सोमवार, 9 सितंबर 2019

सागर सीमांत : संजीव

◆◆सागर सीमांत : संजीव 

झीने कुहरे से बुनी चाँदनी रातों में जिस राह से अंडे देने के बाद इलिस मछलियाँ समुद्र में लौटती हैं, जिस राह के दोनों ओर धुंध-भरी सुबह की कुनकुनी धूप में कछुए अपनी पीठ सेंकते मिलते हैं और केकड़े अपने बिलों में कुलबुलाया करते हैं, जहाँ बालू या पंक में अपने अंडे गाड़कर मादा घड़ियाल फिर समुद्र में चल देती है, उसी राह से आई थी नसीबन बी आज से पच्चीस साल पहले, सुदूर मुर्शिदाबाद से।

सामने कोसों दूर फैला पानी, पानी में हलकी-हलकी लहरें। नसीबन ने किलककर पूछा था, 'आ गया सागर-संगम?'

डाँड खेना रोककर बताया था करीम ने, 'नहीं, वह तो केओड़ाखाली में है। यह तो अभी हिलसा ही है, तुम्हारी गंगा।'

'मेरे मन में वर्षों से देखने की चाह है, कैसा होता होगा सागर-संगम, जहाँ नदी समुद्र से मिलती है।'

'ठीक है, मैं बता दूँगा।'

'वह भी कोई बताने की चीज है?'

'तो?'

'महसूसने की चीज है, सिर्फ महसूसने की...'

'अच्छा!' करीम ने शरारत से झाँका था नसीबन की उल्लसित निगाहों में... और शर्म से लाल हो आई थी नसीबन।

कहते हैं, बाघघाट पर एक बाघ-बाघिन पानी पीने आए थे। यहाँ मीठा पानी तो मिलने से रहा, सो खारा पानी पीना पड़ता है। खून भी खारा होता है। सो खारा पानी पीते-पीते खून का चस्का लग जाता है। मगर बाघ बाघ होता है, आदमी नहीं।

बाघिन ने पूँछ डुलाई, 'खारा खून! खारा खून!' मगर बाघ, जो नसीबन को देखते ही भूख-प्यास भूल बैठा था, बोला, 'इसे मारने का जी नहीं करता, तुझे जितना खारा खून चाहिए, बोल, ला दूँगा, बस इसे छोड़ दे तू।' फिर दोनों केओड़ाखाली तक पहुँचाने आए थे इन्हें।

घड़ियाल निगलने को लपके थे, वे भी मोहित हो पीछे-पीछे तैरते रहे। इलिस मछलियों के जाल के बंद अपने-आप खुल गए। वे भी पूँछ डुलाते हुए पीछे हो लीं। केकड़े माला बनाकर चल रहे थे कि कहीं किसी की नजर न लग जाए। हवा झिरक रही थी, झाऊ, ताड़ और नारियल के पेड़ झूम रहे थे, सागर की लहरों में उस दिन कई गुनी शोखी आ गई थी, चाँद खुद उन्हें पहुँचाने आया था, उस ताड़ के पेड़ तक। सबसे मिताई हो गई आते-आते।

केओड़ाखाली में अब तो डाक बँगले, टूरिस्ट लॉज, सरकारी दफ्तर और बहुत-कुछ हो गया है, उन दिनों सिर्फ बीस-एक मछुआरों के झोंपड़े थे। उन्हीं में से एक झोंपड़ी थी नसीबन की भी...

नसीबन इतनी सुंदर कि जिस दर से गुजरती, वह दर खुशगवार हो उठता। हँसती तो फिजा महक उठती और गुनगुनाती तो हवा में मिठास घुल जाती। पेड़-रूख, फूल-पत्ते, हवा-समुद्र - कौन नहीं था उसका चहेता, मगर वह थी सिर्फ करीम की। कहते हैं, पशु-पक्षी के मादा जोड़े अपने नरों से पूछते हैं, 'तुम मुझे करीम-सा प्यार क्यों नहीं करते?' नर जवाब देते, 'तुम नसीबन बन जाओ, फिर देखो।'

तो ऐसी थी नसीबन, जिसकी एक आँख में गंगा मचलती रहती तो दूसरी में समुद्र। एक मायका, एक ससुराल... और नसीबन-करीम का प्यार! जिसने सागर-संगम देखा और महसूसा है, वही समझ सकता है उसे - जहाँ लाड़ में कभी नदी ठेलती है समुद्र को, कभी समुद्र ठेलता है नदी को। समुद्र में जब ज्वार आता है, फूलकर ढक लेता है हिलसा को, नदी समा जाती है उसकी गोद में... और जब समुद्र स्खलित होकर सिकुड़ता है, नदी फूली-फूली वैभवशालिनी-सी बड़ी दिखने लगती है। न सागर सागर रह जाता है, न नदी नदी, सागर नदी बन जाता है, नदी सागर।

दो साल तक मन-प्राण एक बने रहे नसीबन-करीम के...

तभी आ गया वह भीषण तूफान! वैसा तूफान केओड़ाखाली में न कभी आया था, न फिर कभी आएगा। सब कुछ उलट-पुलट गया उस तूफान में।

दो दिन पहले ही नौ मछेरे समुद्र में गए थे, उसमें से एक करीम भी था। तूफान की उस रात को कभी नहीं भुला सकते केओड़ाखाली वाले, न ही भुला सकती है नसीबन।

एक-एक कर सभी अपने घरों से बाहर निकल आए थे। सहमी-सहमी आई थीं औरतें, हिलते-काँपते आए थे बूढ़े। बच्चे तक घरों में रुकने को तैयार न थे। जवान मर्दों को छोड़, सारा केओड़ाखाली गाँव हाट के चबूतरे पर आ जमा हुआ था। सामने विकराल समुद्र था हिलकोरे लेता हुआ। उसके शोर में कोई भी आवाज साफ-साफ सुनाई नहीं दे रही थी।

धीरे-धीरे पौ फटी थी, हालाँकि सूरज बादलों के जाल में फँसा रह गया था। हलकी खूनी सुरमई उजास में समुद्र का साँवलापन दूर-दूर तक पसरा हुआ था। सीप-सी खुली पलकें दूर छिटक गए अपने मोतियों की तलाश में बावरी बनी जा रही थीं। सब उधर ही ताक रहे थे, उस संधि-रेखा को वहाँ, जहाँ आकाश और समुद्र मिलते हैं। वहीं से उभर सकता था कोई धब्बा, कोई बिंदु। मगर कहाँ...? कुछ भी नहीं। लहरों की क्रुद्ध पछाड़ों को छोड़कर बाकी सब धुंध में समाता जा रहा था।

'हे अल्ला, एवार की हॅबे; (अब क्या होगा)?' एक ही जानलेवा खलबली सबकी धड़कनों में।

'आमार लोकटा के फिरिए दाऊ; (मेरे आदमी को लौटा दो)!' एक ही मनौती सबके अंतस्‌ में... और एक ही डर सबको डरा रहा था, 'अगर वह न लौटा तो...?'

नसीबन का दिल बैठने लगा। अभी तक समुद्र में गए नौ जनों में से एक का भी पता नहीं चला था, उसके मरद करीम का भी नहीं।

बेचारा करीम! सुनसान रात! दूर-दूर तक फैला अथाह पानी! एक डरावने जिन्न-सा समुद्र, जिसकी चौड़ी हथेली पर निरीह मछुआरे! रात के आखिरी पहर में हवा झिरकी होगी। नींद से बोझिल पलकें खुली होंगी और आकाश में एक भी तारा नजर नहीं आया होगा। बिजली की कौंध से आँखें झुलस गई होंगी। जो जगे होंगे, हड़बड़ाकर जाल-वाल का मोह छोड़कर लपके होंगे तट की ओर। कितनी दूर है किनारा, किस ओर...? समुद्र खौलने लगा होगा, नावें उलट-पलट हुई जा रही होंगी और फिर नाव के साथ ही जिंदगी भी गुड़गुड़ाकर डूबती गई होगी कलशी की तरह...!

