सोमवार, 21 सितंबर 2020

कलेजा: राजेन्द्र श्रीवास्तव

कलेजा

प्रबोध नहीं आया था। 
मेरा मन कह रहा था कि वह ज़रूर आएगा। मेरी आंखें स्टेशन की बेतरतीब भीड़ में अब भी उसे तलाश रही थीं। 
सुनंदा हौले से बुदबुदाई, " मैं पहले ही जानती थी...." क्षोभ और विषाद का मिला-जुला एक विचित्र किस्म का भाव उसके चेहरे पर उभर आया था। 
मैंने असहाय भाव से कंधे उचकाए और गहरी निःश्वास छोड़ी। 
अहमदाबाद स्टेशन के विशाल प्लेटफार्म पर हम मानो बिना किसी मकसद के खड़े थे। ट्रेन हमें उतारकर आगे बढ़ चुकी थी।
"शायद रास्ते में कहीं फंस गया हो ... " मैंने धीमे स्वर में कहा। पत्नी को सुनाने से ज्यादा यह अपने आप तक आवाज पहुंचाने की कोशिश थी। कोशिश नाकामयाब रही।
मैंने कमीज की जेब से सिगरेट का मुड़ा-तुड़ा पैकेट निकाला। एक सिगरेट खींचकर मैंने बिना सुलगाए ही होठों में दबा ली। फिर कुछ क्षण मैं सिगरेट उंगलियों में फिराता रहा। अंत में सिगरेट वापस डालकर मैंने पैकेट को फिर जेब में ठूंस लिया। 
"ये लोग बड़े मनी - माइन्डेड होते हैं... मैं पहले ही जानती थी... " सुनंदा ने अबकी पूरे विश्वास से कहा। 
"हर जगह, हर तरह के लोग होते हैं... " मैंने प्रतिवाद-सा किया, " मैं उसे फोन लगाता हूं... "
सुनंदा ने मुंह बिचकाया। मतलब यह था कि जो करना है करो, मेरी बला से। फिर अगले कुछ क्षण मैं फोन पर व्यस्त रहा। 
अक्तूबर की सुबह की धूप भी इतनी तीखी थी कि हम असहज हो रहे थे। सूरज किसी सूदखोर महाजन की तरह मानो कटाई से पहले ही बिलकुल हमारे सर पर आ खड़ा हुआ था। 
फोन बंद कर मैंने सुनंदा की ओर देखा। आंखें ही नहीं, सुनंदा की पूरी देह ही प्रश्न में तब्दील हो गई थी। 
मैं फीकी हंसी हंसा, " वो मौजूद नहीं है घर पर, पर मैसेज रख छोड़ा है हमारे लिए। किसी होटल हाईनेस में कमरा बुक किया है। "
सुनंदा ने " देखा! मैं न कहती थी " वाले भाव से मेरी ओर देखा । मैं कुछ अन्यमनस्क होकर परे देखने लगा। 
दर्शन इतना समृद्ध है कि आम आदमी तक सहजता से इसकी पहुंच है। कोई भी व्यक्ति इसका आधार लेकर कम से कम नसीहतें तो दे ही सकता है। विशेषकर किसी कठिन स्थिति में अथवा किसी समस्या का समाधान उपलब्ध न होने पर, सामने वाले को दिलासा देने के लिए हमारे पास बहुत कुछ है। " नेकी कर दरिया में डाल ", "मोर एक्सपेक्टेशन, मोर फ्रस्ट्रेशन " कह - कहकर मैंने न जाने कितनी बार पत्नी को बहलाया था या आप यूं भी कह सकते हैं कि बेवकूफ बनाया था। पर इस बार वह समझने को तैयार ही नहीं थी। 
