◆◆ गिलहरियाँ
कई बार सवेरे उठते ही पता चल जाता है कि आज का दिन कैसा बीतेगा। यह ऐसा ही होता है जैसे किसी पुस्तक के नाम से ही उसके आधे कथातत्व का पता चल जाता है, वह सुबह भी ऐसे ही थी। शाम से ही आकाश में बादलों ने डेरा जमा लिया था उनके गड़गड़ाने की आवाजें रातभर नींद में सुनाई देती रही। जब वे सुनाई देती, मस्तिष्क नींद में ही सक्रिय हो जाता और तन्द्रा में ही चिंता होने लगती। इसका कारण था कि मुझे अगले दिन बारह बजे एक कम्पनी के मालिक से जाकर मिलना था। कम्पनी का मालिक महीने में एक या दो बार ही अपनी कम्पनी में आता था। वह कम्पनी दिल्ली से सौ किलोमीटर दूर भिवाड़ी में थी और बरसात के मौसम में इतनी दूरी बहुत होती है।
सवेरा होने पर स्तिथि साफ हो गई। आकाश काले बादलों से भरा हुआ था और रुक-रुक कर बरसात हो रही थी। उन दिनों दिल्ली की सड़कों पर फ्लाई-ओवर नहीं बने थे, साथ ही दिल्ली-जयपुर राजमार्ग भी अधिक चौड़ा नहीं था लेकिन इन कमियों के होते हुए भी जाम नहीं लगते थे क्योंकि सड़कों पर कारों की संख्या बहुत कम थी।
बादलों से भरे आकाश और रिमझिम होती बरसात में कार चलाते हुए मन स्वमेव भारी हो उठता है, लगता है आद्रता का कहीं न कहीं हमारे मन से गहरा रिश्ता है। क्या शरीर में जल का प्रतिशत मन पर भी उसी अनुपात में लागू होता है? ऐसे भीगे वातावरण को पुराने गाने और घनीभूत कर देते है जिन्हें सुनकर जटिल से जटिल मन भी कुछ देर के लिए सरल हो जाता है। उस सड़क से मैं सौ से अधिक बार गुजरा हूँगा अतः रास्ते में पड़ने वाले गाँव, चाय की दुकानें, ढाबे, पुल-पुलियाएँ, गड्ढे यहाँ तक कि सड़क किनारे खड़े कुछ प्रभावशाली पेड़ों से भी मैं परिचित था। ऐसी सड़कें जिनसे हम कई बार गुजरे हो सजीव हो उठती है और किसी अच्छे मित्र की तरह व्यवहार करती प्रतीत होती है। लम्बे समय तक उन पर चलते रहने से उनके साथ कुछ स्मृतियाँ भी जुड़ जाती है...पर सड़कों की स्मृतियाँ अक्सर कटु होती है।
रास्ते-भर रुक-रुककर बरसात होती रही और सड़कों के लैंड-मार्कस तेजी से भागते रहे। उन्हें देखकर वे घटनाएँ भी याद आ जाती जो कभी उनसे जुड़ गई थी। उनमें एक घटना मुझे हर बार विचलित करती थी। दिल्ली-जयपुर राजमार्ग से एक छोटी लिंक-रोड भिवाड़ी की ओर मुड़ती है, वह एक छोटी सड़क है और अक्सर निर्जन रहती है। वह कभी हरियाणा तो कभी राजस्थान की सीमाओं में अतिक्रमण करती हुई आगे बढ़ती है। एक दोपहर जब मैं उससे जा रहा था तो एक गिलहरी मेरी कार के नीचे आ गई। गिलहरी या नेवले जब सड़क पार कर रहे होते है तो किसी वाहन को आता हुआ देखकर हिचक जाते है और आधी सड़क पार करने के बाद फिर वापस लौट पड़ते है।
वह गिलहरी सड़क किनारे खड़े एक बबूल के पेड़ से उतरकर सड़क के दूसरी और खड़े तून(मीठे नीम) की ओर जा रही थी, उसने आधी सड़क पार भी कर ली थी पर अचानक पलट गई। मैंने तेजी से ब्रेक लगाये पर तब तक देर हो चुकी थी और वह कार के टायर के नीचे आ गई थी। कार के पीछे भागती सूरज की कौंध में जब मैंने उसे बेक मिरर से देखा तो वह सड़क पर पड़ी हुई उछल रही थी। टायर उसकी पूँछ और पिछले पैरों के ऊपर से उतरा था जिससे उसका पिछला हिस्सा सड़क से चिपक गया था और वह उसे छुड़ाने के लिए उछल रही थी।
उसे प्राणघातक चोट लगी थी और उस समय यंत्रणादायक मृत्यु से लड़ रही थी। कुछ पल मैं उसे देखता रहा फिर कार पीछे की और लक्ष्य करके टायर को उसके ऊपर से उतारा। आगे जाकर मैंने उसे एक बार फिर देखा। इस बार वह मर गई थी और इतनी देर में एक कौवा भी उसके पास आकर बैठ गया था।