ओह ना! ऐसा नहीं हो सकता। उसने क्या बिगाड़ा है किसी का?

'तुमी केने गेले; (तुम क्यों गए)?' कहकर वह फफक पड़ी।

'जाना ही पड़ता है बोउ; बहू, धीरज रखो। जो अल्ला उन्हें ले गया है, वही उन्हें सही-सलामत लौटाकर ले भी आएगा।' बूढ़ी नजमा ने उसे पकड़ लिया!

'इतना जानती तो...!'

'हाँ, जानती तब न! समुद्र का मिजाज भला कौन जान सका है! जब गए थे, सब ठीक-ठाक था और आज रात से...'

समुद्र का मिजाज तो थोड़ा-बहुत समझ भी लें, लेकिन महाजन का मिजाज...?' बूढ़ा नूर सबसे अलग अकेले बड़बड़ाए जा रहा था।

'यहाँ तो नावें चटर्जी बाबू की, जाल चटर्जी बाबू के। हम लोग क्या हैं - सिर्फ भाड़े के टट्टू! नाव भर-भरकर चाँदी-सी चमकती मछलियों की ढेर लदी आती है और हमारे हिस्से क्या आता है? - छाई; (खाक)! आधी तो इसी हाट में तोलवा लेता है, बाकी आधी में बाँट लो। फिर थोड़ा-थोड़ा कहाँ बेचोगे? दो औने-पौने दाम में उन्हीं को। फिर उतरो समुद्र में उसी महाजन के लिए। गहरे पानी की मछली है महाजन। मछली के तेल में मछली तलने वाला। जो बिकी, बिकी, न बिकी तो सुखवाकर बेच लेगा। फिर भी मुँह ऐसा बनाएगा जैसे हमीं उसका हक मार रहे हैं। हमसे घृणा भी करता है, हमें छोड़ता भी नहीं। भला रेडियो से खबर नहीं आई होगी? जरूर आई होगी! लेकिन कैसी चुप्पी साध गया? हत्यारा बामन!'

जब से नूर का लड़का समुद्र में डूबा, नूर का दिमाग गड़बड़ा गया है, लेकिन नसीबन को उसकी बात कहीं से भी अटपटी नहीं लग रही थी। वह खुद बार-बार साझे के नाव के सौदे को कोस रही थी।

'लो, चटर्जी बाबू आ रहे हैं, साथ में गाँव के बचे हुए लड़के और कुछ लोग हैं। देखें, क्या खबर लाए हैं।' भरभराकर उठते हैं लोग। उस तक पहुँचने की हड़बोंग मच गई है। भीड़ में कुचली जाती है नसीबन।

'कौन-कौन आया है? मौलाबख्श, गनी, महेश सिराज, जोधन...?'

'और फेकन, जैनुल, और करीम...?'

फेकन और जैनुल की लाश मिली, पुलिस ले गई, करीम भी शायद...'

'दुर बोका।' डाँटती है धीरे से नजमा बूढ़ी, 'धीरे बोल। उसकी बहू के पेट में बच्चा है। सुन लेगी तो असर पड़ेगा।'

फेकन और जैनुल के घर की औरतें रोने-पीटने लगी हैं। सब सुन लिया है नसीबन ने। अब सुनने को रह क्या गया है?

झाऊ की एक मोटी टहनी उड़कर उनके पीछे गिरी। बूँदें पड़ने लगीं। 'अपने-अपने घर जाओ, तूफान जोर पकड़ चुका है। बाकी लोगों की खोज अब बाद में की जाएगी।' चटर्जी बाबू कहकर चले जा रहे हैं। लोग अपने-अपने घरों को भाग रहे हैं।

इस हलचल-भरी भागमभाग में बिलकुल तनहा है नसीबन - टूटी डाल-सी पड़ी हुई। बारिश की बौछारों के साथ-साथ छरर-छरर बालू, तिनके मछलियों के चमटे बरस रहे हैं बदन पर। समुद्र में और बाहर मौत की रंगहीन आतिशबाजी-सी छूट रही है। अंदर-बाहर भीषण तूफान में फँसी है जान!

'बोउदी... (भाभी)! फातिमा की टूटती-जुड़ती आवाज टेर रही है।

'करीम बो...!' आवाज चिथड़ा-चिथड़ा होकर उड़ रही है।

'नसीबन बी... नसी... ओ माँ!' फातिमा की आवाज को ठोकर लगी है, 'मैं तुझे कहाँ-कहाँ ढूँढ़ आई और तू यहाँ सिजदे पर बैठी है?'

नहीं बोलती नसीबन, बोलती हैं उसकी हिचकियाँ।

'क्या पागलपन है? इस प्रलयंकारी झड़-झंझा में तेरे शहीद हो जाने से भी कुछ नहीं होने वाला बोउदी। अपने लिए न सही, अपने और करीम दा के बच्चे के लिए तो जरा सोच! फिर तूने कैसे मान लिया कि सब-कुछ खत्म हो गया? चल।' उसने उसका हाथ पकड़कर खींचा।

'ना, मुझे छोड़ दे।'

'तू ऐसे नहीं मानेगी?' फातिमा ने दोनों हाथों से उसे उठाकर खड़ा किया। नसीबन 'ना-ना' किए जा रही थी। हवा के तेज झकोरों में उस निर्जन समुद्र-तट पर लगभग नंगी, उड़ते केश, उड़ती साड़ी में एक-दूसरे से झगड़ती वे दो चुड़ैलों-सी लग रही थीं।

फातिमा ने उसे जिद्दी पशु-सा झोंपड़ी के बाड़े में ठेला, तो दोनों सखियाँ गड़-गड़ काँप रही थीं, 'आने दे करीम दा को, तुझे खूब पिटवाऊँगी। खुद के साथ-साथ मेरी और मेरे पैदा होने वाले भतीजे की भी जान लेने पर तुली हुई थी।'

फातिमा ने तरस खाती नजरों से उसे देखा, 'मुर्शिदाबाद की इस लड़की को आज तक समुद्र का सही एहसास नहीं आया।'

सच! नसीबन को समुद्र का पूरा एहसास आज भी कहाँ आया? उसे तो लगता-गंगा की तरह ही समुद्र का दूसरा किनारा भी कहीं-न-कहीं होगा जरूर, जहाँ गाँव होंगे, खेत-खलिहान, पेड़-रूख और लोग-बाग होंगे। रहीं मछलियाँ, तो वहाँ भी नदी में जाल लेकर दूर-दूर तक चले जाते बाबा, काका, चचेरे भाई और दूसरे लोग, कई-कई दिन बाद लौटते। ऐसा कैसे हो सकता है कि पानी में एक बार गए तो फिर पानी ही पानी मिलता जाए! लोग लाख बताते, दूसरे किनारे की मौजूदगी को वह कल्पना से निकाल न सकी।

बेचारी नसीबन! उसे क्या पता कि समुद्र का दूसरा किनारा ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उम्र बीत जाएगी और किनारा नहीं मिलेगा।

फातिमा ने जबरन कपड़ा बदल दिया। लालटेन जला गई। चाय ले आई। मछली की मूँड़ी का झोल, भात और मछली की चटनी भी... मगर नसीबन ने छुआ तक नहीं। एक-एक कर कई आँखें सांत्वना देने आईं, मर्द भी, उसने सुना तक नहीं। उसे सुलाते-सुलाते फातिमा खुद सो गई, मगर वह सोई तक नहीं।

आँखें खुली हैं, कान खुले हैं, खिड़की की झिर्री खुली है। बाँस-पुआल की छाजन के परखचे उड़ रहे हैं। धार-धार चू रहा है पानी। रह-रहकर बिजली चमकती है, बादल गड़गड़ाते हैं, मगर धुंध-भरी बौछारों में न वह आकृति चिलकती है, न ही वह आवाज। उसका झोंपड़ा एक जर्जर नाव बन गया है, जिस पर मानो इस तुमुल शोर से चल पड़ी है वह, समुद्र में खोए अपने स्वामी के संधान में।

