साहित्य प्रेमियों की अभिरुचि को परिष्कृत करने और भारत की साहित्यिक धारा से निरन्तर नए नए पाठकों को जोड़ने में धर्मयुग, सारिका, दिनमान, कहानी, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाओं का विशिष्ट योगदान रहा है।
आज की पीढ़ी के लिए यह आश्चर्यजनक हो सकता है, किन्तु एक दौर वह भी था जब धर्मयुग में एक कहानी छपते ही एक नया रचनाकार रातों रात देश भर में चर्चित हो जाता था।
इसी 'धर्मयुग' में सूर्यबाला जी के उपन्यास 'मेरे संधपत्र' का धारावाहिक प्रकाशन 1974/75 के दौरान हुआ और इस दौरान पाठकों के मध्य उन्होंने जो लोकप्रियता हासिल की, वह साढ़े चार दशक बाद आज भी अक्षुण्ण है। इतने बरसों तक पाठकों और प्रशंसकों की दुनिया में इतनी जीवन्तता से अपनी रचनाधर्मिता के जरिये उपस्थित रहना और उनके दिलों पर राज करना आसान नहीं होता। ऐसी उपलब्धियाँ दमदार लेखन के कारण ही सम्भव होती हैं। मानव जीवन के प्रति सहज समदृष्टि, अपने परिवेश एवं वर्तमान की तरफ़ खुली हुई सजग मानवीय दृष्टि और संवेदना जिस कलाकार के भीतर मौजूद रहती है वह कभी अप्रासंगिक नहीं होता और राइटर्स ब्लॉक जैसी अदृश्य बीमारी भी उसे कभी नहीं घेर पाती।
'पाखी' पत्रिका के संपादक अपूर्व जोशी ने जब जुलाई महीने में 'मेरे संधिपत्र' का अंश प्रकाशित किया तो तमाम सारी संस्मृतियाँ और विचार मन में हलचल मचाने लगे।
जब ये उपन्यास धर्मयुग में छपता था, वही मेरे इस दुनिया में अवतरण का समय था और चूँकि महज़ कुछ महीनों की उम्र में पढ़ने लिखने का कोई ईश्वरीय प्रावधान नहीं है, सो
उस समय की यादों की ये धरोहर अग्रजों, मित्रों से हुई वार्ताओं और पत्र पत्रिकाओं में पढ़े गए संस्मरणों पर आधारित हैं। तीन चार वर्ष पहले अचानक नेशनल पब्लिशिंग हाउस की कृपा से कुछ पुरानी प्रतियाँ मुम्बई आयीं तब मैं इस उपन्यास को पढ़ सका। कथानक और इस पर हुए पाठकीय विमर्श अपनी जगह, मैं तो सूर्यबाला जी की भाषा और कहन पर ही मुग्ध हो गया। अपने लेखकीय जीवन के एकदम शुरुआती दिनों में ही इतनी सधी हुई भाषा, मार्मिकता और सरोकार! शायद यही वह मुख्य कारण है जो आज भी यह उपन्यास पाठकों ( विशेषकर पाठिकाओं ☺️) के मध्य उतना ही लोकप्रिय और सदैव इन डिमांड रहता है।
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