" जीवन की गति न्यारी है। नदी तल से निकाली मिट्टी की भाँति फिर समतल हो जाना प्रवृत्ति है।"
उषाकिरण खान
मानव जीवन के विविध रंगों से सजे कैनवास पर एक नई कहानी और वास्तविकता के धरातल पर रचे पात्रों के साथ हमारे बीच उपस्थित हैं उषाकिरण खान जी। उनका सद्यः प्रकाशित उपन्यास "गई झुलनी टूट" अपने कलात्मक आवरण तथा शीर्षक के कारण बरबस ध्यान आकर्षित कर लेता है।
उषा जी का ज़िक़्र होते ही भामती, अगन हिंडोला और सिरजनहार जैसे ऐतिहासिक उपन्यासों की स्मृति ताजा हो उठती है। हालाँकि इस बार उनकी रचना के केन्द्र में किसी ऐतिहासिक चरित्र या घटना की बजाय हमारे समय का लोक जीवन है। यह दरअसल हाशिये पर जीते हुए कुछ चरित्रों के आजीवन संघर्ष की गाथा है। कहानी के पात्र और उनका कालखण्ड कुछ दशक पुराना है, इसीलिए नए पाठकों को इसमें कुछ ऐसी बातें दिखेंगी जो अब हमारे गाँवों के सामाजिक परिदृश्य पर कम हो चली हैं। जैसे किसी महिला के निःसंतान रह जाने पर बिना ये जानने की कोशिश किये कि समस्या किसके साथ है, उसके पति द्वारा दूसरा विवाह कर लेना।
आज भले ही ऐसे प्रसंग कम हो चले हों किन्तु कुछ समय पहले तक हमारे समाज में इस तरह की घटनाएँ बहुत आम थीं।
उपन्यास का आगाज़ एक छोटी लड़की कमलमुखी के मासूम बचपन से होता है जो गाँव के किनारे स्थित कमलदह के प्रति आकर्षित होकर अलस्सुबह वहाँ पहुँच जाया करती है। कमल की पंखुड़ियों में छुपे भँवरे को देखने के चक्कर में माँ की गालियाँ सुनने वाली यह लड़की जन्म लेने से पहले ही अपने पिता को खो चुकी थी। कमलमुखी की माँ देवकी, पति की मौत के बाद गर्भावस्था के दौरान ही अपनी बहन के यहाँ चली आती है और यहीं कमलमुखी का जन्म होता है। उसकी बहन के देवर जगत
का विवाह घाटों नाम की एक साँवली किन्तु आकर्षक महिला से हो चुका था, किन्तु उनके कोई संतान नहीं थी। इसी बीच घाटों की माँ बीमार पड़ती है और जगत उसे माँ की तीमारदारी के लिए भेज देता है। उसकी भाभी और कुछ अन्य लोगों के उकसाने और देवकी के आकर्षण को देखकर जगत का दिल भी उससे लग जाता है। परिजनों के बीच सम्मध करके जगत उसे रख लेता है। उधर घाटों को जब इस बात का पता चलता है तो वो खुद लौटकर आने से इनकार कर देती है। संकोचवश जगत भी उसे वापस लिवाने नहीं जाता। ऐसी परिस्थिति में कितना इंतज़ार सम्भव था! कुछ अरसे बाद घाटों का विवाह एक दुहाजू जोखन मरड़ से हो जाता है। इधर देवकी के देवर देवरानी आकर कमलमुखी को अपने साथ ले जाते हैं। वो जानते थे कि देवकी दूसरे के घर बैठ गयी है अतः हिस्सा बँटाने नहीं आ सकेगी। कमलमुखी की ओर से इस तरह संभावना बने, उससे पहले ही सहानुभूति दिखाने का उनका खेल शुरू हो जाता है। जगत के घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी और देवकी का मन भी उस समय बेटी प्रति ज़्यादा अनुरक्त नहीं था, इसीलिए उन्हें कमलमुखी के शादी विवाह के लिए चिंतित देखकर ये लोग उसे जाने देते हैं।
इसके बाद काल चक्र कुछ यूँ घूमता है कि जगत की पहली बीवी घाटों जिसे उन्होंने छोड़ दिया था, के दूसरे पति जोखन मरड़ के पहली बीवी से उत्पन्न बेटे रंजन से कमलमुखी की शादी हो जाती है।
शुरुआती दिनों में घाटों का व्यवहार कमलमुखी के साथ अच्छा रहा। एक दिन जैसे ही उसे पता चला कि ये उसकी सौत की बेटी है, उसी दिन से उसने कमलमुखी की शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना शुरू कर दी। कुछ समय के लिए वह अपने पति रंजन के पास जाकर कलकत्ता में भी रहती है। बच्चों की बीमारी की ख़बर पाकर एक दिन जब वो लौटकर जब गाँव आती है तो घाटों उसे रात में ही घर से बाहर निकाल देती है। कमलमुखी दोनों बच्चों को लेकर एक ऐसी राह पर निकल पड़ती है जिसकी कोई मंजिल नहीं है। सामने कुछ है तो सिर्फ़ जीवन का अथाह संघर्ष !
तीन अलग अलग स्थानों और पात्रों की कहानी समानांतर चलती रहती है । एक तरफ़ पटना में मेहनत मजदूरी के सहारे ज़िन्दगी की जद्दोजहद से जूझती कमलमुखी तो दूसरी ओर अपनी स्वाभाविक मानवीय कमजोरियों एवं महत्वाकांक्षा से ग्रस्त उसकी सास घाटों की ग्राम पंचायत राजनीति में व्यस्तता। तीसरे बिंदु पर जगत और देवकी हैं जो कमलमुखी के प्रति कर्तव्य निर्वहन में हुई अपनी ग़लती को समझते हुए भी अब कुछ कर पाने में ख़ुद को असमर्थ पाते हैं।
चाहे जैसी स्थितियाँ हों, जीवन अविच्छिन्न अपनी स्वाभाविक धारा
में बहता चला जाता है। ऊषा जी के पात्र ज़िन्दगी के तमाम दुःखों और विषमताओं के बावजूद टूटते नहीं, बल्कि निरंतर संघर्ष करते हैं। यही जिजीविषा जीवन को सुगम बनाती है----
" किसी एक व्यक्ति के सुख से न तो खेतों में हरियाली छा जाती है , न उसके उसके दुःख के ताप से खेत, नदियाँ , तालाब सूख जाते हैं। जब मन में पीड़ा का आलोड़न हिलोरें लेने लगता है तब भी चेहरे पर मुस्कान बनाये रखना पड़ता है, सामने की पौध के लिए।"
यह उपन्यास न सिर्फ़ हाशिये पर पड़े लोगों की जीती जागती तस्वीर प्रस्तुत करता है बल्कि ग्राम पंचायत और कालान्तर में विधान सभा चुनावों के समय की जाने वाली जोड़ तोड़ की राजनीति का वास्तविक चेहरा भी दिखाता है। उषाकिरण खान जी ने बिहार के दूरस्थ अंचलों में बसे गाँवों और वहाँ के सामाजिक जनजीवन का बेहद सहज और स्वाभाविक चित्रण किया है।
समीक्ष्य पुस्तक : गई झुलनी टूट
रचनाकार : उषाकिरण खान
प्रकाशक : किताबघर
पुस्तकालय संस्करण- 2018
मूल्य : ₹ 300
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