसके सूखे गालों पर पहाड़ी नदियों से टेढ़े-मेढ़े बहते अपने सूखे निशान छोड़ गए थे। दोनों खाली खाली आँखों से एक दूसरे को देख रहे थे। लछमी की तो बस एक इच्छा, एक ही निश्चय मन में था कि निर्मम बलात्कारियों को सजा मिले। वे चारों उनके आदिवासी गाँव में होते तो चारों के सिर नीम के पेड़ पर टँगे होते, लेकिन पहाड़ी साहस और शक्ति शहर में अकेली थी और असहाय भी क्योंकि वे बलात्कारी कहीं दिखाई नहीं दे रहे थे वर्ना माँगीलाल की इच्छा तो यहाँ शहर में भी उन्हें खत्म करने की थी। फिर अभी लछमी और उसे पुलिस की बातों पर भरोसा था जो रोज कहते थे कि सब्र करो, सभी भाग गए हैं, लेकिन पकड़े जाएँगे। स्सालों को सूली पर लटका देंगे। बलात्कारियों को सूली पर लटकाने का पुलिसिया आश्वासन उनके धैर्य के लिए बड़ा था। थानेदार और कभी एस.पी. भी अस्पताल आकर उससे बहुत मुलायम लहजे में बात करता था। कभी माँगीलाल थाने में चले जाता तो थानेदार चाय पिलाता था फिर आश्वासन थमाकर शाम को उसे विदा कर देता था। माँगीलाल दुखी तो होता था, लेकिन जैसा उसने पुलिस की क्रूरता और रिश्वतखोरी के बारे में सुन रखा था वैसा इस थानेदार और एस.पी. को देखकर उसका मन थोड़े संतोष से भर जाता था कि पुलिस वाले हैं तो क्या हुआ, इनसान तो वे भी हैं। गलती से एक-दो अच्छे भी निकल आते हैं। यह सोचकर माँगीलाल को थोड़ी तसल्ली मिलती और वह थोड़ा-बहुत खाने का मन बनाता। लछमी का मन थोड़ी देर के लिए तसल्ली से भरता फिर धीरे-धीरे उसके मन में गुस्सा भरने लगता। वह उन भेड़ियों को सजा दिलाए बगैर शहर से जाना नहीं चाहती थी।

तसल्ली थानेदार को भी मिलती थी कि चलो आज के दिन भी इस छोरी और इसके बाप को संतुष्ट कर दिया। वह अपने पुलिसिया अनुभव से जानता था कि जिस दिन उसने माँगीलाल को डाँट-डपटकर भगाया या उसे अपनी विनम्रता और तथाकथित सद्व्यवहार से संतुष्ट नहीं कर पाया कि बलात्कारियों को खोजने की कार्रवाई जबरदस्त चल रही है, पूरा पुलिस-महकमा इसी काम में लगा है, तो यह दुखी और गुस्सा दबाए बैठा आदिवासी कहीं और जाएगा। शायद पत्रकारों के पास, शायद और आगे राजधानी तक। और वह ऐसा होने नहीं देना चाहता था। थानेदार माँगीलाल के आते ही सिपाहियों को डाँटने का अभिनय चरम पर ले आता था कि माँगीलाल को लगे कि थानेदार को उसके केस की कितनी चिंता है। माँगीलाल को यह अजब लगता था कि बेटी का सामूहिक बलात्कार एक नया नाम, 'केस' बोला जाने लगा था। अब बेटी के दुख की चर्चा नहीं होती थी, केस की चर्चा होती थी। माँगीलाल यह नहीं समझ पाया कि उसकी बेटी के दुख का नाम 'केस' होकर सार्वजनिक संवेदना के स्रोत को सुखाने का काम कर रहा था।

लछमी के घाव ज्यों-ज्यों भर रहे थे उसका गुस्सा बदला लेने की प्रतिज्ञा में तब्दील हो रहा था।