एक दिन बीता, दो दिन बीते... महीने बीते, बरस बीते, लेकिन करीम नहीं लौटा। उसकी आँखें आज भी समुद्र पर स्थिर हो जाती हैं - वहाँ, जहाँ आकाश और समुद्र आपस में मिलते हैं, वहीं कहीं से उभरेगा कोई बिंदु, कोई धब्बा। मगर हर बिंदु, हर धब्बा आज तब छलावा साबित हुआ। न करीम लौटा, न उनकी नाव।

तूफान, वैसे पाँचवें दिन ही थम गया था। जिन झाऊ और नारियल पेड़ों को उखड़ना था, वे उखड़ गए, जिन्हें टेढ़ा होना था, टेढ़े हो गए और जिनका सब-कुछ झर गया था, मगर ठूँठ बने खड़े थे, खड़े रहे। नसीबन भी... नहीं-नहीं। उसे ठूँठ कैसे कहें, उसके पेट में तो बच्चा था। फिर उसका तो एक बूढ़ा बाप भी है अभी मुर्शिदाबाद के नूरपाड़ा में। खबर भेजी है, आ रहा होगा।

ढहे कगारों से बच-बचकर, बहते परनालों को लाँघते, पानी से नम बालू पर चलकर एक-एक कर लोग पहुँचे थे समुद्र के पास। अंग्रेजी साल का पहला दिन था। सैलानियों की भीड़ उगते सूरज को देखने के लिए उमड़ी पड़ी थी। इतने-इतने लोग, मगर एक अपने के बिना सभी बेगाने!

घंटे-घंटे पर महाजाल खींचने वालों की पाली बदल रही थी। सूरज कुहरे को भेदकर नौ बजे ही निकल सका। नौ बजे ही महाजाल किनारे आया। तट पर सैलानियों की भीड़, समुद्र के ऊपर मछलियों के लोभी परिंदे। दोनों की किचकिच में कुछ भी सुन पाना मुश्किल। अचानक उसे खयाल आया, कोई उससे पूछ बैठे कि वह क्या देखने आई है तट पर - 'मछलियों की तरह जाल में फँसी हुई नुची-चुँथी करीम की लाश?' तो वह क्या कहेगी? घबराकर उसने नजरें फेर लीं। लौट फिर भी न पाई। थोड़ा आगे चलकर एक बड़ी चट्टान पर जाल की ओर पीठ करके बैठ गई। लहरें बार-बार उसकी साड़ी भिगो रही थीं। हर लौटती लहर, आने वाली लहर से टकराकर पानी की दीवार बनाती हुई एक परदा तान रही थी। उसी परदे पर झिलमिला रहे थे बीते हुए दृश्य।

वह भी तो जिंदगी का एक महाजाल था, जिसमें फँसाकर मुर्शिदाबाद से केओड़ाखाली खींचकर ले आया था करीम! उस जाल को आधा चाँदनी ने बुना था, आधा कुहासे ने। चटर्जी बाबू की मछलियों का सौदा करने गया था करीम और फेंटा बाँधे अल्हड़ किशोरी को देखा और उसका सौदा कर आया। बूढ़े बाप को पाँच सौ रुपए गिने थे उसने। शुरू में समुद्र देखकर आतंक से भर गई थी वह - 'मा, गो कॅतो जल; हाय माँ, कितना पानी! कैसी भयंकर गर्जना!' करीम भी कितना हट्टा-कट्टा! पसीने से चिकचिकाती देह, जैसे चाँदनी रातों में चिकचिकाता बलशाली साँवला समुद्र! फिर धीरे-धीरे उसने दोनों की थाह मानो पा ली। समुद्र भी गंगा जैसी ही एक बड़ी गंगा है और करीम भी उसके मायके नूरपाड़ा के गाँव के मनचलों-सा एक साधारण युवक। इस साधारण युवक से खुलते-खुलते खुल गई वह। शुरू में बड़े कौतूहल से निहारती रहती समुद्र को। उसने करीम से कहा भी, 'समुद्र पृथ्वी के गड्ढे में पड़ा एक भयानक जीव है, जो हर बार बाहर निकलने को छटपटाता है, हुँकारता है, पंजे मारता है, अप्राण कोशिश करता है गड्ढे से निकल पाने के लिए, लेकिन निकल नहीं पाता। कितना भयंकर लगता है इस जीवन-मृत्यु के जाल में फँसा हुआ समुद्र, साथ ही कितना लाचार भी!'

'सब सुधर जाएँ, तू नहीं सुधरने वाली...' करीम 'ही-ही' करके हँस पड़ा था, 'ये सारी कविताई मुर्शिदाबाद वालों को सुनाना, जिन्होंने सिर्फ गड़हा देखा है, समुद्र नहीं।'

'और केओड़ाखाली वाले-? धरती देखी है उन्होंने? समुद्र हो या समुद्र का बाप, अँटना तो उसे पड़ेगा ही किसी-न-किसी चीज में?'

'उपफ! तेरे दिमाग में मैं समुद्र अँटा नहीं सकता, मेरी बेगम, तू चल एक बार मेरे साथ।'

'हुँह, जैसे गई ही नहीं पानी में कभी! अरे, जितनी मछलियाँ तुम्हें यहाँ हिस्से में आती हैं, उतनी तो मैं गंगा के किनारे-किनारे मशहरी; मच्छरदानी के जाल में पकड़ लेती थी।'

'इत्ती बहादुर थी, तभी पकड़ी गई मेरे जाल में!'

'तूने मुझे जाल डालकर पकड़ा या मैंने तुझे...?' उसने उसे ऐसी सलोनी आँखों से देखा कि वह निहाल हो गया। उसे बाँहों में कसकर चुंबनों की बौछार लगा दी।

'अच्छा, सच-सच बताना, कैसा लगता है कई-कई दिन समुद्र में गुजारना?'

'बहुत अकेला!'

'रात को डर नहीं लगता?'

'कुछ दूर आगे जाते ही समुद्र उतना भयंकर नहीं रह जाता, जितना कि तट पर। रात लालटेन जला लेते हैं, कुछ पका-खा लेते हैं, फिर बैठकर झख मारते हैं। नाव ऊपर-नीचे होती रहती है लहरों पर।'

'मैंने पूछी डर की बात।'

'डर तो लगता ही है कभी-कभी, शार्क, टाइगर माछ, बोआल का डर, किसी नाव या स्टीमर का डर, तूफान का डर... ऊपर सिर्फ तारे होते हैं, नीचे मत्स्यलोक-इलिस, टेंगड़ा, बोआल, पाब्दा, शंख, तोपसे लोआ, चाँदा और कितनी-कितनी तरह की मछलियाँ!'

'राखो (रक्खो अपने पास)!'

आवाज की कर्कशता पर वह स्मृतियों से यथार्थ में लौटती है। मौलाबख्श किसी छात्रा पर बिगड़ रहा है, जिसने जाल से कोई तारा-मछली निकाल ली है।

'ना, इसे मैं नहीं दूँगा।' छात्रा देने से इनकार करता है।

उसे याद आया, छह महीने पहले वह करीम का खाना लेकर आई थी तो उसने भी जाल से ऐसे ही तड़पती हुई एक सुनहरी मछली को निकाल लिया था।

'रख दे।' करीम ने चटर्जी बाबू के डर से मीठे-से डाँटा था।

'ना, इसे मैं पालूँगी।' तत्काल उसे उसने ग्लास में साफ पानी डालकर छोड़ दिया।

'तू तो खुद सोना-माछ है, तुझे दूसरी सोना-माछ की क्या जरूरत?'

