ग़ाफ़िल : सुनील चतुर्वेदी
'ग़ाफ़िल' हमारे समय के एक ऐसे चिंताजनक असंतुलन की गाथा है जो अतिशय महत्वाकांक्षा और सुख की दोषपूर्ण भ्रामक परिभाषाओं के कारण अस्तित्व में आया। मनुष्यता, प्रेम और अपनत्व जैसे अनिवार्य मानवीय गुणों की जगह आर्थिक समृद्धि को ऐश्वर्य का पैमाना माना जाने लगा। हमारे विकास का विजन इतना छोटा होता गया कि व्यष्टि का महत्व समष्टि से ज़्यादा होता गया।
स्वार्जित विडम्बना, निरर्थक उपलब्धियों के छद्म और असफल सुख की सूक्ष्म पड़ताल करते हुए यह उपन्यास हमें बताता है कि जीवन के वास्तविक सुख और वैभव भौतिक वस्तुओं और धन से नहीं बल्कि संवेदनशीलता, सहानुभूति, औदार्य और सह-जीवन से प्राप्त होते हैं।
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'ग़ाफ़िल' का आग़ाज़ एक ऐसे अत्याधुनिक अस्पताल से होता है जहाँ का अलसाया पड़ा स्टाफ एक विशिष्ट मरीज के आगमन की सूचना मिलते ही अचानक जाग पड़ता है। ये हाई प्रोफाइल पेशेन्ट हैं 64 वर्षीय रघुनंदन बाबू जो ब्रेन हैमरेज के बाद कोमा की स्थिति में अभी अभी शहर के इस पाँच सितारा अस्पताल के आईसीयू में भरती हुए हैं।
पहले दृश्य में ही मरीज के लिए आईसीयू खाली करने का आदेश देती वार्ड इंचार्ज का जूनियर नर्स से ये कहना कि " और हाँ , ऑक्सीजन का मास्क ठीक से चेक कर लेना। पिछली बार तुमने रूम नम्बर 101 वाले पेशेंट को मास्क तो लगा दिया था लेकिन वहाँ ऑक्सीजन की सप्लाई ही नहीं थी। बेचारा...." हमारे समाज की इन जीवनदायिनी संस्थाओं के चमकते चेहरे को बेनकाब कर देता है। गरीब और अमीर मरीजों के प्रति इनके भेदभाव और भयंकर लापरवाही के कारण होने वाली मानवीय भूलों को इंगित करने के लिए सुनील चतुर्वेदी को महज़ कुछ पंक्तियों की ही ज़रूरत पड़ती है।
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रघुनंदन की चेतना कोमा के इस गहन अंधकार में बरसों पहले उनके द्वारा उपेक्षित और परित्यक्त जीवन के उजले दिनों का पुनरावलोकन करती भटक रही है। अतीत की विस्मृतियों में तैरते ( पूर्व दीप्ति/फ़्लैशबैक शैली के सहारे ) रघुनंदन बाबू के अवचेतन मन की यह यात्रा हमें उनके बचपन के उन मासूम दिनों तक ले जाती है जहाँ लोग आर्थिक रूप से भले ही असमर्थ हों, किन्तु संवेदना और सहानुभूति के स्तर पर कहीं कोई अभाव नहीं। अतीत के इन उजास भरे दिनों का भावपूर्ण वर्णन पाठक और कथा के बीच एक अद्भुत आत्मीय जुड़ाव निर्मित करता है।
ऐसे तमाम प्रसंग हैं जो रचनाकार के मानवीय दृष्टिकोण और सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक चित्रण के कारण बहुत दिनों तक याद रहेंगे।
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पहला प्रसंग रघुनंदन की माँ की बीमारी के समय का है जब कुछ बुजुर्ग महिलाएँ दौड़कर घर जाती हैं और पैसे लाकर चुपचाप उसकी दादी के हाथ में दे देती हैं। मुहल्ले के भाटी माड़साहब अस्पताल जाते समय इन पैसों को ये कहते हुए लेने से इनकार करते हैं कि ' सब व्यवस्था है'। साइकिल से आगे पीछे चलते लोगों की भीड़ और अस्पताल में रघु की दोस्त गायत्री द्वारा कई दिनों तक की गई माँ की अनथक सेवा उन दिनों की सुखद तस्वीर प्रस्तुत करती है जब किसी एक व्यक्ति का सुख दुःख सिर्फ़ उसी का व्यक्तिगत सुख दुःख नहीं होता था।
औदार्य, सामूहिकता और सहयोग का यही दृश्य रघु की बहन सुमित्रा के विवाह के समय पुनः उपस्थित होता है जब रघुनंदन की बहन का विवाह न होकर पूरे गाँव की बेटी का विवाह बन जाता है।