यह घटना इतनी तेजी से घटी कि मैं कुछ समझ नहीं पाया। मेरा तात्कालिक निर्णय सही था या गलत, यह मैं नहीं जानता पर असामान्य अवश्य था जिसने मेरा मन दुख से भर दिया था। उस दिन के बाद मैं जब भी में वहाँ से गुजरता, वह गिलहरी मेरे मन में उछलने लगती थी। वहाँ पहुँचकर मैं कार की गति कम कर लेता और सड़क के उस हिस्से को ऐसे देखता जैसे पापबोध से ग्रसित कोई श्रद्धालु किसी तीर्थ को देखता है। कुछ देर वहाँ रुकना मेरी आदत बन गई थी।
बारह बजे मैं कम्पनी पहुँच गया पर वहाँ जाकर पता चला कि मालिक अभी नहीं आया है, और फिर वह एक, दो, तीन, चार, पाँच बजे तक नहीं आया। उन दिनों मोबाइल फोन नहीं थे जिससेे मैं पता कर सकता कि वह कहाँ है? मेरे अतिरिक्त कम्पनी का मैनेजर और बाहर से आये हुए कुछ लोग भी उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। वह जयपुर से आता था और कई बार चार बजे तक पहुँचता था।
पाँच बज गये थे और यह कम्पनी के बन्द होने का समय था। अब उसका आना मुश्किल था। खिन्न मन से मैं वापस लौट चला। दोपहर में कुछ देर आकाश साफ हुआ था पर शाम होते-होते फिर बादल छा गए थे और बारीक़ बूँदे गिरने लगी थी। अभी साढ़े पाँच ही बजे होंगे पर दिन की रोशनी कम हो गई थी। रास्ते में लिंक रोड पर, एक आदमी ने मुझे कार रोकने का इशारा किया, वह हाथ हिलाता हुआ सड़क के बीच में आ गया था। बूँदों से उसके कपड़े भीगे हुए थे। रुकने पर उसने कहा कि यदि आप दिल्ली जा रहे हो तो मेरे मालिक साहब को लेते जाइए, हमारी कार खेत में धँस गई है।
वह कार का ड्राइवर था। जब वह मालिक को लेकर आ रहा था तो एक तेजी से आते डम्पर से बचने के लिए उसकी कार का संतुलन बिगड़ गया और वह सड़क किनारे खेत में चली गयी। उस क्षेत्र की मिट्टी रेतीली है जो रात से हो रही बरसात के कारण दलदल में बदल गई थी। मैंने खिड़की से देखा एक नई टोयटा कार खेत में धंसी हुई खड़ी है। ड्राइवर ने उसे जितने निकालने के प्रयास किये थे वह उतनी ही धँसती चली गई थी। मालिक अभी कार में ही बैठा हुआ था। मेरे हाँ कहने पर ड्राइवर ने उसे कार से उतारकर मेरी कार में बैठाया।
वे अस्सी से अधिक वर्ष के कद्दावर बुजुर्ग थे, कमर कुछ झुकी हुई पर शरीर अभी भी स्वस्थ था। उन्हें देखकर लग रहा था कि इन्होंने जीवन में कठोर परिश्रम किया है। मेरी कार में बैठकर उन्होंने अपने जूतों की ओर देखा जो मिट्टी से सन गए थे, फिर मेरी ओर देखकर 'सॉरी' कहा।
उन्होंने धारीदार स्लेटी रंग का सफारी सूट पहन रखा था। कार से उतरकर आते हुए वे कुछ भीग गये थे जिससे उनके माथे और बालों पर कुछ पानी की बूँदें दिख रही थी। वे देखने में शान्त और प्रभावशाली थे। चलते समय उन्होंने ड्राइवर को पाँच सौ रुपए देकर कहा कि किसी ट्रेक्टर या क्रेन से कार को खिंचवा लेना और धुलवाकर घर लेते आना। उनकी बात समाप्त होते न होते मैं चल पड़ा।
"दिल्ली में आप कहाँ रहते हो?" कुछ देर बाद मैंने उनसे पूछा।
"किदवई नगर।" उन्होंने उत्तर दिया।
"मैं आपको धौलाकुआँ तक ले जा सकता हूँ।" मैंने कहा।
"आप मुझे दिल्ली में कही भी उतार देना...आपकी बड़ी मेहरबानी होगी।" कहकर वे चुप हो गये।
"आप क्या करते हो?" कुछ देर बाद मैंने उनसे पूछा।
"भिवाड़ी में मेरी गियर बनाने की फैक्ट्री है, हम उनकी हार्डनिंग भी करते है। फैक्ट्री को मेरा बेटा देखता है लेकिन वह एक हफ्ते के लिए बाहर गया हुआ है इसीलिए आज मुझे आना पड़ा था।" उन्होंने बताया।
रास्ते में गिलहरी के मरने वाली जगह आयी और मैं अपनी आदत के अनुसार कार धीमी करके उन पेड़ों को देखने लगा जिनमें किसी एक पर वह रहती होगी लेकिन कम रोशनी में कुछ दिखाई नही दिया।
"क्या कार में कुछ गड़बड़ है?" उन्होंने मुझसे इधर-उधर झाँकते हुए पूछा।