'समुद्री माछ तो है नहीं बेचारी, जाने किस नदी-नाले से बहकर चली आई और उससे भी बड़ा आश्चर्य यह है कि अभी तक जिंदा कैसे बची है इस खारे पानी में। मैं इसे गंगाजल में रखूँगी।' हँसते हैं मछुआरे उसके इस बचकानेपन पर।

'मुर्शिदाबाद की गंगा की सोना-माछ है करीम बौ। लड़की को ससुराल में चाहे जितना सुख-संपत्ति क्यों न हासिल हो जाए, वह अपने मायके का ही गाएगी - चाहे वह जैसा भी हो।' बूढ़े नूर ने फब्ती कसी।

'एह! मेम बनने चली है मछेरन।' करीम ने भी मजाक किया, मगर नसीबन मानी नहीं। दारू की बोतल में गंगाजल भरकर उसने छोड़ दिया सोना माछ को। एक दिन तो वह अपनी पूँछ हिलाती तैरती रही, किस-किसको बुलाकर नहीं दिखाया उसने, फिर शिथिल पड़ने लगी।

'बीमार कर दिया न तूने इसे गंगाजल में डालकर? अरे, अब इसे समुद्र का खारा पानी ही रास आएगा।' लाचार होकर वापस समुद्र में छोड़ देना पड़ा उसे। इस बात को लेकर महीनों हँसी का पात्र बनी रही वह केओड़ाखाली में।

उन्हीं दिनों चक्कर आने लगे थे उसे। उल्टियाँ होने लगी थीं। करीम को काहे का पता होता! उसे तो जब देखो, समुद्र ही दिखाई पड़ता, सिर्फ समुद्र! समुद्र के सिवा जैसे बाकी दुनिया का अस्तित्व ही नहीं था उसके लिए। मर्द था न। वह तो जब एक दिन जाल लेकर समुद्र में जाने लगा तो नसीबन ने उससे इसरार किया, 'यह 'केओड़ा' का फल कहीं नहीं मिलता?'

'गाँव का नाम तो वही है, मगर केओड़ा के गाछ उत्तरी द्वीपों में ही रह गए हैं अब। लेकिन तुझे इसकी क्या जरूरत आ पड़ी?'

'चटनी खाने को जी चाह रहा था।'

'यह केओड़ा की चटनी का रोग तुझे कब से लग गया?' जवाब में झुक आई लाज से नसीबन की नजर, 'बोका कोथाकार; (बुद्धू कहीं का)।' कहकर अंदर भाग गई थी वह। करीम ने जाल रख दिया और उसे बाँहों में भरकर बच्चे-सा उठा लिया।

'ओह, छोड़ ना, कोई देख लेगा।' 'आह', 'ऊह' के साथ वह फुसफुसाई।

'नहीं छोड़ूँगा, पहले बता, बात क्या है?'

'समुद्र के सिवा तू कुछ भी नहीं जानता?'

बुद्धू की तरह इनकार में सर हिला दिया करीम ने।

'तो सुन,' नसीबन ने उसके सीने से सर गड़ा दिया, 'तुझे याद है, एक सोना माछ की जान बचाकर मैंने सवाब लूटा था?'

'तो?'

'वह सोना-माछ मेरे पेट में कुलबुलाने लगी है।'

'ऐं!' चकित-सा देखता रहा करीम नसीबन के चेहरे को, जिस पर सवाब का ज्वार मचल रहा था। बाहर मौलाबख्श और उसके समुद्र जाने वाले साथी आवाज दे रहे थे, मगर वह जैसे बहरा हो चला था। शरारत से बोला, 'देखें, वो सोना-माछ है कहाँ?'

'धत्‌!' लाज में नहा गई वह। करीम ने उसे गोद में उठा लिया, फिर लगा चूमने उसके अंग-अंग, जैसे वही उसका शिशु हो।

'छोड़ ना ऊँह! कोई देख लेगा।'

'देख लेगा तो देख ले। अब तो तेरे लिए केओड़ा लाना ही पड़ेगा, कहीं भी मिले...'

'लेकिन एक बात याद रखना।'

'क्या?'

'मैं उसे तेरी तरह मछेरा नहीं बनने दूँगी, हाँ!'

'जो हुक्म बेगम साहिब!' करीम ने नाटकीय अदा से कोर्निश की ओर चला गया।

और नसीबन, मुर्शिदाबाद वाली नसीबन, केओड़ाखाली वाली करीम बौ गुनगुनाती रही -

         गंगा-गंगार तरंगे प्राण-पद्य भासाइलॉम रे
         मागो राखियो जतने बुके निया
         मागो दुलाओ आशार ढेउ दिया रे-रे हे-हे-हे!

(माँ गंगे, तुम्हारी लहरों पर मैंने अपने प्राण का कमल तैरा दिया है। इसे जतन से सीने से लगाए रखना माँ, इसे आशा की लहरों से झुलाती रहना...)

मगर ऐसा हुआ नहीं। कहाँ चूक हो गई नसीबन से...? नसीबन से चूक हुई या करीम से? या फिर नियति ही निर्मम थी? करीम समुद्र में जो गया कि फिर लौटा ही नहीं।

फिर पैदा हुआ शफीक! अभागा, बाप का मुँह तक न देख सका। नसीबन से समुद्र की शत्रुता हो गई। उसने प्रण ठान लिया कि अपने बूते बेटे को समुद्र में हर्गिज नहीं जाने देगी। समुद्र ने लाख बुलाया, फुसलाया, मिन्नतें कीं, फिर भी नहीं।

पड़ोसियों ने कुछ दिन तक मदद की। किसी के यहाँ से भात, किसी के यहाँ से सब्जी, किसी के यहाँ से मछली, किसी के यहाँ से गुड़-छेने की मिठाई... चटर्जी बाबू भी बीच-बीच में कुछ भिजवा दिया करते। मगर ऐसे कितने दिन चलते!

फातिमा ने एक दिन पूछा, 'कुछ सोचा है? तेरे साथ-साथ तेरे बेटे की जिंदगी का सवाल भी है।'

'बेटे की ही जिंदगी का सवाल तो है।'

'और तेरा...?'

'मेरा क्या है!'

'ओ...? अरी ओ कविताई करने वाली मुर्शिदाबाद वाली, जमीन पर आ, जमीन पर। दो दिन पेट को भात न जुटे तो सारी अकल ठिकाने लग जाती है... या तो तू किसी की बन जा, या कोई तेरा बन जाए... अभी बहुत नमक बचा है इस देह में, लार टपकाने वाले भी कई हैं...'

'ओह फातिमा!'

'ठीक है, इत्मीनान से सोचना, मगर एक बात कहे देती हूँ कि मैं अब तेरे साथ सोने वाली नहीं। मेरे आदमी का मुँह कद्दू-सा लटका रहता है। तू या तो कोई पहरेदार रख या खुद कर अब!'

'क्या करूँ?'

'वो बाद में सोचना, अभी चटर्जी बाबू की सूखी मछलियों के धंधे में लग जाना क्या बुरा है?'

'मुझे घिन आती है उस काम से, कोई और धंधा बता न!'

'बहुत-से काम हैं, तू नाव बना सकती है, जाल बुन सकती है, समुद्र में जा सकती है, आढ़त में काम कर सकती है : मर्द है न तू!' फातिमा के तंज पर हाथ-पाँव ढीले हो आए उसके।

दूसरे दिन फातिमा काम कर जाने लगी तो उसके पीछे-पीछे उसका साया नहीं, नसीबन थी। फातिमा ने पीछे मुड़कर देखा तो चहक उठी, 'आ गई लाइन पर! खैर, अच्छा किया। मगर यह तेरा बच्चा... चल, इसे भी सँभाल लेंगे मिल-जुलकर। लेकिन एक बात, रात को घर में सोने के लिए किसे कहेगी?'

'क्या जरूरत है?'

'जरूरत है बीबी!'

