गौतम राजऋषि मौजूदा दौर के सबसे लोकप्रिय लेखकों की जमात में दर्ज हैं। उनके ग़ज़ल संग्रह "पाल ले इक रोग नादाँ " को पाठकों का अच्छा प्रतिसाद मिला था। हालिया बरसों में किसी काव्य विधा की किताब पर शायद ही इतनी बात हुई हो।
भारतीय सेना में कर्नल के पद पर सुशोभित गौतम राजऋषि का पहला कहानी संग्रह "हरी मुस्कुराहटों का कोलाज" इस वर्ष की चर्चित किताबों में रहा है।
कर्नल साहब ने ग़ज़लों की ही तरह अपने गद्य के लिए भी एक खास ज़मीन विकसित की है। भाषा पर उनके सहज अधिकार और शिल्प की सरलता इस संग्रह की रचनाओं को पठनीय बनाती हैं। गौतम सेना से हैं तो बड़े स्वाभाविक रूप से इन कहानियों की पृष्ठभूमि में फौजियों के जीवन और उनके परिवार से जुड़े किस्से हैं।
चूँकि इन कहानियों को कल्पना की बजाय बिताए हुए जीवन की स्मृतियों ने गढ़ा है अतः इन्हें पढ़ते हुए प्रायः संस्मरण पढ़ने का आभास होता है।
कुछ बड़ी कहानियाँ जिनका विस्तार कथ्य के अनुरूप बड़े शानदार तरीके से किया गया है, उनमें व्याप्त किस्सागोई के तत्वों ने इन कहानियों को अधिक प्रभावी और यादगार बना दिया है। ऐसी ही कुछ कहानियों का ज़िक़्र....
"दूसरी शहादत" शहादत एक ऐसी लड़की की दास्तान है जिसका सैनिक मँगेतर एक सैन्य अभियान में शहीद हो जाता है। जीवन पर अचानक आई इस विपदा से जूझते हुए अचानक एक दिन मालूम पड़ता है कि वो गर्भवती है। उसके पिता अपने परिवार को अपयश से बचाने के लिए एबॉर्शन करा देते हैं। ये कहानी उस लड़की की मनःस्थिति और अवसाद को बड़े संवेदनशीलता से बयान करती है, जो अपने होने वाले पति को तो खो ही देती है, उसके आख़िरी निशानी अपने बच्चे को भी नहीं बचा पाती।
बर्थ नम्बर तीन-- इस कहानी में दो सैनिक मित्रों की एक रेल यात्रा के दौरान घटी घटना का वर्णन है। दोनों की बर्थ अलग अलग डिब्बों में होती है। कहानी का नायक जिस डिब्बे में नीचे की बर्थ पर है वहीं एक और परिवार विराजमान है। रात को उस परिवार का कोई सदस्य नायक से अनुरोध करता है कि वो ऊपर की सीट पर चला जाय। नायक बड़ी विनम्रता से यह अनुरोध अस्वीकार कर देता है, और फिर उस परिवार के लोग बड़ी देर तक आज की पीढ़ी के नाम ताने मारते हैं। सुबह जब उसका दूसरा मित्र मिलने आता है तब इन्हें मालूम पड़ता है कि वो एक सैनिक है और उसका पाँव कट चुका है। अपनी ग़लती का एहसास होने के बाद वो सॉरी कहते हैं तो नायक उन्हें डाँट देता है ये कहते हुए कि-- किस बात पर सॉरी? मैं सैनिक हूँ इसलिए या फिर अपंग हूँ इसलिए।" कहानी एक बड़ा संदेश हमें दे जाती है कि वस्तुस्थिति को बिना ठीक से समझे रियेक्ट करना नितांत अनुचित है।
"तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा" एक रोचक हास्य संस्मरण जैसा है। जिस छावनी की ये कहानी है वहाँ सप्ताह में एक दिन पूजा होती थी और बाद में आरती। इस कहानी के नायक को अचानक एक दिन संदेह होता है कि आरती की अंतिम पंक्तियों " तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा " के दौरान किसी के द्वारा कुछ और गाया जा रहा है। एक दो बार तो कोशिश करने के बाद भी वो चूक जाता है किंतु एक दिन सब उन पंक्तियों को सुनने में कामयाब हो जाते हैं----
पेड़ा तुझको अर्पण, प्याला दे मेरा
और फिर ये राज भी खुल जाता है कि कौन इन्हें गा रहा था।
"इक तो सजन मेरे पास नहीं रे" इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से एक है। अव्यक्त प्रेम के और करुणा के मद्धिम सुरों से सजी इस कहानी में सेना का एक अधिकारी उस लड़की की मदद करना चाहता है जिसके पिता को आतंकवादियों ने पुलिस का खबरी कहकर मार डाला था और जिसका मँगेतर एक दिन अचानक लापता हो जाता है। उस लड़की का अथाह दुख देखकर वो एक मुखबिर की मदद लेते हुए मालूम कर लेता है कि उसका मँगेतर सीमापार पहुँचकर आतंकी बनने की ट्रेनिंग ले रहा है। उसे वापस बुलाने की कोशिश में भी वो सफल होता है किंतु उसी समय कहानी में एक ऐसा मोड़ आता है जो सब कुछ बदल देता है। रेशमा के प्रसिद्ध गीत का प्रासंगिक समावेश इस कहानी के मर्म को और उभार देता है।
"गर्लफ़्रेंड्स" एक ऐसे फौजी की कथा है जो आतंकियों के ख़िलाफ़ हुए एक ऑपेरशन में बुरी तरह ज़ख्मी होकर आर्मी हॉस्पिटल में पड़ा है। उस दिन की घटनाओं के दृश्य बार बार फ़्लैशबैक होकर उसकी स्मृतियों में गूँजते हैं और वो उन छोटी भूलों के लिए निरंतर पश्चाताप करता रहता है जब उन भूलों के परिणामस्वरूप उसकी टीम के दो जवान शहीद हो गए थे। हॉस्पिटल की एक बुजुर्ग नर्स जो उसे अवसाद के इस बोझ से उबारना चाहती है, उससे उन यादों को साझा करने का आग्रह करती है ताकि वो सब कुछ कहकर अपने दर्द को कुछ कम कर सके। और फिर उस ऑपेरशन वाले दिन की पूरी दास्तान वो एक दिन सुनाने लगता है। शीर्षक का राज भी इसी प्रसंग में खुलता है।
"किशनगंगा बनाम झेलम"-- एक छोटी हास्य रस प्रधान कहानी है। भारत पाकिस्तान सीमा के किसी ऐसे स्थान पर केंद्रित जहाँ युद्ध बंद है। दोनों तरफ़ की सेना गोलियों की जगह एक दूसरे को गालियाँ देकर समय बिता रही है। फिर एक दिन कुछ ऐसा घटता है कि महीनों तक उस तरफ़ वाले शांत रहते हैं, इनकी गालियों और व्यंग्य बाणों को चुपचाप सुनते हुए।
"बार इज क्लोज्ड ऑन ट्यूज़डे" में एक बार टेंडर सेना के तीन जवानों के साथ अपने अ-लौकिक अनुभव साझा कर रहा है। इस अ-लौकिक का अर्थ तो आप सब समझ ही गए होंगे, परालौकिक यानी भूत प्रेत वाली घटनाएँ....