हम घूमने आए थे और अब पुरानी बातों को याद करने से कोई फायदा नहीं था, पर मनपसंद भीतर - कचरा बाहर, विचारों की आमद की राह में ऐसा कोई फिल्टर लगाना संभव ही नहीं था। हम चार साल पुरानी बातों को नई टीस के साथ याद कर रहे थे।
तब प्रबोध सीधे घर आ गया था। परिचय कुछ खास था नहीं, बस इतना ही कि हम एक ही थर्मल कंपनी में काम करते थे। मैं मुंबई कार्यालय में मैनेजर था, जबकि वह अहमदाबाद कार्यालय में कैशियर। कंपनी की हाउस मैगजीन में उसकी एक कविता छपी थी- " कलेजा "। कलेजा ही था कविता का नाम। ठीक याद नहीं। कुछ और भी हो सकता है। भाव यह था कि सदियों से सुनसान रास्ते पर चला आ रहा एक युगल इस धरती को प्रकाश देने का प्रयास कर रहा है। यहां तक कि अंधेरा अधिक होने पर दोनों अपना कलेजा जलाकर भी उजाला कर रहे हैं। पर उस रोशनी में भी ये कोई नहीं देख पाता कि हंसती - खिलखिलाती उस लड़की और मुस्कुराते हुए उसके प्रेमी के कलेजे में सदियों पुराना दर्द समाया हुआ है। अब मुझे ठीक याद आ गया, कलेजा ही था कविता का शीर्षक। कविता में कृत्रिमता नहीं थी। एक कच्चापन या कहें कि खुरदुरापन था। यही इस कविता का सबसे मजबूत पक्ष था। यह कविता पढ़कर मुझे वरिष्ठ कवि उदय प्रकाश की लंबी कविता 'औरतें' याद आ गई थी। 'औरतें' की कुछ पंक्तियां तो मैं बार - बार पढ़ता हूं और हर बार स्तब्ध रह जाता हूं। जब मैंने 'औरतें' पहली बार पढ़ी थी, तब मैंने उदय प्रकाश को भी पत्र लिखा था। ठीक वैसे ही मैंने कलेजा पढ़कर प्रबोध से संपर्क किया था। 
प्रबोध। प्रबोध शाह। मातृभाषा गुजराती, पर हिन्दी बड़ी अच्छी जानता था और हिन्दी में कविताएं लिखता था। हमारी ही कंपनी के अहमदाबाद कार्यालय में कैशियर, जो कि एक ट्रेनिंग के सिलसिले में मुंबई आया था और मामूली से परिचय की बिला पर सीधे हमारे घर आ गया था। बिना किसी संकोच के। बेहिचक।
"सर, पूरे पांच दिन तकलीफ़ दूंगा आपको... पर दीदी, तुमको जरा भी  तकलीफ़ नहीं दूंगा... "  वह उत्साह में था और मेरी पत्नी को दीदी कह रहा था। गौरतलब यह था कि वह मुझे 'आप' और सुनंदा को 'तुम' संबोधित कर रहा था। 
"...जरा भी तकलीफ़ नहीं दीदी... जो भी तुम बनाओगी, बस दो रोटी और जोड़ना है... कोई पसंद नहीं खास, सब खाता हूं... बस नॉन-वेज नहीं खाऊंगा, गांधीजी के गांव से हूं... "