"बड़ी अजीब बात है...बताऊँगा तो आप मुझ पर हँसोगे।" मैंने कहा और फिर मैंने उन्हें गिलहरी वाली घटना बतायी। मेरी बात सुनकर वे कुछ रुआँसे हो गये और फिर धीरे से बोले कि एक बार गलती से मुझसे भी एक सुंदर गिलहरी मर गई थी...एक बड़ी गिलहरी। यह कहकर वे शांत हो गये।
लिंक रोड खत्म हो गया और कुछ देर बाद हम दिल्ली-जयपुर राजमार्ग पर चल रहे थे। यद्यपि अभी दिन बाकी था पर बादलों के कारण सूर्य का प्रकाश मृतप्रायः हो चला था। सड़क के साफ न दिखाई देने से मैंने कार की हेड लाइट ऑन कर दी। वे गिलहरी की घटना के बाद से चुप थे। मैंने उनकी ओर देखा, वे अपनी गर्दन कार की सीट पर टिकाकर कुछ सोचने लगे थे।
"आप भी अपनी गिलहरी के बारे में बताओ?" मैंने बात करने के बहाने उनसे कहा। यह सुनकर वे कुछ चौंके मानो कहीं से लौट कर आये हो और फिर बताने लगे-
मेरा जन्म पाकिस्तान के गुँजरावाला जिले में मंडियाला तहसील के एक पिण्ड(गाँव) में हुआ था। हमारा गाँव मुसलमानों का था जिसमें हिंदुओं के केवल बीस घर थे। जब देश का बँटवारा हुआ उस समय मेरी उम्र तैंतीस साल थी। मेरे दो बच्चे थे, एक तेरह साल की लड़की और पाँच साल का लड़का। देश के बँटवारे के महीनों पहले ही अफवाह उड़ने लगी थी की अब बँटवारा होकर रहेगा। मुसलमान अपना हिस्सा लेकर ही मानेगें। जिस दिन पाकिस्तान बना उस दिन मैं अपनी बेटी के साथ घर में अकेला था। मेरे माँ-बाप पहले ही मर गये थे और बीबी छोटे बेटे के साथ अपने मायके गई हुई थी। उसका घर वहाँ बीस मील दूर विकरान नौशेरा कस्बे में पड़ता था।
हमें पाकिस्तान बनने की खबर अगले दिन मिली थी। उस शाम गुजराँवाला से किसी का रिश्तेदार आया था और उसने बताया था कि देश के बँटते ही चारों तरफ मार-काट शुरू हो गई है। शेख रायजादा, चक निजाम, नंदीपुर, अब्दाल, अरूप, वडाला...पूरे इलाके में कल जबरदस्त कत्लों-गारत हुआ। सारी रात हिंदुओं को मारा गया और उनकी कुड़ियों-जनानियों की अस्मतें लूटी गयी। लोग अपना सामान बैलगाड़ियों में लादकर या पैदल ही अमृतसर की ओर भाग रहे है। सड़कों पर सरकार का कुछ डर है पर अंदरूनी इलाकों में भयानक मरकाट मची हुई है।
'एक काफिर को मुसलमान बनाने में एक उमरे जितना शबाब मिलता है।' अतः हाफिज, मुल्ला, मुफ़्ती, उलेमा अचानक हरकत में आ गये थे। रातों-रात उन्होंने अफवाह फैला दी थी कि हिंदुस्तान में हिन्दू, मुसलमानों का सफाया कर रहे है और औरतों की आबरू लूट रहे है। गदर फैल गया था जिसमें मुल्लों की नजर जन्नत पर थी तो रशूखदारों की हिन्दुओं की जमीनों पर, जबकि आवारा लड़कों का निशाना हिन्दू कुड़ियाँ और जनानियाँ थी। एक ही दिन में हम घटिया इंसान और काफिर बन गये थे।
उसी रात किसी ने हमारे मंदिर के पुजारी को मार दिया और भगवान की मूर्तियों को तोड़ डाला। इस घटना से हम सब सहम गये। मंदिर गन्दा होने के तीन दिन बाद की घटना है, बाहर से कुछ बलवाई हमारे गाँव में आये जिनकी अगुआई दो मुल्ला कर रहे थे। उन्होंने आकर हमारे गाँव की मस्जिद के मुल्ला से कुछ बातें की फिर वे हम हिंदुओं के घरों की ओर आये और सब मर्दो को इकठ्ठा करके मस्जिद में ले गये। मैं भी उस भीड़ में था। उन्होंने हमसे कहा कि देखों हम लोग सदियों से साथ-साथ रहते हुए आये है, हम तुम्हें मारना या भगाना नहीं चाहते, बस तुम मुसलमान बन जाओ। सोचने के लिए उन्होंने, हमें तीन दिन का वक्त दिया, साथ ही यह धमकी भी दी कि अगर तीन दिन में तुम मुसलमान नहीं बने तो फिर हम तुम्हारी हिफाजत के जिम्मेवार नही होंगे।
