रविवार, 26 अप्रैल 2020

गाँधी सिंड्रोम : प्रदीप जिलवाने

कुछ होगा 
कुछ होगा अगर मैं बोलूँगा
न टूटे न टूटे तिलिस्म सत्ता का,
मेरे अन्दर एक कायर टूटेगा।
- रघुवीर सहाय

उन तीन तेजतर्रार नवयुवकों ने जब बिसेसर बाबू को जान से मारने की धमकी देते हुए अपना तमंचा उन पर तान दिया था, तब भी वे जरा नहीं घबराए। बल्कि वे तो उन तीनों की आँखों में झाँकते हुए बोले, -‘मुझ बुढ़े को इस उम्र में मारकर क्या हासिल होगा तुम्हें?’ वे तीनों के तीनों क्षण भर के लिए भौंचक रह गए। फिर बिसेसर बाबू जो गाँधी प्रतिमा के ठीक नीचे अपनी पत्नी के साथ अन्न-जल त्याग कर अनशन पर डटे हुए थे, गाँधीजी की प्रतिमा की तरफ देखते हुए बोले, -‘वे भी तुम्हारे जैसे ही कुछ नौजवान थे, जो एक अस्सी साल के बुढ़े को गोलियों से मारना चाहते थे।’ फिर बिसेसर बाबू के मुँह से अचानक यह ब्रह्मवाक्य निकला, -‘वे हत्यारे भी नहीं जानते थे कि बुढ़े को गोलियों से नहीं मारा जा सकता था! बल्कि गोलियाँ मारकर तो उन्होंने उसे सदा के लिए अमर कर दिया!’
यदि यह घटना इस लेखक के सामने न घटी होती तो यकीन जानिए यह लेखक बिसेसर बाबू जैसे भोले जीव पर कथा लिखने का जोखिम कतई न करता। बहरहाल भोला होना, मूर्ख होना नहीं होता है। हमारे बिसेसर बाबू भोले हैं। इतने भोले कि कईं बार तो उनका भोलापन मूर्खता की सीमारेखा में दाखिल हो जाता है। लेकिन वे जो ऐसे भोले और भले जीवों को मूर्ख समझने की भूल कर बैठते हैं या कहें कि भोलेपन और मूर्खता में फर्क नहीं कर पाते हैं, वास्तव में वे ही मूर्ख हैं। ठीक इसी तरह हमारे बिसेसर बाबू भोले जरूर हैं, लेकिन कमजोर नहीं हैं। बिसेसर बाबू कभी किसी से झगड़ा वगड़ा नहीं करते। उनके पूरे जीवनकाल में, जहाँ तक विश्‍वस्‍त सूत्रों से जानकारी प्राप्त है, उन्होंने कभी किसी से किसी बात को लेकर शारीरिक रूप से कभी लड़ाई या झगड़ा नहीं किया है। तो जिस तरह भोला होना, मूर्ख होना नहीं है, उसी तरह भोला होना, कमजोर होना भी नहीं है। कमजोर वे हैं, जो ऐसी कमजोर धारणाएँ पाल कर बैठे हैं।
बिसेसर बाबू के बेटे राकेश ने अपने पिता को खेतों में हाड़-तोड़ श्रम करते देखा था। वे अनाज की भारी-भरकम बोरियों को सालों तक अपनी पीठ पर लादकर बैलगाड़ियों और ट्रेक्टरों पर लादते रहें थे, उतारते रहे थे। खेतों में उनकी मेहनत बैल से कम नहीं होती थी! राकेश को अब भी याद है कि अँधड़-तूफान की वज़ह से एक बार उसके खेत के रास्ते जिसे वे गुवाड़ कहते थे, पर एक बड़ा और मोटा-सा सिंदोसड़े का सूखा झाड़ आड़ा पड़ गया था। खेत पड़ोसी रामेसर काका और उसका वरसूद्या (बंधुआ मजदूर) दोनों मिलकर भी उसे हटाना तो दूर, हिला भी नहीं पा रहे थे। तब उसके पिताजी ने उस पेड़ को हटाने के लिए जो जुगत लगाई थी और अपना शारीरिक बल दिखाया था, वह राकेश की स्मृति में जस का तस टँका रह गया है। पेड़ हट जाने के बाद रामेसर काका ने कहा था, ‘तेरे में तो हाथी जैसा बल है रे बिसेसर! दस हाथ का काम था, इस झाड़ को हटाना!’
अपने पिता की प्रशंसा में कहे रामेसर काका के ये शब्द राकेश की स्मृति में इसलिए भी टँके रह गए हैं, क्योंकि उसके पिता के बारे में ऐसी प्रशंसा का अकाल उसके पूरे जीवनकाल में रहा है। कितना तो सादा और सरल रहा है उसके पिता का जीवन! लेकिन आज वह अपने पूरे ज्ञान और अनुभव के हासिल पर इतना तो जरूर कह ही सकता है कि जीवन में सादा व सरल बना रहना ही सबसे कठिन है।
यानी राकेश के पिता बिसेसर बाबू, न कमजोर थे, न मूर्ख थे, वे भोले थे। वे बलवान थे और बुद्धिमान थे। और बिसेसर बाबू के जीवन में ऐसे कईं अवसर आये और आये भी होंगे, जब वे अपने इस अतुलनीय बल का उपयोग कर सकते थे या उन्हें करना चाहिए था, मगर उन्होंने कभी नहीं किया था। यह भी राकेश के बचपन का ही एक किस्सा है, जब गाँव के ही रतन ठाकुर के बेटों ने उसे स्कूल में बेबात के ही पीट दिया था। स्कूल भी उसके घर से ज्यादा दूर नहीं था। मालूम होते ही बिसेसर बाबू दौड़े चले आये थे। उन्हें आता देखकर ठाकुर के लड़कों ने तत्काल मारपीट बंद कर दी थी। राकेश को यकीन था कि उसके पिता ने भी दूर से ही सही लेकिन उसे एकाध लात या घूँसा खाते तो देखा ही होगा! लेकिन बिसेसर बाबू ने रतन ठाकुर के दोनों लड़कों को एक शब्द भी नहीं कहा था, उल्टे घर जाकर राकेश को ही सीख दी थी कि, ‘लड़ना-झगड़ना ठीक नहीं है। स्कूल पढ़ाई के लिए होता है। तुम्हें सिर्फ पढ़ने पर ध्यान देना चाहिए।’
ऐसे और भी कईं किस्सें हैं, घटनाएँ हैं, जब बिसेसर बाबू को अपना शक्ति-प्रदर्शन करने का अवसर था या वे कर सकते थे, लेकिन उन्होंने कभी ऐसा नहीं किया था। जब उनके शरीर में इतनी शक्ति और इतना बल था तो वे क्यों किसी की दुत्कार या फटकार तक सुन लेते थे। किसी के भी कहे सुने पर क्योंकर उन्हें क्रोध नहीं आता था ? ये ऐसे प्रश्‍न थे, जो बरसों राकेश के मन को मथते रहे हैं, जिनपर कईं कईं बार राकेश खुद से ही उलझा है। बहरहाल ये सब तो कुछ समय पहले तक की बातें हैं, अब की बात कुछ और है। और जैसे कि हर बेटे के लिए उसका पिता हीरो होता है। राकेश के पिता भी उसके हीरो हैं। ये और कि वे शाहरूख टाइप के हीरो न सही, लेकिन फारूख जैसे तो हैं ही! और फारूख शेख भी राकेश की पसंद का हीरो है!
मेरे लिए सबसे दिलचस्प यह जानना रहा है कि बिसेसर बाबू ने प्रेमविवाह किया था। उस दौर में प्रेमविवाह कितने साहस का विषय है, कल्पना की जा सकती है। यह बात राकेश को थोड़ी समझदारी की उम्र आते-आते तक मालूम पड़ चुकी थी और शेष अवान्तर कथाएँ भी धीरे-धीरे बाद की उम्र में उसे मालूम होती चली गई। बिसेसर बाबू की प्रेम कहानी में ‘विलेन’ की कोई कमी नहीं थी, लेकिन उनके धैर्य, प्रेम और इरादों के आगे सारे ‘विलेन’ आखिर में चित हुए थे।
बिसेसर बाबू के बेटे राकेश ने जैसा मुझे बताया, उसके मुताबित दरअस्ल हुआ ये था कि जब बिसेसर बाबू युवा और कुँवारे थे, तब वे अपने ताऊ के साथ खरगोन के सुप्रसिद्ध नवग्रह मेले में गए थे। खरगोन शहर में लगने वाले इस सालाना मेले में घर परिवार के साथ घूमने-फिरने और खाने पीने के लिए बहुत कुछ होता था और आज भी होता है। सजे सँवरें और रंगीन लाइटों से दमदमाते दर्जनों तरह के झूलें, मनोरंजन के लिए सर्कस, नौटंकी, तम्बु सिनेमा यानी टूरिंग सिनेमा, खाने पीने के लिए ढेरों होटल, चाट मसालों के ठेले, तड़क-भड़क से भरपूर बच्चों के खेल-खिलौनों की सैकड़ों दुकानें, घर परिवार के सामानों व उपकरणों की दुकानें, महिलाओं की जरूरत के सामानों की दुकानें। सब कुछ। और दूर तक फैले इस मेले के अंत में मेले के समानान्तर पूरे माह चलने वाला एक बड़ा सा पशु मेला भी होता है। वे भी इस पशु मेला से अपने कुछ पशु बेचने और कुछ खरीदने आए थे। और यह कोई एक या दो दिन का काम नहीं था। अच्छे दाम के इंतजार में हफ्ताभर भी लग सकता था या उससे ज्यादा दिन भी।
यूँ यह नवग्रह मेला मकर संक्रांति के पर्व पर लगता है और लगभग एक माह तक इसकी छटा बरकरार रहती है। इसे अब यूँ भी कह सकते हैं कि मकर संक्रांति यानी चौदह जनवरी से वेलेन्टाइन डे चौदह फरवरी तक यह मेला चलता है। खैर तब वेलेन्टाइन-डे वाली नौटंकी भारतीय बाज़ारों में और मेले-ठेलों में दाखिल नहीं हुई थी।
मेले के दौरान फूरसत के क्षणों में युवा बिसेसर बाबू मेले में घूमने निकल पड़ते और इस उस दुकान पर घूम फिर आते थे। इसी मेले में उनके पड़ोस के गाँव वाले छोगा काका, जो कि बाद में उनके ससुर और राकेश के नाना बनें, ने भी चाय नास्ते की होटल खोल रखी थी। अब चूँकि मेला पूरा एक महीना चलता है तो ज्यादातर दुकानदार जो बाहर के होते हैं, वे अपने परिजनों को भी संग-साथ रख लेते हैं। इससे दुकान-धंधे में एक किस्म की सहायता भी रहती है। तो ऐसे ही किसी अवकाश के समय युवा बिसेसर घूमते-घामते अपने पड़ोस के गाँव वाले छोगा काका की होटल पर जा पहुँचे। उनकी होटल पर उस दिन उनकी पत्नी के अलावा बेटे-बेटियाँ भी मौजूद थीं। बेटियाँ, दुकान-धंधे में हाथ बटाने नहीं, मेला घुमने के मकसद से आई हुई थीं।