विवाह से पहले सुमित्रा परिजनों द्वारा नियमित उपेक्षा का शिकार मात्र इसलिए होती रही क्योंकि वह लड़की है। समदृष्टि और स्नेह उसे सिर्फ़ अपने पिता से मिलता है। दादी, माँ और मकान मालकिन आदि रघु और उसकी पढ़ाई में सहयोग के प्रति जितने सजग हैं, सुमित्रा के प्रति उतने ही लापरवाह।घर वालों के पक्षपात और रघु द्वारा बहन की अवमानना के दृश्य बहुत खटकते हैं।
सुनील चतुर्वेदी जी ने विमर्शों के अनावश्यक मोह से दूर रहते हुए इन मार्मिक दृश्यों को सहज तरलता और सांकेतिक भाषा से रचा है। कई बरस पहले का एक दृश्य... ( जब दोनों भाई बहन बैठकर पढ़ रहे हैं। मकान मालकिन मामी आकर लड़के को दुलारती हैं और उसे लाड़ से उठाकर गोद में बिठा लेती हैं) "लड़का खिल उठता है... सुमित्रा भी किताब नीचे रख खाली आँखों से मामी के चेहरे की ओर देख रही है।"
ऐसा ही एक दृश्य त्रिवेणी घाट की सीढ़ियों पर... रघु और गायत्री की अन्तिम मुलाक़ात। गायत्री की आँखों में सुनहरे भविष्य के इंद्रधनुष और रघु के सामने बहुत बड़े बनने और इलीट क्लास में जीने की दुर्दम्य इच्छाएँ। "अपने आसपास की अनकल्चर्ड सोसाइटी से दूर जाने की इच्छा" बताते समय उसके चेहरे घृणा के जो भाव होते हैं उन्हें देखकर गायत्री का मोह भंग हो जाता है। चलते चलते उसे लताड़ते हुए कहती है कि " जिन लोगों के लिए तुम सब कुछ थे, तुम्हारा जीवन सुधारने के लिए उनसे जितना बन सका, उतना किया और आज वही लोग तुम्हारे लिए अनकल्चर्ड हो गए!"
आँसुओं से धुंधलाई आँखें और अधूरे स्वप्नों की कसक के साथ गायत्री रघु के जीवन और कहानी से गायब हो जाती है और हमारी स्मृति में उसका चारित्रिक सौन्दर्य हमेशा के लिए अंकित हो जाता है।
गायत्री के जाने के कुछ दिनों बाद का एक और दृश्य...
रघु अपने दोस्त राजू के साथ भर्तृहरि की गुफा के बाहर बैठा है और दोनों की बातों का विषय गायत्री का चले जाना है। राजू गायत्री का समर्थन करते हुए उसके जाने को सही ठहराता है। रघु के झूठे प्रतिवाद के उत्तर में राजू उससे कहता है -- " रघु, असल में हम अपने चारों तरफ़ आत्म सम्मोहन का एक औरा बुन लेते हैं और फिर उस छद्म औरा के साथ पूरा जीवन गुज़ार देते हैं। हमें यही पता नहीं चलता कि वास्तविकता में हम क्या हैं। जब कभी कोई हमें आईना दिखाने की कोशिश करता है तो हम अपने बचाव में और झूठे तर्क गढ़ते चले जाते हैं। लेकिन, जब हम दूसरों के बारे में अपनी राय जाहिर करते हैं तब हमारी असलियत सामने आ जाती है।"
भावनात्मक प्रेम, लगाव जैसे शब्दों से दूर और ऊंचाइयों के मोह में पड़ा रघु उससे बुरी तरह नाराज़ होकर उससे भी दूर हो जाता है।
इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद नौकरी और इसी दरमियान पहले माँ , फिर पिता और अंततः अपने बेटे के ग़म में दादी के देहावसान के साथ ही उस लोअर क्लास सोसाइटी से उसकी जड़ें ख़त्म हो जाती हैं जिससे वह दूर होना चाहता था। सुमित्रा तो पहले ही किसी अन्य परिवार का हिस्सा बन चुकी थी।
जिस फैक्ट्री में नौकरी लगी थी उसी के मालिक की बेटी इन्द्रा, जो फैक्ट्री की सख्त एडमिनिस्ट्रेटर भी है, से विवाह होता है। ससुर से दहेज के रूप में प्राप्त फैक्ट्री को दोनों पति पत्नी मिलकर बड़ा करते हैं।
इन्हीं दिनों का एक दृश्य...रघुनंदन की अंतिम घातक भूलों में एक ...
