हिन्दी ग़ज़ल की नई चेतना
Gyan Parkash Vivek
प्रकाशन संस्थान
मूल्य- ₹ 195
पृष्ठ- 248
ज्ञानप्रकाश विवेक का बहुआयामी लेखन साहित्य की कई विधाओं में एक साथ सक्रिय रहता है। बड़ी सहजता से इन विधाओं में आवाजाही करते हुए वे निरंतर हमें समृद्ध करते हैं। मेरे सामने उपस्थित है- "हिन्दी ग़ज़ल की नई चेतना".. जिस तल्लीनता और आत्मीयता से उन्होंने हिन्दी ग़ज़ल के विकास काल की सूक्ष्म पड़ताल की है वह विधाओं की सीमा से ऊपर का कार्य है। वरिष्ठ ग़ज़लकारों के साथ ही अपने बाद की नई पीढ़ी की रचनात्मकता को स्नेह और गौरव से रेखांकित कर ज्ञानप्रकाश विवेक जी ने एक ऐसी पगडंडी रची है जिस पर अब कई युवा शायर चलने लगे हैं।
इस किताब को पढ़ते समय एक पुरानी जिज्ञासा का समाधान भी मिला। विद्वानों द्वारा निर्धारित हिन्दी ग़ज़ल और उर्दू ग़ज़ल का अन्तर और उनकी बहसें कभी ठीक से न समझ सका था। अपनी पहुँच के दायरे में सिर्फ़ दो श्रेणियाँ थीं- एक वह ग़ज़ल जो अच्छी लगी। दूसरी वह जो अच्छी नहीं लगी।
ज्ञानप्रकाश विवेक जी ने बड़ी सहजता से यह समझाया कि " हिन्दी ग़ज़ल यानी देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली ग़ज़लें।"
इस शानदार और सहेज कर रखी जाने लायक भूमिका में ग़ज़ल, शेर और भाषा पर उनके कुछ विचार --
" हक़ीक़त यह है कि ग़ज़ल या किसी अन्य विधा में लिखते समय हम भाषा नहीं लिख रहे होते, भाषा में लिख रहे होते हैं।
भाषा का बेशक अपना महत्व है, लेकिन जब वो सृजन से जुड़ती है तो मानीख़ेज़ हो जाती है।"
" ग़ज़ल का अपना एक परिसर होता है। वो परिसर शेर का भी होता है। शेर की सीमा, उसका कड़ा अनुशासन होता है और यही एक शेर का सौंदर्य भी होता है। ग़ज़ल का हर शेर किसी चुनौती की तरह होता है। इतनी बड़ी चुनौती कि बड़े से बड़े कथ्य को दो मिसरों में इस शऊर और संवेदना से कहा जाय कि वो लय, नाद, गूँज, और ध्वनि की ताक़त बन जाये।"
"दिमाग जब शायरी में हस्तक्षेप करता है तो अश्आर गणित में बदल जाते हैं या फिर बनावटी हो जाते हैं। दिमाग के पास चालाकी होती है और दिल के पास भावनाएँ। ग़ज़ल का सारा खेल भावनाओं का है।"
वैसे तो हिन्दी ग़ज़ल की जड़ें कबीर दास तक पहुँचती हैं किन्तु सही मायनों में भारतेन्दु युग से हिन्दी ग़ज़ल में निरंतरता आती है। भारतेन्दु और शमशेर से शुरू हुआ ग़ज़लों का यह सफर दुष्यंत तक पहुँचता है। ज्ञानप्रकाश विवेक कहते हैं-- " दुष्यंत ने बेशक हिन्दी ग़ज़ल के मुख्य द्वार खोले। इसके बावजूद भारतेन्दु और शमशेर की ग़ज़लों की रूमानियत और क्लासिक लबो-लहजा हिन्दी में अपनी तरह का मिज़ाज पैदा करने में होता है।"
इस किताब में जिन 32 शायरों पर ज्ञान जी के आलेख शामिल हैं उनकी एक झलक.....
1) भारतेन्दु
बागबां है चार दिन की बागे आलम में बहार
फूल सब मुरझा गए , खाली बियाबां रह गया :
2) शमशेर
जमाने भर का कोई इस क़दर अपना न हो जाए
कि अपनी ज़िन्दगी ख़ुद आपको बेगाना हो जाए
इधर मैं हूँ, उधर मैं हूँ अज़ल, तू बीच में क्या है
फ़क़त इक नाम है यह नाम भी धोका न हो जाए..