सुनते हैं कि युवा बिसेसर बाबू ने छोगा काका की बड़ी बेटी सुमित्रा को पहले पहल यहीं देखा था। परिवारजनों की मौजूदगी के बावजूद दोनों की आँखें किस तरह चार हुई होंगी, ये तो सही सही मालूम नहीं, लेकिन दूसरे ही दिन उन दोनों को मेले में साथ घूमते हुए सुमित्रा के भाइयों ने देख लिया था और भरे मेले में युवा बिसेसर की जमकर धुनाई कर दी थी। इस पर भी बाद में देख लेने की धमकी अलग से दे रखी थी।
लेकिन बिसेसर बाबू तो बिसेसर बाबू हैं। वे आसानी से हार मान जायें तो इस कहानी के हीरो कैसे? मेला खत्म होने के बाद भी किसी न किसी बहाने से महज डेढ़ कोस की दूरी पर बसे सुमित्रा के गाँव उससे मिलने या उसे बस देखने भर चले जाते थे। लेकिन मिलना कभी कभी ही हो पाता था। और जब उनके इस प्रेम प्रसंग की खबरें हवा में और ज्यादा फैलने लगी तो दोनों को मेले में सुमित्रा के भाइयों द्वारा दी गई ‘बाद में अलग से देख लेने वाली धमकी’ भी याद आई थी। मगर बिसेसर बाबू मैदान में डटे रहे। उनकी प्रेयसी सुमित्रा अक्सर उनसे अपनी चिंता जाहिर करती और हमेशा चिंता में रहती थी। तब युवा बिसेसर बाबू ने एक अचूक रामबाण नुस्खा अपनाया था, जिससे वे न केवल अपनी सात जन्मों की साथिन को सदैव सदैव के लिए पाने में कामयाब हुए, बल्कि हिंसा के मंडराते घने बादलों से भी मुक्ति मिल गई थी।
नुस्खे की युक्ति के अनुसार इधर पहले तो बिसेसर बाबू ने अपने ताऊ को पटा-पुटाकर अपने संग मिला लिया और फिर अपने पिता के आगे जिद लेकर बैठ गये कि वे उनके विवाह के लिए लड़की वालों के घर जाएँ, फिर भले ही वहाँ कुछ भी हो। उनकी जिद उनकी तरह ही मजबूत थी। जैसे उन्होंने कोई प्रतीज्ञा कर ली हो कि वे विवाह करेंगे तो सिर्फ सुमित्रा से, नहीं तो जीवन भर कुँवारे रहेंगे।
कहते हैं, तब युवा बिसेसर बाबू तकरीबन बारह तेरह दिन तक भूखे प्यासे घर में ही पड़े रहे। अपने पिता की हजार तरह की बातें, सौ तरह की दलीलें, पचासों तरह की जलालतें, यहाँ तक कि अनगिनत गालियाँ भी खाईं, मगर वे अपने पिता को आखिरकार किसी तरह राजी कर गये कि वे पड़ोस के गाँव में सुमित्रा का हाथ माँगने उसके घर जायेंगे, फिर कुछ भी हो जाये। बिसेसर बाबू के पिता की सबसे बड़ी दुविधा यह थी कि एक आड़ी (पराई) जाति के व्यक्ति के घर रिशते की बात करने आखिर किस तरह जाया जाए? यहाँ ताऊ काम आए। बिसेसर बाबू ने अपने ताऊ को यूँ ही तो अपने पक्ष में करके नहीं रखा था! ताऊ ने अपने भाई को पता नहीं कौन सी घुट्टी पिलाई कि फिर वे सब अंदेशे छोड़कर लड़की वालों के घर जाने को राजी हो गये थे।
उधर सुमित्रा भी अपने घर में अन्न-जल का त्याग कर अपने पिता और भाइयों के सामने मैदान में डटी रही थी। कितनी प्रताड़ना! कितना गुस्सा! कितनी मारपीट! तब सुमित्रा ने सही होगी, ये तो सिर्फ सुमित्रा ही जानती होगी! बहुत सम्भव है कि उन दोनों ने मिलकर यह सबकुछ पहले से तय किया होगा!
खैर बिसेसर बाबू के अनशन के तेरहवें दिन उनके पिता अपने बड़े भाई को लेकर लड़की वालों के यहाँ मिलने जुलने के बहाने से पहुँच गये। स्वाभाविक था कि लड़की वाले इस प्रस्ताव के लिए कहीं से कहीं तक तैयार नहीं थे और ना ही तैयार हुए। अलग अलग जात-बिरादरी का मामला था। इसमें लोकनिंदा और जगहँसाई होना तय था। लड़की वालों के घर से निराश होकर वे वापस आ गये।
बिसेसर बाबू को यह अंदेशा पहले से था कि ऐसा ही होगा। लेकिन तब तक उनका काम हो चुका था। यानी एक तरह से बिसेसर बाबू ने यह जुगत बैठाई थी कि किसी तरह से उनके परिवार वाले एक बार उनका रिश्‍ता लेकर सुमित्रा के गाँव में सुमित्रा के घर चले जायें। और दूसरी तरफ उसने अपने कुछ मित्रों की मदद से लड़की वालों के गाँव में यह खबर खूब प्रचारित करवा दी कि सुमित्रा से उनके रिश्‍ते की बात चल रही है और बात पक्की करने के लिए लड़के वाले, लड़की वालों के घर भी आ रहे हैं।
सुमित्रा के परिवार वालों ने उस समय भले ही विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया था, लेकिन पूरे गाँव में इस प्रेम प्रकरण और सम्भावित विवाह को लेकर दस मुँह की दस बातें बन गई थी, जिससे थककर हारकर आखिरकार लड़कीवालों को भी अपने हाथ टेकने पड़े थे।

बहरहाल बिससेर बाबू से जुड़े ये सारे किस्से काफी पुराने हैं, परन्तु बिसेसर बाबू की इस कथा के ये अनिवार्य हिस्से हैं, जिनके बगैर बात नहीं बनती है।
बिसेसर बाबू के बेटे राकेश ने मुझे बताया कि उनके पिता अभी दो महीने पहले ही पचहत्तर के हुए हैं। उनकी देह भले ही थक गई है, मगर इस उम्र में भी न उनसे अखबार छूटा है, न रोज की तरह सुबह-शाम घुमना फिरना और ना ही रामचरित मानस का पाठ!
बिसेसर बाबू के घर में शाम को नियमित रामचरित मानस का पाठ होता है। वे जब रामचरित मानस का पाठ करते हुए उसके भावार्थ को समझाते हैं, तो पूरा घर उनके ज्ञान, मानस के अध्ययन और जीवन-जगत से जुड़े विषयों पर उनकी पकड़ का कायल नज़र आता है। राकेश की पत्नी ममता और किशोरवय की ओर बढ़ती बेटी लोरी और बेटा दैविक भी बैठ के सुनते हैं। और कभी कभी राकेश भी, जब कभी वह घर में मौजूद होता है। बिसेसर बाबू मानस पढ़ते हुए चौपाइयों, दोहों की सटीक व्याख्या उनके संदर्भ और प्रसंग सहित बताते हैं और कईं दफे तो इस क्रम में वे कथा से जुड़ी अवान्तर कथाओं और मिथकों के बारे में भी रोचक बातें बताते हैं। इस तरह बिसेसर बाबू ने एक तरह से अपनी अगली पीढ़ी को परम्परा से हासिल अपने आध्यात्मिक संस्कार और मान्यताएँ भी दी हैं।
चूँकि अब वे बरसों से अखबार रोज ही पढ़ते हैं तो इस बहाने उनके ज्ञान-विज्ञान और सोच-विचार में काफी विस्तार और खुलापन आ गया है। वे चीजों और स्थितियों पर बेहद तार्किक होकर और आधुनिक रंग-ढंग से सोचने विचारने लगे हैं। हाँ, अगर किसी चीज का अफसोस है तो सिर्फ अपने गाँव के छूटने का है। गाँव अब भी उनके सपनों में आता है। वे अपने सपनों में गाँव को वहीं से देखते, जहाँ से उसे हमेशा के लिए छोड़ा था, यानी बीस साल पहले वाला गाँव! जबकि इस बीच गाँव की दशा और दिशा लगभग पूरी की पूरी बदल गई है, और उन्होंने भी इसे हमेशा नोटिस किया है, जब जब किसी अवसर पर उन्हें गाँव लौटने का मौका मिला है। गाँव में उनका पैतृक घर और खेत अब भी कायम हैं। घर खाली और सुनसान पड़ा है, जबकि खेत को उन्होंने अपने किसी रिश्‍तेदार को सालाना मुनाफे (बटाई) पर दे रखा है। वे ही खेती का सब लेना-देना देखते हैं। बिसेसर बाबू के परिवार को सालाना एकमुश्‍त तय राशि दे दी जाती है।
बिसेसर बाबू जब भी गाँव जाते, उनका मन खुश भी हो जाता और दुःखी भी। खुशी गाँव में कुछ समय के लिए लौटने की और गाँव के लोगों को अपनी आँखों से देखने की, अपने लोगों से मिलने और बातें करने की होती। और दुःख होता तो गाँव के छूटने का, गाँव की सरल जीवन शैली में घुस आए नए बदलावों का। वे गाँव के विकास से तो खुश होते थे, मगर गाँव का जो गाँवपन और लोकजीवन है, उसका जो शहरीकरण हुआ है, उससे कतई सहमत नहीं है।
बिसेसर बाबू दुखी हो जाते, जब सुबह से देर शाम तक कभी न खाली रहने वाले चबुतरे पर सन्नाटा पसरा हुआ देखते। काम की तलाश में या नौकरी-पानी के चक्कर में गाँव से चले गए अपने पहचानवालों या रिश्‍तेदारों के लिए भी उन्हें दुःख होता है, लेकिन वे जानते हैं कि जिस तरह उन्हें भी अपने इकलौते बेटे की नौकरी और इच्छाओं के आगे झूकना पड़ा है, जरूर ऐसी ही बड़ी मजबूरी हर किसी की रही होगी! वर्ना कौन अपने घर-द्वार को छोड़ता है! वे तो हनुमान मंदिर के आगे वाले उस इमली के पेड़ के लिए भी दुःखी हुए हैं, जिसे सड़क की चौड़ाई बढ़ाने के लिए उखाड़ दिया गया था। वे गाँव की काँकड़ पर सिंदूर पुते काँकड़ देवता के लिए भी दुःखी हुए हैं, जो गाँव की बढ़ती काँकड़ की वजह से कहीं गायब हो गए थे!
