सृजन, पालन और संहार, संसार की मूल प्रवृत्तियाँ हैं। कवि कर्म सृजन का गुण है। संहार से पूर्व लय या मुक्ति को स्थापित कर देना ही ब्रह्मत्व है। इसी ब्रह्मत्व को स्थापित करता कवि स्वयं को भी संहार से पहले जीवन के उपसंहार में सार्थक होने के प्रयास करता है।
अपने पाठकों से संवाद करते ये उद्गार हैं दिलीप वशिष्ठ के। 'बोधि प्रकाशन जयपुर' से सद्यः प्रकाशित "अनंत प्रेम की वैदिक प्रार्थनाएँ" दिलीप का पहला काव्य संग्रह है और इसी की भूमिका से एक छोटा सा अंश ऊपर उद्धृत किया है।
मैंने कुछ चित्र उकेरे हैं
तूने उन्हें शब्द बना दिया।
उन शब्दों की खोज में दौड़ते आये
अर्थ अनगिनत....
दिलीप उन दिनों के मित्र हैं जब 2011 में इस मंच पर नए नए आये हम जैसे लोग आभासी दुनिया का ककहरा सीख रहे थे। उस आरम्भिक दौर की मित्र तालिका में जिन दो तीन लोगों से आत्मीय सम्बन्ध बने, दिलीप उन्हीं में से एक हैं। झूठी तारीफ़ न करने की हम दोनों की प्रकृति एक जैसी ही है, हालाँकि मेरी तुलना में वे थोड़े ज़्यादा सहिष्णु हैं। दिलीप की इस पहली किताब को देखकर मुझे उतनी ही प्रसन्नता हुई है जितनी उन्हें ख़ुद हुई होगी। पहली संतान और पहली किताब का सुख शब्दों से परे होता है। मित्र की उपलब्धि पर ख़ुश होने से यहाँ किसी को ये ग़लतफ़हमी भी नहीं होनी चाहिए कि मित्रता के कारण उनकी किताब को ज्यादा रेटिंग या छूट मिल जाएगी। दिलीप इस तरह की कोई उम्मीद मुझसे रखते भी नहीं हैं क्योंकि वो समझते हैं कि इससे उनका कोई भला नहीं होने वाला। कुछ गड़बड़ दिखने पर मेरी टोक देने वाली आदत को बरसों से झेलते आ रहे हैं दिलीप वशिष्ठ।
इस संग्रह की आरम्भिक बारह या तेरह रचनाएँ वैदिक श्लोकों का काव्यात्मक भावानुवाद हैं। जो नए मित्र उनसे अपरिचित हैं, उन्हें बता दें कि दिलीप संस्कृत के विद्वान और इसी भाषा के अध्यापक हैं।
** आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरितासउद्भिदः
दसों दिशाओं के सब ओर छोर
सकल सृष्टि के प्रति छोर-छोर
शिव शुभ संकल्प विश्व के सारे
उत्प्लावित करें हमारी ओर
अन्यायों से न हो दबने वाले
दुष्कर्मों से न हो घिरने वाले
ऐसे हो दृढ़ संकल्प हमारे
सब बाधाओं को ही भेदने वाले।
वैदिक प्रार्थनाओं पर आधारित इन कविताओं के बाद उनकी जो मूल रचनाएँ हैं वह भी पुस्तक के शीर्षक के अनुरूप इसी विषयवस्तु पर हैं।अनंत के प्रति आस्था, प्रेम और मनुष्य के शुभत्व की पावन भावनाएँ इन कविताओं में सर्वत्र व्याप्त हैं। कवि कामना करता है कि-
मिट जाए मेरी उपस्थिति से
वैमनस्व की दुर्गन्ध
और आप्यायित हो जाए
प्रेम का
संवाहक तत्व।
अनंत से कवि का सहज वार्तालाप निरंतर कायम है-
बह जाने दे मुझे
गिर जाने दे मुझे
नदी सा झरने सा
तुझ अनन्त तक।
मुझे नहीं आता आनन्द
जब तक तेरी बात न कर लूँ।
जब तक गढ़ न लूँ ,
कुछ किस्से, कुछ तेरे प्रेम के
कुछ तेरी उपेक्षा के।
उनकी कुछ प्रिय कविताएँ इसी संग्रह से......
1)
* मेरा मन पुष्प हो जाये *
जब भी प्रेम पसारे कोई मेरी ओर
जब भी गिरे मेरे लिये
सद्भावना के हिमालय से
किसी की अश्रु का गंगजल
भोर की तुषार सा टिक जाये
कोमल भावना पंखुरी पर....
मेरा मन पत्थर का कवच बन जाये
जब भी संधान करे कोई
दुर्भावनाओं, और असत्य के शरों का
जब भी खेलना चाहे मेरी पवित्रतम भावनाओं से...
मेरा मन लोह की ढाल बने
जब भी प्रहार करे कोई
कुवाक्यों की तलवार से
मेरा मन हवा हो जाये
जब भी कैद करना चाहे कोई
स्वार्थ बेडियों में...
मेरा मन रेत सा फिसल जाये
जब भी जकड़ना चाहे मुझे कोई
अपने धूर्त स्वभाव की मुट्ठी में....
वेद कहता रहा मेरे लिये
अश्मवर्म मे असि यो मां प्राच्यां दिशो घायुरभिदासात्
एतत् सा ऋच्छात्..
2)
* बस इतना कर दो *
मैंने कुछ स्वप्न देखे है
तुम उनमें रंग भर दो।
मैंने कुछ लकीरें उघाड़ी हैं
तुम इनसे आकृतियाँ बना दो।
मैंने कुछ शब्द उड़ाए हैं
तुम इन्हें कोई अर्थ दे दो।
बस इतना कर दो...
मेरा भरम भी रहे
तेरा बड़प्पन भी।
3)
*अनन्त की यात्रा*
उसने सागर जिया तो
बूँद लिखी
ठाले बैठा तो पल गिने।
पानी पोखर का हो
या आँख का
ठहर जाए तो काई तैरेगी।
इसलिए कोई छिद्र तलाशो
और बह चलो
निकलो अनन्त यात्रा पर।
4) * माँ *
माँ...
पुरानी किताबों सी
उसे पलट भर लो तो
आत्मिक बोध कराती है।
माँ गूढ़ मंत्र सी, कभी भी रट लो
हार में भी जीत नज़र आती है।
माँ किसी युग की साधना सी
हर दुख से उबार लेती है।
5) * द्वंद *
सच में
चलते रहना है जीवन।
और रुक जाना मरण।
सोचो
अगर बाहर निकली श्वास
बाहर ही रह जाए
या भीतर ली हुई श्वास
भीतर ही रह जाए।
तो सोचो....
और इन्हीं श्वासों के बीच की
श्वासें हैं सारे द्वंद।
अनन्त प्रेम की वैदिक प्रार्थनाएँ
दिलीप वसिष्ठ
बोधि प्रकाशन
प्रथम संस्करण- अप्रैल 2018
पृष्ठ- 116
मूल्य- 120
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