तीन दिन पहले जब 'कालीचाट' पढ़कर ख़त्म किया तो एक अपराधबोध सा अनुभव हुआ। ये सोचकर कि ऐसी जाने कितनी स्तरीय किताबें बरसों से खरीदकर संग्रह में सिर्फ़ शामिल कर पाए हैं। कारण चाहे जो हों, पढ़ कुछ और रहे हैं।
गाँव और किसानों के जनजीवन पर केन्द्रित चुनिन्दा श्रेष्ठ उपन्यासों में शुमार एक उल्लेखनीय नाम है- 'कालीचाट'। सुनील चतुर्वेदी ने इस उपन्यास को समर्पित किया है कथा पितामह प्रेमचंद जी को, जिन्होंने लगभग एक सदी पहले किसानों के कठिनतम जीवन और अंतहीन संघर्ष को अपनी कुछ कालजयी कहानियों और उपन्यासों में पूरी मार्मिकता और प्रभाव से दर्शाया था। साथ ही 19 दिसम्बर 1932 को प्रेमचंद द्वारा लिखित 'जागरण' का एक संपादकीय अंश भी साझा किया गया है जिसमें वे कहते हैं--
" राष्ट्र के हाथ में जो कुछ विभूति है , वह इन्हीं किसानों और मजदूरों की मेहनत का सदका है।"
कालीचाट के केन्द्र में है मालवा का एक गाँव सिन्द्रानी जहाँ सामंती युग का आधुनिक प्रतिनिधि भीमा है, जो आर्थिक सहायता के नाम पर तो लूटता ही है, अपने कुएँ के पानी के बदले भी गाँव वालों का शोषण करने से नहीं चूकता।भूमंडलीकरण के बाद उसकी बिरादरी भी बड़ी हो चली है क्योंकि शोषकों का एक नया वर्ग अलग रंग रूप में तैयार है। बैंक के अधिकारी, कर्मचारी, उनके और अपने स्वार्थों को सफल बनाते बिचौलिए, धन पिपासु नेता और सत्ता/ प्रशासन की मुँह देखी बोलती तमाम स्वयं सेवी संस्थाएँ....
कमजोर और निराश्रित नागरिकों के साथ न तो कानून है और न ही प्रशासन। खल चरित्रों द्वारा बलात्कार और अन्याय के शिकार नागरिकों के साथ संवेदना और न्याय तो दूर, उल्टे आरोप लगाकर उनके मनोबल और साहस को नष्ट करने का प्रयास करते पुलिस वाले,
कर्ज के प्राणघातक नागपाश में तब्दील होती सरकार की कल्याणकारी योजनाएँ और धरती के भीतर काल की तरह मौजूद कालीचाट....अर्थात हताशा, पराजय और अपमान का अनन्त सिलसिला!!
इस कालीचाट को तोड़ने के क्रम में निरन्तर टूटते चले जाने और अपनी अदम्य जिजीविषा का धीरे धीरे क्षरण होते देखने को अभिशप्त हैं यूनुस जैसे किसान जिन्हें इस माटी से अनन्य अनुराग है।
इन सारी अमानवीय परिस्थितियों और विडंबनाओं के समानांतर ही संवेदना, सहानुभूति और सहजीवन का अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करते दो महिला चरित्र रेशमी और रुक्मिणी के। दोनों अकेली किन्तु उतनी ही सशक्त! भीमा के अत्याचार के कारण अपंग हो चला रेशमी का पति साहिबु नित नए नए संघर्षों से उकताकर एक दिन चुपचाप घर से गायब हो जाता है।