दरअस्ल अब इसे इस गाँव की अच्छी किस्मत कहिए या बुरी! मगर यह गाँव शहर जाने वाले मुख्य मार्ग से लगा हुआ है और शहर से ज्यादा दूर भी नहीं है। शहर जाने वाला यह मार्ग जबसे फोर लेन हाई-वे घोषित हुआ है, तब से तो पता नहीं गाँव की हवा ही पलट गई है। गाँव से लगे खेत महँगे दामों पर फटाफट बिक रहे हैं या बिकने को तैयार हैं। कभी कभी तो रात से सुबह तक में जमीन का भाव सवाया हो जाता है! जिस गाँव को बड़े बड़े प्राचीन पीपल के पेड़ों के लिए जानते-पहचानते थे, अब दूर से ही उसे चारों तरफ से घेरे मोबाइल टॉवर्स से पहचाना जाता है! बिसेसर बाबू अब जब-जब गाँव जाते हैं, उनके भीतर कुछ टूटता है! कुछ दरकता है! चूँकि पूरे गाँव की जमीनों के भाव लालच की सीमाओं को पार करते हुए बढ़ रहे हैं! तो स्वाभाविक है कि बिसेसर बाबू की जमीन का भाव भी बढ़ रहा है! इसलिए कईं दलाल, एजेन्ट्स, ब्रोकर्स टाइप लोग बिसेसर बाबू के घर और उनके बेटे राकेश के दफ्तर तक के चक्कर लगा चुके हैं। उन्हें अपनी जमीन बेचने के लिए तरह-तरह के लुभावने ऑफर तक दे चुके हैं! लेकिन बिसेसर बाबू अपनी जमीन किसी भी कीमत पर बेचने को तैयार न थे, न हैं। जबकि बिसेसर बाबू के खेत से लगी ज्यादातर जमीनें पूँजीपतियों का निवाला बन चुकी है। एक तरह से आप कह सकते हैं कि बिसेसर बाबू की जमीन अब शहर की बेखौफ पूँजी की आँखों में खटक रही है और वह इस जमीन के टुकड़े को निगल जाने के लिए आतुर है!
शैवाल की तरह बढ़ते पूँजी के शहरी अतिक्रमण की चपेट में बिसेसर बाबू के गाँव का आना, अब कुछ ही समय में तय माना जा रहा है। बिसेसर बाबू दुःखी होते कि उनके गाँव के खेतों में भी अब मल्टियाँ उगेंगी! गाँव भी अब शहर की तरह अपने पड़ोस से अनजान होगा या अनजान होने का दिखावा करेगा! दुनिया एक बंद मुट्ठी में होगी, एक ऐसी बंद मुट्ठी में जिसमें पाँचों उंगलियों का एक दूसरे से सीधे सीधे कोई परिचय या ताल्लुक नहीं होगा! और एक हाथ से दूसरे हाथ तक की दूरी, दो ग्रहों जितनी होगी, जिन्हें कोई ऑप्टीकल फायबर एक दूसरे को जोड़े रखेगी। बिससेर बाबू अक्सर अपने शहरी दोस्तों को बताते हैं कि पहले गाँव में जब कोई बाहरी व्यक्ति आता था, तो पता पूछने पर लोग उसे सम्बन्धित व्यक्ति के घर तक छोड़ आते थे! या गाँव में किसी के घर कोई मेहमान आता था, तो पूरे गाँव को यह पता होता था। गाँव के किसी एक के घर का जमाई, पूरे गाँव का जमाई हो जाता था! और किसी एक का मामा, पूरे गाँव का मामा! शहरों में ऐसी आत्मीयता, दूर्लभ है। बीस सालों के इस शहरी प्रवास में बिसेसर बाबू ने शहरों में ऐसी आत्मीयता को खूब खंगाला, लेकिन वे ज्यादातर निराश हुए। अपने बेटे राकेश की शहरी मित्र मण्डली को भी वे देखते तो निराश ही होते कि ज्यादातर रिश्‍ते तो महज व्यावसायिक और दिखावटी ही हैं!
बिसेसर बाबू जब देखते कि उनकी किशोरवय पोती जो बमुश्किल सत्रह की है, उसकी सहेलियाँ जिस भाषा और संस्कार में जीती और खुद को प्रस्तुत करती हैं, वह उनके मन में आने वाले समय के प्रति अंदेशें भरता है। हालाँकि वे यह देखकर और जानकर खुद के मन को समझा लेते हैं कि कम से कम उन्होंने तो अपने बेटे, बहू और पोते-पोती के जीवन में आदर्श और संस्कार दिये हैं और सबसे अच्छा है कि उन्होंने उन्हें कुछ अच्छी स्मृतियाँ दी हैं, जो उन्हें समय के साथ मनुष्य बने रहने के लिए जरूरत पड़ने पर जरूरी आत्मबल और नैतिक साहस देगी! किसी व्यक्ति से उसकी स्मृतियाँ छिन लेना, उसका परिचय छिन लेना है! स्मृतिहीन मनुष्य, और एक चट्टान में कोई खास फर्क नहीं होता है! बिसेसर बाबू अक्सर ऐसा सोचते हैं!
बिसेसर बाबू को जब जब अपने गाँव में लगने वाले मेले की याद आती या बात निकलती तो वे मेले में लगने वाले तम्बु सिनेमा यानी टूरिंग टॉकिज के दौर को भी याद करते हैं, जो अब मेलों से डायनासोर की तरह विलुप्त हो गया है! एक बार वे अपनी पोती को टूरिंग सिनेमा के बारे में बता रहे थे कि कैसे उनका पूरा का पूरा कुनबा मेले में बैलगाड़ियों पर बैठकर मेले में घूमने-फिरने और खरीददारी करने जाता था। और फिर मेले में तम्बु सिनेमा में साथ बैठकर सिनेमा देखा जाता था, वो भी नीचे जमीन पर दरियाँ या कोई बिछौना बिछाकर और तो और ये बिछौना भी सिनेमा देखने वाले दर्शक अपने अपने घर से लेकर आते थे। फिर वे उसे बताते कि कैसे सिनेमा शुरू होने से पहले आरती गाई जाती थी। मेले में कैसे कैसे नौटंकी-खेला, सर्कस वगैरह उन दिनों होते थे! इस तरह पुराने किस्सों के जरिए पुरानी स्मृतियों में खोकर बिसेसर बाबू अपने समय को जीकर फिर लौट आते हैं! ऐसा भी नहीं है कि बिसेसर बाबू इस आधुनिकता के घोर शत्रु हैं। इस बीस साला शहरी जीवन ने उन्हें तकनीक की जरूरत और समाज के लिए उसकी अनिवार्यता के अनेकों पाठ देखने, सुनने और समझने को मिले हैं। इसीलिए उन्हें अपनी जवान होती पोती लोरी के हाथ में मोबाइल, घर में टीवी की उपस्थिति और अपनी बहू एवं पोते-पोती के कभी कभी थोड़े आधुनिक पहनावों पर कभी कोई आपत्ति नहीं रही है। और ना ही उनकी पत्नी सुमित्रा को रही है। हालाँकि उनकी बहू ममता खुद ही बहुत समझदार है और अपने पहरावे और संस्कार के प्रति सजग और चौकन्नी है।
समय के साथ सुमित्रा भी बिसेसर बाबू के रंग-ढंग में पूरी तरह रंग चुकी है। वैसे भी उन्होंने तो विवाह के पूर्व ही बिसेसर बाबू के सिद्धान्तों और विचारों को जीना सीख लिया था! इसीलिए तो उन्होंने बिसेसर बाबू की उस अहिंसक भूख हड़ताल वाली योजना में अपना पूरा पूरा सहयोग दिया था, जिसकी बदौलत उनकी शादी सम्भव हो पाई थी!
खैर बिसेसर बाबू किसी भी तरह से अपनी जमीन बेचने को तैयार नहीं है, जबकि शहर का आक्रमण उनके गाँव की ओर तेजी से बढ़ रहा है। खेती की जमीन को शहरी हाथों में बेचने या सौंपने का तुक उनकी समझ से परे है! उन्हें तो समझ नहीं आ रहा है कि अधिकांश गाँव वालों को लालच ने क्या इतना अँधा कर दिया है कि वे अपने गाँव की अच्छी भली उपजाऊ और सिंचित जमीनों को कंक्रीट में तब्दील करने पर तुले हुए हैं! कृषि भूमि को गैर कृषि मकसद में गँवा रहे हैं!
कभी कभी बिसेसर बाबू गाँव के करीब से निकले हाई-वे को भी कोसने लगते हैं! वे अनुमान लगाने लगते कि उनके देखते देखते शहर की सीमा कितनी बढ़ गई है! फिर वे थोड़ा और आगे का अनुमान लगाकर देखते कि आने वाले दस बीस साल में शहर की सीमाएँ कहाँ तक पहुँच जाएँगी! फिर वे थोड़ा और समय की सीमारेखा को उल्लांघते तो देखते कि शहर दूर दूर तक फैले सारे गाँवों को अजगर की तरह औखा निकल चुका है! सोचते सोचते वे घबराने लगते और फिर समय की सीमारेखा को और आगे खींचना उनके साहस की सीमा से परे हो जाता, क्योंकि वहाँ एक शहर का दूसरे शहर की सीमा तक असमाप्त सिलसिला होता! इस तरह पूरा देश शहर हो जाता हुआ दिखता! गाँव कहीं नहीं होता! पूरे देश में शहर ही शहर! सिर्फ शहरों वाला देश! पूरी दुनिया में सिर्फ शहर ही शहर! सिर्फ शहरों वाली दुनिया! गाँव बचा हुआ है सिर्फ किताबों में! और किताबें सिर्फ डिजीटल फार्मेट में!
बिसेसर बाबू ऐसे बेतरतीब खयालों और ख्वाबों को देखकर या सोचकर ही दहल जाते! क्योंकि वे शहरी निर्दयता और क्रूरता से भली तरह वाकिफ हो चुके हैं! वे जिन अखबारों को पढ़ने के आदी हो चुके हैं, उनमें आधी खबरों पर तो लुभावने बाज़ार का कब्जा होता है और शेष आधी खबरों में चोरी, डकैती, रेप, छेड़खानी, हिंसा, उपद्रव, लूट, तरह तरह की दुर्घटनाएँ, भ्रष्टाचार, घोटालें, दंगें, मॉब लिंचिंग वगैरह वगैरह ही छपा होता है। कईं बार तो उन्हें अखबार से भी घृणा होने लगती है, जैसे उन्हें टीवी के समाचार चैनलों से हो चुकी है!