'तो फिर नूर-बूढ़े को कह देते हैं। बाबा तो झाँकने भी नहीं आए आज तक।'

फातिमा ने कुछ सोचा, फिर कहा, 'हाँ वो ठीक रहेगा। वो बूढ़ा भी है, रात-भर बड़बड़ाता भी रहता है। जब से उसका बेटा हाफिज समुद्र में गया, वह पगला गया है। इस मायने में तुम दोनों के दुख एक जैसे हैं।'

नूर-बूढ़ा बाहर बरामदे में सचमुच रात-भर बड़बड़ाता रहता - समुद्र की बात, मछलियों की बात, अपनी और बेटे की दुस्साहसिक समुद्री यात्राओं की बात, चटर्जी और अन्य महाजनों के प्रति नफरत की बात, इस्लाम की बात। पता न चलता, कब वह जगते हुए बड़बड़ा रहा है, कब सपनों में। नसीबन को लगता, उसकी संतप्त रूह नूर के कंठ से बोल रही है। यूँ उसके आ जाने से वह निश्चिंत हो गई थी, वरना बेटे के साथ सूखी मछलियाँ का काम करते-करते वह भी अकेले में सूख जाती।

यह धंधा भी अजीब था। जो मछलियाँ न बिकतीं, वहाँ उलीच दी जातीं। नसीबन, फातिमा आदि औरतों का काम था उन्हें अलगाना। फिर उनकी आँतें आदि निकालकर, नमक लगाकर धूप में सूखने के लिए छोड़ देना। इलिस को तो नमक मिलाकर बालू में गाड़ देते, फिर कई दिनों बाद निकालते। नन्हीं-नन्हीं मछलियों को यूँ ही धान की तरह फैलाकर सूखने के लिए छोड़ देते। दूर-दूर उड़ती उनकी बिसाइन दुर्गंध। कभी-कभी तो लाख नहाने के बावजूद उसे लगता, गंध कहीं चिपकी हुई रह गई है। रात बेटे को सीने से चिपकाए सोते वक्त भी दुर्गंध का वहम होता, वह शफीक को सूँघती, बिछावन झाड़ती, मगर 'बू' के स्रोत का अनुमान न लगा पाती। उधर नूर-बूढ़ा बड़बड़ाता रहता, करीम की याद को हवा देता रहता। इधर शफीक को थपकी देते उसके हाथ शिथिल होने लगते। वह सोचती, 'करीम जैसा शौहर एक विशाल समुद्र की तरह होता है, जिसमें छोटी-बड़ी मछलियों की तरह कितनी ही इच्छाएँ किल्लोल करती रहती हैं। समुद्र से निकलते ही मछलियाँ मर जाती हैं और मर्द की हिफाजत से निकलते ही औरत की इच्छाएँ।'

करीम के बाद क्या बचता था नसीबन की जिंदगी में। बाप!

कहते हैं, किस-किससे संदेशा नहीं भिजवाया बाप को - मछलियों से, केकड़ों से, घड़ियाल से, बाघ-बाघिन से, हवा से, चाँद से... मगर सब लौट आए खाली हाथ। पहले तो मान जागा कि अगर बाप इस बात पर मान किए बैठा है कि वह क्यों नहीं आई एक बार भी उसकी खोज-खबर लेने, तो उसे भी मान करना आता है।

लेकिन अब उचाट रातों में शफीक के रह-रहकर गोद में चौंकने में, लहरों की घर्र-घर्र बजती आवाजों में, नूर-बूढ़े की असंबद्ध बड़बड़ाहटों में बाप का करुणा से भीगा चेहरा तेजाब-सा गलाने लगता उसके मान को। निकाह से पहले पाँच सौ रुपए उन्होंने लिए थे करीम से। कितना-कितना कोसा होगा गाँव वालों ने उन्हें इसके लिए। शायद इसी लाज से नहीं आ पाए बेटी की ससुराल। हाय बाबा, तुमने कितनी हतक सही होगी इस बदनसीब बेटी के लिए!

बाप याद आया तो सब-कुछ याद आया - मुर्शिदाबाद की गंगा, उसके कछार, नूरपाड़ा, पेड़-पल्लव, पशु-पाखी, लोग-बाग - वे सब, जो प्रेम के ज्वार में पहले डूब गए थे।

उसने चटर्जी बाबू के लड़के से चिट्ठी लिखवाई और नूर-बूढ़े को बहुत आरजू मिन्नत कर भेज दिया नूरपाड़ा। पानी का रास्ता! दो दिन जाने में और दो दिन आने में-चार दिन की ही तो बात थी। मगर नूर-बूढ़े ने जो हाल सुनाया कि कलेजा फट गया। बाप रहमान मियाँ उसके वहाँ से आने के तीन महीने बाद ही अल्लाह को प्यारे हो गए। घर के खँडहर पर झाड़ियों का आलम था।

'हाय बाबा!' नसीबन के लिए अभी-अभी उसका बाप मरा था। उसकी एक आँख से गंगा बह रही थी, दूसरी से समुद्र! फातिमा के गले से लगकर जार-जार रोती रही।

फातिमा ने कंधे थपथपाए, 'ऐसे कब तक रोती रहेगी भाभी! धीरज रख, तू गंगा की बेटी है। हिलसा की तरह, जिसका मूल स्रोत कब का बंद हो चुका है, अब तुझे गंगा के मीठे पानी से नहीं, समुद्र के खारे पानी से ही संतोष करना होगा।'

अब तो मस्जिद की अजान तक से चौंक-चौंक जाती नसीबन। लोगों ने जान लिया था कि इसका न मायके में कोई है, न ससुराल में, और यह जान लेना कितना खतरनाक था!

राह में आते-जाते या काम पर मजदूर उसे खा जाने वाली नजरों से घूरते। शफीक को दूध पिलाते समय तो सीधे उसके आँचल में झाँकते। सब-कुछ जान-बूझकर भी वह अबूझ बनी रहती।

मजूरी लेने आती तो चटर्जी बाबू हुक्के का दम भरना भूल जाते। स्वर अनुतप्त हो उठता, 'कैसी हो करीम बौ?' पैसे गिनते हुए धीरे-से पूछते।

'जी, ठीक।'

'कोई दरकार पड़े तो बोलना।'

'जी!' वह इतने धीमे-से बोलती मानो गौरैया के पंख झरे हों। फातिमा पेट से थी, आखिरी माह चल रहा था और वह अकेली थी उस दिन। पैसे हाथ में लिए-लिए जाने क्या सोचते रहे बड़ी देर तक, फिर थमा दिए। बोले कुछ नहीं। सिर झुकाकर रोज की तरह बाहर निकलने को थी कि दरवाजे पर पीछे से आवाज आई उनकी, 'मछलियों का क्या है, सूख जाएँ, फिर भी बिक ही जाती हैं। मगर करीम बौ, मानुष का तन एक बार सूख जाए, फिर नहीं बिकता।'

साड़ी के अंदर-अंदर सारी देह सनसना गई सुनकर। फातिमा के पति मौलाबख्श ने, जो उससे उम्र में छोटा था, एक दिन अँधेरे में पकड़ लिया। उसकी साँसें गर्म थीं। उसे धकेल भागी थी उस शाम। और तो और, जिस रात पिता के समान नूर-बूढ़े ने बीड़ी जलाने के लिए माचिस माँगी और साँप की तरह जकड़ लिया, वह सन्न रह गई।

'मैं गरीब तुम्हारी बाँह पकड़कर समुद्र से बाहर निकलना चाहता हूँ। मुझे वापस समुद्र में मत ठेलो।' नूर-बूढ़ा मिन्नतें कर रहा था और नसीबन? सिर्फ रोए जा रही थी नसीबन!

'तुम चले जाओ चाचा! फिर कभी न आना।'

रोते-रोते उसने कपाट बंद किया था। हाय री नसीब की मारी नसीबन... तू एक ऐसी मछली बनकर रह गई है, केओड़ाखाली में, जिसे फँसाने के लिए हर ओर चारे डाले जा रहे हैं, हर ओर जाल बिछे हैं, हर ओर घातें लगी हुई हैं।

ऐसा नहीं था कि कछुए की तरह गर्दन निकालकर कभी उसने अपनी देह की भूख-प्यास पर इधर-उधर ताका ही न हो, ताका, मगर जब भी ताकती, पानी में उतरने की आवाज-सी होती, समुद्र की कब्र से सर निकालकर ताकने लगता करीम, टप-टप बरस रही होती बूँदें नहाए बदन से, उखड़ रही होतीं साँसें, चिपचिपाए बाल, भौंहें और बरौनियाँ-असहाय नजरों से निहारने लगता करीम!