मैं चकित था। सुनंदा असहज हुई थी, पर कुछ खास नाराज नहीं लग रही थी इस अनाहूत अतिथि से। जबकि हालत यह थी कि वह तौलिया और मंजन तक हमसे मांग रहा था। 
सुनंदा ने अकेले में मेरी क्लास ली, "तुमने सराय बना दिया है घर को, जिसे देखो मुंह उठाए यहीं आ टिकता है।"

"मैंने बुलाया है इसे? " मैंने उलटे आंखें निकालीं, "मुझे तो पता भी नहीं था कि ये आने वाला है, पता होता तो घर को ताला लगाकर भाग जाता।"

"है तो तुम्हारी ही कंपनी का... चिट्ठी तो तुमने ही लिखी थी कि कविता बड़ी अच्छी है... बड़ी श्रद्धा तो तुम्हारे ही मन में रहती है लिखनेवालों के लिए... " उलाहनापूर्ण स्वर।

" ऐसी चिट्ठियां तो मैं रोज दस लोगों को लिखता हूं, तो क्या सब यहीं बसेरा कर लेते हैं... और फिर दीदी तो तुम्हें ही कह रहा है।" पता नहीं क्यों मैं भी शेर हो गया था। 
सुनंदा ने बुरा सा मुंह बनाया। वह कुछ कहती तब तक बगल के कमरे से प्रबोध की आवाज आई। वह गुजराती में कुछ बोल रहा था। 
पत्नी ने इशारे से पूछा कि क्या कह रहा है।
"पूछ रहा है कि कहां रखा है।" मैंने धीमे स्वर में कहा। स्वर के भाव से इतनी भाषा समझने का दम तो मैं भरता हूं।

"क्या कहां रखा है?"

"मुझे क्या पता, उसी से पूछो।" मैंने नाक - भौंह सिकोड़ी और स्वर में अप्रसन्नता घोलने का भरसक प्रयास किया।

अब सुनंदा जरा समझाने वाले भाव में कहने लगी, " ठीक है , हमारा क्या जाता है, कुछ दिन रह ही ले। सुबह से रात तक तो ट्रेनिंग में ही रहेगा... मैं तो कहती हूं कि भई किसी को बुलाओ ही मत... पर जब कोई आ ही जाए तो मुंह मत बनाओ, ढंग से रहो उसके साथ।"
प्रबोध की सरलता या अपनापन, पता नहीं वह क्या था जिससे वह परिवार का  सदस्य-सा लगने लगा। जब तक वह रहा घर में, एक अव्यक्त गर्माहट हम महसूस करते रहे। यह गर्माहट सर्दियों की रातों में अलाव तापने जैसी सुखद थी। सुनंदा से तो वह ऐसे अधिकार से पेश आता था, मानो उसका छोटा भाई ही हो। 
अपनी पत्नी का जिक्र वह बड़े गर्व से करता - "जितनी सुंदर है विशाखा, उससे ज्यादा स्वादिष्ट खाना बनाती है। खास जूनागढ़ की है विशाखा! अगर उसके हाथ की रसोई जीम ली, तो फाइव स्टार का खाना भूल जाएंगे। आप बस एक दिन रुकिए हमारे घर... विशाखा पूरा गुजरात उठाकर रख देगी - उंदिया, खमण, फाफड़ा, गाठिया, चाट-पापड़ी, खाखरा...
प्रबोध की सूची खत्म ही नहीं होती थी।
सुनंदा कहती, " गुजरात तो मन है ही देखने का, हम तो होटल - वोटल भी पता कर रहे थे बीच में... फिर द्वारका - सोमनाथ भी देखना है... "
"होटल?... होटल?? तुम कदम तो रखो दीदी अहमदाबाद में... फिर वहां तुम्हारी थोड़े ही चलेगी... विशाखा तो तुम्हें खींच कर घर ले जाएगी। कम से कम पंद्रह दिन का प्रोग्राम बनाकर आना," उसका स्वर आदेशात्मक हो जाता,  
"विशाखा जब तक मन भर खिला-पिला न देगी और मन भर सुन-गुन न लेगी, कहीं जाने थोड़े ही देगी तुम्हें..."
मैं अलग से कहता सुनंदा से, "पहला आदमी देखा है, जो दूसरों से अपनी बीबी की तारीफ करते नहीं अघाता।"

