सोमवार, 5 मार्च 2018

मुख्यमंत्री-- चाणक्य सेन

भारतीय साहित्य में बंगाली लेखकों बंकिमचंद्र चटर्जी, रवींद्रनाथ टैगोर और शरतचंद्र की लोकप्रियता युग और काल की सीमा से परे है। इनके बाद आने वाली अगली पीढ़ी आशापूर्णा देवी, मणि शंकर मुखर्जी, विमल मित्र , ताराशंकर बंद्योपाध्याय और सुनील गंगोपाध्याय जैसे लेखकों का रचनात्मक अवदान पाकर और समृद्ध हुई। औपन्यासिक विस्तार के साथ बड़े फलक पर रचे गए इनके आख्यानों नें इस विधा को अतुलनीय योगदान दिया है।

प्रख्यात विद्वान, पत्रकार, स्तंभ लेखक, और प्रोफेसर भवानी सेनगुप्त जिन्हें साहित्य जगत
चाणक्य सेन के नाम से जानता है, इसी यशस्वी पीढ़ी के एक बड़े कथाकार हैं। चाणक्य सेन को राजनीति पर लिखी किताबों व लेखों ने बहुत ख्याति दिलाई। उनके तीस से अधिक उपन्यास राजनीति पर केंद्रित रहे। अपने बहुचर्चित उपन्यासों " राजपथ जनपथ" ये दिन वे दिन " "रक्तबीज के ख़िलाफ़" "पाकिस्तान का सच" और "मुख्यमंत्री" के हिन्दी अनुवादों के जरिये वे देश के विभिन्न भाषाओं के पाठकों के साथ जुड़े और सराहे गए।

जब भी भारतीय भाषाओं में लिखे गए राजनैतिक उपन्यासों की बात होती है, "मुख्यमंत्री" का नाम सबसे पहले आता है। बहुत दिनों से इस किताब को पाने का प्रयत्न करता रहा। कई बार ऑर्डर करने के बाद भी राजकमल वालों ने इसे नहीं भेजा। पिछली इलाहाबाद यात्रा के दौरान जब लोकभारती कार्यालय में किताबें देखने गया तो अचानक इस उपन्यास की दो पुरानी प्रतियों पर नज़र पड़ी और अविलम्ब एक ठीकठाक प्रति उठा ली।

1966 में मूल बाँग्ला में प्रकाशित "मुख्यमंत्री" एक अद्वितीय उपन्यास है। 1967 में माया गुप्त ने इसका हिन्दी अनुवाद किया।
चाणक्य सेन ने इस राजनैतिक उपन्यास के बहाने हमारे समाज की राजनैतिक और सामाजिक विचारधाराओं, मान्यताओं, नैतिकता की आड़ में छुपी मानवीय विद्रूपताओं का सूक्ष्म और छिद्रान्वेषी विवेचन किया है। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के अंतर्गत देश भर में हुए लगभग 300 से अधिक मंचन इस उपन्यास के कथानक की सर्वकालिक प्रासंगिकता और लोकप्रियता को बयान करते हैं। ( नाट्य मंचन की संख्या और अधिक हो सकती है क्योंकि ये आँकड़े बरसों पुराने लिखे गए किसी लेख से लिये गए हैं)

