बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

यादें यादें और यादें

यादें यादें....
और यादें....
पुष्पा भारती
प्रभात प्रकाशन
2016
मूल्य ₹ 300

एक समय था जब कहानी और कविता से इतर अन्य विधाओं के लेखन को बहुत आग्रह से नही देखा जाता था। हालाँकि अपवाद के तौर पर देखें तो बच्चन की आत्मकथा, रेणु के रिपोर्ताज, निर्मल के यात्रावृत्त, अज्ञेय की डायरी, यात्रावृत्त, अमृतराय द्वारा लिखी गयी प्रेमचन्द की जीवनी "कलम का सिपाही" और शरतचंद्र के जीवन पर आधारित विष्णु प्रभाकर की लोकप्रिय रचना "आवारा मसीहा" जैसी कृतियाँ हमेशा बहुचर्चित रहीं । आज हम एक अलग दौर में हैं। गद्य की अन्य विधाएँ जैसे संस्मरण, यात्रावृत्त, रिपोर्ताज, आत्मकथा, जीवनी अधिक लोकप्रिय हैं इन दिनों। पाठक इन विधाओं में हुए लेखन को अधिक वरीयता देते हैं क्योंकि इन्हीं के माध्यम से वो अपने प्रिय लेखकों के जीवन और एक विशेष काल-खंड को विस्तार से जान पाते हैं।
पुष्पा भारती जी इसी कथेतर गद्य की सुगढ़ लेखिका रही हैं। उनके खाते में कहानी कविता और उपन्यास तो नहीं पर अन्य विधाओं की दर्जनों किताबें दर्ज हैं जिनमें अनुवाद और साक्षात्कार भी शामिल हैं। संस्मरण लिखते समय उनकी भाषा बड़ी सरल, सहज और  मर्मस्पर्शी हो जाती है।

"यादें यादें और यादें" जीवन में अविच्छिन्न रूप से शामिल रहे, कुछ विशिष्ट साहित्यकारों और संस्कृति-कर्मियों का पुण्य स्मरण है । पुष्पा भारती जी ने बड़ी आत्मीयता और विनम्रता से उन लोगों को याद किया है जो उनकी जीवन यात्रा में बरसों बरस तक सहयात्री रहे ।
इलाहाबाद के साहित्यिक परिवेश में पली बढ़ी और सुसंस्कृत हुईं पुष्पा जी मुम्बई आने से पूर्व कलकत्ता के एक महाविद्यालय की एक लोकप्रिय शिक्षिका भी रह चुकी हैं। गहन अध्ययनशीलता और अपनी परिपक्व वैचारिकता के कारण वे सदैव अपने अग्रज लेखकों और विचारकों की लाडली रहीं। धर्मवीर भारती जैसे बड़े साहित्यकार की जीवन-संगिनीं बनने के बाद साहित्यिक और सांस्कृतिक दुनिया के लोगों की आवाजाही जीवन में स्वाभाविक रूप से बढ़ी और पुष्पा जी ने जीवन के सहज क्रम में हासिल हुए इस सौभाग्य को बड़ी विनम्रता से ग्रहण किया। उनकी भाषाई समृद्धि और आडम्बरहीन सरल लेखन देखकर ऐसा लगता है जैसे अपने अग्रजों से ये गुण उन्हें विरासत में मिले हों।

आरम्भ होता है माखनलाल चतुर्वेदी जी से जिनका आशीर्वाद सदैव इन दोनों हस्तियों पर रहा। विवाह से पूर्व जब भारती जी मानसिक रूप से बहुत परेशान थे तब अपने "दादा" से मिलने खंडवा जाते हैं जो उनके लिए तीर्थस्थान तुल्य था। दादा ने जिस गरिमामय अंदाज में उन्हें उस असमंजस के जाल से बाहर निकलने में मदद की वो एक अद्भुत प्रसंग है।
अज्ञेय , महादेवी वर्मा और निराला जी से संबंधित संस्मरण भी बड़े सरस हैं। विशेषकर अज्ञेय जी के व्यक्तित्व के कई ऐसे अनछुए पहलू उन्होंने साझा किए हैं जिनके विषय में अन्यत्र कहीं पढ़ा हो ऐसा याद नही आता।
निराला जी उनके पडोसी थे दारागंज इलाहाबाद में। उनसे जुड़ा एक सरस संस्मरण किताब में सम्मिलित है। पुष्पा जी एक दिन अचानक उनसे अपने घर के सामने मिल गयीं। जब निराला जी को पता चला कि वे सितार बजा लेती हैं तो अविलम्ब उनके साथ घर के अंदर पहुँच गए। सितार वादन सुनकर इतने प्रसन्न हुए कि तैयार हुए चाय नाश्ते को छोड़कर पुष्पा जी को साथ लिया और पहुँच गए गली के नुक्कड़ पर स्थित कपड़े की दूकान पर और दुकान के मालिक से कहा कि--"बिटिया ने आज बहुत अच्छा सितार बजाया है। ये जो चाहे दे देना। सिल्क का पूरा थान मांगे तो वो भी दे देना।" कहकर वहाँ से चले गए। पुष्पा जी बड़े असमंजस के बाद एक ब्लाउज पीस लेकर घर आ गईं। बरसों बाद जब उन्होंने शिवानी से ये प्रसंग सुनाते हुए कहा कि " कैसी मूर्ख थी मैं । अगर चाहती तो उस दिन एकाध साड़ी तो ले ही सकती थी।" शिवानी ने उन्हें कहा कि "अगर तुम मूर्ख हो तो मैं महामूर्ख। मैं जब शांतिनिकेतन में पढ़ती थी तो एक दिन मेरी कविता को सुनकर रवींद्र नाथ टैगोर जी ने खुश होकर अपना काला चोंगा उतारकर मुझे दे दिया। और मैंने बाद में इतनी बड़ी बेवकूफ़ी किया कि उसे काटकर पेटीकोट बना लिया"।