'हे अल्ला, यह क्या हो रहा है मुझे?' वह कान-आँख बंद कर भागती। फिर शफीक को सीने से चिपकाए देर तक काँपती रहती कि कहीं दोनों ओर की लहरों के उफान में मन की डोंगी डूब न जाए।

आखिर सब-कुछ छोड़कर झिनुक का धंधा अपनाया उसने। शफीक देखते-देखते सात साल का हो गया। अब वह आस-पास की चीजों के अलावा अपने बाप के बारे में भी परेशान कर देने वाले सवाल कर बैठता, 'क्यों माँ, मेरे अब्बा समुद्र में डूब गए?'

किसने कहा तुझसे?'

'नूर-बूढ़ा कहता था।'

'झूठ कहता है। समुद्र में गए जरूर थे, पर...'

'डूबे तो नहीं न?'

'नहीं।'

'फिर मैं नूर-बूढ़ा की मुंडी तोड़ दूँगा, झूठ क्यों बोलता था!'

'ना बेटा! ऐसा न करना। समुद्र में गए आदमी को पता नहीं किस-किसकी दुआओं की जरूरत पड़े।'

'अच्छा माँ, समुद्र का दूसरा किनारा होता है?'

'जरूर होता होगा।'

'पर लोग तो कहते हैं, नहीं होता।'

'क्या पता बेटा!'

'कोई बात नहीं, तू फिक्र न कर माँ, मैं नाव लेकर समुद्र में जाऊँगा और उन्हें खुद ले आऊँगा।'

नसीबन का चेहरा भय से एकदम पीला पड़ जाता, 'तू समुद्र में नहीं जाएगा, कह दिया न!' अबोध शफीक समझ न पाता कि माँ अचानक चिढ़ क्यों जाती है समुद्र के नाम से।

शफीक स्कूल जाने लगा था। एक दिन स्कूल से लौटकर उसने सवाल किया, 'यह झिनुक क्या होता है माँ?'

'क्यों, स्कूल में मास्टर मोशाय से यह सवाल नहीं पूछा था?'

'पूछा था, लेकिन पहले तुम बताओ।'

'पानी के बहुत-से जीव दूसरे जीवों से अपनी रक्षा के लिए एक खोल बना लेते हैं, जैसे शंख, घोंघा, सीप आदि। झिनुक ऐसी ही चीज होती है, मैं तो इतना ही जानती हूँ।'

'लेकिन मास्टर मोशाय ने क्या कहा, मालूम... तोर माँ एकटा झिनुक (तेरी माँ एक झिनुक है)।'

अवाक्‌ होकर देखने लगी थी नसीबन बेटे का मुख। उस रात वह यह लोरी गाना भूल गई, 'मेघ मछली है, आकाश समुद्र, तारे झिनुक। एक-एक तारों का झिनुक निगलती जाती है मेघों की मछली!'

शफीक अब काफी कुछ समझने लगा था। चुपके-चुपके वह समुद्र के किनारे भी हो आता और वहाँ से झिनुक चुनकर लाता। एक दिन नसीबन ने ऐसा करते हुए रँगे हाथों पकड़ लिया उसे, 'तू मेरी जान लेकर ही मानेगा क्या? मना किया था न कि समुद्र के पास न जाना?'

सिटपिटाकर खड़ा हो गया शफीक। साथ खेल रही फातिमा की बेटी गुलनार ने बताया, 'कहता था, झिनुक बेचकर नाव खरीदेगा, फिर बाप को जाएगा ढूँढ़ने...'

नजमा बी ने समझाया, 'काहे की जिद किए बैठी है करीम बौ, शफीक यहाँ का लड़का है, सागर की मछली को सागर में जाने से तू कब तक रोकेगी?'

वही हुआ! शफीक को बच्चे चिढ़ाते, 'जा, माँ के आँचल में घुस के बैठ।'

बुझा-बुझा रहने लगा लड़का।

वह उसका सर सहलाते हुए तरह-तरह से समझाती, 'तुझे क्या होता जा रहा है रे? अरे, समुद्र है ही कितना? पूरी की पूरी धरती तो पड़ी है तेरे लिए। सारे बड़े लोग चटर्जी बाबू, बी.डी.ओ. साहब, मास्टर मोशाय तो धरती पर ही रहते हैं, इनमें से किसी को उतरते देखा है समुद्र में?' मगर शफीक सोन-मछली-सा बीमार ही रहने लगा। 'इस पागल लड़के का क्या करे नसीबन! अल्ला इसे अक्ल दे!'

आखिर खुद से काफी लड़कर उसने तैयार किया खुद को, 'ठीक है, जो तेरी मर्जी में आए, कर... पर दूर न जाना।'

और फिर वह दिन! बन बीबी की इबादत कर, माँ सनका; समुद्र की देवी को प्रणाम कर, मस्जिद में मत्था टेककर, लुके-छुपे काली मंदिर और दुर्गा मंदिर में मनौतियाँ कर जिस दिन उसने पहली बार शफीक को समुद्र में उतरने दिया, उसकी आँखें भर आईं।

ठीक करीम जैसा, वैसे ही नैन-नक्श, रंग सिर्फ गोरा। लगा, बेटा नहीं, मर्द को विदा कर रही है समुद्र में।

समुद्र ठीक उसी तरह छेड़ रहा था आँचल को, मगर आज उसे ढकने की सुधि नहीं थी उसे, 'एह! हत्यारा कहीं का!' उसके होंठों पर एक करुण आक्रोश बुदबुदाया, 'लाड़ दिखाने की जरूरत नहीं। स्वामी को तो तू पहले ही निगल गया, इस बार बेटा सौंप रही हूँ -इकलौता बेटा, जिसे छोड़कर मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है। अगर इसका कुछ हुआ न, तो सच कहे देती हूँ, अगली बार मैं खुद आऊँगी, देखूँगी, तुम्हारा पेट कितना बड़ा है!'

आँखें डबडबाई हुई थीं, मन सहम रहा था, कंठ पर अनायास ही वर्षों की भूली हुई प्रार्थना मचल रही थी -

गंगा-गंगार तरंगे, प्राण-पद्य भासाइलॉम रे

माँगो राखियो जतने बुके निया

माँगो दुलाओ आशार ढेउ दिया रे रे हे हे!

पहले दिन वह तट पर तब तक खड़ी रही, जब तक लौट नहीं आया उसका बेटा। पहले कुछ ही दूरी से कुछ ही घंटों में लौट आया करता। फिर और-और दूर, और-और देरी से। फिर वह धब्बे में बदला, फिर बिंदु में और वहाँ उस संधि-रेखा पर झिलमिलाने लगा, जहाँ आकाश और समुद्र मिलते हैं। एक बेतुकी-सी उम्मीद उसे अब भी छेड़ती है - एक दिन वहीं-कहीं से अपने बाप को अगर साथ ले आए तो!

इंतजार करते-करते उम्र कहाँ की कहाँ जा पहुँची। अब तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता। कहीं भी नहीं। खुद अपने ही मन की थाह नहीं मिलती कि वह क्या चाहती है। शफीक जवान हो चला है, उसके रंग-ढंग अजीब होते जा रहे हैं। उसकी शादी के प्रस्तावों पर भी तय करना है। फातिमा होती तो सही सलाह देती, वह भी तो पिछले साल खुदा को प्यारी हो गई। अकेली जिंदगी पूरी तरह उचाट है।

डॉक्टर को दिखाया तो उसने बताया - कोई बात नहीं, मासिक बंद होने के समय ऐसा होता है। तो क्या उसकी बाट जोहते-जोहते सचमुच ही रीत गई उमर? समुद्र के खारे पानी में खील-खील होकर बिखर गई उर्वरा शक्ति?