छठवें दशक में मध्यप्रदेश के एक लोकप्रिय मुख्यमंत्री के चरित्र से प्रेरित इस कथा में एक काल्पनिक प्रान्त "उदयाचल" और उसकी राजधानी रतनपुर है। आजादी के बाद की पहली कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री हैं प्रखर कूटनीतिज्ञ एवं लोकप्रिय कृष्ण द्वैपायन कौशल यानी के.डी. कौशल। किताब का आरम्भ उनके मंत्रिमंडल पतन की खबर से होता है। संक्षिप्त रूप में बताना हो तो यही कहेंगे कि यह उपन्यास सुबह से देर रात तक घटी कुछ घटनाओं की प्रस्तुति है किंतु 24 घंटों में समाई इस मूल कथा के साथ साथ आजादी के पूर्व और उत्तर काल के एक लंबे कालखंड की सामाजिक और सांस्कृतिक यात्रा भी चलती रहती है।
चाणक्य सेन की इस किताब में बहुत से किरदार हैं और इन सारे किरदारों को बड़ी आस्था, तन्मयता और सूक्ष्मता से गढ़ा है उन्होंने।
संयम और नियम की प्रतिमूर्ति उनकी पत्नी , कांग्रेस की नीतियों के विरुद्ध और समाजवादी विचारधारा का संवाहक बड़ा बेटा दुर्गाप्रसाद जो घर छोड़कर चला गया है, और परस्पर विपरीत स्वभाव वाले अन्य तीनों पुत्रों का चित्रण उनके विचार और मनःस्थिति को बखूबी दर्शाता है। अब तक बेरोजगार रहे अपने सबसे छोटे बेटे के साथ मुख्यमंत्री के अनुराग के दृश्य देखते ही बनते हैं।
दुर्गाभाई देसाई नाम के बेहद ईमानदार वरिष्ठ नेता भी इसी प्रदेश में मौजूद हैं जो सत्ता की चालबाजियों में फँसकर अपनी उजली चादर को दागदार बनाने के लोभ में न पड़कर मुख्यमंत्री बनने का अवसर कृष्ण द्वैपायन को देकर स्वयं एक मंत्रालय तक सीमित रहते हैं । उनकी ईमानदारी का ये आलम है कि अपने पुत्र को इस राज्य में इस आशंका से नौकरी नहीं करने देते कि उनके मंत्रित्व पद का लाभ उसे मिल सकता है। अपनी पत्नी के महत्वाकांक्षी स्वभाव से परिचित होते हुए और मुख्यमंत्री को अपदस्थ करने के प्रयास में शामिल कुछ प्रभावशाली पात्रों के समर्थन के बावजूद वे इस दलदल में उतरने को तैयार नहीं होते।
सत्ता हासिल करने के प्रयत्नों में व्यस्त उन पात्रों के इतिहास का वर्णन भी रोचक है जिनके तमाम रहस्य कृष्ण द्वैपायन की आलमारियों में सुरक्षित हैं। शाम बीतते बीतते षड्यंत्रकारियों की चालें लगभग व्यर्थ होती जाती हैं।

मूल कथा के समानांतर विगत इतिहास और आगत भविष्य की आशंका पर पात्रों के माध्यम से लेखक के विचार बेहद प्रभावी और और भविष्यवाणी जैसे प्रतीत होते हैं। ये कहना अनुचित नहीं लग रहा कि जिस तरह गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस में आने वाले समय की एक भयावह और अंततः सत्य सिद्ध हुई तस्वीर सदियों पहले दिखाई गई थी, उसी तरह इस उपन्यास में कई दशक पहले आजादी के ठीक बाद की सोचनीय स्थितियों को देखते हुए जिस भविष्य का पूर्वानुमान लेखक ने लगाया था उससे भी बदतर हालात में यह देश रहा।

विभिन्न स्थलों पर प्रसंगवश उद्धृत गीता के श्लोक, रामायण की चौपाइयाँ, महाभारत के अंश और हरिवंशराय बच्चन की कविताएँ इस उपन्यास को और विशेष बना जाती हैं।

माया गुप्ता द्वारा किये गए हिन्दी अनुवाद की गुणवत्ता असंदिग्ध है। पुस्तक के मूल भाव को सुरक्षित रखते हुए उन्होंने इतना सहज अनुवाद किया है कि इसे पढ़ते समय कहीं पर भी यह अनुभव नहीं होता कि हम किसी अन्य भाषा की किताब पढ़ रहे हैं।

किताब के कुछ महत्वपूर्ण अंश पाठक मित्रों के लिए सादर प्रस्तुत है...

"उम्र के साथ साथ अधिकांश हिंदुओं के मन में धर्म भावना जाग ही उठती है। भारत में धर्म के साथ राजनीति का घनिष्ठ सम्बंध है। जो राजनेता देवता ब्राह्मण के प्रति श्रद्धा प्रकट नहीं करता, मंदिर स्थापना में रुचि नहीं लेता, कभी कभार माथे पर तिलक आदि नहीं लगाता, साधु संतों के साथ समय नहीं बिताता ( इसे आज के संदर्भ में बाबाओं के साथ माना जाय), और अपने भाषणों में गीता महाभारत और रामायण के अंशों का उद्धरण न दे सके, उसके लिए धर्मप्राण भारतवर्ष में शासन करना मुश्किल है।"

हम विराट का स्वप्न देखना पसंद करते हैं और बड़ों की महानता हमें सम्मोहित करती है किंतु छोटे छोटे को अच्छी तरह पूरा करने का न हममें धैर्य है न और न आग्रह। किसी बात के प्रति हमारे मन में गहरी आंतरिक आस्था नहीं है। आधी सफलता से ही हम तृप्त हो जाते हैं और व्यर्थ हो जाने पर भी किसी न किसी निर्लज्ज व्याख्या से हम आसानी से संतुष्ट हो जाते हैं।