दिन गुजरते जाते हैं और जब व्यक्ति बीतते समय में से आश्वस्ति तलाश लेता है, प्रायः तभी कुछ घटित होता है। जाने कैसे, किसने सांसद को यह बताया, बल्कि समझाया कि सांसद का अगला टिकिट विधायक सुन्नीलाल लेना चाहता है और अपनी विधायकी बेटे को देना चाहता है। सांसद जब चौकन्ना हुआ तो सारी चालाकी को समझने के लिए उसे सुन्नीलाल विधायक के राजधानी में गुरू, भगवान जो कहो, सब थे, तक सभी का सुराग मिला। सांसद ने ऐसे समय में सुन्नीलाल विधायक के सरपरस्त और निकट भविष्य में होने वाले रिश्तेदार जगतरामजी के पार्टी में ही एक अन्य विरोधी राजनंदजी की शरण पकड़ी।

सांसद ने विधायक को 'निपटाने' के लिए एस.पी. पर दबाव बनाया।

- "उस लड़की के बलात्कारी पकड़े क्यों नहीं गए?"

- "पुलिस पूरी कोशिश कर रही है।" एस.पी. ने यह ऐसा जवाब दिया जो हिंदी फिल्मों और यथार्थ में भी इतनी बार दोहराया जा चुका है कि उसने गंभीरता खोकर परिहास हासिल कर लिया।

- "किसे समझा रहे हो एस.पी. साहब? महीना से ऊपर हो गया है, पुलिस सिर्फ कोशिश कर रही है? मैं बताऊँ चारों लड़के कहाँ हैं?" सांसद ने एस.पी. की आँखों में आँखें डालकर कहा, जहाँ उसे एस.पी. विचलित होता नजर आया तो सांसद ने मौका नहीं छोड़ा, - "गिरफ्तारी और सजा जल्दी होनी चाहिए वर्ना मामला आदिवासी का है, इतनी बड़ी रैली शहर में निकालूँगा कि सड़क पर पैर रखने की जगह नहीं रहेगी।" एस.पी. कुछ बोलता उसके पहले वह तत्काल बोला, - "सजा तो कानून देता है, हमको मालूम है, लेकिन धारा आप लगाते हैं यह हम जानते हैं।" एस.पी. चुप हो गया। दरअस्ल वह यही बात बोलना चाहता था कि, - "सजा देना जज का काम है।" लेकिन एक ही जुमले से पत्रकार, पब्लिक और नेताओं को चुप नहीं कराया जा सकता है।

उसने एक हफ्ते में सख्त कार्रवाई का आश्वासन सांसद को देकर विदा किया। एस.पी. सोचने लगा, अजीब मुसीबत है? एक ही पार्टी के दोनों लोग आपस में भिड़ने वाले हैं।

क्या किया जाए? यदि सांसद खुलकर सामने आ गया या आड़ से भी यानी ओट से भी तीर चलाएगा तो विधायक का तो जो होगा सो होगा, खुद उसे नौकरी बचाना मुश्किल होगा। उसने बलात्कारियों को गिरफ्तार क्यों नहीं किया? अभी तक जो राजनेता इस गिरफ्तारी को टालने के लिए उससे कहते आए हैं, सांसद के विरोध के बाद गिरफ्तारी की देरी के लिए पुलिस को यानी उसे दोषी ठहराएँगे।

तब उसने सोचा, गिरधर जी से मिलना चाहिए। रिटायर एस.पी. हैं, उनके दूर के किसी अजान रिश्ते में भी लगते हैं। गिरधरजी रहे तो प्रमोटी एस.पी., लेकिन कहते हैं हरामीपन में दूर-दूर तक उनका मुकाबला नहीं। बड़े से बड़ा हरामी उनके आगे मिमियाता था। एस.पी. रहते हुए छोटे से लेकर बड़े राजनीतिज्ञों तक को साध रखा था। लोग तो कहते हैं कि साध क्या रखा था, जैसे जंजीर से पिल्लों को बाँध रखा हो।

