ये तो मैं था कि उसे दावतें देकर आया
दर्द को यूँ भी दबे-पाँव चले आना था
ज्ञानप्रकाश विवेक हमारे वक़्त के विशिष्ट ग़ज़लकार हैं।
वे उन रचनाकारों में हैं जिन्हें पढ़ने की चाहत हमेशा जवान रहती है। उनके लफ़्ज़ों की दुनिया शोर से उकताए हुए मन के लिए किसी शरण-स्थली जैसी है।
एक ही समय में कहानी, उपन्यास, आलोचना, ग़ज़ल के भिन्न क्षेत्रों में उन्हें निरंतर सक्रिय देखना आश्वस्ति दायक है।
उनका आख़िरी ग़ज़ल संग्रह "गुफ़्तगू अवाम से है" अरसा पहले आया था। बीच के इस लंबे अंतराल में वो कहानी, उपन्यास, और आलोचना में व्यस्त रहे। हालाँकि ग़ज़लों का लिखा जाना भी स्थगित नहीं हुआ था, बस संकलन आने में समय लग गया।
"डरी हुई लड़की" जैसे चर्चित उपन्यास के बाद अपने पाठकों के लिए उनका अगला उपहार है खूबसूरत ग़ज़लों से सजा हुआ एक गुलदस्ता जिसका नाम है--"घाट हजारों इस दरिया के"।
पिछले वर्ष के आखिरी दिनों में प्रकाशित हुए इस ग़ज़ल संग्रह का आवरण बेहद खूबसूरत है, कुछ क्लासिक विशिष्टता का आभास सा देता हुआ।
मुखपृष्ठ पर ज्ञानप्रकाश विवेक जी का शानदार क्लोजअप और पीछे कुछ मीनारों की विविध रंगी तस्वीरें। तस्वीरों के बाहर की सज्जा भी मोहक है।
वाणी प्रकाशन से आये इस ग़ज़ल संग्रह के फ्लैप पर एक बड़ी सुंदर टिप्पड़ी उनके लेखन के संदर्भ में की गयी है- " ज्ञानप्रकाश विवेक की चालीस वर्ष की लंबी , अथक ग़ज़ल यात्रा किसी ध्यान यात्रा से कम नहीं। वो अपनी ग़ज़लों में ज़िन्दगी को लिखते हैं या यूँ कहें कि वे अपनी ग़ज़लों में मनुष्यता को लिखते हैं।"
यह मनुष्यता उनकी लिखी हुई हर रचना में हम देख सकते हैं, चाहे वो किसी भी विधा में हो। उनकी ग़ज़लों में समाए संसार का आलम ये है कि जितनी बार इसे उठाते हैं, हर बार कोई न कोई शेर विस्मित कर जाता है। मात्र दो पंक्तियों के एक शेर में विवेक जी ऐसा जीवन-दर्शन डाल देते हैं जिसकी व्याख्या कोई सुगढ़ आलोचक करने बैठे तो कई पृष्ठों तक उसकी यात्रा चले।
उनकी ग़ज़लों में आस्था और विश्वास कभी आसानी से हार मानते नहीं दिखते। और अगर हार भी गए तो हौसला कमज़ोर नहीं पड़ता। ज़िन्दगी साहस का दामन कभी नहीं छोड़ती।
मौत के हाथों में विष के थे बुझे नश्तर कई
ज़िन्दगी के हाथ खाली थे मगर हारी न थी
मिट्टी के दीये! हार गया है तू हवा से
लेकिन तेरा तक़रार मुझे अच्छा लगा है।
ऐ ज़िन्दगी! मेरी ज़िंदादिली तो देख जरा
ख़रीद लाया हूँ बाज़ार से कफ़न अपना
गिरवी पड़े हुए हैं मेरे पाँव दोस्तों !