राही मासूम रज़ा पर केंद्रित अध्याय उनके जीवन और कृतित्व को बखूबी बयान करता है। रज़ा साहब को बचपन में ही हड्डियों की टीबी हो गयी । कई बरसों तक इससे जूझने में उनकी पढ़ाई भी पीछे होती गयी और इस नामुराद बीमारी ने उनके एक पाँव को भी ख़राब कर दिया। पर अपनी धुन के ऐसे पक्के थे राही साहब कि अलीगढ विश्वविद्यालय में दाखिला लेकर उर्दू साहित्य में प्रथम श्रेणी से एम्.ए. किया और पी.एच. डी. करके वहीं पढ़ाने लगे। "आधा गाँव" जैसे बेमिसाल उपन्यास के अलावा "हिम्मत जौनपुरी" "ओस की बूँद" " कटरा बी आर्जू" और "नीम का पेड़" जैसे कई और महत्वपूर्ण आख्यानों के बाद कालान्तर में उनका फ़िल्म लेखन भी खूब सराहा गया। उनके खाते में "मैं तुलसी तेरे आँगन की" "अंधा कानून" और "आख़िरी रास्ता" जैसी व्यावसायिक रूप से सफ़लतम फ़िल्मे रहीं तो "गोलमाल"  "मिली" "बेमिसाल" और " लम्हे" जैसी कलात्मक फ़िल्मे भी। सुप्रसिद्ध धारावाहिक महाभारत के लेखन ने उन्हें देश के कोने कोने तक मक़बूल कर दिया। "मैं समय हूँ" का उद्घोष सुनने के लिए उस दौर में चारों तरफ़ सन्नाटा छा जाता था।  एक निश्चित समय पर देश की अधिसंख्य जनता के टीवी के सामने चिपक जाने की परंपरा रामायण के बाद महाभारत के समय ही दोहरायी गयी।
अगला अध्याय रज़ा साहब और उनकी पुत्री मरियम के संवेदनशील रिश्ते पर आधारित एक मार्मिक प्रसंग है जो बरबस आँखों को नम कर जाता है।
पंडित विष्णुकांत शास्त्री, कमलेश्वर, कविवर प्रदीप, हरिवंश राय बच्चन, विंदा करंदीकर, विद्यानिवास मिश्र, जावेद अख़्तर, शहरयार, दुष्यंत, सत्यदेव दुबे, माया गोविन्द आदि विद्वान लेखकों, कवियों, रंगकर्मियों और शायरों को बड़ी अंतरंगता से चित्रित किया है पुष्पा जी ने। भारतीय संस्कृति के गहन अध्येता और विद्वान विद्यानिवास मिश्र के साथ हुई उनकी आख़िरी और मुख़्तसर सी मुलाक़ात का किस्सा विचलित कर जाता है।

पुष्पा भारती जी के इन संस्मरणों से होकर गुजरना एक अलग तरह का पाठकीय अनुभव है। जिस गहन तन्मयता, आत्मीयता, और संवेदनशीलता से पुष्पा जी ने अपने जीवन, उससे जुड़े तमाम आत्मीय जनों, भारती जी के देहावसान के उपरांत अपनी अवसादपूर्ण मानसिक अवस्था और साहित्य सहवास कॉलोनी के अपने घर का जीवन्त वर्णन किया है वो हमें अपने साथ एक ऐसी यात्रा पर ले जाता है जहाँ हम सब एक दर्शक या पाठक न रहकर सामने चल रहे दृश्यों के पात्र बन जाते हैं।

2 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्कार भाई साहब जी। बधाइयाँ आपको। पुष्पा भारती जी की यह पुस्तक अवश्य पठनीय होगी!

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  2. ऐसे संस्मरण ही तो हमें अपनी पूर्व पीढ़ी से जोड़ते हैं। बधाई आपको। संग्रहणीय है यह।

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