एक बार अखबार पढ़ते पढ़ते उन्होंने अपने बेटे राकेश से अचानक पूछ लिया, -‘ये इतने सारे रंगीन विज्ञापन किस बात के हैं बेटा! इधर देख तो! रोज आते हैं!’’ राकेश ने अखबार में देखा तो वे विज्ञापन ‘दोस्ती’ के थे! फोन पर दोस्ती के विज्ञापन! मोबाइल लगाओ और लड़कियों से दोस्ती करो! राकेश जानता था कि इन विज्ञापनों के जरिए दोस्ती की आड़ में क्या और कैसा गोरखधंधा होता है! और कैसी दोस्ती की बातें होती हैं! चाहे जैसी बातें करो! चाहे जितनी बातें करो! बस  आपके जेब और मोबाइल में बेलेन्स खुटना नहीं चाहिए! खैर तब राकेश ने बिसेसर बाबू को जो और जितना हो सका, विज्ञापन के बारे में बताया था।
बिसेसर बाबू दुःखी रहने लगे हैं कि आज नहीं तो कल, उनकी जमीन भी शहर लील जाएगा! वे इस भयावह कल्पना से भी डर जाते कि उनके खेत वाली जमीन पर एक बड़ा-सा सीमेन्ट और लोहे का पहाड़ खड़ा हो जाएगा! फिर उन्हें खयाल आता कि उनके खेत के पीछे जो खोदरा (बरसाती नाला) बहता है, उसके पीलु के पेड़ पर जो किसन्या की आत्मा रहती है, क्या वह आसपास बसने वालों को तब चैन से सोने देगी ? किसन्या, बिसेसर बाबू के गाँव का ही था,  और उस समय उनका हमउम्र भी था और अपनी जवानी के दिनों में ही उसने उसी पीलु के पेड़ पर फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। और वे जानते थे कि किसन्या जब जिंदा था, तब भी बहुत खुरापाती और गुस्सैल स्वभाव का था! फिर उन्हें ठीक इसका उलट खयाल भी आया कि क्या वह पीलु का पेड़ ही तब बच पाएगा, जिसपर किसन्या रहता है? और अगर वह पीलु भी विकास की भेंट चढ़ गया, तब किसन्या की आत्मा क्या करेगी ? कहाँ रहेगी ?
खैर बिसेसर बाबू अपनी जमीन के भविष्य को लेकर आशंकित, चिंतित और दुःखी तो हैं, लेकिन उन्हें अपने बेटे राकेश पर भी उतना ही यकीन है! वे जानते हैं कि उनका बेटा, उनके बाद भी उनकी सीख और विचारों को आगे बढ़ाएगा। यही उनके जीवन की सच्ची कमाई है और सच्चा सुख भी, जो उनके हर दुःख पर भारी है।
राकेश ने भी अपने पिता की तरह ही ममता से प्रेम विवाह किया था। दरअस्ल पढ़ाई के सिलसिले में राकेश जब शहर को आया था, तो फिर शहर का ही होकर रह गया था। कॉलेज में उसके साथ पढ़ने वाली ममता से उसका प्रेम कॉलेज के दिनों में ही सार्वजनिक हो चुका था। बसेसर बाबू की प्रेम कहानी की तरह उनके बेटे राकेश की प्रेम कहानी में भी विलेन कमजोर नहीं था! लेकिन गाँव के ‘विलेन’ और शहर के ‘विलेन’ में बहुत फर्क होता है! शहर के विलेन ने, गाँव की विलेन की तरह राकेश को भरे कॉलेज में पीटा या पिटवाया नहीं, और ना ही धमकाया, बल्कि शहर के विलेन ने राकेश को कॉलेज से ही निकलवा दिया! वह जिस क्षेत्र में किराये की खोली में रहता था, उस खोली से भी निकलवा दिया और उस क्षेत्र में उसके लिए मकान मिलना तक मुश्किल कर दिया। वो ऐसे दिन थे, जब राकेश टूट सकता था! लेकिन उसे इस मुश्किल समय से बाहर निकालकर लाए थे, उसके पिता बसेसर बाबू!
राकेश ने बताया कि अपने उन कठिन दिनों में जब राकेश सब तरह निराश और हताश होकर उम्मीद के सब रास्ते खो चुका था, तब किसी कच्ची नींद में उसके पिता उसके सपने में आए थे और उन्होंने उसे अपने प्रेम विवाह की कहानी फिर से सुनाई थी। अपने पिता की इस पहले से ज्ञात कहानी में राकेश को जाने कौन-सा नया सूत्र मिल गया था कि उसने अपने बचे खुचे आत्मविश्‍वास को फिर से खंगाला, इकट्ठा किया और आगे के लिए एक दमदार योजना बना डाली!

अब चूँकि विलेन शहर का था, तो भावी योजना भी शहर के विलेन के हिसाब से होनी थी। राकेश सबसे पहले तो अपने कॉलेज के प्रिंसिपल से मिला और अपने किये के लिए क्षमा माँगी। इससे वह अपनी शिक्षा की शेष अवधि पूरी करने और परीक्षा में बैठने की अनुमति माँगने में सफल रहा। फिर घर आकर उसने दो पत्र लिखे। एक ममता को और एक उसके पिता को। ममता को राकेश ने माफी माँगते हुए लिखा कि, -‘हो सके तो मुझे माफ कर देना ममता! मैं यहाँ अपने पिता के सपनों और अपने अतीत के अभावों से मुक्ति के लिए पढ़ने आया था। यदि पढ़ नहीं पाया तो निश्‍चय ही कुछ बन भी नहीं पाऊँगा। मुझे विश्‍वास है, ऐसा तुम भी नहीं चाहोगी! मुख्य परीक्षा को महज कुछ ही समय शेष हैं। और मैं बेहतर परिणाम को लेकर आश्‍वस्‍त हूँ। यदि विश्‍वास के साथ मेरी प्रतीक्षा कर सको तो मैं सदैव तुम्हारा हूँ। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में मुझे तुमसे दूरियाँ बनाकर रखना पड़ेगी और तुम्हें भी इसमें मेरा साथ देना होगा। - तुम्हारा राकेश।’’
फिर दूसरा पत्र राकेश ने ममता के पिता को लिखा कि, -‘श्रीमान यादवजी, मैं अपने किये पर शर्मिन्दा हूँ और यदि मेरे कारण आपकी लोकनिंदा हुई हो तो हृदय से क्षमा चाहता हूँ। कॉलेज में अब आपको मेरी ओर से कोई शिकायत नहीं मिलेगी, ऐसा विश्‍वास रखें। मैं अपने पिता के सपनों को पूरा करने का संकल्प लेकर घर से निकला हूँ और अपने इस संकल्प पर प्रतिबद्ध हूँ। जीवन में कुछ बन पाया तो निश्‍चय ही आपसे मिलने का साहस कर पाऊँगा। और मैं विश्‍वास से भरा हूँ कि भविष्य मुझे ऐसा अवसर अवश्‍य देगा। फिलहाल मेरे शब्दों पर भरोसा रखें। पुनः क्षमा याचना सहित- राकेश।’
कॉलेज में परीक्षाओं के बाद से ही स्थाई रोजगार की तलाश में राकेश ने जी जान लगा दी और बहुत हाथ-पैर मारने के बाद आखिरकार साल भर के भीतर ही उसे पोस्ट ऑफिस में बाबू की सरकारी नौकरी मिल चुकी थी। नौकरी मिलते ही सबसे पहले उसने अपने पिता बिसेसर बाबू को शहर लाने का अभियान चलाया। बिसेसर बाबू को गाँव से शहर लाना इतना आसान भी न था। लेकिन अंततः अपने बेटे की जिद और उन्हीं दिनों सुमित्रा के इलाज के लिए वे लम्बे प्रवास पर शहर आए तो फिर राकेश ने उन्हें गाँव वापस जाने ही नहीं दिया था।
अपने पिता को शहर लाने की इस एक बड़ी योजना से सफल हुआ तो फिर राकेश के लिए दूसरी योजना पर काम करने का समय आ गया था। अपनी मंशा और योजना के अनुसार अपनी प्रेमिका ममता को दिये वचन को निभाने के लिए राकेश ने ममता के पिता से मुलाकात करने के बारे में सोचा। और वह मिला भी। लेकिन ममता के पिता नहीं माने थे। बावजूद इसके कि वह अब एक अच्छी भली नौकरी करने लगा था। खैर राकेश को अपने पिता की प्रेम विवाह वाली कहानी याद थी और उस कहानी से मिली सीख भी!
ममता ने भी कॉलेज की शिक्षा खत्म होने के बाद शहर में ही रंगमंच से जुड़ी एक संस्था से जुड़कर अभिनय करना शुरू कर दिया था। कॉलेज में शौकिया तौर पर नाटक वगैरह करने वाली ममता अब रंगमंच और अभिनय के प्रति गम्भीर हो गई थी। राकेश ने भी उसी रंगमंच संस्था की सदस्यता ले ली। फिर कुछ ही दिनों बाद ममता और राकेश ने ढेर सारे नाटकों में साथ-साथ अभिनय किया। उनकी जोड़ी को रंगमंच पर बहुत सराहना मिलने लगी थीं। इस बीच राकेश ने एक नए रोमांटिक नाटक की अभिकल्पना की और उसकी स्क्रीप्ट वगैरह सभी कुछ खुद ही फाइनल किया। इस नाटक के लिए उसने अपना और ममता का एक जोड़े की तरह खींचा गया एक विशेष और आकर्षक चित्र बनवाया और उसके बड़े-बड़े बैनर, पोस्टर बनवाकर पूरे शहर भर में लगवाए। राकेश ने अपने इस बहुप्रतीक्षित नाटक के कुछ बड़े बड़े पोस्टर्स ममता के घर की तरफ वाले इलाके में जानबूझकर लगवाए। और एक सबसे बड़ा पोस्टर तो ममता के घर के वाली गली के मुहाने पर ही लगवाया था, इस तर्क के साथ कि इससे नाटक को स्थानीय लोकप्रियता हासिल होगी।
इस पोस्टर काण्ड का ममता के पिता पर गहरा असर हुआ। और इस बीच ममता भी अपने पिता के आगे पीछे उन दिनों लगातार जिद करती रही थी कि राकेश के लिए वे अपनी सहमति दे दें।