फिर भी मैं तुमको चल के दिखाऊँगा एक दिन
ऐ ज़िन्दगी! तू साथ मेरा दे तो ठीक है
वरना मैं तुझको छोड़ के जाऊँगा एक दिन
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मासूम पंछी, जुगनू, दरख़्त, और कुदरत से उनकी मोहब्बत बार बार शेरों में बयान होती है----
बैठा रहा दिन भर मेरे कमरे में परिन्दा
कुछ इसलिए इतवार मुझे अच्छा लगा है।
कि एक जुगनू चला आया है मेरे घर तक
कहा था आपने रस्ते में हमसफ़र रखना
ये बात सीख के आया हूँ मैं दरख़्तों से
कि अपने घर में परिन्दों का एक घर रखना
कोई पंछी मेरे आँगन में न उतरे दिनभर
मेरे भगवान ! मुझे इतना अकेला न बना
सूरज की नाराज़गी और धूप को फटा हुआ अखबार/ तारों की हल्की रोशनी का कारण बताते इन बिम्बों का जादू देखिए---
इसीलिये कुछ सूरज भी नाराज़ है तुझसे
धूप को तूने फटा हुआ अख़बार कहा था
तुम आसमान के तारों की सादगी देखो
उजाला जेब के अंदर छुपा के बैठे हैं
कोई भी शख़्स इसे कर नहीं सका मैला
कि हम वो धूप की चादर बिछा के बैठे हैं।
उनकी ग़ज़लों में एक तरफ़ जिजीविषा के ताकतवर स्वर हैं तो दूसरी तरफ़ जद्दोजहद और असमर्थता से उपजे करुण सुर भी हैं। मगर पलायन यहाँ भी नहीं है।
वो अपने खेत तो रख आया है रहन यारों !
पर अपने घर में हमेशा कुदाल रखता है।
पराए धन की तरह सुख मुझे लगा यारों
मगर ये दर्द तो लगता है मूलधन अपना
रोजनामचा बेचारे निर्धन का क्या तुम जानो
दिन है काग़ज़ मुड़ा तुड़ा सा, रात फटा अख़बार
उससे कहना कि वो रोये तो सँभलकर रोये
कहीं ऐसा न हो आंखों का गँवा दे पानी
बाजारवाद की चपेट में आकर हम प्रैक्टिकल हो गए हैं। उसूलों की बात अब हमारे पिछड़ेपन की गवाह बन जाती है। ज़रूरत के हिसाब से चेहरे बदल लेने की इस आधुनिक कला पर उनके तंज देखिए----
ज़मीर जैसी किसी शय की बात मत कीजे
वो फ़्यूज बल्ब है अब तो कहीं जलेगा नहीं
चल दिया लिखके वो दीवार पे नारे यारों
हमनें समझा उसे माहौल बदलने वाला
वो छुप छुपा के उड़ाते हैं दावतें दिनभर
ये और बात कि अनशन है आमरण उनका
हम इस उत्तर आधुनिक युग में एकाकी जीवन को अभिशप्त हैं। रिश्ते जोड़ भाग का गणित बनकर रह गए हैं। मनुष्य के अकेलेपन की यह भयावहता उनकी कहानियों और ग़ज़लों में खूब बयाँ होती है---
मेरे चुपज़दा घर का सामान अक्सर
जहाँ बैठता वो मुझे देखता था
मैं कैसे उसे इश्क़ का अहसास कराऊँ
जो बीजगणित लेके मेरे पास खड़ी है
समय ने साल महीनों को हमसे छीन लिया
एवज़ में हाथ पे लम्हों की चिन्दियाँ दी हैं
बुलंदी की हक़ीक़त बस यही है
शिखर से टूटकर पत्थर गिरा है
मित्रता या दोस्ती का ज़िक़्र ज्ञानप्रकाश विवेक के जीवन और उनकी रचनाओं में बड़ी पाकीज़गी से और बार बार होता है। ये शेर पढ़ते हुए उनकी कई कहानियों की याद ताजा हो रही है, साथ ही उन दिनों की स्मृति भी जब हम कुछ मित्र उनके घर मिलने गए थे। उन्होंने बड़ी आत्मीयता से कहा था कि आप नौजवान अदीबों ने आज के दिन को उत्सव बना दिया---
दोस्त अचानक जिस दिन मेरे घर आये थे
मैंने उस दिन को अपना त्योहार कहा था
और इस लेख के अंत में एक अनोखा शेर जो एकदम अलग बह्र में लिखा गया है---
ये अजब बात है, बाग के मालियों को पता न चला
नीम के पेड़ से इक गिलहरी का था दोस्ताना कभी
घाट हज़ारों इस दरिया के
ज्ञान प्रकाश विवेक
वाणी प्रकाशन
वर्ष- २०१७
मूल्य - पुस्तकालय संस्करण- ₹२००
जनसंस्करण - ₹१५०
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