"तो क्या हुआ... " सुनंदा मुझ पर नाराज होने लगती, "मैं तो गारंटी देती हूं कि विशाखा भी इसके जैसी सरल मन की होगी।"
"मुझे तो अहमदाबाद दर्शन से ज्यादा इसकी जूनागढ़ वाली बीबी को देखने की इच्छा है..." मैं दबे स्वर में कहता।
सुनंदा के आंखें तरेरने से पहले ही प्रबोध बाहर से आकर हमारी चर्चा में शामिल हो जाता, "दीदी, मैं अहमदाबाद से गुजराती वर्क वाली साड़ी तुम्हारे लिए भेजूंगा, साड़ी पर कढ़ाई तो खुद विशाखा करके देगी।" 
प्रबोध के जाने के बाद फिर संपर्क नहीं हो पाया था। तब मेरे घर पर फोन नहीं था, न ही प्रबोध ने कोई नंबर दिया था। मैंने कुछ ही समय बाद थर्मल कंपनी छोड़ दी थी और एक मल्टीनैशनल कंपनी में लग गया था। 
मैंने अपनी ओर से कभी कोई पहल भी नहीं की थी प्रबोध से संपर्क करने की। पर जब अहमदाबाद की एक संस्था ने अपनी प्रॉपर्टी एग्जिबिशन में शिरकत के लिए आमंत्रित किया, तो मैं अनायास ही स्मृतियों के जालों को साफ करता चला गया। पत्नी भी अहमदाबाद जाने के लिए उत्सुक हो उठी। मैंने थर्मल कंपनी के अहमदाबाद कार्यालय से प्रबोध के घर का नंबर हासिल किया। प्रबोध से बात भी हुई। पर शायद समय की गर्द हमारे संबंधों के बीच अपनी जगह बना चुकी थी, क्योंकि प्रबोध के स्वर में कोई उत्साह नहीं झलक रहा था। घर पर रुकने की जिद भी नहीं की उसने। आगमन का समय और ट्रेन की सूचना भी दी थी उसे। लेकिन हमारे मन की तमाम गवाहियों और तसल्लियों के बावजूद हकीकत यही थी कि प्रबोध स्टेशन पर नहीं आया था। गुजरात घूमने का हमारा उत्साह फीका पड़ चुका था। अब पुरानी बातों को याद करने और प्लेटफार्म पर खड़े रहने से कोई लाभ नहीं था। मैंने भारी मन से कुली को आवाज दी। 
अहमदाबाद देखने की कोई विशेष इच्छा हम दोनों को नहीं थी, लेकिन प्रॉपर्टी एग्जिबिशन के सिलसिले में हमें तीन दिन वहां रुकना ही था। प्रबोध पूरे तीन दिन मिला ही नहीं। समय के साथ-साथ मन की दीवारों पर चिढ़ की परछाइयां गहराने लगी थीं  - "अब अगर बुलाएगा, तो भी नहीं जाएंगे उसके घर।" सुनंदा विषादपूर्ण स्वर में बोली।

"अब जाने का समय भी नहीं है, रात दस बजे की तो ट्रेन है... ". मैंने स्वर को सामान्य बनाते हुए कहा।

"समय होता, तो भी नहीं जाते!" सुनंदा चुनौतीपूर्ण स्वर में कह रही थी, "बातें  तो  बड़ी  करता था अपनी  बीबी की, नहीं खाना हमें उसके  हाथ  के व्यंजन! " 
फिर हम दोनों ने कोई बात नहीं की। होटल छोड़ते समय रिसेप्शन पर बताया गया कि बिल अदा नहीं करना है। प्रबोध ने शायद ऐसी व्यवस्था की थी। 
पत्नी बिफर उठी, "हमें भिखारी समझ लिया है क्या? उसके भरोसे आए हैं हम?" पता नहीं वह होटल के मैनेजर को सुना रही थी या मुझे। उसके बाद पूरा बिल उसने जबरन चुकाया। वैसे प्रबोध की यह हरकत मुझे भी नागवार गुजरी थी। 
समय से काफी पहले ही हम स्टेशन पहुंच चुके थे। भीड़ बिलकुल नहीं थी और प्लेटफार्म खाली पड़ा था। रात गहरा रही थी और गाड़ी चलने में अब कुछ ही देर थी। हम अपनी सीट पर बैठे खिड़की से प्लेटफार्म पर देख रहे थे। हम दोनों ही चुप थे पर हमारी नज़रों में एक अव्यक्त तलाश हर क्षण दोबाला होती जा रही थी। 
बस तभी वह खिड़की पर दिखा। 
वह फीकी हंसी हंस रहा था... " आपके साथ मौका ही नहीं मिला भाईसाहब ... कुछ संजोग नहीं बना इस बार ... " 
"कोई नहीं.." मैंने अचकचा कर कहा। प्लेटफार्म की धुंधली रोशनी में भी प्रबोध के चेहरे पर थकान नुमायां हो रही थी। पत्नी ने भरपूर उपेक्षा करते हुए उसकी ओर देखने की भी जहमत नहीं उठाई। सिर के बाल थोड़े कम लग रहे थे, बाकी कोई खास तब्दीली नहीं आई थी उसमें पिछले चार सालों में। हालांकि यह भी बदलाव ही था कि वह मुझे  भाईसाहब कह रहा था,  जबकि पहले 'सर' कहता था। शायद इस कारण कि तब मैं उसकी कंपनी में था और उसका सीनियर था या शायद हड़बड़ाहट में ऐसा कर बैठा हो। जो भी हो..।
सुनंदा का चेहरा सख्त हो गया था और वह प्रबोध से परे शून्य में देख रही थी । 
"होटल के पैसे आपने दे दिए... ऐसा न करें... " वह बुदबुदाया।
मैं दावे से कह सकता हूं कि प्रबोध के स्वर में याचना थी। वह कह रहा था, "इस बार संयोग नहीं बैठा वरना...अगली बार .."
मैंने मुस्कुराने की कोशिश की।

