रविवार, 16 दिसंबर 2018

यह गाँव बिकाऊ है : एम एम चन्द्रा

फ्लैप

नई पीढ़ी के होनहार लेखक एम एम चन्द्रा द्वारा लिखे जा रही कथा-त्रयी का दूसरा पड़ाव है-- "यह गाँव बिकाऊ है"। उनका पिछला और बहुचर्चित उपन्यास प्रोस्तोर जहाँ ख़त्म हुआ था वहीं से इस उपन्यास का आगाज़ होता है। "प्रोस्तोर" एक मिल के बंद पड़ने और सहसा बेरोजगारी की कगार पर आ खड़े हुए आम इंसानों के संघर्ष का दस्तावेज था । " यह गाँव बिकाऊ है" हमारे देश की एक अन्य बेहद महत्वपूर्ण समस्या पर केन्द्रित है। इस उपन्यास में किसानों के संघर्ष और राजनैतिक दाँव पेंच का विस्तार से वर्णन हुआ है। किसानों द्वारा संगठित होने का प्रयास , इस आन्दोलन में युवा वर्ग की सक्रिय भागीदारी और उनके परस्पर संबंधों, गतिविधियों का रोचक और स्वाभाविक चित्रण इस भयावह समस्या को अपेक्षित विस्तार और जमीन देता है। इस उपन्यास का एक अहम आकर्षण इसका शीर्षक है। मुझे विश्वास है कि पाठक इस किताब को पढ़ते हुए जब इस शीर्षक की पृष्ठभूमि तक पहुँचेंगे तब वे इसकी उपयुक्तता का अनुभव कर सकेंगे।

एम एम  चन्द्रा अपनी इस किताब में  जब किसानों और खेती की समस्याओं की बात करते हुए इनकी जड़ों तक जाते हैं तो बहुत बारीकी से उन परिस्थितियों के साथ ही बचाव के विभिन्न तरीकों पर भी बात करते हैं। अपनी विषयवस्तु पर समग्रता से की गई तैयारी उनके लेखन में साफ़ नज़र आती है। उनकी सकारात्मकता बहुत बार सूत्र वाक्यों की तरह सामने उपस्थित होती है--
" जब हम जमीनी लड़ाई लड़ते हैं तो हमसे तमाम गलतियाँ होती हैं। हम उन ग़लतियों से ही सबक लेकर आगे बढ़ते हैं। दुनिया की तमाम क्रांतियों की सफलता और असफलता का अनुभव हमारे सामने है। हमें इनसे सीखने की ही नहीं बल्कि आगे बढ़ने की ज़रूरत है।"

"भारतीय समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार है। उसके बिखरते ही पुरानी परंपरा और मूल्य बिखर जाते हैं।"

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