बरसों पहले, किशोरावस्था की ढलान के दिनों की बात होगी। धीरे धीरे पराग, नंदन और सुमन सौरभ की दुनिया से बाहर निकलकर कादम्बिनी और नवनीत में मन रमना शुरू हो चुका था। बड़ी बहन के द्वारा जन्मदिन पर एक किताब आयी उपहार में, नाम था- "हरे धागे का रिश्ता".. शीर्षक अच्छा लगा किन्तु इसके रचनाकार का नाम बिल्कुल अनजाना सा था-- अमृता प्रीतम। किताब भी कुछ अलग ही मिज़ाज़ की। न कहानियाँ, न उपन्यास, किन्तु जो भी था उसने इतना एहसास तो करा ही दिया था कि ये कोई सामान्य रचनाकार नहीं है। भाषा, भाव, संवेदना हर स्तर पर यह किताब एक अलग दुनिया की सैर करा रही थी। फिर धीरे धीरे जाना उन्हें और जानने समझने के इसी क्रम में ये भी जाना कि अमृता जैसे लोग शताब्दियों में कभी एकाध भूले भटके जन्म लेते हैं और अपनी रौशनी से दूसरों की आत्मा को भी निरंतर आलोकित करते हैं।
उंगलियों पर गिना जा सकता है उन किताबों को जिन्हें दोहराने का मन हुआ होगा, किन्तु अमृता की लेखनी से आत्मा का जाने कैसा रिश्ता है कि उनकी अधिकांश किताबें अब तक कई कई बार पढ़ने के बाद भी मन अतृप्त ही रहा। कोरे कागज़, कैली कामिनी और अनीता, तेरहवाँ सूरज, उनचास दिन, रत्ना और चेतना, पिंजर, कितने नाम गिनायें...
अमृता प्रीतम के विषय में जाने कितना कुछ लिखा जा सकता है किन्तु संतुष्ट होना मुमकिन नहीं। शायद कोई बड़ी किताब लिखकर भी मुक़म्मल होने का एहसास न हो।
आज उनकी एक कहानी साझा कर रहा हूँ जो शायद कुछ लोगों को साधारण सी लगे किन्तु गुजराती के एक विशिष्ट और प्रिय उपन्यास और उसके पात्रों के ज़िक़्र ने इसे कभी भूलने नहीं दिया। पन्नालाल पटेल की नायिका जीवी और अमृता की पात्र रत्नी कब एकाकार हो गईं, पता ही न चला...
इन दोनों रचनाकारों की किताबों में प्रेम जिस गहन आत्मीयता और उच्चस्तरीय गरिमा से पेश किया गया है वह हिन्दी कथा क्षेत्र में दुर्लभ है।
एक जीवी, एक रत्नी, एक सपना
अमृता प्रीतम
पालक एक आने गठ्ठी, टमाटर छह आने रत्तल और हरी मिर्चें एक आने की ढेरी "पता नहीं तरकारी बेचनेवाली स्त्री का मुख कैसा था कि मुझे लगा पालक के पत्तों की सारी कोमलता, टमाटरों का सारा रंग और हरी मिर्चों की सारी खुशबू उसके चेहरे पर पुती हुई थी।
एक बच्चा उसकी झोली में दूध पी रहा था। एक मुठ्ठी में उसने माँ की चोली पकड़ रखी थी और दूसरा हाथ वह बार-बार पालक के पत्तों पर पटकता था। माँ कभी उसका हाथ पीछे हटाती थी और कभी पालक की ढेरी को आगे सरकाती थी, पर जब उसे दूसरी तरफ बढ़कर कोई चीज़ ठीक करनी पड़ती थी, तो बच्चे का हाथ फिर पालक के पत्तों पर पड़ जाता था। उस स्त्री ने अपने बच्चे की मुठ्ठी खोलकर पालक के पत्तों को छुडात़े हुए घूरकर देखा, पर उसके होठों की हँसी उसके चेहरे की सिल्वटों में से उछलकर बहने लगी। सामने पड़ी हुई सारी तरकारी पर जैसे उसने हँसी छिड़क दी हो और मुझे लगा, ऐसी ताज़ी सब्जी कभी कहीं उगी नहीं होगी।
कई तरकारी बेचनेवाले मेरे घर के दरवाज़े के सामने से गुज़रते थे। कभी देर भी हो जाती, पर किसी से तरकारी न ख़रीद सकती थी। रोज़ उस स्त्री का चेहरा मुझे बुलाता रहता था। ,
उससे खरीदी हुई तरकारी जब मैं काटती, धोती और पतीले में डालकर पकाने के लिए रखती-सोचती रहती, उसका पति कैसा होगा! वह जब अपनी पत्नी को देखता होगा, छूता होगा, तो क्या उसके होंठों में पालक का, टमाटरों का और हरी मिर्चों का सारा स्वाद घुल जाता होगा?
