मंगलवार, 8 अक्तूबर 2019

अस्तित्व : ज्ञानप्रकाश विवेक

कुछ विरोधाभास जीवन भर साथ रह जाते हैं। प्रयास करने पर भी कुछ आदतें नही जातीं। ऐसी ही एक समस्या है पढ़ते समय झपकी आ जाने की। अधिकतर पढ़ना यात्रा के दौरान होता है और किताब हाथ में लेने के कुछ देर बाद नींद की दस्तक भी निश्चित है।

हालाँकि कभी कभी कुछ किताबें अपवाद बनकर साथ हो लेती हैं और जब ऐसा होता है तो यक़ीनन ये किसी लेखनी का जादू ही होता है। पिछले महीने एक व्यक्तिगत संगोष्ठी से वापस लौटते समय मैंने ज्ञानप्रकाश विवेक जी का उपन्यास "अस्तित्व" पढ़ना शुरू किया तो वक़्त जैसे थम सा गया। गंतव्य पर पहुँचने के बाद समय देखा तो मालूम पड़ा कि लगभग 55 मिनट की इस यात्रा के दौरान मैंने लगातार पढ़ते हुए 50 पृष्ठ पूरे कर लिए थे। पहले एक बाप-बेटी की दिनचर्या और बाद में एक छोटे से प्रेम प्रसंग को जिस खूबसूरत भाषा और संवेदना से विवेक जी ने दर्शाया है वो इस पुस्तक का सबसे सुन्दर भाग बन कर रह गया है। यूँ लग रहा था जैसे शब्दों और भावनाओं के किसी अलग लोक में तैर रहे हों।
शब्दों, भावनाओं और संवेदना की उस यात्रा में कुछ अंश रेखांकित हुए थे।
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● तुमने कभी सोये हुए बच्चे को मुस्कराते देखा है? दुनिया की सबसे अच्छी, निष्कपट, और मासूम मुस्कान वही होती है।

● साँझ मुझे अच्छी लगती। जैसे दिन की पाठशाला के सारे शिक्षक चले गए हों। जैसे दिन भर की थकान ने किसी नहर में अपने पैर धोये हों और मंदिर में जाकर घंटियाँ बजायी हों।

● मछेरे का समन्दर से क्या रिश्ता है? मैं इस रिश्ते का नाम अब तक नहीं ढूँढ सका। समन्दर जीवन है और समन्दर उसके जीवन का सबसे बड़ा संकट भी। मृत्यु भी समंदर है। किसान का मिट्टी से अव्यक्त सा रिश्ता होता है। लेकिन होता है। हम रिश्तों के नाम न रखें तो अच्छा होगा। नाम रखने से दिक्कत आएगी क्योंकि नाम की अपनी सरहद होती है।

● हमारी बगीची में जब सबसे पहला फूल खिलता तो वह क्षण हमारे लिए उत्सव जैसा होता।

● लम्हों का पानी बह जाता है। किसी टकसाल में लम्हों के सिक्के नही बनाये जा सकते। ऐसा होता तो मैं उन्हें ज़िन्दगी की गुल्लक में रख लेती और कभी न खर्च न करती।

● कमरे में मौन था किसी सृजन की तरह। जिसमें हमारी साँसों की ध्वनियाँ प्रकाशित होती महसूस होती थीं। मुझे पहली बार इस बात का एहसास हुआ कि मौन में भी संगीत होता है जो हमारी चेतना का स्पर्श करता है।

● स्मृतियाँ किसी के लिए मूर्खता हो तो हो। किसी के लिए यह जीवन शिल्प भी तो हो सकता है। भागते दौड़ते समय को स्मृतियों में ही तो बचाकर रखा जा सकता है। अकेलेपन में स्मृतियाँ एक दोस्त की तरह होती हैं। बाहर के संसार के समानांतर- एक अलग दुनिया ।

● कितना त्रासद होता है जब मनुष्य का अपने ही शरीर पर कोई अधिकार नही रहता। एक पलंग ही जिसकी सम्पूर्ण दुनिया बन जाए, उस मनुष्य के लिए जीने के क्या अर्थ होंगे?
रिश्ते क्या केवल स्वस्थ लोगों के बीच ही हो सकते हैं? स्त्री-पुरुष के बीच यदि कोई बीमार हो तो क्या रिश्ते ख़त्म हो जाएँ?

● सरलता और सादगी का अपना एक गुण है। लेकिन सादगी के पीछे दृढ़ता ज़रूरी है।
रेत की दीवार की तरह भुरभुराते चले जाना जीवन का अपमान है।
ज़िन्दगी अनुभवों की प्रयोगशाला है। प्रयोग असफल हो जाय तो इसका यह अर्थ नही होता कि ज़िन्दगी समाप्त हो गयी।

● दस्तक कितना खूबसूरत शब्द है। हवाओं की उंगलियाँ जब दरवाजों पर दस्तक पड़ती है तो ऐसा महसूस होता है जैसे आसमान बाहर खड़ा हो । दस्तकें पड़ती रहें तो दरवाजे जिन्दा रहते हैं और घर जवान। दस्तकें अपनेपन की तरह होती हैं। किसी को जब आना हो तब दस्तकों का इंतज़ार कितना व्याकुलता भरा होता है।

नोट:- कृपया ध्यान दें। ये किसी प्रकार की समीक्षा या आलोचना न होकर विशुद्ध पाठकीय प्रतिक्रिया है। अतः सहमति या असहमति के प्रति सम्मान होने के बावजूद यहाँ किसी वाद विवाद की गुंजाइश नही है।

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