उस रात किसी के यहाँ चूल्हा नही जला। धर्म क्या है? यह उस दिन हमरी समझ में आया और हम अपने देवी-दवताओं से कितना प्यार करते है, यह भी। हम सबने सलाह की कि चाहे कुछ भी हो जाये पर अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे। वे तीन दिन इतने लंबे बीते कि जिंदगी छोटी पड़ गई। मुझे अपनी बीबी की चिंता हो रही थी, रात में उसके बारे में डरावने सपने आते। उसका गाँव फिरोजवाला से आगे पड़ता था। हालात बहुत खराब थे और मैं वहाँ जा नहीं सकता था क्योंकि रास्ते में मुसलमानों के कई गाँव थे। अब केवल रब का ही आसरा था। तीन दिन तक कोई घरों से बाहर नहीं निकला। जब बच्चे भूख से रोने लगते तभी चूल्हे जलते। चौथे दिन सबके घरों में अजीब-सी ख़ामोशी छा गई थी, लग रहा था आज जरूर कुछ होकर होगा।
और फिर वही हुआ जिसका डर था। मैं अपनी बेटी के साथ दरवाजा बंद करके बैठा हुआ था कि अचानक चीखने-चिल्लाने की आवाजें आने लगी। मैंने तेजी से बांस की सीढ़ी से छत पर चढ़कर देखा तो लगभग दो सौ आदमियों की भीड़ चिल्लाती हुई हमारे घरों की ओर आ रही थी। मेरा घर सबसे आखिर में था पर जिन्होंने भीड़ को आते हुए देख लिया था उन घरों के मर्द, औरतें चिल्लाने लगे थे। मौत की चींखें अलग होती है जो जमीन से अधिक आसमान में फैलती है।
वह भीड़ बाहर से आई थी जिसमें हमारे गाँव के लोग भी शामिल हो गये थे। सबके हाथों में तलवारें, लाठियाँ और तबल थे। दरवाजों के टूटने में अधिक देर नहीं लगी। हर घर में बलवाई घुस गए थे। वे मर्दो को पीटकर उनके सामने ही औरतों की इज्जत लूटने लगे थे जिनकी चिल्लाहट भीड़ के शोर से नहीं दब रही थी। वे अपनी इज्जत बचाने के लिए अपने भाई, बाप को बुला रही थी पर उनमें जो बहादुरी दिखाता, फौरन मार या पीट दिया जाता।
उन चींखों को सुनकर मेरी हालत कुत्तों से बचकर भागते खरगोश जैसी हो रही थी। मैं तेजी से छत पर जाता और फिर अपनी बेटी के पास आ जाता। वह अभी तेरह बरस की नादान थी और बाहर से आ रही चींखों और मेरी घबराहट देखकर जान गई थी कि आज कुछ भयानक हो रहा है। तभी मेरे पड़ोसी सरजू कोहली के घर से उसकी बड़ी बेटी रज्जी के चीखने की आवाज आई। उसके बाद उसकी माँ, छोटी बहन, भाभी, भाइयों की मौत से लड़ने जैसी आवाजें आने लगी लेकिन रज्जी की चींखों के सामने सब कम पड़ रही थी...अगला नम्बर मेरे घर का ही था। डर से मेरी बेटी भागकर एक मंझी(चारपाई) के नीचे छुप गई थी।
मेरे घर से आगे खेत शुरू हो गये थे। कुछ दिन पहले मैंने अपने खेत में खड़े शहतूत के पेड़ों की बेतरतीब बढ़ी डालियाँ काटकर उनके ढेर को छत पर चढ़ाया था। सरजू के घर में क्या ही रहा है? यह देखने के लिए मैं छत पर चढ़कर सूखे पत्तों और टहनियों के ढेर के बीच रेंगता हुआ उसके घर में झाँककर देखने लगा। उसके घर में दर्जन-भर बलवाई घुसे हुए थे। रज्जी अपने आँगन में खड़े अमरुद के पेड़ के नीचे नङ्गी पड़ी हुई दहाड़ रही थी। उसका शरीर खून से इतना लथपथ था कि वह नंगी नहीं लग रही थी। वह एक कद्दावर, शरबती आँखों वाली दिलदार लड़की थी। एक महीने पहले ही उसकी कुड़मुड़ी(सगाई) हुई थी। उसने अपनी इज्जत पर हाथ डालने से पहले ही बलवाइयों पर हमला कर दिया था पर बदले में उन्होंने उसके दोनों पश्तान(स्तन) काट दिये और आँखें फोड़ दी थी। उसके सर में भी गहरी चोट लगी थी जिससे उसके सुनहरे बाल खून से भीगकर तर हो गये थे। उसकी छोटी बहन और माँ, भाई वहाँ से नहीं दिख रहे थे, उनकी केवल चींखें सुनाई दे रही थी। रज्जी की हालत देखकर मेरे रोंगटे खड़े हो गये क्योंकि अगला नम्बर मेरे घर का था। मुझे अचानक पता नहीं क्या हुआ, मैं तेजी से नीचे उतरा और बेटी को मंझी के नीचे से खींचकर रसोई में ले गया और वहाँ उसे दीवार से सटाकर उसका गला दबाने लगा। उन दिनों मैं बैल जितना मजबूत था। गला दबाते हुए मेरी नाजुक बेटी, मेरी ओर फटी आँखों से देख रही थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि मैं ऐसा क्यों कर रहा हूँ और मुझे भी, हमारे बीच केवल रज्जी की चींखें थी। जब उसका दम घुटने लगा तो उसने आत्मरक्षा के लिए कुछ हाथ मेरी कलाई पर मारे पर अधिक बगावत न कर सकी। मरने से पहले मैंने उसकी पुतलियों को फैलते हुए देखा, और फिर वह ढीली पड़ गई। उसे मारने के बाद मैंने भाला उठाया और मरने-मारने का निश्चयकर दरवाजे पर बैठ गया।