कभी-कभी मुझे अपने पर खीज होती कि इस स्त्री का ख़याल किस तरह मेरे पीछे पड़ गया था। इन दिनों मैं एक गुजराती उपन्यास पढ़ रही थी। इस उपन्यास में रोशनी की लकीर-जैसी एक लड़की थी-जीवी। एक मर्द उसको देखता है और उसे लगता है कि उसके जीवन की रात में तारों के बीज उग आए हैं। वह हाथ लम्बे करता है, पर तारे हाथ नहीं आते और वह निराश होकर जीवी से कहता है, "तुम मेरे गाँव में अपनी जाति के किसी आदमी से ब्याह कर लो। मुझे दूर से सूरत ही दिखती रहेगी।" उस दिन का सूरज जब जीवी देखता है, तो वह इस तरह लाल हो जाता है, जैसे किसी ने कुँवारी लड़की को छू लिया हो कहानी के धागे लम्बे हो जाते हैं, और जीवी के चेहरे पर दु:खों की रेखाएँ पड़ जाती हैं इस जीवी का ख़याल भी आजकल मेरे पीछे पड़ा हुआ था, पर मुझे खीज नहीं होती थीं, वे तो दु:खों की रेखाएँ थीं, वही रेखाएँ जो मेरे गीतों में थीं, और रेखाएँ रेखाओं में मिल जाती हैं पर यह दूसरी जिसके होठों पर हँसी की बूँदे थीं, केसर की तुरियाँ थीं।
दूसरे दिन मैंने अपने पाँवों को रोका कि मैं उससे तरकारी ख़रीदने नहीं जाऊँगी। चौकीदार से कहा कि यहाँ जब तरकारी बेचनेवाला आए तो मेरा दरवाज़ा खटखटाना दरवाजे पर दस्तक हुई। एक-एक चीज़ को मैंने हाथ लगाकर देखा। आलू-नरम और गड्डों वाले। फरसबीन-जैसे फलियों के दिल सूख गए हों। पालक-जैसे वह दिन-भर की धूल फाँककर बेहद थक गई हो। टमाटर-जैसे वे भूख के कारण बिलखते हुए सो गए हो। हरी मिर्चें-जैसे किसी ने उनकी साँसों में से खुशबू निकाल ली हो, मैंने दरवाज़ा बन्द कर लिया। और पाँव मेरे रोकने पर भी उस तरकारी वाली की ओर चल पड़े।
आज उसके पास उसका पति भी था। वह मंडी से तरकारी लेकर आया था और उसके साथ मिलकर तरकारियों को पानी से धोकर अलग-अलग रख रहा था और उनके भाव लगा रहा था। उसकी सूरत पहचानी-सी थी इसे मैंने कब देखा था, कहाँ देखा था- एक नई बात पीछे पड़ गई।
"बीबी जी, आप!"
"मैं पर मैंने तुम्हें पहचाना नहीं।"
"इसे भी नहीं पहचाना? यह रत्नी!"
"माणकू रत्नी।" मैंने अपनी स्मृतियों में ढूँढ़ा, पर माणकू और रत्नी कहीं मिल नहीं रहे थे।
"तीन साल हो गए हैं, बल्कि महीना ऊपर हो गया है। एक गाँव के पास क्या नाम था उसका आपकी मोटर खराब हो गई थी।"
"हाँ, हुई तो थी।"
"और आप वहाँ से गुज़रते हुए एक ट्रक में बैठकर धुलिया आए थे, नया टायर ख़रीदने के लिए।"
"हाँ-हाँ।" और फिर मेरी स्मृति में मुझे माणकू और रत्नी मिल गए।
रत्नी तब अधखिली कली-जैसी थी और माणकू उसे पराए पौधे पर से तोड़ लाया था। ट्रक का ड्राइवर माणकू का पुराना मित्र था। उसने रत्नी को लेकर भागने में माणकू की मदद की थी। इसलिए रास्ते में वह माणकू के साथ हँसी-मज़ाक करता रहा।
रास्ते के छोटे-छोटे गाँवों में कहीं ख़रबूजे बिक रहे होते, कहीं ककड़ियाँ, कहीं तरबूज़! और माणकू का मित्र माणकू से ऊँची आवाज़ में कहता, "बड़ी नरम हैं, ककडियाँ ख़रीद ले। तरबूज तो सुर्ख लाल हैं और खरबूजा बिलकुल मिश्री है ख़रीदना नहीं है तो छीन ले वाह रे रांझे!"
'अरे, छोड़ मुझे रांझा क्यों कहता है? रांझा साला आशिक था कि नाई था? हीर की डोली के साथ भैंसें हाँककर चल पड़ा। मैं होता न कहीं।'
'वाह रो माणकू! तू तो मिर्ज़ा है मिर्ज़ा!'