उसी रात वहाँ से वापस लौटकर जब ये लोग घर आते हैं और रसोइए से बताते हैं कि वो लोग अभी बार से आ रहे हैं और आज छुट्टी का दिन होने के बावजूद उस बार टेंडर से शराब हासिल में सफल हो गए हैं। रसोइए के ये बताने के बाद कि वह बार टेंडर तो कल रात ही गुज़र गया , सबके होश उड़ जाते हैं।
"हैशटैग" पृष्ठ संख्या के लिहाज़ से शायद इस संग्रह की सबसे बड़ी किन्तु उतनी ही रोचक कहानी है। एक साधारण कद काठी के युवक को कॉलेज की सबसे सुंदर लड़की से इकतरफा प्रेम हो जाता है। ये जानते हुए भी कि वो किसी और को चाहती है, जनाब उसे हासिल करने की जिद में पड़ जाते हैं। करते तो और भी बहुत कुछ हैं किंतु उनके प्रयासों की इंतिहा तब होती है जब वो मिलिट्री जॉइन कर लेते हैं। उनकी ट्रेनिंग के संदर्भ में नेशनल डिफेंस अकादमी देहरादून के परिसर और माहौल से हमारा परिचय भी होता है। नए नए भर्ती हुए रंगरूट सेना की बेहद कठिन और अकल्पनीय ट्रेनिंग के दौरान किस तरह की मानसिकता से गुज़रते हैं, इसका प्रत्यक्ष अनुभव गौतम हमें कराते हैं। अपने प्यार की ख़ातिर इन सारी मुश्किलों को झेल जाता है हीरो जिसके पास उस ट्रेनिंग पीरियड के नियमों के मुताबिक
न मोबाइल है न कंप्यूटर। यानी प्रेमिका से संपर्क करने का कोई माध्यम नहीं। एक दिन पिकनिक के बहाने जब शहर की तरफ़ निकलते हैं तो नायक भागकर एक साइबर कैफे में जाता है और फेसबुक पर लॉगिन करता है। वहीं पर उसे ये सूचना मिलती है कि नायिका का विवाह उसके रक़ीब के साथ निश्चित हो चुका है। अब उसकी बटालियन के साथी उसे वहाँ से एक बार बाहर निकालने के जुगाड़ में लग जाते हैं। नायक रात को नायिका के हॉस्टल पहुँचकर उससे मिलता है और उसे बताता है कि उसे पाने की ख़ातिर ही उसने आर्मी जॉइन की है। दोनों में तक़रार होती है। अपने ठुकराए जाने का एहसास तब और परवान चढ़ता है जब नायिका उसे लताड़ते हुए सेना के एक पद का नाम लेकर अपमानजनक बात कह देती है। क्रोधित नायक उसके पेट में चाकू घोपकर वहाँ से निकल जाता है।लम्बे समय तक वो डर के साये में जीवन बिताता है। किसी दिन उसकी बहन फ़ोन पर उसे बताती है कि किसी अज्ञात हमलावर द्वारा उसकी एक सहपाठी की हत्या की कोशिश की गई थी किंतु वह लड़की बच गयी है।
इसके आगे का शेष भाग सस्पेंस से भरपूर है। आख़िरी पृष्ठ तक पहुँचे बिना ये अनुमान लगाना कठिन है कि आगे क्या हुआ होगा।
"हरी मुस्कुराहटों का कोलाज़" यह शीर्षक कहानी संवेदना से भरपूर एक खूबसूरत रचना है। छह वर्षों की नौकरी के दौरान नायक को दुबारा काश्मीर की पोस्टिंग मिलती है। उसके परिजन इस बात पर बहुत परेशान और दुखी हैं किंतु नायक संतुष्ट है कि उसे फिर इस जिम्मेदारी के लायक समझा गया। स्मृतियों की आवाजाही में पिछली पोस्टिंग की बहुत सी यादें ताजा होती हैं। नायक की इमेज एक कड़क ऑफीसर की है जो थोड़ी सी भी ढिलाई और अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं करता। एक दिन अपनी विदेश से आयातित दूरबीन से सुरक्षा चौकी को देखते हुए उसका ध्यान जाता है कि एक सिपाही असावधान स्थिति में खड़ा है। तुरन्त गाड़ी निकालने का आदेश देता है।
इस कहानी का अंत अपने शीर्षक को सार्थक करते हुए बड़े मानवीय तरीके से होता है।
गौतम के लेखन का ये कमाल है कि ये किताब पाठक को बाँधे रखने में सक्षम है। कहानी और अपने पात्रों पर उनकी पकड़ कभी ढीली नहीं पड़ती। उनका स्वाभाविक ह्यूमर भी कुछ कहानियों में प्रभावी ढंग से उभरकर आया है। सैनिकों के व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन के एक से एक रोचक किस्से इस किताब में समाए हैं।
कर्नल साहब पहले से ही लोगों के लाड़ले हैं। इस संग्रह के बाद उनसे मोहब्बत करने वालों की संख्या में यकीनन और बढ़ोत्तरी होगी।
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