बुधवार, 8 मई 2019

भये प्रकट कृपाला : नवभारतटाइम्स

किताब : भये प्रकट कृपाला
लेखक : डॉ सतीश शुक्ल
प्रकाशक : आर.के.पब्लिकेशन
1/12, पारस दुबे सोसाइटी, ओवरी पाढा, एस. वी.रोड, दहिसर (पूर्व)
मुम्बई-400068
मूल्य : ₹ 125

व्यंग्य पितामह हरिशंकर परसाई की अभूतपूर्व लोकप्रियता के बाद इस विधा में सक्रिय लेखन की यशस्वी परम्परा का आरम्भ हुआ। डॉ सतीश शुक्ल नई पीढ़ी के व्यंग्यकार हैं जो पूरी तल्लीनता से अनवरत अपनी व्यंग्य यात्रा में संलग्न हैं। इस संग्रह से पूर्व उनके तीन संग्रह "जरिये-नजरिये", "मरीन ड्राइव के गड्ढे" और "कार पे सवार काग" प्रकाशित हो चुके हैं। 'भये प्रकट कृपाला' उनका चौथा व्यंग्य संग्रह है जिसमें कुल सैंतालीस व्यंग्य लेख शामिल हैं। इन आलेखों की मुख्य विशेषता यही है कि इनमें विषयगत दोहराव नहीं हैं। सतीश शुक्ल अपने आसपास की घटनाओं , स्थितियों पर नज़र रखते हैं और एक कुशल लेखक की तरह इन्हीं घटनाओं से अपने व्यंग्य लेखन के सूत्र तलाश लेते हैं। साण्डपाड़ा, टाटा का नमक, खाओगे तो खिलाओगे, नींद का निर्वाण, काले धन, काले मन, मरे अस्पताल जाकर एवं अलीबाबा और चालीस करोड़ चोर जैसे आलेखों की विषयवस्तु उन्हें अपनी इसी सामयिक दृष्टि और हास्यबोध के कारण प्राप्त होती है।
सतीश शुक्ल के व्यंग्य में सहज हास्य के क्षण बड़े स्वाभाविक अंदाज में दिखाई देते हैं। 'हर आदमी दूसरे को बेकार और निकम्मा समझता है, इसीलिए वह उसके दुरुस्तीकरण के कार्यक्रम में जुटा रहता है।' जैसी मारक टिप्पणी हो या फिर मैच फिक्सिंग पर आधारित एक व्यंग्य आलेख के यह अंश "जहाँ पूरा सिस्टम ही फिक्स है, वहाँ छोटी मोटी फिक्सिंग के क्या मायने रखती है?" वर्तमान व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करते हैं।
एक अन्य आलेख में लंपट पुरुषों पर लेखक की यह प्रतिक्रिया उसके हास्यबोध का जानदार उदाहरण है-"पुरुष वर्ग बन्दर की जाति का होता है। कितना भी बूढ़ा हो जाय गुलाटी खाना नहीं भूलता।"
साहित्य जगत की दलाली, आज की विवादास्पद समीक्षा पद्धति और पक्षपात जैसे मुद्दों पर पर प्रहार  करते हुए व्यंग्यकार की ये टिप्पणियाँ व्यंग्य से दो कदम आगे बढ़कर तंज का उदाहरण प्रस्तुत करती हैं-"आज अगर अपको अपने समेत खुद के साहित्य को बेचना है तो आपको एक बिचौलिए या आम बाजारी भाषा में दलाल की ज़रूरत पड़ेगी जो आपकी रचना के प्रकाशन से लेकर लोकार्पण तक का ठेका ले सके।" और... "बिना पढ़े समीक्षा करना उसके बायें हाथ का काम है। वस्तुतः वह पुस्तक की समीक्षा कम और प्रशंसा ज्यादा होती है।"
इस संग्रह की भाषा आलेखों के अनुरूप सरल और चुटीली है। इन व्यंग्य आलेखों की विषयवस्तु हमारे आसपास की घटनाओं और वातावरण से प्रेरित है। समसामयिक राजनैतिक और सामाजिक घटनाओं पर आधारित सतीश शुक्ल के ये व्यंग्य आलेख पठनीय और संग्रहणीय बन पड़े हैं।

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