यह कैसे सम्भव था कि बिसेसर बाबू को राकेश के प्रेम प्रसंग की भनक भी न लगती। जब बिसेसर बाबू को पता लगा तो वे स्वयं ममता के पिता से मिलने सीधे उनके पास चले गए। ममता के पिता पर एक किस्म से चौतरफा दबाव तो पहले से ही था, पूरे शहर भर में लगे पोस्टर्स से सौ तरह की बातें उनके कान तक अलग से आई थीं। उस पर बिसेसर बाबू ने ऐसी ज्ञान की घुट्टी पिलाई कि शहरी विलेन मान गया था। बाद में कभी कभी राकेश अपने पिता से पूछता भी था कि उन्होंने आखिर ऐसा क्या कहा था, तो बिसेसर बाबू हमेशा की तरह सिर्फ मुस्करा भर देते थे। ज्यादा इसरार करने पर एक दफे उन्होंने सिर्फ इतना बताया था कि, -‘मैंने ममता के पिता से सिर्फ इतना पूछा कि ये बच्चे हमसे हमारी इच्छा और सहमति चाहते हैं। क्या ये बड़ी बात नहीं है! क्या होता, अगर ये हमारी इच्छा के विरूद्ध घर से भाग जाते और कुछ समय बाद गोद में बच्चे को लेकर आते? तब की स्थितियाँ तो शायद और भी बदतर होती!’ अब ये तो भगवान ही जाने कि ये बसेसर बाबू की बातों का असर था या परिस्थितियों की नजाकत का या शहरी विलेन की क्रूरता में अचानक आई मंदी का असर था! खैर उस समय ममता से राकेश का विवाह बड़ी धूमधाम से हुआ था।
खैर राकेश के विवाह की यह कथा भी एक तरह से बिसेसर बाबू के कथा की वैचारिक पृष्ठभूमि को पुख्ता करने के प्रयास में कही गई है।

बिसेसर बाबू नियमित रामचरित मानस का पाठ भी करते रहे है, पाठ के साथ भावार्थ बताते हुए भी अक्सर वे अपनी इसी विचारधारा के उदाहरण दिया करते हैं। जब लोरी और दैविक किसी प्रसंग या व्याख्या को समझ नहीं पाते या तार्किकता की कसौटी पर उन प्रसंगों को बूझ नहीं पाते हैं तब उनका नियमित अखबार का अध्ययन काम आता है। ऐसे ही जब एक दफे लोरी ने रामचरित मानस के पाठ के दौरान बिसेसर बाबू से पूछ लिया था कि, -‘तुलसी बाबा ने पूरे मानस में महिलाओं को लेकर इतनी तुच्छ टिप्पणियाँ क्यों लिखी हैं ?’  तो बिसेसर बाबू चौंके नहीं, बल्कि वे खुश हुए कि लोरी ने एक जरूरी और अच्छा प्रश्‍न पूछा है।
उस दिन बिसेसर बाबू ने रामचरित मानस के अरण्यकाण्ड का यह सोरठा पढ़ा था, -‘सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ। जसु गावत श्रुति चारि अजहुँ तुलसिका हरिहि प्रिय।’ जिसका भावार्थ पढ़ते हुए वे बोले, -‘नारी तो अपने सहज स्वभाव से ही अपावन होती है, वह अपने पति की निस्वार्थ सेवा कर अच्छी गति को प्राप्त करती है। तुलसीदास जी कहते हैं कि ...।’ लोरी रामचरितमानस की उन पंक्तियों के भावार्थ पर कुछ क्षणों के लिए ठिठक गई। सम्भवतः वह असमंजस में रही कि दादा से इस बारे में पूछे कि नहीं पूछे ? फिर भी लोरी ने अपने मन की उत्कंठा में आकर अपने दादा से भावार्थ के बीच में ही टोकते हुए पूछा था।
हालाँकि यह कोई पहली बार नहीं था, जब मानस पाठ के दौरान ऐसी कोई पंक्ति आई थी, बल्कि रामचरितमानस के बालकाण्ड और अयोध्याकाण्ड में भी ऐसी कईं पंक्तियाँ आई हैं जिनमें तुलसी बाबा ने नारी को अत्यन्त हीन, दीन और कहीं कहीं तो पाप की जड़ तक बताया है। लोरी के स्कूल में भी एक बार एक वाद-विवाद की एक प्रतियोगिता के दौरान किसी प्रतियोगी ने रामचरित मानस के सुंदरकाण्ड की एक चौपाई बोली थी, जिसपर खूब बहस हुई थी, वह उसे आज भी याद है, ‘ढोल गँवार सूद्र पसु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।’ 
बिसेसर बाबू ने लोरी को समझाते हुए बताया कि, -‘तुलसी बाबा ने शायद उस समय और काल के परिप्रेक्ष्य में और तात्कालीन समाज व्यवस्था के संदर्भ में ऐसा लिखा होगा। समाज में स्त्री की जैसी दशा और स्थान होता है, उसका सच्चा विवरण करना भी तो लेखक के लिए जरूरी होता है। फिर एक दूसरा पक्ष यह भी कि रामचरित मानस तुलसी का वैचारिक आधार ग्रंथ है और सीता जो इसकी नायिका है, मूलतः एक आदर्श विवाहिता की तरह इसमें प्रस्तुत है। तो यह भी सम्भव है कि अपने प्रमुख पात्र के चरित्र को ध्यान में रखते हुए तुलसी बाबा ने नारी को इस तरह चित्रित किया हो!’
लोरी को बिसेसर बाबू की कुछ बातें समझ आई, कुछ नहीं आई, लेकिन वह बोली कुछ भी नहीं। जब उसने और कुछ नहीं पूछा तो फिर अपनी ही बात के समर्थन में बिसेसर बाबू ने आगे समझाते हुए बताया कि, -‘मानस में अधिकांश जगहों पर तुलसी बाबा ने सिर्फ ऐसी नारियों को गरियारा है जो पतिव्रत धर्म और स्वभाव से व्याभिचारी हैं। इससे ज्यादा तो तुलसी बाबा ने माता सीता और इस रामचरित मानस की सूत्रधार माता पार्वती के दैवीय रूप और शक्तियों का बखान किया है। उन्हें भी तो इसी के संदर्भ में देखा जाना चाहिए।’
लोरी अपने दादा के तर्क से अब सहमत नज़र आई। राकेश और ममता बिसेसर बाबू के ज्ञान और मानस पर उनकी पकड़ से यूँ तो पहले से ही वाकिफ हैं, फिर भी उस दिन जिस तरह वे लोरी को समझा रहे थे, उससे वे मन ही मन और अधिक प्रसन्न हो रहे थे। हैरत में तो लोरी भी थी। इसका एक बड़ा कारण तो यह भी था कि वह जानती थी कि उसके दादा ने बहुत ज्यादा शिक्षा हासिल नहीं की थी। उसी रात लोरी ने अपने पिता राकेश से पूछा भी था, -‘‘पापा! दादाजी जब इतने पढ़े लिखे नहीं हैं तो इतनी गहरी बातें कैसे बूझ और समझ लेते हैं ?’
राकेश अपनी बेटी लोरी की जिज्ञासा को समझ रहे थे और उसकी हैरानी पर खुश भी हो रहे थे। उसने लोरी को समझाते हुए बोला, -‘बेटा! स्कूली शिक्षा और विवेक दो भिन्न चीजें होती हैं। जैसे मेरी माँ यानी तुम्हारी दादी तो बिल्कुल भी पढ़ी लिखी नहीं है। इसका ये मतलब तो नहीं कि वे अज्ञानी हैं। तुम्हारी दादी शायद हमसे ज्यादा लोक-व्यवहार और दुनियादार है।’
-‘पापा, आपकी बात तो सही है। लेकिन यह तो एक किस्म से स्कूली शिक्षा के औचित्य को खारिज करना हुआ ?’ लोरी ने अपने मन में उठी अपनी शंका जाहिर की।
-‘स्कूली शिक्षा की आवश्‍यकता है बेटा! खासकर इस नए जमाने में। इसका मकसद हमारे दिमाग को विकसित करना है, दुनिया के ज्ञान को हासिल करते हुए अपनी सोच को व्यापक बनाना है। यह स्कूली शिक्षा से आसानी से सम्भव है, यह एक माध्यम है, लेकिन सिर्फ स्कूली शिक्षा से ही यह सम्भव है, ऐसा नहीं है। स्कूली शिक्षा प्राप्त करना एक अलग बात है और दुनियावी विवेक होना और हासिल करना दूसरी चीज है।’ राकेश ने भरसक अपनी लाड़ली बेटी को समझाते हुए कहा था।
-‘अच्छा चलो इस चेप्टर को यहीं क्लोज़ करो! अगले बुधवार को दादाजी का पचहत्तरवाँ जन्मदिन है! क्या प्लानिंग है बताओ!’ लोरी ने अचानक विषयांतर करते हुए कहा, इस कारण राकेश भी थोड़ा चौंक गया।
-‘हूँऽऽ ... तुम बताओ ?’ राकेश को तत्काल कुछ न सूझा।
-‘ठीक है, मैं मम्मी से डिस्कस करके फिर बताती हूँ।’ कहकर लोरी चली गई।
लेकिन बिसेसर बाबू के पचहत्तरवें जन्मदिन से ठीक एक दिन पहले जो घटना हुई, उसने पूरे घर को तनाव से भर दिया। दरअस्ल उस दिन दोपहर में राकेश से मिलने दो लोग उसके दफ्तर में आए थे।
-‘मि. राकेश! मेरा नाम डी. के. सक्सेना है।’ अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए जब एक शख्स ने राकेश को अपना परिचय दिया तो राकेश उसे पहचान नहीं पाया। मि. सक्सेना शक्लोसूरत से अच्छे खासे खाते-पीते घर का लग रहा था और उसके पहरावे से भी लग रहा था कि वह खासी कमाई करने वाला व्यक्ति होगा।
-‘जी कहिए!’ राकेश अपनी सीट से उठा और हाथ मिलाते हुए बोला। फिर उसने मि. सक्सेना के साथ आए उस दूसरे व्यक्ति से भी हाथ मिलाया, जो मि. सक्सेना की बगल में हाथ बाँधे सिर्फ खड़ा हुआ था, जैसे वह मि. सक्सेना का कोई बॉडीगार्ड हो।
-‘मि. राकेश। क्या सोचा कुछ आपने ?’ मि. सक्सेना ने ऐसे पूछा जैसे राकेश उसके कहे के आशय को आसानी से समझ जाएगा। लेकिन शायद राकेश समझने के बावजूद अंजान बना रहा या अंजान बनने की कोशिश करता रहा, इसलिए झट पूछा, -‘किस बारे में मि. सक्सेना ? मैं कुछ समझा नहीं!’
-‘आपकी गाँव वाली जमीन के बारे में ? आपसे हमारे मैनेजर विकास ने इस बारे में कईं बार बात की होगी ?’ मि. सक्सेना ने अपने आने के मकसद को स्पष्ट किया।
-‘ओऽऽ हाँ! तो विकासजी आपके लिए काम करते हैं ?’ राकेश ने मामूली अचरज प्रकट करते हुए कहा।
-‘सिर्फ विकास ही नहीं! हमारे कुछ एजेन्ट्स भी आपसे लगातार मिलते रहे हैं! लेकिन आप अभी तक उन सबको टालते ही रहे हैं! मजबूर होकर मुझे खुद आपसे मिलने आना पड़ा!’ मि. सक्सेना कुछ इस तरह रौब से बोले, जैसे उसका यहाँ आना उसके जीवन की बहुत बड़ी घटना हो!
