शनिवार, 7 अप्रैल 2018

फुगाटी का जूता -- मनीष वैद्य

"अँधेरा बाहर का हो या भीतर का, उजाले के लिए हथियार उठाना ही पड़ता है।"

मनीष वैद्य पिछले कुछ वर्षों के दौरान एक महत्वपूर्ण कहानीकार के रूप में उभरे हैं। 2013 में आये पहले कहानी संग्रह "टुकड़े टुकड़े धूप" के बाद इस अंतराल में उनकी जो कहानियाँ देश की प्रमुख पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं, उन्हीं का संकलित स्वरूप "फुगाटी का जूता" के रूप में हमारे सामने हैं। इन कहानियों से गुज़रते हुए हुए मैंने पाया कि मनीष जी ने इन बीते वर्षों में भाषा और शिल्प पर काफी मेहनत की है। उनकी समृद्ध भाषा और संवेदनशील सम-दृष्टि कई कहानियों को यादगार बना जाती है। उनके लेखन की एक और विशेषता उनकी रचनाओं का कथ्य है। विविध प्रकार के चरित्र और विषयवस्तु उनकी झोली में मौजूद हैं। घर और समाज से विस्थापित और व्यवस्था की संवेदनहीनता का शिकार हुए लोग उनकी रचनाओं में बार बार आते हैं।

घड़ीसाज--

"वह दुनिया के समय को बदलने, ठीक करने और अपनी तरह का समय बताने की एवज में अपना समय भुला देता है। समय बीतने पर क्या बचता है। हम दरवाजे पर चौकसी करते रहते हैं और वह कम्बख़्त खिड़कियों से गुज़र जाता है।
अब तो अपनी घड़ियाँ ही नहीं, लोग अपने समय तक को दुरुस्त नहीं करते। उपयोग के बाद फेंक देते हैं सब कुछ।"

संग्रह का आगाज़ एक घड़ीसाज की संवेदनशील कथा से होता है, जो आधुनिकीकरण के दौर में न सिर्फ़ अपनी दुकान बल्कि इस दुनिया से ही बेदखल कर दिया जाता है।

"आदमी जात" एक लम्बे कालखण्ड को प्रस्तुत करती है। विभाजन के समय सिंध नदी के किनारे स्थित एक छोटे से गाँव से जान बचाकर भागा हुआ किशोर शरणार्थी कैम्प्स में भटकते हुए एक दिन अपने परिवार को पा लेता है। किन्तु बचपन की दोस्त शीनू और उसके परिवार का दुखद अंत उसे जीवन भर का दुख दे जाता है। घर परिवार और ज़िन्दगी की व्यस्तता के बीच सत्तर साल गुजर जाने के बाद भी उसके ख़यालों की आवाजाही सरहद के इस पार से उस पार तक चलती रहती है।

"फुगाटी का जूता" पिछले वर्ष पहल पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। बाजार के फैलते पाँवों और ब्रांड के पीछे भागती नई पीढ़ी की ये कहानी वास्तविकता की अंदरूनी तहों तक ले जाती है हमें।

"....कि हरदौल आते हैं---

(एक स्त्री के लिए विवाह के बाद कितना कुछ बदल जाता है। बोली, पानी, खान-पान, आचार-व्यवहार, बाना-पहनावा। फिर भी तमाम चीजें रह जाती हैं जो कभी नहीं बदलतीं। भौगोलिक सीमाओं से परे भी। जैसे उनकी नियति। जो यहाँ है, वही वहाँ भी है।)

जनश्रुतियों में जीवित हरदौल की ऐतिहासिक लोक-कथा का वर्तमान संदर्भों में किया गया सफल पुनर्लेखन है। इसका मार्मिक घटनाक्रम वर्तमान कहानी में मौजूद पात्रों के साथ पाठक को भी रोमांचित कर जाता है।

"उज्जड़" एक शालीन प्रहार है उन लोगों पर जो अपने वैभव के अहंकार में गरीबों को छोटा करके आँकते हैं, जबकि किसी आकस्मिक विपत्ति के समय यही लोग निःस्वार्थ भाव से काम आते हैं।

"काग़ज़ ही काग़ज़ में बोलता है"

( सावन के बाद हमेशा भादौ ही नहीं आया करता। कभी कभी सावन के बाद फिर से आषाढ़ आ जाया करता है। ऐसा ही है ज़िन्दगी का भूगोल। )