संपादकीय लिखो या साहित्य रचो, साहित्यिक सृष्टि में हमेशा नम्रता रहनी चाहिए। हमारे उपनिषद के ऋषियों ने कहा है "अपने को श्रीमान समझने वाले लोग जो सोचते हैं कि वे सब जानते हैं, दूसरों से कहते हैं कि तुम हमारा कहना आदर से सुनो, और उसे मानो, वे असल में अज्ञान और अविद्या के कारण बिलकुल वैसे ही होते हैं जैसे, एक अन्धा दूसरे अन्धे को सहारा देकर चलाये।

ऐसा उदार और बहुरंगी आकाश, उत्तर में गगनचुंबी हिमालय, दक्षिण पश्चिम में सीमाहीन समुद्र, चार हजार वर्ष पुरानी सभ्यता, वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत। बुद्ध, गाँधी, रामकृष्ण, विवेकानंद, अरविन्द। चालीस करोड़ लोग ( यह आँकड़ा छठवें दशक का है), प्रतिवर्ष बीस लाख बढ़ती आबादी। अस्सी प्रतिशत लोग निरक्षर। हर सौ में से सत्तर लोगों को दो जून भरपेट खाना नहीं मिलता। दुनिया का सबसे बड़ा गणतन्त्र। सचमुच भारत की कोई तुलना नहीं है।

हिंदुस्तान में राजनीति एक पेशा बन गया है। यहाँ के नेता कभी अवकाश ग्रहण नहीं करेंगे। हर नेता गद्दी पर जमा हुआ ही मरना चाहेगा।

इस देश में एक अरसे से कोई राजनीतिक चिन्तन नहीं रहा। 1885 में जिन लोगों ने कांग्रेस की स्थापना की थी, वे बस इतना ही चाहते थे कि अंग्रेजी साम्राज्य के अन्दर ही थोड़ी और मर्यादा हासिल हो। इसके बाद एक ओर तो हमारी राष्ट्रीयता की भावना जागी और दूसरी ओर हम अंग्रेजों के शासन-तंत्र के मोह में फँस गए। हमारी वह राष्ट्रीयता की भावना भविष्य में स्वतंत्र भारतवर्ष के लिए किसी योग्य शासन-पद्धति का सृजन नहीं कर पाई। हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के नेता देशभक्त तो थे पर असली शिक्षा-दीक्षा संस्कृति सबमें अंग्रेजों की ही श्रेणी के। अपवाद नहीं थे, ऐसा भी नहीं। पहले अपवाद तिलक थे, पर गाँधी जी को पसंद नहीं थे वे। गाँधी युग में ही उनका प्रभाव ख़त्म हो रहा था। सबसे बड़े अपवाद स्वयं गाँधी थे पर उन्होंने शासन की जिम्मेदारी नहीं ली और बाद में तो वह रहे भी नहीं।

हमारे सामने पंचवर्षीय योजना है, समाजवादी आदर्श है, पर हो यह रहा है कि पूँजीपतियों का धन बढ़ रहा है और गरीबों की गरीबी। गाँव और कृषि की उन्नति में जो खर्च हो रहा है, उसका एक बड़ा हिस्सा अमीरों या जमींदारों के पास जाता है। उनके घरों में बिजली आयी है, उनके खेतों में रासायनिक खाद पहुँचती है, सिंचाई के लिए पानी की सुविधाएँ हैं। यहाँ तक कि स्कूल, सड़क , अस्पताल बनाते समय भी हम उन्हीं का फायदा सबसे पहले देखते हैं। दूसरी ओर जोतदार किसानों की हालत निरंतर बदतर होती जा रही है। वे लगातार गाँव छोड़ शहर आकर गंदी और रोगों से भरी हुई बस्तियों में नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू कर रहे हैं। हम कहते हैं कि कारखानों के मजदूरों की हालत बेहतर हो रही है पर मजदूरों के मुकाबले मालिकों की हालत हजार गुना बेहतर होती है। वे मनमाने ढंग से सामानों के दाम लगाते हैं और आम लोग खरीदने के लिए मजबूर होते हैं। असल में हम सामंतवाद के नाम पर एक विराट पूँजीवादी सामंतवादी समाज तैयार कर रहे हैं।

इस देश की आबोहवा , इतिहास, संस्कृति , किसी भी चीज को यह पवित्र नहीं रहने देती। हर चीज में मिलावट करके उस पर भारतीय होने का ठप्पा लगा देती है। उसी को हम समन्वय कहते हैं। कई दलों की राजनीति का नाम लेकर एक ही दल लगातार राज्य कर रहा है। गणतंत्रवाद और समाजवाद के साथ धन-तंत्रवाद का एक अजीब समन्वय है। साम्यवाद हो चाहे समाजवाद, सबमें मिलावट है।

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