बाहर पानी बरस रहा है। शफीक कहीं अड्डा मारने गया है। सूने बिस्तर पर औंधी पड़ी कसमसाती हुई हिसाब लगा रही है वह। शफीक बीस का हो गया, यानी करीम को गए बीस साल गुजर गए। देखते-देखते गुजर गए बीस बरस। इन बीस बरसों में कितनी ही बार लगा है, वही जानी-पहचानी आवाज, वही परिचित मर्दानी देह-गंध उसे सहला रही - 'नसीबन ऐ नसीबन! मगर...

'नसीबन! ऐ नसीबन!'

अरे, यह कैसी आवाज है। कान लगाकर टेर सुनती है।

'नसीबन बी, दरजा खुलो; दरवाजा खोलो।' इस बार टेर के साथ दस्तक भी।

वह ठीक-ठीक तय नहीं कर पाती, आवाज स्वप्न से आ रही है या हकीकत से, अंदर से आ रही है या बाहर से?

'नसीबन बी!'

इस बार उठ बैठती है वह, जैसे कोई कब्र से उठकर बैठता हो। धूल और मलबे की परतें झरती हैं। बीस बरसों के पार से टेर रही है वह आवाज।

'कै (कौन)?'

'आमी करीम, तोमार करीम; (मैं करीम, तुम्हारा करीम)!'

हड़बड़ाकर लौ को तेज करती हुई लालटेन लेती है, दरवाजा खोलकर लालटेन उठाती है, 'कै?'

बारिश और पसीने से नहाया, पकी दाढ़ी, गंजी चाँद के गिर्द सफेद बालों वाला झुर्रियाया स्थूल चेहरा लालटेन की जर्द रोशनी में चिलकता है, जैसे स्याह समुद्र में चाँद का बिंब झिलमिला रहा हो। वह जिस सलोने चेहरे की दीवानी थी, यह चेहरा कहाँ गया?

'तुमी (तुम)?'

'हें (हाँ...)।'

'किंतु तुमी जे... (लेकिन तुम तो...)'

'मोरी नी; मरा नहीं आँटके पड़े छिलॉम; (अटक गया था)!' प्रश्न भी आधे थे, उत्तर भी, लेकिन दोनों मिलकर पूरे हो गए, जैसे एक लंबी डुबकी के बाद अभी-अभी निकलकर आया हो करीम।

हरहराकर टूटता है बीस बरसों का बाँध, 'जभी तो कहूँ, लोग जितना भी कहते, मुझे यकीन था, तुम आओगे, जरूर आओगे एक-न-एक दिन!' बाँहों में पिघल रहे हैं तन-मन। आँसू थमते नहीं, 'तुम कहाँ रह गए शफीक के अब्बा? इतने दिन कहाँ लगा दिए रास्ते में? ...देखो-देखो, मुझे देखो, खुद को देखो... क्या बाकी बचा है इन खँडहरों में...?'

दरवाजा खुला रह गया था। बाहर से आकर शफीक भौंचक्का खड़ा है, 'कै?'

'तोर बाबा (तेरा बाप)! ...वही बाप, जिसके डूबने की बात पर तू नूर-बूढ़े की मुंडी तोड़ देने पर आमादा हो जाया करता था, जिसे खुद समुद्र से ढूँढ़ लाने की बातें किया करता था।'

शफीक न खुद को तोल पा रहा था, न उस बूढ़े आदमी को, जिसे - उसकी माँ उसका बाप बता रही थी, न माँ को, न माहौल को और करीम...? करीम ने मुड़कर बेटे को देखा तो अपनी ही भूली हुई छवि तिर आई बीस साल पहले की-वही चेहरा, सिर्फ रंग माँ का, जैसे समुद्र में धुलकर और निखर आई हो। चकित, स्नेहिल नजरें, थरथराती बाँहें फैलीं, 'आमार छेले (मेरे बेटे)!' और उन बाँहों में अब नसीबन भी थी, शफीक भी।

बेटे ने पूछा, 'लेकिन इतने दिन बाद...?'

करीम ने बताया, 'उस रात तूफान आते ही मुड़ा घर की ओर, मगर नाव भटक गई। मैं बांग्लादेश की समुद्री पुलिस द्वारा पकड़ लिया गया। वह एक लंबी दास्तान है।'

'थाक (रहने दो), अभी तुम क्लांत हो। जैसे भी हो, लौटकर आ ही गए हो मेरे पास - यही बहुत है।' नसीबन के वजूद में वर्षों पहले का पत्नी का अधिकार-दर्प फिर वापस लौट आया एक ही दिन में। वर्षों तपस्या की, पर अब उसकी उजड़ी दुनिया फिर से आबाद हुई, तो ऐसी आबाद हुई कि पूछना नहीं। औरतें आशीष देतीं, 'तेरा सुहाग अमर रहे। सब अल्लाह की मेहरबानी है। सूरज कभी-कभी तीसरे पहर को भी निकलता है, लेकिन जब निकलता है तो... सारा मलाल निकल जाता है।' नसीबन की चाल-ढाल, बोली-बानी सब बदल गई। जीर्ण-शीर्ण ढोल-सी... उसने अपने छल्ले कसे और बजती रही केओड़ाखाली में - तीन दिन। कहते हैं, तीन दिनों में फिर से जवान हो गई नसीबन बी...! और तीसरी रात!

'मैं तुम्हें एक बात बताना चाह रहा था... एक जरूरी बात।' करीम ने हिचकिचाते हुए कहा।

'तो कहो न!' नसीबन उसके बाहुपाश में थी।

'कैसे कहूँ?' इन तीन दिनों में यह कहने के लिए खुद को हर तरह से तैयार किया था उसने।

'क्यों, क्या हुआ?'

'वो यूँ कि मुझे तो बांग्लादेश की पुलिस ने पकड़ लिया था, मगर पुलिस के चंगुल से छुड़ाया एक हाकिम ने।'

'खुदा उस रहमदिल हाकिम पर मेहरबान रहे।'

'उस हाकिम की एक बेटी थी, शर्त थी निकाह कर लेने की।'

नसीबन चौकन्नी हो उठी, 'हाय अल्ला! फिर...?'

'फिर उससे बेटी हुई... एक-एक कर तीन बेटियाँ!' नसीबन की बाँह ढीली पड़ गई।

'बेटा एक नहीं। बेटे के लिए दूसरी शादी की। उसे भी दो बेटियाँ। तीसरी की, उसे भी...'

नसीबन को लगा, उसने मुर्दे को जकड़ रखा था अब तक, परे छिटक गई।

'मुझे मालूम था, यह सब जानकर तुम्हें अपार दुख होगा, लेकिन किस्मत की भूलभुलैया के आगे मैं मजबूर था। सजा भी मिली, इतनी दौलत कि चटर्जी बाबू तक गुलामी करें, मगर वारिस... एक नहीं, बेटा तो बस एक है, शफीक, जो तुमने दिया है।'

'तो?' उसके गले में जैसे मछली का काँटा आ धँसा हो।

'देखो, मैं नमकहराम नहीं हूँ। खुदा गवाह है। तुम भी चलो और शफीक भी, ताकि बुढ़ापे में मैं सुकून से मर सकूँ। कौन भोगेगा इतनी संपत्ति...?'

'बीस वर्षों बाद क्या यही कहने आए थे इत्ती दूर से?'

करीम झुक आता है नसीबन के कदमों पर, 'देखो, मैं तुम्हारा कसूरवार हूँ, लेकिन जो हुआ उसे लौटाया नहीं जा सकता। हालात के हाथों मजबूर हूँ। मुझे माफ करना।'

परे खिसकना चाहा नसीबन ने, लेकिन करीम के गिजगिजे हाथों की जकड़न कायम थी। सर उठाकर करीम ने डबडबाई आँखों से नसीबन की जलती आँखों में ताका, 'देखो, झूठ न बोलना। हमने कभी तो सच्ची मुहब्बत की थी तुमसे? क्या उस चाहत की थोड़ी भी कीमत नहीं...?

'कीमत?' मुँह फेर लिया नसीबन ने, 'तुम तो चटर्जी बाबू से भी बड़े महाजन निकले!'