रोने, चीखने की आवाजें आती रही और मैं अपने दरवाजे पर दस्तक की इन्तजार करता रहा पर कोई बलवाई मेरे घर नहीं आया...वे सरजू के घर से ही लौट गये थे। जब चीखने-चिल्लाने की जगह रोने-सिसकने की आवाजें आने लगी तब मुझे होश आया कि यह मैंने क्या कर डाला है। मुझसे बहुत बड़ा पाप हो गया था। मैं रसोई में गया वहाँ मेरी बेटी की लाश पड़ी हुई थी। पहला बच्चा घर की रौनक होता है। वह सारा दिन मेरे आंगन में चंचल गिलहरी-सी फुदकती फिरती थी जिसे मैंने अपने हाथों से मार डाला था। मैं उसकी लाश गले लगाकर दहाड़ मारकर रोने लगा और घण्टों अपने को गालियाँ देता रहा।
शाम होने पर सब लोग इकठ्ठा हुए। बलवाइयों ने पाँच मुंडे, तीन कुडियाँ और एक जनानी मार डाली थी जो बची थी उन्हें चलने लायक नहीं छोड़ा था। सभी मर्दों को गहरी चोटें लगी थी। अकेला मैं ही हट्टा-खट्टा और साबुत बचा था। रात होने से पहले सबको एक ही चिता पर लेटाकर अंतिम संस्कार कर दिया गया।
यदि जमीन से कोयला निकलता है तो हीरे भी उसमें ही छुपे रहते है। गाँव में मुस्तफा नाम का एक मुसलमान था जो कोटली-मुगलाँन चौकी पर चौकीदारी करता था। रात के अंधेरे में वह और उसकी बीवी हमारे घरों में आये। वे इस हादसे से बहुत ग़मज़दा थे और हमारे हाल पर बुरी तरह रो रहे थे। उन्होंने बताया कि यें लोग तुम्हें कभी चैन से रहने नही देंगे और देर-सबेर मुसलमान बनाकर ही छोड़ेंगे। मुस्तफा ने बताया कि उसे कोतवाली से पता चला है कि परसों सरकारी हिफाजत में पाँच लारियाँ लाहौर जाएँगी। वे फिरोजवाला, बिलालपुर, मंडियाला के हिन्दुओं को लेती हुई अमीनाबाद के रास्ते से जाएँगी तुम रास्ते में उन्हें पकड़ सकते हो।
और फिर हम परसो का इंतजार करने लगे। वे दो रातें बड़ी मनहूसी में बीती। हमने और हमारे बुजुर्गों ने उस ज़मीन पर जिंदगी बिताई थी और अब वह पराई होने जा रही थी। मेरी बीबी कहाँ है और किस हालात में थी इसका मुझे कुछ पता नहीं था। अगर मैं उसके गाँव जाता तो रास्ते में मार दिया जाता। लेकिन अब सोचने लगा था कि अगर किसी तरह ससुराल पहुँच भी गया तो बेटी के बारे में क्या बताऊँगा? यह सोचकर मैं रोने लगता।
अभी दिन निकला ही था कि मुस्तफा दौड़ता हुआ आया और एक सुर में मुनादी की तरह हर घर में कहता हुआ चला गया कि जल्दी करो, जल्दी करों...बसें नौ बजे तक लद्धेवाला पहुँच जाएगी। और फिर जो भगदड़ मची मुझे अभी भी याद है। सब लोग जलते-चूल्हे, अनाज, सामान, जानवर ज्यों का त्यों छोड़कर भाग चले। कुछ कीमती सामान की पोटली और लत्ते(कपड़े) ही हमारे पास थे। उस समय खेतों में मक्का की फसलें खड़ी हुई थी और हम उनसे होकर भाग रहे थे। घायल मर्द, अधमरी औरतें, बूढ़े, बच्चे सब भाग रहे थे। हरलाल नाम के एक कमजोर आदमी की माँ बीमार थी, वह बार-बार पीछे छूट जाती। मैंने उसे कन्धे पर उठाया और भाग लिया। इस तरह हम नौ बजे से पहले लद्धेवाला के खेतों में गुजरनेवाली अमीनाबाद-स्यालकोट सड़क पर पहुँच गये। कुछ देर बाद पाँच लारियाँ आयी। वे खचाखच भरी हुई थी, किसी तरह हम उनकी छतों पर चढ़कर, खिड़कियों से लटककर लाहौर पहुँचे और फिर चार दिन बाद अमृतसर पहुँच गये।
