सप्तपर्णी साहित्योत्सव के दौरान डॉ ईश्वर चंद्र त्रिपाठी को बड़ी कुशलता से मंच संचालन का दायित्व निभाते देखा। उनसे कोई पूर्व परिचय नहीं था। पहली बार उन्हें बोलते सुना और वक़्ताओं को आमंत्रित करने से पूर्व विविध विषयों पर आधारित उनके मुक्तकों को सुनकर उस छोटे से अंतराल में ही उनके लेखन का मुरीद होता गया। कार्यक्रम पूर्ण होने के बाद बड़े अधिकार के साथ उन्हें रोककर और चाय पीते हुए उनसे विधिवत परिचय किया गया। जब ये ज्ञात हुआ कि उन्होंने अपने मुक्तकों की किताब भी प्रकाशित की है तो उनसे एक प्रति के लिए अनुरोध किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया और अगले दिन सुबह इस खूबसूरत किताब की एक प्रति के साथ उपस्थित हुए। होटल से बाहर निकलते निकलते भयंकर ठंड की उस अलस्सुबह उनसे पुनः मिलना और पुस्तक के साथ तस्वीरों का लिया जाना आज भी रोमांचक और सुखद लगता है।
इस विधा में निरंतर लिखने वाले मेरी पहचान के ये पहले उस्ताद शख़्स हैं। लीजिये इन शानदार मुक्तकों की एक छोटी सी बानगी उसी पुस्तक से......
इन अँधेरों से रोशनी लेकर
जीने-मरने की बेबसी लेकर
पूछते हैं सभी, कहाँ जाएँ
अपनी छोटी सी ज़िन्दगी लेकर
तुम न बदले, कभी न हम बदले
घर की खुशियाँ, कभी न ग़म बदले
जो जहाँ था वहीं मिला लेकिन
उम्र के साथ ये मौसम बदले
इन उजालों की तीरगी लेकर
इक समुन्दर की तिश्नगी लेकर
भीड़ में हर कोई भटकता है
अपनी आवारा ज़िन्दगी लेकर
आँख मेरी है, ख़्वाब तेरा है
उम्र मेरी, हिसाब तेरा है
वाह! क्या तूने मोहब्बत की है
मेरी खुशबू, गुलाब तेरा है
शाम है, नींद है, ख़ुमारी है
बेखुदी बेबसी पे भारी है
ज़िन्दगी ज़िन्दगी से कहती है
देखना आज किसकी बारी है
काश रस्ता कोई निकल जाए
चाँद सूरज के साथ ढल जाए
ये जहाँ ज्यों का त्यों पड़ा रहता
ज़िन्दगी मौत को निगल जाए
थक गयी रात, सो गए तारे
कह रहा भोर, बैठकर द्वारे
रोज हम जिस्म बदल देते हैं
घर बदलते हैं जैसे बंजारे
उनसे हालात कह नहीं सकता
तुमसे हर बात कह नहीं सकता
तू जुबाँ काट ले मेरी फिर भी
मैं दिन को रात कह नहीं सकता
फूल और पत्तियाँ बनाता हूँ
रेत की बस्तियाँ बनाता हूँ
उम्र कागज़ की लिए पानी में
बैठकर कश्तियाँ बनाता हूँ
दो किनारों ने मुझको घेरा है
ठीक सरहद पे पाँव मेरा है
इस तरफ़ ज़िन्दगी की रौनक है
उस तरफ़ जाने क्या अँधेरा है
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