गर्भवती होने के बाद इन्द्रा बताती है कि अब वो फैक्ट्री नहीं आ पाएगी और वो किसी को हायर कर ले।
इस पर रघुनंदन का जवाब कि-- " दस हजार का आदमी रखने से अच्छा है पाँच सौ की आया रख लेना "
इन्द्रा उसे समझाने की कोशिश करती है कि "बच्चे को
आया नहीं बल्कि माँ बाप की ज़रूरत होती है" और अपने बच्चे की भावी सुखद हरकतों की कल्पना में डूब जाती है। रघु के लिए एक नॉर्मल सी बायोलॉजिकल घटना पर ये व्यर्थ की प्रतिक्रिया थी।
अपने हाथों अपनी कब्र खोदना शायद इसे ही कहते हैं। बेटे आकाश की उम्र चार वर्ष होते ही रघुनंदन बड़प्पन दिखाने की जिद में उसे देश के एक बड़े बोर्डिंग स्कूल में डालने का निश्चय करता है। इन्द्रा इतनी कम उम्र में बच्चे को घर से दूर करने का विरोध करती है। उसका मानना है कि बच्चा परिवार में रहेगा तो उसमें जीवन के मूल्य आएंगे और वह भावनात्मक रूप से मजबूत होगा। वो नहीं मानता और बच्चे को बोर्डिंग स्कूल भेज देता है।
किसी अवसर पर दोनों में हो रही बहस के दौरान जीवन, परिवार और संवेदना के प्रति रघु के उद्गार :
"व्हाट रबिश! इट्स अ मिडल क्लास कॉन्सेप्ट। थिंक बियॉन्ड फैमिली एंड इमोशन्स।"
इंद्रा: ये बिजनेस नहीं, पैसे और पावर के लिए ह्यूमन रेस है और रेस का एक ही इथिक होता है किसी एक व्यक्ति की जीत। इस रेस का कोई अंत नहीं होता!
ये रघुनंदन के जीवन की कुछ ऐसी अन्तिम भूलों के दिन थे जहाँ उजालों की भूमिका ख़त्म हो रही थी और ज़िन्दगी तेजी से उन अँधेरों की तरफ़ बढ़ रही थी जिनसे आज वह घिरे हुए हैं।
जीवन भर मनुष्यत्व और संवेदनाओं को खारिज़ करने वाले रघुनंदन की ज़िन्दगी में आज उनसे बढ़कर हृदयहीन और स्वार्थी लोग मौजूद हैं। उनके पुत्र आकाश का व्यवहार तो फिर भी कुछ हद तक ठीकठाक है किन्तु अवगुणों के मद्देनज़र बहू उन्हीं का विस्तार प्रतीत होती है, जिसे सिर्फ़ ये चिन्ता है कि कितनी जल्दी अस्पताल वाले ससुर के मरने की खबर दें और वह पहले से निश्चित यूरोप टूर पर निकल सके। इस सम्बन्ध में आकाश और सुरभि के बीच हुए वार्तालाप मानवीय सम्बन्धों और संवेदनाओं के क्षरण की त्रासद तस्वीर प्रस्तुत करते हैं।
इसी कठिन वक़्त में डॉक्टर तापड़िया जैसे देवदूत भी हैं जो इस अत्याधुनिक और स्वार्थी समय में भी मनुष्य और जीवन के प्रति आस्थावान हैं। उनकी चिन्ता एवं प्राथमिकता के दायरे में अस्पताल के उच्चाधिकारियों का असंतोष और नाराज़गी नहीं बल्कि मरीज का हित है , जबकि उन्हें निर्देश दिया गया है कि सर दर्द का साधारण सा केस होने पर भी पूरा एम आर आई करना है और गंभीर ज़रूरत न होने पर भी सर्जरी कर देना है।
डॉ तापड़िया का मानना है कि कोमा में न्यूनतर स्तर पर चले गए पेशेन्ट के साथ विचार तरंगों की शक्ति के माध्यम से मानवीय रिश्ता बनाया जाय और उसकी स्मृतियों को जगाने का प्रयास किया जाय तो पेशेन्ट रिवाइव कर सकता है और इन दिनों वे कई कई घंटे एकाग्र होकर रघुनंदन के पास बैठकर अपने प्रयोग में रमे हैं।
