बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

चलते चलते

हम बहुत दूर निकल आए हैं चलते चलते
अब ठहर जाएँ कहीं शाम के ढलते ढलते

अब ग़म-ए-ज़ीस्त से घबरा के कहाँ जाएँगे
उम्र गुज़री है इसी आग में जलते जलते

रात के बाद सहर होगी मगर किस के लिए
हम ही शायद न रहें रात के ढलते ढलते

रौशनी कम थी मगर इतना अँधेरा तो न था
शम्मा-ए-उम्मीद भी गुल हो गई जलते जलते

टूटी दीवार का साया भी बहुत होता है
पाँव जल जाएँ अगर धूप में चलते चलते...

इक़बाल अज़ीम

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

सिनारिओ : शेखर जोशी

  कहानी सिनारिओ : शेखर जोशी     अपना सफरी थैला , स्लीपिंग बैग और फोटोग्राफी का भरपूर सामान लेकर जब वह गाँव पहुँचा , सूर्यास्त का समय...