कहते हैं कि उनके पिताजी भी बहुत बड़े हरामी थे और स्थानीय मुहावरे में कहें तो हरामीपन में उनका नाम दूर-दूर तक बजता था। लेकिन इस विषय पर मतभेद भी थे पुलिस महकमे की नई पीढ़ी का कहना है कि हरामीपन में तो गिरधरजी अपने बाप के भी बाप हैं। गिरधरजी का हरामीपन तो भूतो न भविष्यति है।

वह गिरधरजी से मिला। जब तक एस.पी. बोलता रहा, गिरधरजी ने बीच में बिल्कुल नहीं टोका। बीच-बीच में खामोशी से मुद्राएँ बदलते रहे। कभी औंधी हथेलियों पर ठुड्डी टिकाकर उसकी बात सुनते रहे। कभी पीछे लगे गाव-तकिओं से टिककर उनको देखकर मुंडी हिलाते रहते। पूरी बात सुनकर उन्होंने चेहरे के आगे ऐसे हाथ हिलाया जैसे मच्छर भगा रहे हों।

- "कोई दम नहीं केस में। क्यों चिंता करते हो।"

- "एक ही पार्टी में दो गुट हैं। किसकी सुनूँ?" एस.पी. ने पूछा।

- "सुना सबकी, करो मन की। वैसे अब मामला थोड़ा उलझ गया है तो होशियारी इसी में है कि तबादला ले लो। इस केस में जो थोड़ा-बहुत कमाया है उसमें से थोड़ा-बहुत खर्च करो और पकड़ लो कोई दूसरा जिला।" कहकर गिरधरजी उन्हें टटोलती निगाहों से देखने लगे।

- "इस केस का क्या होगा?" एस.पी. के मुँह से निरर्थक प्रश्न निकला, लेकिन गिरधरजी झल्लाए नहीं, बल्कि पुचकारते हुए बोले, - "वह दूसरा आने वाला एस.पी. भुगतेगा। वह भीलनी कौन हमारी अम्मा लगती है। उसकी फिकर छोड़ो।"

एस.पी. कुछ सोचते हुए चुप रहा।

- "कहो तो गृहमंत्री से बात करूँ?" गिरधरजी ने फिर से बहुत लाड़ के साथ गरम लोहे पर चोट की। असर भी हुआ।

- "करिए गिरधरजी, आप ठीक कह रहे हैं। तबादला ही ठीक रहेगा। वह भीलनी और उसके बुड्ढा-बुड्ढ़ी दोनों रोज आकर छाती पर बैठ जाते हैं। और उस लड़की का गुस्सा तो अब दिनों-दिन बढ़ रहा है।"

- "उस भीलड़ी की फिकर मत करो। अपनी चिंता करो।" गिरधरजी ने आश्वस्त किया तो एस.पी. सहमति जताते हुए उठने लगा तो तत्काल गिरधरजी बोले, - "अरे एस.पी. साहिब कहाँ चले? मंत्रीजी से बात आपके सामने करूँगा। वर्ना कल को कहोगे कि मैंने बीच में कमीशन खा लिया।" कहकर अपने कथन की संदिग्धता मिटाने के लिए खुद ही हँसने लगे। - "हमारा काम तो एकदम चोखा है एस.पी. साब, आपके सामने सारी बातें एकदम क्लीअर।" फिर मोबाइल उठाकर नंबर टाइप करने लगे। कुछ ही देर बाद तत्काल स्वर में अपार आदर भरी चापलूसी भरकर बोले, - "दादा, पाँय लागी। हम गिरधर बोल रहे हैं, आपके परम भक्त। एक बहुत ही मामूली-सा काम आन पड़ा है। हमारे जिले के एस.पी. साहब का यहाँ से मन उचाट हो गया है। कहीं दूसरा जिला दान कर देंगे तो आपकी कृपा होगी भगवन।"