ये एक ऐसे निःसंतान शख़्स की व्यथा कथा है जो पत्नी की मृत्यु के बाद शहर में एकाकी जीवन बिताते हुए एक दिन गाँव वापस लौटने का निर्णय करता है। भतीजे और बहू का अनमना व्यवहार देखकर उसकी उलझन बढ़ती ही जाती है। कुछ दिनों बाद उसे मालूम पड़ता है कि उसकी जमीन को हड़पने के लिए उसके भतीजे ने उसे मृत घोषित कर रखा है। स्पष्टीकरण माँगने पर "जो उखाड़ना है, उखाड़ लो" की धमकी मिलती है।

"अब्दुल मज़ीद की मिट्टी"

( क्या हुआ? अब्दुल मज़ीद मिला? अब तो वक़्त ने भी उसे रफू कर दिया। बरखुरदार, हमें ये गुमान होने लगता है कि हम बहुत बड़े रफ़ूगर हैं, जबकि वक़्त से बड़ा कोई रफ़ूगर नहीं होता। सब कुछ बदल देता है वह.. सब कुछ..)

घड़ीसाज के मुख्य पात्र की तरह इस कहानी का नायक भी इस बेरहम वक़्त का शिकार है। अपनी रफूगरी के लिए मशहूर इस शख़्स को अपने हुनर और इस हुनर की कद्र करने वाले लोगों पर इतना यकीन है कि बेटे के समझाने के बावजूद किसी और काम के लिए तैयार नहीं होता। कहानी का उत्तरार्ध हमारे समय की अमानवीयता और भयावह बाजारीकरण का दुखद स्वरूप प्रस्तुत करता है।

"ख़ैरात" शासकीय चालों और दबंगों  के बीच पिसते साधारण जन की कहानी है। प्रशासनिक आदेश से एक गाँव के भूमिहीन गरीबों को जमीन आवंटित की जाती है। इनमें से अधिकांश जमीन नालों और ऊसर बंजर पहाड़ियों पर निकलती है। जिसके हिस्से में उपजाऊ जमीन आयी उन पर पहले से ही गाँव के पटेलों का कब्जा। इस बारे में बात करने पर उनकी ओर से धमकियाँ मिलती हैं। धीरे धीरे एक ऐसी पार्टी का अस्तित्व वहाँ उभरता है जो लोगों के आक्रोश को भुनाने में विशेषज्ञ है और एक दिन पूरा क्षेत्र आंतरिक युद्ध के मुहाने पर खड़ा हो 
जाता है।

"हरसिंगार सी लड़की" एक मासूम सी प्रेम कहानी है। विषयवस्तु और पात्रों के अनुरूप परिवर्तित भाषा का खिलंदड़ापन आनन्दित करता है।

"खोए हुए लोग"

( जो ज़िन्दगी भर सबकी चिट्ठियाँ सही पते पर, आज वह खुद अपना पता भूल गए। )

यह इस संग्रह की श्रेष्ठ कहानियों में एक है। स्मृति लोप का शिकार इस कहानी का बुजुर्ग पात्र अपने गाँव को अपना मानने से इनकार कर देता है। उनकी जिद है कि उन्हें उनके गाँव पहुँचाया जाय।
ये सोचकर कि शायद कुछ दिन यहाँ से दूर रहकर उनकी जिद कम हो जाय, घरवाले उन्हें लेकर तीर्थयात्रा पर चले जाते हैं। हालाँकि उनकी मनःस्थिति पर इस सबका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उनकी गतिमान स्मृति यात्रा हमें प्रसंगवश गाँवों के निरंतर परिवर्तित होते हालात और लोगों की हिंसक मनोवृत्ति से जुड़ी कुछ घटनाओं से रूबरू कराती है। अतीत की इन्हीं दुखद यादों से उनकी वर्तमान मनोदशा के तार जुड़े हुए हैं।

"सुगनी" हमारे समाज के उस दौर और उन क्षेत्रों की दास्तान बयान करती है जहाँ अशिक्षा और अज्ञान का अंधकार इस कदर व्याप्त रहता है कि सही और ग़लत की सारी विभाजन रेखाएँ ख़त्म हो जाती हैं। एक गरीब, असमर्थ और विधवा स्त्री पहले ताकतवर लोगों द्वारा जमीन और घर से रहित की जाती है और बाद में डायन घोषित कर उस पर अत्याचार की इंतिहा कर दी जाती है। दुखद अंत वाली यह कहानी बरबस मिथिलेश्वर के प्रसिद्ध उपन्यास "युद्धस्थल" की याद ताजा कर जाती है।

बोधि प्रकाशन जयपुर से इसी वर्ष आयी इस किताब का आवरण कलात्मक और प्रकाशन उच्चस्तरीय है। इन दिनों पढ़ी गयी अन्य किताबों की तुलना में प्रूफ़ की गुणवत्ता भी प्रशंसनीय है।

फुगाटी का जूता
मनीष वैद्य
बोधि प्रकाशन
वर्ष २०१८
मूल्य- ₹ १२०

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