( मुक्तिबोध की असामयिक मृत्यु के आघात पर उन्होंने यह उदास ग़ज़ल लिखी थी )
3) दुष्यंत
कहाँ तो तय था चरगां हरेक घर के लिए
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए
दुकानदार तो मेले में लुट गए यारों
तमाशबीन दुकानें सजा के बैठ गए
4) हरजीत सिंह
आयी चिड़िया तो मैंने ये जाना
मेरे कमरे में आसमान भी है
नींद की टहनियाँ हिला के गया
सुबह का इक शरारती बच्चा
5 ) नार्वी
सर्दियों की बात होती सिर्फ़ तो क्या बात थी
ज़िन्दगी ही बन गयी है जनवरी, बीड़ी जला
चलने के लिए तेज़ जमाने की सड़क पर
कुछ दूर तलक चलना फिसलना था ज़रूरी
6) अदम गोंडवी
अदब गर ज़िन्दगी के दायरे से दूर होता है
तो वो तहज़ीब के सीने में इक नासूर होता है
हुस्न की मासूमियत की ज़द में रोटी आ गयी
चाँदनी की छाँव में भी फूल अंगारे हुए
7) सूर्यभानु गुप्त
पहली दफ़ा तो संग में सीता भी थी लखन भी
अबके न होगा कोई जो राम निकले जंगल
ऐसी काई है इन मकानों पर
धूप के पाँव भी फिसलते हैं
8 ) रामकुमार कृषक
हाल मौसम का हवाई छल है
इन घटाओं की गवाही छल है
आप लिखकर कीजिये या मुँहजबानी कीजिये
देश अब खुशहाल है बातें सुहानी कीजिये
9) सुल्तान अहमद
हरेक शख़्स मिले बनके आदमी जैसा
तो ग़म नहीं है कोई देवता मिले न मिले
कई जलजलों से घिरी रही मेरी ज़िन्दगी की ज़मीन गो
तेरी याद के हैं बने हुए मगर अब भी उनमें मकान कुछ
10) माधव कौशिक
उसको उसी हिसाब से बनवास मिल गया
जितना जिसे लगाव था अपने मकान से
कौन हो सकता है वारिस ज़िन्दगी के दर्द का
छोड़कर जायेंगे अपनी दास्ताँ किसके लिए
11) विजय किशोर मानव
सगा है दुख मेरे कंधे पे रखकर हाथ चलता है
नहीं आता है सुख ऊपर से, इस रिश्ते से जलता है
मंच बदलने होंगे ये दरबार बदलने होंगे
हमको सारे के सारे किरदार बदलने होंगे
12) महेश अश्क
इतने खूंखार दिन न थे तब भी
लोग रहते थे जब गुफाओं में
ज़िन्दगी इक घना घना एहसास
सांस से सांस जोड़कर देखो
13) ध्रुव गुप्त Dhruv Gupt
तिश्नगी अपनी मुक़द्दर थी तो डर लगता था
आज बारिश का है इमक़ान तो डर लगता है
हर रोज़ नए हादसे, हर दिन नई तलाश
हर रोज़ अपने क़द से मैं थोड़ा बड़ा हुआ
14) देवेन्द्र आर्य
उन्माद से भर दी गईं बच्चों की किताबें
ख़ुश आप इसी पर हैं कि बस्ता नहीं बदला
दरख़्तों को कभी छुट्टी दिया कर
हवा, तू भी कभी पैदल चला कर
15) कमलेश भट्ट कमल
पेड़ पर चिड़ियों का डेरा बोलता है
शाम होते ही अंधेरा बोलता है
वो खुद ही जान जाते हैं बुलंदी आसमानों की
परिन्दों को नहीं तालीम दी जाती उड़ानों की
16) हरेराम समीप Hareram Sameep
वक़्त के इस शार्पनर में ज़िन्दगी छिलती रही
हम बनाते ही रहे इस पेंसिल को नोकदार
डर रहा है हर मुसाफ़िर डोलते जलयान से
बढ़ रही है आँधियों की दोस्ती कप्तान से
17) हस्तीमल हस्ती Hastimal Hasti
तुम हवाएँ लेके आओ, मैं जलाता हूँ चराग़
किसमें कितना दम है यारों, फैसला हो जाएगा
हर मोड़ पे है प्यास बुझाने की आरजू
हर मोड़ पे सराब, हमें होश तक नहीं
18) नसीम बेचैन
कल तक जो लूटते रहे राहों में कारवां
हैरत है आज काफ़िल-सालार हो गए
ज़मीन छीनकर वो आसमान क्या देगा
परों को काटनेवाला उड़ान क्या देगा
19) विनय मिश्र
इतनी ज़्यादा रेख बिछी है आँखों में
कुछ सपनों को हम पानी से लिखते हैं
भीतर जो जमी बर्फ़ है शायद पिघल सके
ज़िन्दा है उम्मीदों को बचाने की कवायद
20) पवन कुमार
लहरों को भेजता है तकाज़े के वास्ते
साहिल है कर्ज़दार, समन्दर मुनीम है
मुझे ये ज़िन्दगी अपनी तरफ़ कुछ यूँ बुलाती है
किसी मेले में कुल्फ़ी जैसे बच्चे को लुभाती है
21) सौरभ शेखर सौरभ शे.