एस.पी. ध्यान और उत्सुकता से सुन रहा था।

- "केस में कोई दम नहीं है। लेकिन अब एस.पी. साहब की गुहार लेकर हम हाजिर हुए हैं।" उधर से पता नहीं क्या कहा जिसके जवाब में गिरधरजी उत्साह से बोले, - "भेजो न उस ब्राह्मण के मूत को। वह प्रशांत शर्मा ऐसे केस निपटाने में तो माहिर है।" कुछ देर उधर से बात सुनते रहे फिर गिरधरजी उस संभाव्य एस.पी. प्रशांत शर्मा के प्रति स्वर में हिकारत भरकर बोले, - "ईमानदार का मूत है तो दादा उसे कहाँ आप यहाँ इस जिले की रजिस्ट्री करके दे रहे हैं। चुनाव से पहले हटा देना। नहीं... नहीं... अरज है हमारी... कितना? पंद्रह? दादा यह तो ज्यादा है।" उधर मंत्री ने दस बोला था, पंद्रह सुनकर समझ गया कि गिरधरजी अपने जग प्रसिद्ध हरामीपन पर उतर आए हैं। मंत्रीजी चुप थे लेकिन गिरधरजी यूँ बोल रहे थे जैसे वार्तालाप दोनों तरफ से जारी है।

- "दादा मान जाओ। हमारी खातिर। यह एस.पी. हमारी रिश्तेदारी के भी हैं तभी तो हमारे पास आए हैं। अच्छा चलो बारह पर डन करते हैं। बस दादा अब मत बोलो। कब? समझो दो दिन में रकम आपके पास। आर्डर अभी निकाल दें। प्रणाम दादा... प्रणाम।" कहकर मोबाइल बंद करके विजेता के से भाव के साथ एस.पी. को देखते हुए गिरधरजी ने भीतर आवाज लगाई, - "अरे कमबख्तों, जब तक कहें नहीं, तब तक अतिथि को चाय-पानी नहीं पूछोगे?"

नए एस.पी. ने पदभार सँभाला तो कुछ ही दिनों में समझ गया कि शहर में एक ही राजनीतिक दल के दो गुट हैं। सांसद और विधायक की बनती नहीं। सांसद लड़कों की गिरफ्तारी के लिए दबाव बना रहा था। सांसद की तथाकथित सहानुभूति से लछमी का गुस्सा और भड़क रहा था।

एस.पी. ने गृहमंत्री से बात की। सारी स्थिति बताई और यह भी याद दिलाया कि चुनाव आने वाले हैं। गृहमंत्री ने कहा, - "बलात्कार विधायक ने तो नहीं किया?" यह प्रश्न नहीं था, आगे के कथन का पूर्व कथन था, - "हमें एक हद तक विधायक की चिंता कर सकते हैं, उसका बेटा कोई हमारा बाप लगता है?" इसके बाद गृहमंत्री ने मोबाइल काट दिया था। इसके आगे एस.पी. को कुछ सुनना भी नहीं था। जो गृहमंत्री ने नहीं बोला था, एस.पी. ने उसे सुना भी और समझा भी।

वह अस्पताल गया। पीड़िता से मिला। घाव अब लगभग भर चुके थे। उसका पहाड़ी सौंदर्य अस्पताल के नीम अँधेरे कमरे में जैसे उजास भर रहा था। श्रम से गठी उस आदिवासी लड़की की देह के पोर-पोर में जैसे सौंदर्य के स्रोत थे। उन घने जंगलों में बसी प्रकृति ने जैसे अपने सौंदर्य के प्रतिनिधि के रूप में उस लड़की का चयन किया था। बड़ी-बड़ी बिल्लौरी आँखों में गुस्से के उपरान्त एक खिंचाव था।

गुजरते दिनों के साथ एस.पी. देख रहा था कि लड़की का गुस्सा बदला लेने के दृढ़ निश्चय में बदल रहा था।