वहाँ लाखों की भीड़ पहले से ही जमा हो गयी थी जिनमें अधिकतर बिछड़े हुए थे और अपने-अपने अजीज़ो को ढूँढ रहे थे। मैं एक महीने तक अपनी बीबी, सालों, रिश्तेदारों को ढूँढता रहा पर कोई न मिला। मैं दिनभर उन्हें ढूँढ़ता और रात होने पर किसी लंगर में खाना खाकर जहाँ जगह मिलती सो जाता। लेकिन इस चक्कर में, मैं अपने गाँव वालों से भी बिछड़ गया। उस भीड़ में सबकी एक जैसी कहानी थी।
जैसे-जैसेे और दिन बीते पंजाब के अंदरूनी इलाको पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान यहाँ तक की खैबर-पख्तूनियाँ तक के हिन्दू अमृतसर पहुँचने लगे। भीड़ अब दिल्ली की ओर बढ़ने लगी थी। रास्ते में जिस बड़े शहर का पता चलता लोग उधर ही चल पड़ते। इस तरह वे अभागे मोगा, होशियारपुर, पटियाला, फगवाड़ा, जालन्धर, लुधियाना, अम्बाला, करनाल, पानीपत, दिल्ली तक फैलते चले गये।
मैं लुधियाना मैं रुक गया। मेरी बीवी, बेटे, सास-ससुर, साले का कुछ पता नहीं चला जबकि बेटी को तो मैंने ही मार डाला था। अब मैं सबसे कटा हुआ और पूरी तरह बर्बाद आदमी था। मेरे पास थोड़े से पैसे थे जो खत्म हो गये थे अतः जिन्दा रहने के लिए सबसे पहले कोई रोजगार ढूँढना था। किस्मत से वहाँ मुझे एक सरदार जी मिल गये। उनकी खेतों में काम आने वाले औजारों की दुकान थी जिन्हें वे अपनी छोटी सी फैक्ट्री में बनाते थे। उनकी दुकान बहुत चलती थी। मैं उनके पास काम करने लगा और फैक्ट्री में बने एक क्वार्टर में रहने लगा।
लाखों की भीड़ में काम का मिलना मेरे लिए बड़ी बात थी इसके लिए मैंने रब का शुक्रिया किया। जैसे-जैसे समय बीतने लगा लोगो में भी स्थिरता दिखने लगी। कुछ साल बाद सरदार जी ने हाथ से चारा काटने वाली मशीन बनाने का काम शुरू किया। चारा मशीन के अधिकतर पुर्जे लोहे की ढलाई से बनते है जिसमें कुछ गियर भी होते है। इसके लिए उन्हें लोहा गलाने के लिए बड़ी भट्टियाँ लगानी पड़ी। मुझे उन्होंने गियर बनाने का जिम्मा दिया। दो सालों में उनकी मशीनें दूर-दूर तक बिकने लगी।
जैसे-जैसे सरदारजी का काम बढ़ा, मैं व्यस्त होता चला गया। इस बीच उन्होंने एक औरत से मेरी दूसरी शादी करवा दी। वह स्यालकोट की रहनेवाली थी और उसका मर्द बलवे में मारा गया था। मेरी अपनी कोई मर्जी नहीं थी पर दुनिया में बिना औरत के घर नहीं बसा करतेे, यही सोचकर मैंने उससे शादी कर ली। मेरी नई बीबी भी पहले की तरह सुन्दर और समझदार थी। उससे मेरे दो बच्चे हुए।
मेरा नया साला दिल्ली में रहता था और उसने चाँदनी चौक में दुकान जमा ली थी। उसके कहने पर मैं पन्द्रह साल बाद लुधियाना छोड़कर दिल्ली आ गया। दिल्ली आकर मैंने उसकी मदद से फरीदाबाद में सभी प्रकार की मशीनों के गियर बनाने का काम शुरू किया। दिल्ली का बाजार बहुत बड़ा है अतः मेरा काम तेजी से चल निकला। अगले पाँच सालों में मैंने एक बड़ी फैक्ट्री लगायी और किदवई नगर में एक मकान खरीदा। अब मेरे जीवन में कुछ सकून कहा जा सकता था। पर जिसकी बीबी और बेटे को गदर निगल गया हो और बेटी की उसने अपने हाथों से जान ले रखी हो, क्या वह कभी चैन से रह सकता है...कभी नहीं न? अपना पाप भुलाने के लिए मैं जी तोड़ महनत करता जिससे घर में और पैसा आता। उस पैसे से मेरी बीवी, बच्चे, रिश्तेदार खुश होते पर मैं नहीं।
एक दिन एक हादसा हुआ। उस दिन में पुरानी दिल्ली, कश्मीरी गेट में अपने एक डीलर से मिलकर लौट रहा था। तभी एक आदमी मेरे पास दौड़ता हुआ आया। उसने मुझसे मेरा नाम पूछा। नाम बताने पर उसने कहा कि मैं करण हूँ...विरकान नौशेरा वाला करण, जहाँ तुम ब्याहे थे। यह सुनकर मुझे बिजली जैसा झटका लगा। हाँ याद आया तेरा घर मेरी बीवी चन्दो के घर के पास था।
