शनिवार, 24 मार्च 2018

रेखना मेरी जान

2017 के पटना पुस्तक मेले का समय... अचानक एक खबर ने लोगों को चौंका दिया। इसी शहर के निवासी और जाने माने लेखक रत्नेश्वर सिंह इस ख़बर के मुख्य आकर्षण थे। "नॉवेल्टी एंड कंपनी" नामक प्रकाशक से उनके नए उपन्यास के लिए ढाई लाख का साइनिंग अमाउंट और पौने दो करोड़ रुपये का अनुबंध काफी समय तक चर्चा में रहा। जिस देश में हिन्दी लेखकों की किताब प्रकाशक उपकार समझकर छापते हों, वहाँ यह खबर सुर्खियों में तो आनी ही थी। उनकी किताब के प्रति लोगों की जिज्ञासा भी उत्तरोत्तर बढ़ती गयी। आख़िरकार सितंबर 2017 में यह प्रकाशित होकर पाठकों की दुनिया में उपस्थित हुई। इसके नाम को लेकर भी बड़ा असमंजस रहा।
नवभारत टाइम्स मुम्बई संस्करण के लिए धीरेन्द्र अस्थाना जी द्वारा लिखी गयी समीक्षा यह असमंजस ख़त्म हुआ और मालूम पड़ा कि यह किताब ग्लोबल वार्मिंग पर केंद्रित है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में एक प्रेम कथा अवश्य है किन्तु वह कहानी की संवाहक मात्र है। मूल कथा में पर्यावरण की जो चिंता मौज़ूद है, वह ज्यादा महत्वपूर्ण है।

किताब के आरम्भ में "समर्पण" और "भूमिका" से गुजरते हुए रत्नेश्वर की शालीन भाषा से परिचय हुआ और पुस्तक की मूल कथा से संबंधित बहुत सी आवश्यक जानकारियाँ भी मिलीं। उनके स्वभाव में प्रेम और आत्मीयता की भूमिका कितनी अहम है, इसे भूमिका के आरंभ में पत्नी को सम्बोधित उनकी पंक्तियों से समझा जा सकता है।

सबसे पहले शीर्षक को डिकोड कर दूँ ताकि अन्य लोग भी इस राज को समझ जाएँ। रेखना यानी मनुष्य द्वारा खींची गई रेखाएँ और मेरी, जान दो तूफानों के नाम हैं। इस अटपटे शीर्षक के पीछे लेखक का तर्क ये था कि लोग इसे साधारण सी प्रेम कहानी मानकर ही पढ़ना शुरू करें तो ठीक है, क्योंकि भारी भरकम नामों से उम्मीदें ज़्यादा लगा बैठते हैं पाठक।

यह उपन्यास वैश्विक ताप यानी ग्लोबल वार्मिंग के निरंतर बढ़ते संकट के कारण आने वाले दिनों की एक भयावह तस्वीर प्रस्तुत करता है। पिछले डेढ़ दो दशकों से विश्व स्तर पर पर्यावरण में चिंतनीय बदलाव हुए हैं। 2005 जुलाई में मुम्बई और महाराष्ट्र में आये भयानक प्राकृतिक प्रकोप को कौन भूल सकता है । अंटार्कटिका एवं हिमालय में भूस्खलन और सिकुड़न की खबरें प्रायः आती रहती हैं। इनके कारण समुद्र का निरंतर बढ़ता हुआ जलस्तर विश्व के तमाम देशों के लिए प्रलयंकर संकट बनने की कगार पर है।
इन्हीं चिंताजनक स्थितियों ने रत्नेश्वर सिंह को यह उपन्यास लिखने के लिए प्रेरित किया। विषय सामयिक और चुनौती पूर्ण था। लगभग आठ वर्षों तक अध्ययन और शोध की प्रक्रिया से गुजरने के बाद उन्होंने एक मासूम सी प्रेम कहानी को पार्श्व में रखकर इस कथानक का ताना बाना बुना। ये भविष्य का वह समय है जब मेरी और जान नामक दो बड़े प्राकृतिक तूफानों के कुछ ही दिनों में आने की चेतावनी मिल चुकी है।