तन्हाई का तुम्हारी था मुमकिन यही इलाज
घर के हरेक कोने को चीजों से भर दिया
बच्चों ने सजाई है कोई और ही दुनिया
खींचा है जहाँ बाघ, वहीं रक्खा हिरन भी
22) गौतम राजऋषि
सुब्ह दो खामोशियों को चाय पीते देखकर
गुनगुनी सी धूप उतरी, प्यालियों में आ गयी
इक जिद्दी सा ठिठका लम्हा यादों के चौबारे में
अक्सर शोर मचाता है मन के सूने गलियारे में
23) स्वप्निल तिवारी Swapnil Tiwari
ख़्वाब बच्चे हैं, लौटते होंगे
नींद इक माँ सी राह तकती है
आ के इक चिड़िया मिरे पीपल पे बैठी इस तरह
जैसे मुझसे कह रही हो- ये शजर मेरा भी है
24) विकास शर्मा राज
मेरे उरूज़ की लिक्खी थी दास्तां जिसमें
मेरे ज़वाल का किस्सा भी उस किताब में था
जरा सा सब्र चराग़ों! कुछ और देर लड़ो
हवा की साँस उखड़ती दिखाई देती है
25) इरशाद खान सिकन्दर Irshad Khan Sikandar
फिर उसके बाद सोच कि बाकी।बचेगा क्या
तू सिर्फ़ कृष्ण भक्ति से रसखान काट दे
अब मेरे सर पे सबको हँसाने का काम है
मैं चाहता हूँ काम ये संजीदगी से हो
26) इंदु श्रीवास्तव
बरसों से बियाबान सा ख़ाली मेरा मकां
तुमने रखा चराग़ तो घर में बदल गया
किसको पता है रेत में खोई नदी का सच
साहिल ही जानता है मेरी तिश्नगी का सच
27) के.पी.अनमोल KP Anmol
खेल मस्ती दोस्त बचपन अब भी हैं दिल में बसे
दिन मगर चलते बने हैं इक कमी को छोड़कर
शाम गुज़री झील की गोदी में सूरज डाल के
यूँ लगा दादी चली है पोटली को छोड़कर
28) रजनीश सचान
काटने वाले थे हम बाँझ समझकर जिसको
फिर उसी पेड़ के कोटर से गिलहरी निकली
उस रिश्ते में, जिसको हमने तोड़ दिया
अब भी हम दोनों के साये रहते हैं
29) सत्यप्रकाश उप्पल
लहू से इक दिया रातभर जलाना है
मगर ये शर्त कड़ी है कि मुस्कुराना है
मिट्टी से कुछ दीप बनाये जा सकते हैं
मिट्टी का सम्मान बढ़ाया जा सकता है
30) कुमार विनोद
दिल पे लेकर बोझ ख़्वाबों का सिकंदर की तरह
फिर भी हँसना चाहता है वो समन्दर की तरह
एक अनजाना सा डर, उम्मीद की हल्की किरण
कुल मिलाकर ज़िन्दगी से क्या मिला, कुछ भी नहीं
31) अशोक आलोक
मेरे हाथों की लक़ीरों के इज़ाफ़े हैं बहुत
मैंने पत्थर की तरह ख़ुद को तराशा है बहुत
चलो अच्छा हुआ इक रात गुज़री
बताएँ किसको क्या क्या साथ गुज़री
32) विज्ञान व्रत
मैं कुछ बेहतर ढूँढ रहा हूँ
घर में हूँ, घर ढूँढ रहा हूँ
बाहर धूप खड़ी है कब से
खिड़की खोलो अपने घर की
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