रुक्मिणी अपने पति और जेठानी, जिसके साथ उसके पति का अवैध सम्बन्ध है, की यातनाओं से ऊबकर मायके में रह रही है। एक तरफ क्रूर पति और दूसरी तरफ़ लालच और हृदय हीनता की सारी हदों को पार कर चुका वह निकृष्ट भाई जो बीमार पिता के नाम पर मुख्यमंत्री राहत कोष से डेढ़ लाख रुपये की मदद मंजूर करा लेने के बावजूद उनका इलाज नहीं कराता बल्कि डॉक्टर और वो साथ मिलकर सारे पैसे हड़प लेते हैं। आत्मीय परिजनों द्वारा छली गयी रुक्मिणी का बेटा भी पिता और विमाता द्वारा परोसी आधुनिक सुविधाओं और खराब आदतों के लोभ में उसे छोड़कर चला जाता है। ये दुर्घटनाएँ रुक्मिणी के व्यक्तित्व को और ज्यादा मजबूत बना देती हैं और धीरे धीरे वो इन्हें भुलाकर एक ऐसे मिशन पर जुट जाती है जो घर परिवार की सरहदों से बढ़कर महत्वपूर्ण और ज़िन्दगी को सार्थकत्व की तरफ़ ले जाने में सक्षम है। उसके साथ हर मोड़ पर एक मजबूत सम्बल बनकर खड़ी रहती है रेशमी।
उधर पति के घर से चले जाने के बाद भी रेशमी उसके अदृश्य साथ को सदैव कहीं आसपास अनुभव करते हुए अपने उदास, बेसहारा मन और डगमगाते साहस को सँभालने के साथ ही बेटे के जीवन को सँवारने की कोशिश में जुट जाती है। पहले बेटे की सरकारी नौकरी लगती है, फिर उसका विवाह ... और कुछ समय बाद यही बहू-बेटे एक दिन गाँव आते हैं और सम्बन्धों के आवरण को इस कदर तार तार कर जाते हैं कि उनके पीछे रेशमी अधमरी होकर रह जाती है। रुक्मिणी अब उस पर विशेष ध्यान देने लगती है। सुनील चतुर्वेदी ने इस दृश्य को अपने शब्दों से जीवंत कर दिया है---
" दोनों एक दूसरे के दुःख अच्छी तरह जानती थीं। फिर भी जब मिलतीं, अंदर का ज्वालामुखी रिसने लगता। दोनों एक दूसरे को सुनतीं। एक दूसरे के घाव सहलातीं और एक दूसरे का सम्बल बन जातीं।"
उपन्यास में ऐसे तमाम किरदार हैं जिनकी स्मृति जेहन में स्थायी रूप से बस जाती है। गाँव और किसानों की बेहतरी के मुद्दों पर प्रशासन और बेरहम एनजीओ अधिकारियों से जूझ रहे दिनेश, रुक्मिणी और रेशमी के अलावा कमला, नारायण और यूनुस सरीखे यादगार चरित्रों का सृजन वही लेखक कर सकता है, जिसने 'विभावरी' जैसी छोटी किन्तु बड़े बड़े कार्य करने वाली संस्था की अपनी टीम के साथ पिछले कई दशकों से मालवा के गाँवों में जमीनी स्तर पर प्रशंसनीय कार्य किया हो। वातानुकूलित बँगलों और गाड़ियों में बैठकर ऐसे कथानकों की कल्पना हम भले कर लें, किन्तु उनमें यथार्थ की धड़कन और जीवन का स्पन्दन कहाँ से लायेंगे?
वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत इस उपन्यास के फ्लैप पर अपने वक्तव्य के साथ 'बोल्सिकी' का एक मानीखेज़ कथन उद्धृत करते हुए कहते हैं : "महत्वपूर्ण कृतियाँ या तो अपने समय का सवाल होती हैं या फिर उनका जवाब। कालीचाट अपने समय का सवाल भी है, जवाब भी।"
2015 में प्रकाशित 'कालीचाट' पर एक फ़ीचर फ़िल्म भी बनी है जिसे कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में पुरस्कार और प्रशंसा प्राप्त हुई। इस फ़िल्म की निर्माण प्रक्रिया से जुड़े संस्मरणों की एक रोचक किताब भी हाथ लगी है। किसी दिन उस पर स्वतंत्र चर्चा होगी।
◆कालीचाट : सुनील चतुर्वेदी Sunil Chaturvedi
◆ आवरण : अशोक भौमिक Ashok Bhowmick
◆अंतिका प्रकाशन
◆पृष्ठ : 160
◆मूल्य : ₹175
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