कहानी के पहले सिरे पर ग्लोबल वार्मिंग की चपेट में आते दुनिया के अन्य देशों के साथ भारत के समुद्री तटों पर बसे कुछ शहर और पड़ोसी बांग्लादेश है। घोषणा हो चुकी है कि बाँग्लादेश ख़तरे में है। इस विभीषिका से स्वयं जूझ रहे भारत ने कह दिया है कि वह सारे बाँग्लादेशियों को पनाह देने में असमर्थ है।

दूसरी तरफ़ सर्वेक्षण के लिए अंटार्कटिका गए विश्व के चुने हुए वैज्ञानिकों का एक दल है। हालात वहाँ के भी ठीक नही हैं। बर्फ़ की पिघलन लगातार बढ़ रही है। अचानक हालात बिगड़ जाते हैं और फिर अमेरिका और भारत द्वारा उन्हें सुरक्षित निकालने के प्रयास होने लगते हैं।

मूल कथा के विकास क्रम में ही रत्नेश्वर बड़ी सहजता से हमें अतीत के उन लम्हों तक ले जाते हैं जो मानवता के चेहरे पर किसी काले धब्बे से कम नहीं हैं। बाँग्लादेश मुक्ति संग्राम के उन दिनों का प्रसंग बेहद मार्मिक है जब पाकिस्तान की सेना ने यहाँ के निवासियों विशेष कर महिलाओं और बच्चों पर बेइंतिहा अत्याचार किए। इसी तरह बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद प्रतिक्रिया स्वरूप बाँग्लादेश में हिंदुओं के साथ घोर अमानवीय व्यवहार हुआ और मंदिरों को मस्जिदों में तब्दील किया गया। रत्नेश्वर की सधी हुई मार्मिक लेखनी इतिहास के इन पन्नों को बड़ी संवेदनशीलता से हमारे सामने प्रस्तुत करती है।

बारिशाल में वैशाख के पहले दिन मनाए जाने वाले उत्सव की तैयारियाँ चल रही हैं। इसी क्रम में हमारा परिचय  फ़रीद,  सुमोना और अन्य किरदारों से होता है। फ़रीद और सुमोना की मोहब्बत के बिल्कुल शुरुआती दिन हैं। यहाँ तक कि सुमोना ने अब तक अपनी चाहत को स्वीकार भी नहीं किया है।
मेरी और जान निर्धारित समय से पहले ही आकर आनंद और उत्सव की सारी तैयारियों को नष्ट कर देते हैं। कुदरत का कहर पूरे शहर को तहस नहस कर जाता है। अब हर किसी के सामने सबसे बड़ी चुनौती वहाँ से जान बचाकर निकलने की है। फ़रीद उस तूफानी बारिश में किसी तरह सुमोना के साथ सुरक्षित रहने की कोशिश करता है। थोड़ी देर में ही सुमोना को लेने उसके पिता पहुँच जाते हैं। उनके जाने के बाद फ़रीद भी अपने घर के लिए निकलता है तो उसे रास्ते में किसी लड़की की कराह सुनाई पड़ती है। गिरे हुए भारी भरकम खंबों के बीच जीवन और मृत्यु से संघर्ष करती वह लड़की उसकी सहपाठी नूर थी। बहुत कोशिशों के बाद भी फ़रीद उसे वहाँ से नहीं निकाल पाता और उसके देखते देखते वो दम तोड़ देती है। जिस संवेदना और मानवीयता से इस विवशता का वर्णन लेखक ने किया है वह मन को बहुत गहराई तक व्यथित कर जाता है। प्रकृति का प्रकोप अपने चरम पर है। मूसलाधार बारिश और तूफानी हवा से धीरे धीरे बचाव के सारे रास्ते बंद होते जाते हैं। लोगों के सामने घर छोड़कर भागने के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं रहा। रत्नेश्वर जी ने इस विभीषिका बहुत जीवंत और प्रभावशाली चित्रण किया है। जीवन में कई बार आ चुके इस तरह के अनेक अनुभव आँखों के सामने प्रत्यक्ष हो उठे।