" अच्छा ये चूनर....." प्रबोध ने सितारा जड़ा परिधान खिड़की से भीतर देने का प्रयास किया ।
पत्नी ने दोनों हाथ छाती पर बांधकर अपनी अस्वीकृति जाहिर कर दी थी और बदस्तूर शून्य में ताके जा रही थी । 
"ये विशाखा ने अपने हाथ से काढ़ा...."  वह बोलते-बोलते चुप हो गया क्योंकि ट्रेन ने सीटी दे दी थी और स्टेशन से सरकने लगी थी। पता नहीं प्रबोध के चेहरे पर क्या था कि मैं बेतरह चाहने लगा कि कि सुनंदा वह चूनर रख ले। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैंने उसे हाथ हिलाने का प्रयास-सा किया। 
मेरे बगल की सीट पर बैठे आदमी ने अचानक जोर से पुकारा "कैसे प्रबोध, इस समय यहां?... अरे भाई ...." 
" कोई नहीं रावल सर ... सब ठीक भैया , सब बिलकुल ठीक" प्रबोध का स्वर इतना सर्द था कि किसी अज्ञात भावना से मेरा दिल धड़कने लगा। तब तक गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली थी । 
"आपका परिचित है क्या?  " मैंने सामने की सीट पर बैठे व्यक्ति से पूछा, जो कि अब भी खिड़की से बाहर देख रहा था।
"पागल है… कहता है कि सब ठीक है, जबकि अभी पिछले ही हफ्ते तो इसकी वाइफ की डेथ हुई है... अरे साहब, मैं तो परेशान हूं कि अभी तेरहवीं भी नहीं हुई इसकी पत्नी की…. यह आदमी यहां कैसे... " 
मुझे लगा कि कोई भारी सी चीज मेरे दिल से आ टकराई हो। पत्नी पलक झपकाए बिना उसे देख रही थी - "कौन ? विशाखा ? " कांपते स्वर में उसने पूछा।
"हां, देखिए ना, पिछले तीन सालों से टाटा मेमोरियल में इलाज चल रहा था। बार-बार मुंबई आना-जाना। पर इस बार डॉक्टर ने जवाब दे दिया था..."
 
"इसने हमें कुछ बताया ही नहीं ..." सुनंदा बदहवास स्वर में बोली, " मुंबई आता रहा और हमें खबर भी नहीं की। यहां भी हम तीन-चार दिन से हैं... यहां भी सब छुपाकर रखा... " 
शहर की झिलमिल करती रोशनियां अब लुप्त हो गई थीं और सन्नाटे को चीरती हुई ट्रेन टूटे हुए बांध के पानी की तरह पूरे वेग से बढ़ी जा रही थी। मुझे अचानक ही प्रबोध की  कविता 'कलेजा' याद आ गई। पता नहीं क्यों ! 

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