'मिर्ज़ा तो हूँ ही, अगर कहीं साहिबाँ ने मरवा न दिया तो!' और फिर माणकू अपनी रत्नी को छेड़ता, 'देख रत्नी, साहिबाँ न बनना, हीर बनना।'
'वाह रे माणकू, तू मिर्ज़ा और यह हीर! यह भी जोड़ी अच्छी बनी!' आगे बैठा ड्राइवर हँसा।
इतनी देर में मध्यप्रदेश का नाका गुज़र गया और महाराष्ट्र की सीमा आ गई। यहाँ पर हर एक मोटर, लॉरी और ट्रक को रोका जाता था। पूरी तलाशी ली जाती थी कि कहीं कोई अफ़ीम, शराब या किसी तरह की कोई और चीज़ तो नहीं ले जा रहा। उस ट्रक की भी तलाशी ली गई। कुछ न मिला और ट्रक को आगे जाने के लिए रास्ता दे दिया गया। ज्यों ही ट्रक आगे बढ़ा, माणकू बेतहाशा हँस दिया।
'साले अफ़ीम खोजते हैं, शराब खोजते हैं। मैं जो नशे की बोतल ले जा रहा हूँ, सालों को दिखी ही नहीं।'
और रत्नी पहले अपने आप में सिकुड़ गई और फिर मन की सारी पत्तियों को खोलकर कहने लगी,
'देखना, कहीं नशे की बोतल तोड़ न देना! सभी टुकड़े तुम्हारे तलवों में उतर जाएँगे।'
'कहीं डूब मर!'
'मैं तो डूब जाऊँगी, तुम सागर बन जाओ!'
मैं सुन रही थी, हँस रही थी और फिर एक पीड़ा मेरे मन में आई, 'हाय री स्त्री, डूबने के लिए भी तैयार है, यदि तेरा प्रिय एक सागर हो!'
फिर धुलिया आ गया। हम ट्रक में से उतर गए और कुछ मिनट तक एक ख़याल मेरे मन को कुरेदता रहा- यह 'रत्नी' एक अधखिली कली-जैसी लड़की। माणकू इसे पता नहीं कहाँ से तोड़ लाया था। क्या इस कली को वह अपने जीवन में महकने देगा? यह कली कहीं पाँवों में ही तो नहीं मसली जाएगी?
पिछले दिनों दिल्ली में एक घटना हुई थी। एक लड़की को एक मास्टर वायलिन सिखाया करता था और फिर दोनों ने सोचा कि वे बम्बई भाग जाएँ। वहाँ वह गाया करेगी, वह वायलिन बजाया करेगा। रोज़ जब मास्टर आता, वह लड़की अपना एक-आध कपड़ा उसे पकड़ा देती और वह उसे वायलिन के डिब्बे में रखकर ले जाता। इस तरह लगभग महीने-भर में उस लड़की ने कई कपड़े मास्टर के घर भेज दिए और फिर जब वह अपने तीन कपड़ों में घर से निकली, किसी के मन में सन्देह की छाया तक न थी। और फिर उस लड़की का भी वही अंजाम हुआ, जो उससे पहले कई और लड़कियों का हो चुका था और उसके बाद कई और लड़कियों का होना था। वह लड़की बम्बई पहुँचकर कला की मूर्ती नहीं, कला की कब्र बन गई, और मैं सोच रही थी, यह रत्नी यह रत्नी क्या बनेगी?
आज तीन वर्ष बाद मैंने रत्नी को देखा। हँसी के पानी से वह तरकारियों को ताज़ा कर रही थी, 'पालक एक आने गठ्ठी, टमाटर छह आने रत्तल और हरी मिर्चें एक आने ढेरी।' और उसके चेहरे पर पालक की सारी कोमलता, टमाटरों का सारा रंग और हरी मिर्चों की सारी खुशबू पुती हुई थी।
जीवी के मुख पर दु:खों की रेखाएँ थीं - वहीं रेखाएँ, जो मेरे गीतों में थीं और रेखाएँ रेखाओं में मिल गई थीं।
रत्नी के मुख पर हँसी की बूँदे थीं- वह हँसी, जब सपने उग आएँ, तो ओस की बूँदों की तरह उन पत्तियों पर पड़ जाती है; और वे सपने मेरे गीतों के तुकान्त बनते थे।
जो सपना जीवी के मन में था, वही सपना रत्नी के मन में था। जीवी का सपना एक उपन्यास के आँसू बन गया और रत्नी का सपना गीतों के तुकान्त तोड़ कर आज उसकी झोली में दूध पी रहा था।
#अमृता_प्रीतम
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