- "बड़े साब, उन भेड़ियों को सजा मिलना चाहिए। चाहे हमें उसके लिए कितना भी बड़ा केस लड़ना पड़े। अपना इकलौता छोटा-सा खेत बेचना पड़े। लेकिन उन आदमखोरों को छोड़ूँगी नहीं।" लड़की का गुस्सा अब उसके भरते घावों के साथ उबल रहा था। जैसे-जैसे वह ठीक हो रही थी, वैसे-वैसे उसका गुस्सा बढ़ रहा था। एस.पी. को लगा कि अब ये छोरी के माँ-बाप चाहे मान जाए, लेकिन लड़की को घर जबरदस्ती भेजना कठिन है।

एस.पी. ने लड़की के गुस्से को मन-ही-मन तौला फिर बहुत धैर्य से बोला, - "हम जल्दी ही सख्त कार्रवाई करेंगे।"

- "कब? ये जल्दी कितनी जल्दी आएगी? कब आएगी?" लड़की का गुस्सा अब पुलिस के रौब का अतिक्रमण कर रहा था। यह चिंता की बात थी।

- "मैं कल ही उन्हें गिरफ्तार करूँगा। चारों दरिंदों को।" एस.पी. ने थोड़े गुस्से में कहा और लड़की की ओर देखा जहाँ कोई आश्वस्ति का भाव नहीं था।"

- "यही मैं कब से सुनती आ रही हूँ।" लड़की तमतमाई।

- "मैं कल ही चारों लड़कों को गिरफ्तार करूँगा तुम सड़क पर निकलकर देखना। हथकड़ी पहनाकर शहर में उनका जुलूस निकालूँगा। बताओ फिर?" एस.पी. ने उसे तनिक आवेश में कहा, - "तुम देखना ऐसी मार लगाऊँगा, तुम्हारे सामने कि उन चारों की देह का कोई हिस्सा ऐसा नहीं बचेगा, जहाँ भीषण दर्द न हो। उनकी देह का पोर-पोर दर्द करेगा। रोज यही काम होगा।"

- "पर वे लोग रुपए और ताकत से मजबूत हैं। जमानत करा लेंगे।" माँग्या आहिस्ता से बोला।

सांगली नीचे गई थी। डॉक्टर ने बुलाया था।

- "मैं चाहूँ तो किसी की जमानत होने दूँगा, चाहूँ तो नहीं। हम लोग कैसी धारा लगाते हैं ये तो हम पर है। तुम इसकी चिंता मत करो। ऐसे भीतर करूँगा कि सालों की अर्थी ही बाहर निकलेगी।"

लछमी के चेहरे पर हल्के-से संतोष के भाव पहली बार आए।

एस.पी. ने माँग्या से कहा कि बुढ़िया को, तेरी घरवाली को नीचे डॉक्टर के कमरे से लेकर आओ। फिर लछमी से बोला कि, तुम अपना घर-खेत बेचना चाहती थी ना?"

- "हाँ, उन दरिंदों की सजा के लिए मैं कुछ भी कर सकती हूँ।" लछमी ने उत्तेजित स्वर में कहा।

बूढ़े बाप ने गुस्सैल बेटी को देखा फिर पत्नी को बुलाने नीचे चल दिया।

- "मकान-खेत अभी कल तक बेचने की बात मत सोचो। मैं जब उन दरिंदों को जानवरों की तरह मार लगवाऊँगा, तब बताना।"

- "साबजी, मैं आपके पाँव धो-धोकर पियूँगी।" लछमी एस.पी. की सहानुभूति से भावुक हो गई।

- "ऐसा वैसा करने की जरूरत नहीं। लेकिन एक बात बताओ, तुम्हारे गाँव में एक माता का मंदिर है। वहाँ के कुंड में किसी को भी नहाने की मनाही थी। लेकिन अब सभी नहाते हैं, ऐसा क्यों?" लछमी कुछ देर चुप रही फिर बोली, - "उस कुंड में गाँव का एक बदमाश लड़का कूद गया था और नहा लिया था। गाँव के बड़वे यानी पुजारी ने कहा कि कुंड अपवित्र हो गया है। तो दूसरा कुंड बनाया है पुराने कुंड में अब सभी नहाते है। क्योंकि एक बार अपवित्र हो जाने के बाद उसकी पवित्रता वापस नहीं आएगी।"