उसने हाथ बढ़ाकर खिड़की खोल दी, 'हटो, कोई देख लेगा।' करीम ने पाँव छोड़ दिए, 'मगर कुछ बताओ भी तो...'

'मैं तो जाने से रही।'

'और शफीक?'

'शफीक की बात शफीक से पूछो।'

'शफीक से पूछा था, उसने तुम पर छोड़ रखा है।'

एक छनछनी-सी फैल गई नसीबन के दिलो-दिमाग में, 'मेरे ही घर में यह सारा-कुछ होता रहा, और मुझे पता ही नहीं।'

'शफीक!' वहीं से पुकारा नसीबन ने।

बगल के कमरे से शफीक उठकर आ खड़ा हुआ।

'पूछो इससे।' नसीबन ने कहा।

'बोल बेटा, चलेगा?' करीम ने बेहद आजिजी से पूछा।

झुकी रही शफीक की नजर।

- पर इसके 'ना' कहने में इतनी देर क्यों हो रही है? मर्दों की दुनिया। पता नहीं, कहाँ-कहाँ डूबता-उतराता रहता है यह लड़का। उसकी झुकी नजर के हर स्याह कोने में ढूँढ़ने लगती है उसे... चटर्जी बाबू की नातिन को घूर रहा था, वहाँ केओड़ाखाली वालों से मार-पीट की नौबत तक आ गई, जो किसी तरह टली। फातिमा की बेटी गुलनार ससुराल से आई तो उसके घर में ही दिन-रात घुसा रहता। चली गई, सो जान बची। उधर पता नहीं, मीटिंग, तकरीर और अड्डेबाजी में कहाँ-कहाँ फँसा रहता है। कुछ दिनों से मस्जिद भी कुछ ज्यादा ही जाने लगा है, इतना मजहबी तो था नहीं वह। सोचा था, मरद जात है, जवान हो चला है, बाँधकर तो रख नहीं सकती उसे, शादी करते ही खुद बँध जाएगा। प्रस्ताव भी आए, मगर पेश्तर इसके कि कोई तय-तमाम कर पाती, आ पहुँचा उसका बाप, महाजन बाप, कर्ज वसूलने के लिए। भोलाबास (प्रेम) का ऋणशोध! छी!

'अरे कुछ बोलेगा भी 'हाँ, 'ना'?'

'तू चलेगी?' शफीक ने इस बार पलकें फड़फड़ाकर उसे देखा।

'नहीं।'

'क्यों?'

'अरे तू अपनी बोल न।'

नसीबन और करीम, दोनों की धड़कनें शफीक के जवाब पर केंद्रित हो गईं।

'हाँ!' शफीक का जवाब झन्न-सा बजा नसीबन के सर पर।

'क्या?' नसीबन ने पूछा, जैसे यकीन नहीं आया उसकी 'हाँ' पर।

'हाँ।'

'तू भी...?' बस इतना कह पाई नसीबन। इस छोटे-से सवाल में पाँच सौ रुपयों में भेड़-बकरी की तरह उसका सौदा करने वाले उसके बाप से लेकर बेमुरौवत और बेवफा हो आए पति और बेटे और दुनिया-जहान-भर के मर्दों के प्रति उसके त्याग-तपस्या, अरमान, अधिकार और अहं के टूटते महलों की सारी चरमराहटें समाई हुई थीं।

करीम के चेहरे पर राहत छलछला आई, बोला तो उदारता में शब्द-शब्द भारी हुए जा रहे थे, 'मैं तो कह रहा हूँ कि तुम भी...' बात अधूरी रह गई करीम की।

नसीबन ने बात काटकर दो-टूक लहजे में कहा, 'ठीक है जाओ... लेकिन एक शर्त है।'

'क्या?' दोनों के मुँह से एक साथ निकला।

'तुम दोनों को अभी इसी वक्त निकलना होगा।'

'लेकिन क्यों?' बाप-बेटा दोनों अवाक्‌।

'खुदा मुझे इस झूठ और बेदर्दी की जो भी सजा देगा, मैं सर झुकाकर कुबूल कर लूँगी, दोजख देगा, उसका भी डर नहीं। इस दोजख से बढ़कर कोई और दोजख क्या होगा... लेकिन केओड़ाखाली वालों के सामने सर उठाकर चलने के लिए इतना हक तो दो कि मैं यह कह सकूँ कि मेरा मर्द और मेरा बेटा बेवफा नहीं थे, भागे नहीं, ...डूबकर मर गए होंगे समुद्र में।'

नसीबन की कहानी अब सिर्फ माझियों के गीतों में ही रह गई है -

के जास रे भाटी डाँग बोइया / आमार भाई बोल रे।

कॅइयो नागर नितो बोइल्या... - के जास रे।

प्राण कांदे। कांदे रे प्राण। प्राण कांदे रे...। पोड़ा मॅन रे बुझाइले

बोझे नाsss। कांदे रेsss। सुजन माझी रे, भाई रे कइयो गिया / ना

आसिले, सपने से देखा दिते बोइल्या... / के जास रे /...'

(कौन नाविक जा रहा है डोंगी खेते हुए... मेरे भैया बोल ना... कौन जा रहा है? कहना उस प्रेमी से, नित्य प्राण रोता है, रोता है प्राण, रोता है रे sss ! समझाने पर भी नहीं समझता यह दग्ध मन... रोता है रे sss ! ऐ मेरे भले नाविक, मेरे भाई, कह देना उससे जाकर - न आ सके तो सपने में तो दिखाई दे जाए... कौन जा रहा है? )

नाविकों का कहना है - इसी जगह आते ही कोई उनके कपड़े खींचने लगता है।

जब भी आस-पास के गाँवों में समुद्र के विस्तार का जिक्र आता है, नसीबन का जिक्र आए बिना नहीं रहता, 'झूठ कहते हैं लोग कि समुद्र का दूसरा किनारा किसने देखा है, नसीबन के बाद भी ऐसा कोई कह सकता है भला!'

और बेचारी नसीबन! नसीब की मारी नसीबन...! मर गए बाघ-बाघिन। मर गईं इलिस मछलियाँ, मर गए केकड़े, मर गए घड़ियाल, वह एक सुनसान रात थी। कहते हैं सिर्फ नूर-बूढ़े ने उन तीनों को समुद्र तक आते देखा था या फिर चाँद ने, जो खुफिया की तरह झाऊ के झाड़ों में छुपा हुआ था।

करीम और शफीक वहीं से 'बोट' पर सवार हुए। नसीबन वहीं खड़ी रह गई, उस शिला के पास। ज्वार आया हुआ था। बोट आगे बढ़ा। भीट के उन नारियल के पेड़ों तक जाकर बाप-बेटे ने एक बार मुड़कर देखा नसीबन बी को। वे आँखों सूखी थीं। एक हूक उठी नसीबन के कलेजे से, 'या खुदा, इन खुश्क आँखों को एक कतरा पानी तो बख्श!' ...फिर वह समुद्री शिला में तब्दील हो गई और वे दोनों बाप-बेटे नारियल के पेड़ों में! उसके पहले न वह शिला वहाँ थी, न वे नारियल के दोनों पेड़ वहाँ... चाँद झाँक रहा था दोनों पेड़ों के बीच से उस शिला को और लिख रहा था वह विरह-कथा हवा के जरिए लहरों पर।

बूँद-बूँद पानी जमा होता है उन पेड़ों के फलों में। पीने वाले कहते हैं - खारा होता है, पानी नहीं, आँसू जो हैं...

और वह शिला! असंख्य छोटे-छोटे गड्ढे हैं उसमें, जिनमें झिनुक अटके रहते हैं। लहरें रो-भिगो जाती हैं उसे, फिर दूर चला जाता है समुद्र, सूख जाता है सारा पानी। क्या एकबारगी पत्थर ही हो गई है नसीबन? नहीं, ध्यान से कोई देखे, ऊपर-ऊपर से बिलकुल सर्द, सख्त और शुष्क, मगर नीचे? थोड़ा पानी तब भी बचा रह जाता है, अंदर कहीं।

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