दास्तान का अहम हिस्सा अभी भी शेष है किंतु और ज्यादा बताने से पाठकों का आनंद बाधित होगा अतः अब यहीं विराम लेते हैं। प्रूफ़ की कमियाँ इस किताब में भी हैं। कुछ दूर तक तो सब ठीकठाक रहा किन्तु बाद में बहुत जगहों पर ये त्रुटियाँ अखरने वाली रहीं।

रत्नेश्वर उन रेखनाओं की बात बार बार करते हैं जिन्हें मनुष्य नें स्वयं खींच रखा है । मनुष्य जाति और धर्म की इन रेखाओं द्वारा विभाजित दुनिया में जीने के लिए बाध्य है।
यह किताब पढ़ते समय उनकी सधी हुई परिपक्व भाषा बेहद प्रभावित करती है। उन्होंने कथानक के अनुरूप बंगाली के शब्दों का प्रयोग भी खूब किया है और ये उनकी विनम्रता है कि पृष्ठ के निचले हिस्से में उनके अर्थ भी दिए हैं वरना बहुत से लेखक इस तरह के सहयोग को "पाठकों की समझ को कमतर आँकने की" कवायद कहकर सीधे नकार देते हैं। अठारह किताबें लिख चुके और बेस्टसेलर घोषित होने के बाद भी रत्नेश्वर के स्वभाव की ये विनम्रता, लेखन के प्रति आस्था और भाषा के सौंदर्य का यह आग्रह इसी तरह कायम रहे, यही शुभकामना। अब आप सबके लिए इसी पुस्तक से कुछ चुने हुए अंश......

जब प्रेम हो जाता है तो आदमी सुध बुध खो बैठता है और जब प्रेम मिल जाता है तो वह सारी लालसाओं से ऊपर, भयमुक्त आनंद को पा लेता है।

प्रेम से परिपूर्ण एक खुशहाल परिवार का जीवन जीना ही सुख है।

बचपन से लेकर आजतक ज़िन्दगी ने खूब दौड़ाया भगाया है। आड़े तिरछे ऊबड़ खाबड़ रास्तों पर चलना ही मानो जीवन की नियति हो।

जहाँ बचपन बीतता है, उस जगह का एक अलग मोह होता ही है। वैसे मोह का क्या, वो तो हो ही जाता है, दुनिया में हरेक को एक दूसरे से जोड़े रखता है। मोह न हो तो जीने का क्या आनंद। और यही मोह सारे बंधनों और दुखों का कारण भी होता है।

मकड़ी जाला बनाती है अपने रहने के लिए और शिकार फँसाने के लिए किन्तु हम अपनी ही खींची गई रेखनाओं के जाल में ऐसा फँसते हैं कि खुद ही नहीं निकल पाते कभी उससे।

कहते हैं कि अच्छे भविष्य के लिए रुककर इंतज़ार करने से बेहतर है उसकी खोज में चल पड़ना। कोशिशें अक्सर कामयाब हो जाती हैं और फ़िर ये पछतावा भी नहीं होता कि मैंने कोशिश नहीं की।

अपने मातृत्व से अलग होना कितना कष्टप्रद होता है। संसार के प्रत्येक जीव का सम्मोहन शायद उसके मातृत्व बोध से ही सबसे ज़्यादा होता है। पर यह भी कहा जाता है कि जिसने भी मातृत्व बोध या मातृत्व सम्मोहन से अपने आपको उबार लिया है, वही दुनिया में श्रेष्ठता को पाता है।

रेखना मेरी जान
रत्नेश्वर सिंह
प्रकाशक -- ब्लू वर्ड
वर्ष - 2017
पृष्ठ- 172
मूल्य- 225

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