"हाँ जी...मैं वही हूँ।" उसने हँसकर कहा। हँसते हुए मुझे उसका बाँयी ओर वाला आधा टूटा दाँत दिखाई दिया जो अभी भी वैसा ही था।
जब मैंने उससे चन्दो के बारे में पूछा तो उसने बताया कि हम जालन्धर तक साथ-साथ आये थे और कुछ साल तक मैं उनके घर के पास रहा था, फिर मैं दिल्ली चला आया।
"अब वह कहा है?" मैंने उससे पूछा।
"यह तो सोलह साल पुरानी बात है... हो सकता है अभी भी वही रहती हो।" उसने बताया।
यह सन अड़सठ की बात है। करण एक किताबों की दुकान पर पचास रुपये महीना की नौकरी करता था। उस वक्त मेरी जेब में एक हजार रुपए थे। मैंने, उसे सारे रुपये देते हुए कहा कि इसी वक्त जालन्धर चला जा और बिना किसी को बताये मेरी चन्दो का पता निकाल कर ला। अगर तूने उसका पता लाकर दे दिया तो जो भी धन्धा तू कहेगा, उसे मैं अपने पैसे से करवाकर दूँगा। आदमी के भीतर अपनी मनपसन्द औरत से मिलने की आग बहुत बुरी होती है, यह मुझे उस वक्त पता चला। चलते हुए मैंने उसे अपने घर और फैक्ट्री का पता दिया।
करण लगभग एक महीने बाद मेरी फैक्ट्री में आया। उसने आकर बताया कि आजकल वह जालन्धर के शास्त्री नगर में रहती है, उसके दो बच्चे है। खास बात यह है कि वह रोज आठ, नौ के बीच वहाँ के राधे-श्याम मंदिर में जाती है। मैं अगले ही दिन जालन्धर पहुँच गया और एक होटल में जाकर रुक गया। करण के बताये अनुसार मैं अगले दिन सवेरे-सवेरे उस मंदिर में जाकर बैठ गया। वे अप्रेल के दिन थे और गर्मी होने लगी थी। थोड़ी देर बाद वह मुझे आती हुई दिखाई दी, मैंने उसे पहचान लिया। अब तक मैंने अपनी फैक्ट्री में जितने गियर बनाए थे उसे देखकर सब एक साथ दिमाग में घूमने लगे। अब वह उम्रदराज औरत थी और उसमें पहले जैसी चंचलता का नाम-औ-निशान नहीं था। उसे देखकर मुझसे रुका नही गया और उसके सामने चला गया। मुझे अचानक अपने सामने पाकर उसे तेजी से झटका लगा पर शांत बनी रही।
"फिजिकली बहुत बदल गये हो।" मुझे देखकर उसने केवल इतना कहा।
वहाँ बहुत सारे लोग थे जिनमें कुछ उसे जानते भी होंगे...अकेली भी मिलती तो क्या कहती? अब वह किसी और की बीवी थी। आदमी को तब सबसे बुरा लगता है जब वह अपनी बीवी से किसी दूसरे की बीवी के रूप में मिलता है। पूजा करने के बाद वह मेरे पास आयी और कुछ देर हम मंदिर के प्रांगण के एकांत कोने में बैठ गये।
बैठते ही उसने मुझे घूरकर देखा मानो कह रही हो कि अब क्यों आये हो? या मुझे छोड़कर क्यों चले गये थे? पर फिर उसकी आँखे नम हो गयी। भला औरत ने जिस आदमी को प्यार करना सिखाया हो उस पर कैसे नाराज हो सकती है।
"हमारी बेटी, पिण्ड में ही मर गई थी...इज्जत के साथ।" मैंने साथ में यह भी जोड़ दिया।
यह सुनकर उसने भर-भराकर एक लम्बी साँस ली और कुछ देर बाद उसकी आँखों से आँसू का एक जोड़ा निकला। कुछ शांत होकर उसने बताया कि पम्मी भी पाकिस्तान से आते हुए बुखार से मर गया था।
इस छोटे से वार्तालाप से ही साफ हो गया कि हमें दुबारा जोड़ सकने वाली डोर बहुत पहले ही टूट चुकी थी। कुछ देर हम चुप बैठे रहे। फिर उसने अपने नये पति, उसके काम-धंधे के बारे में बताया और मुझसे भी पूछा। उसने कोई पुरानी बात नही छेड़ी और न ही मैंने, क्योंकि दोनों जानते थे कि वे बातें नहीं चिंगारियाँ है। पहली बार मेरी समझ में आया कि औरत को उसकी इज्जत कितनी प्यारी होती है। पुरानी बातें मनों में घूमती रही और हम फालतू बातें करते रहे। कुछ देर बाद वह परेशान होती लगी शायद उसे देर हो रही थी। मैं, उसे परेशान करने नहीं आया था अतः उसके कुछ कहने से पहले ही खड़ा हो गया। चलते समय उसने रोका नहीं बस इतना कहा कि अपनी बीवी को मेरी नमस्ते कहना।