इस उपन्यास के सारे किरदार जीवन्त और वास्तविक हैं। यदि एक तरफ़ दुर्लभ होती जा रही प्रजाति के आश्वस्तिकारक प्रतिनिधि डॉ तापड़िया हैं तो दूसरी तरफ़ डॉ शुभम जैसे पढ़े लिखे युवा लम्पट भी हैं जिनके लिए इश्क़ और किसी की भावना सिर्फ़ टाइम पास की बाते हैं। दुनिया को अपने जूते पर रखने और अपार धन दौलत के अहंकार में डूबे एडमिनिस्ट्रेटर राहुल जैसे लोग भी हैं इस अस्पताल में जहाँ मौत के इन सौदागरों की अक्षम्य लापरवाहियों के चलते एक गरीब डेंगू पीड़ित बच्ची की मृत्यु हो जाती है और वो भी दस लाख के मेडिकल बिल के साथ। अवांछित स्थिति से निकलने के लिए राहुल द्वारा साम दाम दंड भेद का 'कुशलतापूर्वक प्रयोग' इस वर्ग के अमानुषिक चेहरे की एक और परत खोल जाता है।
इन चुनिन्दा प्रसंगों का ज़िक़्र उपन्यास की विषयवस्तु की एक झलक भर माना जाय। "द एंड" की सूचना अभी दूर है क्योंकि कहानी का सबसे मानीखेज़ हिस्सा अभी भी शेष है। डॉ तापड़िया और रघुनंदन के साथ क्या होता है, इसका वर्णन उपन्यास के आख़िरी लम्हों में दर्ज है। इन अन्तिम पन्नों पर कथानक इतना रोचक हो चला है कि साँस रोककर आगे बढ़ते रहने वाली स्थिति बन जाती है।
कथ्यानुरूप समर्थ भाषा, शिल्प की सादगी और पठनीयता सुनील चतुर्वेदी के लेखन का सबसे उल्लेखनीय पक्ष है। वे जिस तरह दृश्य दर दृश्य पाठकों को बाँधकर रखते हैं वह अनुभव अमूमन हिन्दी के लोकप्रिय थ्रिलर उपन्यासों के युग में ही हुआ करता था।
112 पृष्ठों का यह उपन्यास आकार की दृष्टि से भले ही लघु माना जाय किन्तु संवेदनशीलता, प्रस्तुति और कथ्य के स्तर पर यह एक बड़े कद की रचना है। इस वर्ष प्रकाशित महत्वपूर्ण उपन्यासों की प्रथम पंक्ति में शामिल होगा ये उपन्यास।
वरिष्ठ कवि जीतेन्द्र श्रीवास्तव का भी आभार जिनका शानदार आलेख इस उपन्यास के फ्लैप पर सुशोभित है।
आवरण, कागज़ की गुणवत्ता और छपाई का स्तर बेहतर है किन्तु प्रूफ़ की कमियाँ कई जगहों पर अर्थ का अनर्थ कर देती हैं। जैसे--
तकिया गिला दिखाई दिया...
इंसेक्योर्ड फिल करेगा.....
{{ विशेष नोट : हिन्दी के बहुत से प्रकाशक इस क्षेत्र में गंभीर नहीं हैं। संपादकों का भुगतान करते समय दुनिया भर का रोना गाना करते हैं और उनकी इस प्रवृत्ति का खामियाजा भुगतती हैं किताबें।
जैसे अपने सामान की रक्षा की जिम्मेदारी हमारी होती है वैसे ही अपनी किताब की जिम्मेदारी भी उठानी होगी। अपनी किताब और अपने श्रम को सत्यानाश होने से बचाने का प्रयास स्वयं करना होगा।}}
◆ ग़ाफ़िल
◆ सुनील चतुर्वेदी
◆ अंतिका प्रकाशन
◆ प्रथम संस्करण वर्ष 2019
◆ पृष्ठ 112
◆मूल्य 140 (पे.बै. संस्करण)
275 (पु.संस्करण)
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