-‘मेरा तो अब भी वही जवाब है!’ राकेश ने संक्षिप्त में ही जवाब दिया।
-‘मि. राकेश! आप तो जानते ही हैं कि हमने आपके पास वाले दोनों खेत खरीद रखे हैं। और आपके खेत के पीछे वाले खेत की डील भी हमने अभी दो दिन पहले ही फायनल की हैं।’ मि. सक्सेना अबकी बार बिना पलक झपकाए राकेश की आँखों में आँखें डालकर बोला। फिर अपनी आवाज को भरसक मोटी करते हुए बोला, -‘और मैं आपको उन दोनों खेत से ज्यादा दाम देने को तैयार हूँ। फिर से सोच लेंगे तो सबके लिए बेहतर होगा ?’ मि. सक्सेना ने यह कुछ इस तरह कहा था कि उसके कहे में धमकी वाली टोन अपने आप चली आई, जिसका कि वह आदी हो चुका था।
-‘बहुत अच्छी तरह सोच चुका हूँ मैं मि. सक्सेना! और विकासजी को में इस बारे में पहले ही सब कुछ बता चुका हूँ। आप अपना वक्त बर्बाद कर रहे हैं सिर्फ!’ राकेश ने रूढ़ होते हुए तो नहीं कहा था लेकिन उसके कहे में सख्त लहजा स्पष्ट था।
-‘ऐसा है मि. राकेश! वो जमीन लेना हमारे लिए कोई बड़ा मुशिकल काम भी नहीं है! लेकिन जब तक सीधी उँगली से घी निकल रहा हो तो उँगली टेढ़ी ही क्यों की जाए?’ मि. सक्सेना ने अबकी कहा तो राकेश ने उन्हें हाथ जोड़कर कह दिया, -‘मुझे अभी बहुत सारा काम है मि. सक्सेना। आप फिर कभी आ जाइएगा।’
मि. सक्सेना को पहले से ही राकेश से ऐसे जवाब की उम्मीद रही होगी, इसलिए उसने राकेश की बात का उतना भी बुरा नहीं माना, बल्कि वह एक क्रूर मुस्कुराहट के साथ बोला, -‘एक छोटा-सा किस्सा है। वो जरूर सुन लीजिए। फिर आप भी अपना काम कीजिएगा और मुझे जो करना है, वो तो मैं करूँगा ही!’
राकेश जब प्रत्युत्तर में कुछ नहीं बोला तो मि. सक्सेना ही बोले, -‘हमारे इंदौर वाले प्रोजेक्ट में भी ऐसे ही एक प्लॉट बीच में आ रहा था। जानते हैं, क्या हुआ था उसमें ? उसकी जमीन में एक हनुमानजी की मूर्ति निकली और बाद में वह प्लॉट वाला खुद हमें जमीन बेचने आया था!’’ राकेश को मि. सक्सेना का किस्सा पूरी तरह समझ नहीं आया, और मि. सक्सेना ने भी हाव-भाव से यह ताड़ लिया कि उसे और अधिक स्पष्ट होने की जरूरत है! मि. सक्सेना बात को थोड़ा स्पष्ट करते हुए बोले, -‘दरअस्ल! जब वो प्लॉट वाला किसी तरह मान नहीं रहा था तो हमने उसके प्लॉट को एक धार्मिक मसले में उलझा दिया। हमने एक मंदिर के पुजारी को पैसे दिए और उसे कहा कि वो घोषणा करे कि उसने एक सपना देखा है कि इस प्लॉट वाली जगह पर हनुमानजी की मूर्ति दबी हुई है और यह जगह हनुमान मंदिर के लिए है। ऐसा हनुमान जी ने खुद उसे सपने में आकर कहा है। फिर उस पुजारी ने वैसा ही किया और हमारे लोगों ने वहाँ के रहवासियों के सामने जब उस प्लॉट की खुदाई की तो उसमें से हनुमान जी की एक प्राचीन मूर्ति निकली, जिसे हमारे ही लोगों ने उस प्लॉट में पहले से खोदकर रख दिया था।’ मि. सक्सेना ने जब इस घटना को सुनाया तो एक बारगी राकेश को भी थोड़ा झटका लगा। फिर उसने मि. सक्सेना की आँखों में देखकर गहरे अर्थों से पूछा, -‘तो आपका आशय है, हमारे खेत में भी ऐसा ही होगा ?’
-‘हो सकता है, ऐसा ही हो मि. राकेश! या हो सकता है कि कोई मज़ार भी निकल जाए?’ कहकर मि. सक्सेना अपने ही मजाक पर खुद हँस दिया। फिर तत्काल वापस गम्भीर होते हुए लगभग एक एक शब्द को चबाकर बोला, -‘और ये भी हो सकता है मि. राकेश कि आपके खेत में कोई लाश निकल जाए। लाश जिसका ताजा ताजा कत्ल हुआ हो ?’
मि. सक्सेना की इस धमकी ने राकेश को एकदम घबरा दिया। उसे कुछ नहीं सूझा। लेकिन वह कुछ नरम पड़ते हुए बोला, -‘मि. सक्सेना! मैं अपने पिताजी बात करके आपको बाद में बताता हूँ।’
मि. सक्सेना जानते थे कि राकेश इस तरह मामले को टालना चाह रहा है, इसलिए वे आगे बोले, -‘अच्छी तरह सोच लीजिए मि. राकेश! क्योंकि अब मैं जब जब आपसे मिलने आऊँगा, तब तब आपके खेत में एक लाश भी दबाई जा सकती है! आप समझदार हैं, सोचकर जवाब दीजिएगा। और फिर मैं जमीन की जो कीमत दे रहा हूँ, वो भी कुछ कम नहीं है!’ सक्सेना ने कहा और राकेश को क्षणभर के लिए घूरा फिर अपने साथ आए उस शख्स के साथ वापस लौट गया।
मि. सक्सेना से आज हुई इस मुलाकात ने राकेश को भीतर से हिलाकर रख दिया था। राकेश चाहता तो यही था कि वह अपने पिता को मि. सक्सेना से हुई बातचीत के बारे में न बतलाए, लेकिन न बतलाए जाने पर समस्या का कोई हल निकलता भी उसे नज़र नहीं आ रहा था। पुलिस के पास जाने और मि. सक्सेना के विरूद्ध रिपोर्ट लिखाने का तुक भी उसे समझ नहीं आया। मि. सक्सेना अपने बयान से भी बदल सकता था और यदि नहीं बदलता है तो भी वह अपने रसूख से मामले को और ज्यादा मुश्किल कर सकता है। शाम को पूरा वाकिया सुनकर बिसेसर बाबू भी गम्भीर सोच में डूब गए। फिर भी अपने बेटे का हौंसला रखते हुए बोले, -‘ठीक है! सोचते हैं कुछ इस बारे में। अभी तुम फिक्र मत करो। मैं कुछ देखता हूँ।’ बिसेसर बाबू ने कह तो दिया लेकिन हाल-फिलहाल में उनके खुद के पास इस समस्या का कोई हल नहीं था। उस रात बिसेसर बाबू ने देश के प्रधानमंत्री के नाम एक लम्बी चिट्ठी लिखी, जिसमें उन्होंने विशेषतौर पर प्रधानमंत्री को यह सलाह दी कि कृषि योग्य भूमियों की खरीदी-बिक्री सिर्फ कृषि प्रयोजन के लिए ही होनी चाहिए, ऐसा अध्यादेश शीघ्र लाएँ।
खैर बिसेसर बाबू के जन्मदिन के ऐन एक दिन पहले आ खड़ी इस समस्या की वजह से पूरे घर का माहौल बदल गया। और दूसरे दिन बिसेसर बाबू का पचहत्तरवाँ जन्मदिन एक औपचारिकता बनकर रह गया। हालाँकि लोरी और दैविक ने अपने प्यारे दादाजी के जन्मदिन को खास बनाने के लिए घर में भगवान सत्यनारायण की कथा का आयोजन किया था और राकेश ने भी शाम को बिसेसर बाबू के कुछ मिलने जुलने वाले उनके हमउम्रों को दावत पर भी बुलाया था।
अगले दिन लोरी अपने कोचिंग सेंटर से जब देर शाम तक नहीं लौटी तो पूरे घर की साँसें ऊपर-नीचे होने लगी। यूँ बारहवीं में पढ़ने वाली लोरी अपनी उम्र से अधिक समझदार है और दिखने में भी वह अपनी उम्र से अधिक ही लगती है। अमूमन लोरी कोचिंग सेंटर से सवा छः बजे के आसपास तक लौट आती है। लेकिन उस दिन जब अपने समय से नहीं लौटी और उसका फोन भी लगातार स्वीच ऑफ आता रहा तो ममता ने बिसेसर बाबू को चिंता जताते हुए कहा, -‘लोरी अभी तक नहीं आई बाबूजी! जरा कोचिंग सेंटर से फोन करके पूछिए ना!’
बिसेसर बाबू ने पहले तो अपनी बहू ममता को समझा दिया कि थोड़ी देर और प्रतीक्षा कर लेते हैं, फिर वे फोन लगाकर पूछेंगे।
बिसेसर बाबू ने कह तो दिया, मगर सब्र तो उस दिन उनके पास भी नहीं था। उन्होंने कोचिंग सेंटर फोन किया जो बताया गया कि लोरी तो ट्यूशन पढ़ने वहाँ आई ही नहीं है। कोचिंग सेंटर से जवाब सुनकर बिसेसर बाबू ही नहीं, सुमित्रा और ममता के भी होश उड़ गए। वे दोनों अत्यधिक घबरा गईं। यूँ भी दो दिन से घर के माहौल में बेचैनी पहले से घुली हुई थी, उस पर लोरी का इस तरह कोचिंग सेंटर न पहुँचना और अभी तक न लौटना ऐसी वज़हें थीं कि उनका परेशान होना लाजमी था।
राकेश भी दफ्तर से लौट चुका था और लोरी की सभी सहेलियों के घर फोन लगा लगाकर पूछ रहा था। चूँकि वक्त देर शाम का था इसलिए उनकी फिक्रें अँधेरे के साथ और अधिक गहराती जा रही थी। बिसेसर बाबू ने राकेश से कहा कि, ‘सबसे पहले तो हमें पुलिस को सूचना दे देनी चाहिए, वर्ना ज्यादा देर हो जाने के बाद रात में और परेशानी बढ़ सकती है।’
लोरी की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाकर जब तक वे थाने से लौटे, साढ़े आठ बज चुके थे। सुमित्रा और ममता दोनों सास-बहुओं का रो रोकर बुरा हाल हो रहा था। इस तरह की विपदा उनके परिवार पर पहले कभी नहीं आई थी। आस-पड़ौस में भी हल्ला तो मच ही चुका था, लेकिन अपने अपने द्वीपों में तब्दील हो चुके पड़ोस के ज्यादातर घर इस खबर के बाद ज्यादा चौकन्ने हो गए, मगर लोरी को ढूँढने और चिंता जताते की कोशिश महज एक दो पड़ौसियों ने ही की। शेष आए - न आए, पूछा - न पूछा और अपने अपने घरों में जाकर मोबाइल, टीवी और इंटरनेट की दुनिया में खो गए!