घर आकर मुझे उसकी यादों के दौरें पड़ने लगे, ऐसा लगा मानों मैं एक बार फिर लुट गया हूँ। मैं दिन-रात उसकी याद में डूबा रहने लगा। मैं कुछ भी करता, वह हर वक़्त मेरे दिमाग में घुसी रहती। जब हमारी शादी हुई वह तेरह या चौदह साल की होगी और मैं अट्ठारह साल का। गाँव में मुसलमानी माहौल होने के कारण लड़कियों की शादी जल्दी कर दी जाती थी। पहली बार लड़कियाँ कुछ दिन ही ससुराल में रहती और फिर तीन, चार साल बाद जवान होने पर रहने आती थी। लेकिन जब चन्दो पहली बार मेरे घर में आयी थी उस छोटी उम्र में ही हम एक दूसरे के प्यार में डूब गये थे।
जालंधर से आकर मुझे उसके साथ बिताया एक-एक दिन याद आने लगा। रात में जब मैं अपनी बीवी की बगल में लेटा होता तो उसके बारे में ही सोचता रहता। दुनिया में किसी के बारे में सोचने का खेल कितना चुपचाप चलता है। कभी-कभी करवट बदलकर अपनी बीवी के बारे में भी सोचता कि इस भली औरत के साथ मैं केवल सोता हूँ, प्यार तो अभी भी चन्दो से करता हूँ। कई बार मेरी बीवी पूछती कि आजकल कहाँ खोये रहते हो और मैं कोई झूठ बोल देता...मर्द बड़ा मक्कार होता है।
चन्दो दिमाग की बड़ी तेज थी और सारे फैंसले बहुत गुणा-भाग करके लेती थी जबकि मैं हमेशा दिल से चलता था। मेरे पास उसकी तरह दिल संभालने की कलाकारी नहीं थी। मैं जानता था कि वह घुट-घुटकर मर जाएगी पर कभी मुझसे संपर्क नहीं करेगी, अतः मुझे ही कुछ करना था। कुछ महीने बाद जब मुझसे रहा नहीं गया तो एक दिन बहाना बनाकर फिर जालन्धर जा पहुँचा। जिसके सिर पर आग जली हो दुनिया में वही दौड़ता फिरता है। पहले दिन वह नहीं आयी, दूसरे दिन जब आयी तो बहुत दुखी लग रही थी। उस दिन हमारे बीच बहुत कम बातें हुई लेकिन ख़ुशी की बात यह रही कि मुझे उसके घर का टेलीफोन नम्बर मिल गया। उसे लेकर मैं दिल्ली आ गया।
जैसे कई दिन के भूखे को टुकड़ा मिलने पर उसकी भूख धधक उठती है, उसका नम्बर पाकर मुझे वैसा ही लगा। एक महीने बाद मैंने बहुत डरते हुए उसे फोन किया। फोन उसने ही उठाया पर उस समय उसके पास कोई था जिससे उसने कुछ उड़ती-उड़ती बातें की। बातें करते हुए वह बहुत डर रही थी कि कहीं मैं कोई ऐसी-वैसी बात न छेड़ दूँ। लेकिन वह बावली थी, भला मैं ऐसी हरकत क्यों करता, मैंने उस दिन केवल उसकी आवाज सुनने के लिए फोन किया था।
एक महीने बाद मैंने एक बार फिर फोन किया। उस दिन वह घर में अकेली थी लेकिन इस बार भी बात करते हुए उसके मन में डर समाया हुआ था। वह मेरी किसी भी बात का उत्तर संजीदगी से नहीं दे रही थी। उसका व्यवहार देखकर मेरा दिल टूट गया। लग रहा था कि वह मुझे निश्चित दूरी पर रखना चाहती है जिसके कोई मायने नहीं होते।
उसका कभी फोन नहीं आया और फिर मैंने भी नहीं किया पर आज भी उसके फोन का इंतजार रहता है। मैंने जिंदगी में बड़े-बड़े दुःख और सुख देखे है पर अपनी लम्बी उम्र के तजुर्बे से कह सकता हूँ कि आदमी को सबसे बड़ा सुख उसी औरत से मिल सकता है जिसने उसे प्यार करना सिखाया हो...पता नही औरतें, मर्दों के इस राज को जानती भी है या नहीं?
फिर उन्होंने कोई बात नही की, हम दिल्ली पहुँच गये थे और धौलाकुआँ आने वाला था।
"देखो मुझे उन ऑटो वालों के पास उतार देना।" धौलाकुआँ पहुँचकर उन्होंने मुझसे कहा।
"आपको किदवई नगर तक छोड़ देता हूँ।"
"नही...मौसम खराब है और घर में बच्चे तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे। वैसे आज तुम्हारे साथ बातें करके मेरा दिल हल्का हो गया है।" अंत में वे बोले।
मैंने उन्हें एक ऑटो के पास उतार दिया और वे उसमें बैठ गये। चलते समय मैंने, उनसे उनकी लड़की का नाम पूछना चाहा पर तब तक ऑटो स्टार्ट हो चुका था...वैसे भी गिलहरियों के नाम कहाँ होते है।
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