एस.पी. ध्यान से उसकी बात सुन रहा था फिर धैर्य से बोला, - "अब मेरी बात ध्यान से सुन। उन चारों का तो ऐसा हाल करूँगा कि जिंदा भी रहेंगे तो रोज भगवान से मौत की प्रार्थना करेंगे। लेकिन बदले में तू क्या करेगी।?"

- "जो चाहो आप। जिंदगी भर एहसान मानूँगी। खेत बेचकर आपको सारा पैसा दे दूँगी।" लछमी उम्मीद की लकीर पर आगे बढ़ी। वह आगे बढ़कर एस.पी. के पैरों में गिर पड़ी। एस.पी. तो लछमी को साक्षात् न्याय का देवता लगा।

एस.पी. मुस्कराया फिर लड़की को उठकर कुर्सी पर बैठने को कहा, लेकिन लछमी खड़ी रही। एस.पी. उसी धैर्य से बोला, - "तुझे एक रात मेरे पास आना पड़ेगा। न... न... गुस्सा नहीं। कोई जबरदस्ती नहीं है। आराम से सोच। मंदिर का कुंड एक बार अपवित्र हो गया, क्योंकि एक लड़का नहा लिया। अब उसमें सब नहाते हैं।" एस.पी. क्षण भर चुप रहा फिर बोला, - "तू भी एक बार ठुक गई है। एक बार और सही। क्या फर्क पड़ता है?" एस.पी. की आवाज और बोलने का लहजा दोनों बदल गए थे, - "कुंड में अब एक आदमी नहाए या दस आदमी। एक बार नहाए या दस बार, क्या फर्क पड़ता है? फिर मैं जात का ब्राह्मण हूँ, उच्च कुल का ब्राह्मण। तेरे पुरखे तर जाएँगे।" फिर उसके स्वर में उपकार भाव आ गया और बोला, - "तेरा कुंड तो फिर से पवित्र हो जाएगा।"

कमरे में एकाएक गर्मी बढ़ने लगी थी। एस.पी. देख नहीं पा रहा था कि हल्के अँधेरे में लछमी का चेहरा तमतमा रहा था। एस.पी. के पुलिसिये दंभ और आत्मविश्वास से भरे चेहरे पर एक निर्लज्ज मुस्कान भी थी। थोड़ी देर में गर्मी लछमी के गुस्से से बढ़ने लगी। लछमी को लगा जैसे एस.पी. का चेहरा उन चारों बलात्कारी लड़कों का मिला-जुला चेहरा बन गया है जो उसके जंगलों के भेड़िए से मिलता-जुलता है। गुस्से में उसकी मुट्ठियाँ तन गई। गले की नसें खींच गई। गोरा चेहरा गुस्से से लाल हो रहा था। बड़ी-बड़ी आँखों में खून उतर आया था। लछमी ने देखा बंद खिड़की के पास दवाइयों की छोटी-सी टेबल पर एक इन्जेक्शन सिरिंज और दवाई की काँच की ट्यूब काटने का एक लंबा और पैना नाइफ रखा था। दराँती तो गाँव में रखी थी।

कमरे में एक गरम सन्नाटा था जो एस.पी. को विचलित कर रहा था। उसने दरवाजे की ओर देखा, लड़की का बूढ़ा बाप अभी लौटकर नहीं आया था। कमरे में गरम सन्नाटे में एक अजीब-सा भारीपन आ गया था।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

सिनारिओ : शेखर जोशी

  कहानी सिनारिओ : शेखर जोशी     अपना सफरी थैला , स्लीपिंग बैग और फोटोग्राफी का भरपूर सामान लेकर जब वह गाँव पहुँचा , सूर्यास्त का समय...