तकरीबन रात दस बजे के आसपास जब राकेश के मोबाइल पर लोरी का कॉल आया, तब कहीं जाकर पूरे परिवार की साँसों में साँसें आई। लोरी ने सुबकते हुए अपने पिता को बताया कि वह नये बस स्टेण्ड के पास है और इतना कहकर फोन कट गया। बिसेसर बाबू को साथ लेकर राकेश तत्काल बस नए स्टेण्ड पहुँचा तो उसे थोड़ी ही खोज करने पर लोरी एक जगह बैठी दिख गई। अपने पिता को देखकर लोरी उनसे जा लिपटी और जोर जोर से रो पड़ी।
लोरी कोचिंग क्लास के लिए जब घर से निकली थी, तब उसने जिंस और पिंक कलर का टॉप पहन रखा था और यही उन्होंने पुलिस रिपोर्ट में भी लिखवाया था। जबकि इस समय लोरी के शरीर पर पुराना और मैला सा एक नाईटी जैसा वस्त्र था। उसके बदले हुए पकड़े देखकर ही राकेश और बिसेसर बाबू स्थिति की गम्भीरता को भाँप गये थे। बिसेसर बाबू भी लोरी से मिलकर रो पड़े। वहाँ उस समय उन दोनों ने लोरी से कुछ भी नहीं पूछा। और ना ही रास्ते में कुछ भी पूछा। पूरे रास्ते और घर लौटने के बाद भी लोरी लगातार रोती और सुबकती ही रही। राकेश ने घर पहुँचने के बाद पुलिस को फोन लगाकर लोरी के लौट आने की सूचना दे दी थी।
ममता और सुमित्रा दोनों ही, लोरी को देखकर उससे लिपट लिपट कर रोती रही। जब रोना-धोना कुछ कम पड़ा तो राकेश ने लोरी से बहुत आहिस्ते से पूछा, -‘कुछ बताओ लोरी ? क्या हुआ था ? तुम कोचिंग क्लास क्यों नहीं गई थी ? और कहाँ थी ?’
अपने पिता के सवालों को सुनकर लोरी फिर से फूट पड़ी और कुछ भी न बोल पाई। मुश्किल से रुकी रुलाई फिर से शुरू हो चुकी थी। ऐसे समय में ममता ने स्थिति को सम्भाला और इशारे से राकेश को एक तरफ बुलाकर बताया कि वह लोरी से अकेले में पूछताछ करके थोड़ी देर बाद बता देगी। बाद में ममता ने अपनी बेटी को खोर खोर पूछा तो उससे जो घटनाक्रम और कहानी सामने आई, वो कुछ इस प्रकार है।
लोरी जब रोज की तरह चार बजकर पैंतालीस मिनट पर अपने घर से निकली थी तो बस स्टॉप के पहले ही एक वेन ठीक उसके सामने आकर रुकी और वेन का दरवाजा खोलकर दो लड़कों ने जबरन उसे अन्दर खींच लिया और तत्काल वेन आगे बढ़ा दी। यह सब इतना तेजी से और हड़बड़ी में हुआ था कि न तो लोरी को सम्भलने या और कुछ समझने का अवसर मिला और ना ही बस स्टॉप के आसपास के लोग ही उस समय कुछ कर पाए। जब तक वह चिल्लाती, तब तक वेन में बिठाकर उसका मुँह एक कपड़े से बाँध दिया गया था। वह वेन उसे लेकर शहर से बाहर की तरफ लेकर तेजी से चलती चली जा रही थी। इस बीच जब लोरी ने बाहर निकलने की छटपटाहट में हाथ-पैर चलाए तो उसके हाथ और पैर भी बाँध दिए थे। कुछ ही देर में वह वेन उसे लेकर शहर से बाहर की तरफ जा चुकी थी और जब शाम ढलने लगी, तब उन लोगों ने उस वेन को एक घने जंगल में ले जाकर रोक दिया। उस वेन में तीन लड़के थे। एक लड़का गाड़ी चला रहा था और दो लड़के पीछे थे। उन दोनों ने ही लोरी को बस स्टॉप से खींचकर वेन में बैठाया था।
फिर वे तीनों बारी बारी से लोरी के साथ गलत काम करते रहे। लोरी के मुँह पर कपड़ा बँधा हुआ ही था और वह लगातार रो रही थी, गिड़गिड़ाए जा रही थी। लोरी के साथ उन तीनों की इस जबरजस्ती में लोरी के सारे कपड़े पूरी तरह फट चुके थे। और लोरी का मोबाइल कहीं गिरकर खो चुका था। लोरी के साथ गलत काम करने के बाद लौटते समय उन्होंने लोरी को कहीं से पुरानी नाईटी जैसी ड्रेस लाकर पहनने के लिए दे दी थी। फिर उन तीनों ने लोरी को वापस शहर के नए बस स्टेण्ड के पास छोड़ दिया। जहाँ लोरी ने एक बुढ़े पान-गुटखे की दुकानवाले से फोन माँगकर अपने पिता को फोन लगाया था।

बहुत सोच विचार के बाद राकेश और बिसेसर बाबू ने सुबह जाकर पुलिस में अज्ञात अपराधियों के खिलाफ बलात्कार और अपहरण की रिपोर्ट लिखवाई, क्योंकि लोरी उन तीनों लड़कों को बिल्कुल भी नहीं जानती थी और उस पर से अचानक हुई इस घटना की वजह से वह इतनी दहशत में थी कि उसने न तो उस वेन का नम्बर नोट किया, और ना ही और कोई ज्यादा महत्वपूर्ण सुराग दे पाई।
अगले दो दिन लोरी के लिए बहुत भारी गुजरे। बार बार की पुलिस पूछताछ और मीडिया के लोगों के कारण लोरी की दहशत और अधिक बढ़ गई थी। लेकिन पुलिस रिपोर्ट लिखाने का फायदे यह हुआ कि पुलिस ने तत्काल कार्रवाई शुरू कर दी थी और शहर से बाहर जाने वाले मार्गों के सीसीटीवी कैमरों के फुटेज खंगालने और घटना वाले बस स्टॉप से मिली सूचनाओं की मदद से महज अड़तालीस घण्टे के भीतर अपराधियों को पकड़ लिया था। अगले दिन जब लोरी को पुलिस ने उन गिरफ्तार किए गए लड़कों की शिनाख्‍त के लिए बुलाया था तो लोरी ने दो लड़कों को तो पहचान लिया, मगर तीसरे को वह नहीं पहचान पाई बल्कि बोली, -‘तीसरा लड़का जो गाड़ी चला रहा था, वो कोई और था। और इन दोनों की तरह गुण्डे टाइप का नहीं था, बल्कि किसी अच्छे घर बार का लग रहा था। और वो ऐसे बर्ताव कर रहा था जैसे वह इन दोनों का बॉस हो।’
लोरी की गवाही तो पुलिस ने दर्ज कर ली, मगर उस तीसरे गिरफ्तार लड़के को भी नहीं छोड़ा था।
उसी दोपहर को जब लोरी अपने कमरे में अकेली थी, तो उसके मन में बार बार एक किस्म का अपराधबोध सा महसूस होने लगा और उसके साथ हुए हादसे की स्मृतियों के आवेश में आकर उसने अपना कमरा बंद कर पंखे पर अपने दुपट्टे से फाँसी का फंदा बनाने लगी। ठीक तभी उसके कमरे के दरवाजे पर बिसेसर बाबू ने दस्तक दी थी। दरवाजा खोलने की हड़बड़ी और घबराहट में लोरी का दुपट्टा पंखे पर ही टंगा रह गया।
बिसेसर बाबू जब लोरी के कमरे में दाखिल हुए और छप पंखे पर टंगे फंदे पर उनकी नज़र गई तो एक पल को बुरी तरह घबरा गए थे और उनकी बुढ़ी हड्डियाँ काँप गई थीं। उन्होंने अपनी लाड़की पोती को गले से लगा लिया और दोनों दादा-पोती कमरे के उस एकांत में बैठकर देर तक रोते रहे। फिर जब कुछ सम्भले तो बिसेसर बाबू उस कमरे की छत पर लटके पंखे को घूरते हुए बोले, -‘भगवत गीता का एक श्लोक है लोरी! नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।’ इस श्लोक का सामान्य भावार्थ तो यही है कि आत्मा को न कोई शस्त्र काट सकता है, न ही आत्मा को आग जला सकती है। आत्मा को जल भी गला नहीं सकता और वायु भी सुखा नहीं सकती। लेकिन अगर थोड़ा गहराई में जाकर सोचो और समझने की कोशिश करो तो इसका भावार्थ यह भी है कि यह जो देह हमें ऊपर ऊपर दिखाई दे रही है, यह मात्र हमारी आत्मा के कपड़े हैं। इस देह के मलिन होने से कुछ नहीं होता। यह तो पानी से धुलकर फिर साफ हो जाती है। महत्वपूर्ण है आत्मा! और आत्मा की शुद्धि!’
बिसेसर बाबू कहकर कुछ क्षण के लिए रुके, मगर वे एकटक उसी पंखे को घूरे जा रहे थे जिसपर कुछ देर पहले फंदे के लिए लोरी ने अपना दुपट्टा टांग रखा था। लोरी बगल में बैठी अपने दादा की कही बातें सुन रही थी, मगर उसका सुबकना पूरी तरह बंद भी नहीं हुआ था।
-‘बेटा! किसी के छूने या कुछ भी कर देने से तुम्हारी शुचिता खत्म नहीं हो जाती है। क्योंकि कोई भी तुम्हारी इच्छा के बगैर तुम्हारी आत्मा की शुचिता को नहीं भेद सकता है। हाँ, जिन्होंने तुम्हारे साथ गलत किया है, उन्होंने जरूर अपनी आत्मा को मलिन कर लिया है। तो दूसरों के अपराध के लिए खुद को सजा देना तो ठीक नहीं है ?’
बिसेसर बाबू की बातें सुन रही लोरी को उसके दादा की कही बातों से बहुत हौंसला मिला। उसका हल्का-हल्का सुबकना भी अब बंद हो चुका था। मगर वह कुछ नहीं बोली, न और कुछ पूछा। बस अपने दादा की कही बातों पर सोचती रही और शायद मन ही मन फिर एक दफा और हैरान हो रही थी कि एक सामान्य सी शिक्षा पाने वाले उसके दादा यौन शुचिता जैसे गम्भीर विषय पर कितनी सुलझी हुई और समझदारी भरी बातें कह रहे हैं!
-‘हमेशा याद रखना बेटी! तुम्हारी शुचिता तुम्हारी योनी में नहीं, बल्कि तुम्हारी आत्मा में है। कभी इसे मैली मत होने देना!’ बिसेसर बाबू ने कहा और अपनी प्यारी पोती के सिर पर देर तक हाथ फेरते रहे, जब तक कि वह उनकी गोद में सर रखकर सो नहीं गई।
दो दिन बाद जब पुलिस थाने और मीडिया वगैरह से कोई नहीं आया तो बिसेसर बाबू का परिवार थोड़ी राहत महसूस करने लगा। लगा जैसे जिंदगी फिर वापस धीरे धीरे पटरी पर आ जाएगी और चीजें समय के साथ फिर से सम्भल जाएँगी। मगर तीसरे दिन जब थाना इंचार्ज ने खुद उसे उनके घर बुलवाया तो पटरी पर आती उनकी दुनिया फिर पटरी से उतर गई। और चीजें फिर बिखर गईं।
दरअस्ल थाना इंचार्ज पाटील साहब ने राकेश को मोबाइल लगाकर जब बताया कि वे उससे उनके घर पर अकेले में कुछ जरूरी बात करना चाहते हैं तो राकेश गहरे असमंजस में पड़ गया कि ऐसी क्या बात हो सकती है कि थाना इंचार्ज ने उसे मिलने के लिए उनके घर पर बुलाया है। अमूमन तो कोई भी काम होने पर वे फोन लगाकर या थाने के हवलदार वगैरह को भेजकर थाने बुलवा लेते थे। जब तक वह थाना इंचार्ज पाटील साहब के घर नहीं पहुँचा और मिला नहीं तब तक उसकी धड़कनें असामान्य ही बनी रही।
थाना इंचार्ज पाटील साहब ने राकेश को बताया कि उनकी पोस्टिंग अब किसी और थाने में कर दी है। यह सब अभी अभी आनन-फानन में हुआ है। राकेश के लिए यह हैरत की खबर तो थी लेकिन उसे इससे ज्यादा हैरत इस बात पर थी कि इस खबर को बताने के लिए पाटील साहब ने उसे अपने घर पर क्यों बुलवाया था। राकेश की ऊहापोह को ताड़ते हुए थाना इंचार्ज पाटील साहब ने कहा, -‘दरअस्ल मैं आपको इस केस से जुड़ी कुछ खास बातें बताना अपना फर्ज समझता हूँ। हालाँकि मैं शर्मिन्दा हूँ कि मैं अब इस केस में आपकी कोई मदद नहीं कर पाऊँगा। लेकिन फिर भी इस केस से जुड़ी कुछ बातें ऐसी हैं, जिनका पता हमें भी इस केस की इन्वेस्टिगेशन के दौरान अभी अभी लगा है।’
पाटील साहब की रहस्यभरी बातें सुनकर राकेश के दिल की धड़कन बहुत तेज हो गई थी। अपनी उत्कंठा को वह बहुत मुश्किल से काबू किए हुए था। उसने मुँह से बमुश्किल निकला, -‘सर! साफ-साफ कहिए ना! बात क्या है ?’
-‘लोरी को अपहृत करने और बलात्कृत करने वाला वो तीसरी लड़का विनीत सक्सेना है। मि. डी. के. सक्सेना का बेटा!’ पाटील साहब ने जैसे ही कहा, राकेश के सिर पर जैसे पहाड़ गिर पड़ा। उसे समझ नहीं आ रहा था, पाटील साहब के सामने वह कैसे अपने मन की भावनाओं को सम्भाल कर रख सके। घबराहट में उसके मुँह से सिर्फ ‘क्या ?’ निकला।
-‘मैंने खुद इस केस की इन्वेस्टीगेशन अपने हाथ में ले रखी थी। दरअस्ल मि. सक्सेना ने अपने रसूख और पैसे के दम पर एक अन्य बेगुनाह लड़के को रुपयों का लालच देकर गुनाह कबूलवा दिया था। मगर जब लोरी ने उस तीसरे लड़के को पहचानने से इंकार कर दिया तो फिर नए सिरे से जाँच पड़ताल हुई और जब उस तीसरे लड़के से थोड़ी बहुत सख्ती से पूछताछ की गई तो वह कबूल गया कि उसने पैसे लेकर यह गुनाह अपने सर लिया है। इस तरह सारा मामला सामने आया। विनीत सक्सेना को अभी पुलिस गिरफ्तार नहीं कर पाई है, क्योंकि वो अभी फरार है।’ थाना इंचार्ज पाटील साहब ने विस्तार से पूरा मसला राकेश को समझाया।
‘एक दूसरी बात और राकेश जी!’ थाना इंचार्ज पाटील साहब फिर आगे बोले, -‘मैंने खुद मि. सक्सेना से पर्सनल मिलकर इस बारे में कल बात की, तो उन्होंने मुझे बताया कि वे तो सिर्फ यह चाहते थे कि लड़की (लोरी) को उठाकर कुछेक घण्टे बंधक बनाकर छोड़ दिया जाए। इससे उनका परिवार कुछ देर के लिए बेचैन हो जाएगा और दबाव में आकर वे अपनी जमीन बेचने पर मजबूर हो जाऐंगे। मगर उनके बेटे विनीत और उसके दो कौड़ी के मवाली दोस्तों ने मौके का फायदा उठाकर और जवानी के जोश में आकर लड़की के साथ बलात्कार कर डाला, जिससे मामला उलझ गया।’
राकेश जो अब तक चुप ही बैठा था, अब पूरा मसला समझ चुका था। वह बोला, -‘अब क्या किया जा सकता है ?’
-‘दरअस्ल एसपी साहब ने खुद मुझे पर्सनली फोन कर यह कहा है कि मैं आपको पूरी स्थितियाँ समझा दूँ!’
-‘मैं कुछ समझा नहीं सर!’ राकेश ने अनभिज्ञता जाहिर करते हुए पूछा। यूँ अचानक एसपी साहब जैसे बड़े अधिकारी की सहज कृपा मिलना अचरज का विषय तो है ही!
-‘यानी मैं तुम्हें अच्छी तरह बता दूँ कि इस केस का अब बाहर ही कहीं सेटलमेंट हो सके तो सबके लिए अच्छा रहेगा। इसलिए मैंने तुम्हें पूरे केस की जानकारी ईमानदारी के साथ दे दी है।’
-‘लेकिन फिर आपको थाने से और इस केस से क्यों हटाया गया है, जबकि आप खुद अब सेटलमेंट की बात कर रहे हैं ?’ राकेश ने अपने मन का संदेह प्रकट किया।
-‘क्योंकि मैं बिकूँगा नहीं!’ थाना इंचार्ज पाटील साहब ने यह कहा तो राकेश फिर असमंजस में आ गया। पाटील साहब भी राकेश के असमंजस को भाँप गए थे, इसलिए आगे बोले, -‘दरअस्ल एसपी साहब इस केस में इंटरेस्टेड हैं और चाहते हैं कि केस का सेटलमेंट बाहर ही हो जाए! और माफ कीजिएगा राकेशजी! लेकिन मेरी सलाह भी हाल-फिलहाल में तो आपको यही होगी कि आप इस केस को यहीं छोड़ दें। इससे आपको दो फायदे तो होंगे ही। पहला तो यह कि मि. सक्सेना अब आप पर उस जमीन को खरीदने के लिए प्रेशर नहीं बनाएगा। प्रेशर तो क्या वह अब कोशिश भी नहीं करेगा। दूसरा फायदा यह कि इस केस के सेटलमेंट के लिए आप मनचाही कीमत भी पा सकते हैं।’
थाना इंचार्ज पाटील साहब ने यह बात भले ही सहजता से कही थी, लेकिन राकेश के मन को ठेस लग गई। वह बिना कुछ कहे सीट से खड़ा हो गया और हाथ जोड़कर जाने की विदा माँगी। पाटील साहब ने उसे रोका तो नहीं, मगर उसे जाते जाते बोले कि -‘देख लीजिएगा मि. राकेश। मैं आपको सही सलाह दे रहा हूँ।’ राकेश ने पलटकर भी नहीं देखा, उसकी आँखें उस समय डबडबा रही थीं।
राकेश ने जब बिसेसर बाबू को थाना इंचार्ज पाटील साहब से हुई बातचीत बताई तो बिसेसर बाबू जैसे शान्त स्वभाव के व्यक्ति को भी बात चुभ गई।
बिसेसर बाबू और राकेश बाद में थाने में गए तो नए थाना इंचार्ज से उनका सामना हुआ। नए थाना इंचार्ज ने उन दोनों को यह कहते हुए उस समय टरका दिया कि वह अभी अभी आया है और जब तक केस को थोड़ा स्टडी नहीं कर लेता, कुछ भी नहीं कर पाएगा। बिसेसर बाबू उस समय तो थाने से लौट आए मगर लौटते लौटते नए थाना इंचार्ज को यह सूचित भी करते हुए आए कि दो दिन बाद वे फिर आएँगे और अगर उनकी माँग नहीं सुनी गई तो फिर वे मीडिया में जाएँगे और मि. सक्सेना और उनके बेटे का सब किया धरा उजागर कर देंगे।
इस बीच लोरी की जिंदगी वापस पटरी पर आने लगी। उसने फिर से स्कूल जाना और कोचिंग जाना भी शुरू कर दिया। किन्तु महज तीसरे ही दिन कोचिंग से लौटते समय वह एक अनियंत्रित कार की चपेट में ठीक उसी बस स्टॉप पर फिर से आ गई, जहाँ से कभी उसका अपहरण हुआ था। लोरी को इस दुर्घटना में गम्भीर चोटें आई हुई हैं।
आज पाँच दिन हो गए हैं, लोरी जिला अस्पताल के आईसीयु वार्ड में भर्ती है। जिंदगी और मृत्यु के बीच उसका संघर्ष जारी है। वार्ड के बाहर उसके माता-पिता और लोरी का छोटा भाई दैविक अपनी समस्त पवित्र प्रार्थनाओं के साथ किसी अच्छी खबर की उम्मीद में आस बाँधें बैठे हैं।
इधर थाने में जब कभी लोरी के एक्सीडेंट वाले केस के बारे में पूछा जाता है, तब एक ही जवाब मिलता है कि केस की जाँच चल रही है।
विनीत सक्सेना अभी भी फरार ही बताया जाता है। मि. सक्सेना अपने बेटे के किये धरे पर लिपा-पोती करने में और ऊपर से नीचे तक सेटिंग करने में व्यस्त हैं, इसलिए बिसेसर बाबू वाली उस जमीन को लेकर वे फिलहाल नहीं सोच रहे हैं, लेकिन यह सिर्फ हाल फिलहाल के लिए है। यानी योजना सिर्फ स्थगित हुई है, खत्म नहीं हुई है। और फिर मि. सक्सेना नहीं तो और कोई ? आवारा पूँजी की गिद्ध नज़रें उस जमीन के टुकड़े पर गड़ी हुई हैं!
और इधर अब मीडिया को इतने समय बाद इस केस में कुछ ‘एक्सक्लुसिव’ नज़र नहीं आ रहा है। मैं आपको यह कहानी तो बता रहा हूँ, किन्तु मैं अपना भी सच जानता हूँ और आपको बताता हूँ कि मैंने लोरी के केस पर कईं बार अपने न्यूज़ चैनल के लिए ‘स्टोरी’ बनाई है, मगर मेरे चैनल हेड को इसमें कुछ सनसनी नज़र नहीं आई या शायद वे इसे चैनल पर चलाने की रिस्क नहीं लेना चाहते हैं!
और उधर बिसेसर बाबू सुमित्रा के साथ जब कल अस्पताल से निकले तो जिला कलेक्टर कार्यालय परिसर के बगीचे में स्थापित गाँधी प्रतिमा के सामने अन्न जल त्याग कर अनशन पर बैठ गए हैं। इस लेखक को यह विश्‍वास है कि उनके अनशन में धीरे धीरे और लोग भी शामिल होते चले जाएँगे, क्योंकि जिस बुढ़े की प्रतिमा के सामने वे बैठे हैं, उस सिन्ड्रोम से सिर्फ बिसेसर बाबू ही नहीं, दुनिया के बहुत से लोग ग्रसित हैं।
मैं आज ही से उनके अनशन में शामिल हुआ हूँ, हो सके तो आप भी आइए। हमें आपकी जरूरत है।
होने लगी है जिस्म में जुंबिश तो देखिए,
इस परकटे परिन्दे की कोशिश तो देखिए।
- दुष्यन्त कुमार

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