मंगलवार, 26 मार्च 2019

हादसा : राजनारायण बोहरे

★★ हादसा

लोग कई दिनों से उसके इंतजार में थे। लोक सभा चुनाव लिए  नामांकन फाॅर्म भरने का सिलसिला पिछले तीन दिन से जारी था, पर उसका कोई अता-पता नहीं था ।
यूं वह रोज ही हमे दिख जाता , सक्षेप में कहें कि चुनाव की गहमागहमी के बाद पांच साल में जितने भी दिन होते, वह हर दिन बेमतलब ही कस्बे की सड़कें नापता दिखता हमे। रानीपुर टेरीकाॅट का सफारी सूट पहने, पांव में हवाई चप्पल उलझाये वह दिमागी रूप से हमेशा मसरूफ़ दिखता। वह हर वक्त अपने बगल में दबी एक काली डायरी के पन्ने फड़फड़ाता जाने क्या-कुछ नोट करता रहता। 

कस्बे के लोग सन् अस्सी के आम चुनाव से उसे पूरे उत्साह से हरेक चुनाव लड़ता देख रहे हैं। बीते वर्षों के हर लोकसभा और विधानसभा चुनाव में यहाँ का मतपत्र उसके नाम से विभूषित रहा आया है । ये बात अलग है कि हमारे देश के महाविद्यालयों की स्नातक कक्षाओं में पढ़ाये जाने वाले संविधान के  मुताबिक तो इस अवधि में मात्र चार-पांच चुनाव होना था, लेकिन राजनैतिज्ञों की पारस्परिक पटेबाजी , असली-नकली आंदोलनों और घोटालों के चलते हमारा प्रदेश छै-सात चुनाव झेल चुका है इस  अवधि में । 

हर चुनाव में वह हम पचास लोगों से पचास रूपये प्रति व्यक्ति चन्दा लेता और लिये गये चन्दे की बाकायदा रसीद जारी करता । एकत्रित हुये चंदे में से वह पांच सौ रूपया जमानत की फीस भरता और शेष दो हजार रूपया अपनी चुनावी यात्राओं के लिये सुरक्षित रखता। बस इतने से खर्च का बजट रहा है सदा से उसके पास, न इससे ज्यादा और न इससे कम। चुनाव आयोग बहुत खुश रहा होगा उससे।

हर बार नया चुनाव-चिन्ह मिलता रहा है उसको। उस चिन्ह को वह आटे की लेई बनाकर हार्डबोर्ड में चिपका लेता और अपनी साइकिल पर टांगकर घूमता रहता। प्रचार के दिनों में निहत्था वह होता है, उसकी साइकिल होती है और समूचा चुनाव क्षेत्र होता है,  यानी कि बैनर,पोस्टर  नहीें, चुनाव कार्यालय नहीं , चुनावी सभायें नही। एकला चलो की तर्ज पर लोकतंत्र का रक्षक बना , रात-दिन दौरे करता वह अकेला । साथ में भुने हुये चने या गेहूं आटे की पंजीरी होती, जिसे वह भूख लगने पर फास्ट-फूड की तरह गपागप गड़पता। वह अपनी  काली डायरी साथ रखता था उन दिनों। इस डायरी में चुनाव क्षेत्र की खास-खास समस्याओं को नोट करके रखता है वह । 

गहरा तांबई बदन , सरकंडे से खड़े सिर के बाल और आंखों के इर्द-गिर्द गहरे काले गढ़े़ उसके चेहरे को असामान्य बना देते। जाने उसकी अजूबी सी शक्ल-सूरत की बनावट है या उसकी चितवन की कोई  विशेषता कि वह हरदम बेचैन-सा दिखाई देता है। जब भी मिलेगा , नजरें नहीं मिलायेगा, गहरी काली आंखों में एक उदासी सी पाले रहेगा, इधर-उधर ताकता आधी-अधूरी सी बेतरतीब बात करेगा । दुनिया-जहान की चिंतायें सीने में पाले रहेगा, जिन्हे आपसे शेयर  करने का प्रयास भी करेगा। फिर यकायक खिसक लेगा, बिना कुछ कहे। लोग हक्के-बक्के से एक दूसरे का मुंह ताकते रह जायेंगे, पर वह तो यह जा और वह जा ।

उसकी चुनावी सभाओं में प्रायः पच्चीस आदमी से ज्यादा इकट्ठा नहीं होते हैं । हाँ जब लोगों को मजे लेना होता है तो बाकायदा तख्त और माईक का इंतजाम कराके उससे भाषण देने का आग्रह किया जाता है । सच मानिये, उसकी ऐसी चुनावी-सभाओं में हजार-दो-हजार की भीड़ जुट जाना आम बात है । उसके भाषण सूत्रात्मक रहते हैं जिन्हें सुन के लोग हंसी खेल में कंठस्थ कर लेतेे हैं, फिर दूसरों को सुनाते रहते हैं । 
‘‘ प्यारे मतदाताओ, आपने पिछली बार गलती की, मुझे नहीं जिताया,  इसका नतीजा देख लिया। आपकी चुनी हुयी सरकार साल भर में ही गिर गई। कोई बात नहीं, अब आप गलती न करना, मैं फिर आपसे वोट मांगता हूँ  इस बार मुझे ही जिताना।यदि आपने मुझे विधायक बना दिया, तो मैं वादा करता हूँ कि एक एम्बूलैंस आप लोगों की बहू-बिटिया की डिलिवरी के लिये हमेशा तैयार रहेगी ।’’
‘‘ यदि मैं जीता तो हर गांव में टट्टीघर और पेशाबघर बनवाना मेरा पहला काम होगा ।’’ 
‘‘ हर गांव में छायादार खलिहान बनवाना चाहते हैं तो मुझे ही वोट दीजिये !‘‘
‘‘ इस कस्बे की राजनीति को क्राइम , कास्टिज्म और करप्शन से मुक्ति दिलाना चााहते हैं तो मुझे वोट दीजिये ।‘‘

सड़क छाप आदमी के ऐसे अकादमिक विचार सुन लोग उसे शेख चिल्ली समझते थे, उस पर हंसते थे ।  

एक बार ऐसी ही सभा में उसने देश के प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचार के आरोप लगा दिये । उसी रात किसी अज्ञात व्यक्ति ने उस पर हमला कर दिया था। कस्बे के पत्रकारों ने उसका मामला हाथों-हाथ लिया, कलेक्टर और एस.पी. परेशान हो उठे । उसको श्रेष्ठतम चिकित्सा मुहैया कराई गई और आनन-फानन में उसे एक-तीन का सुरक्षा गार्ड दे दिया था । 

अब साहब, गार्ड मिले या कमांडो, वह अपनी औकात जानता था सो  उसे कोई फर्क़ नहीं पड़ा। उसकी अपनी चुनावी दिनचर्या पहले की तरह चलती रही। यानि कि तड़के जगना, गांव बाहर जाकर दिशा मैदान से निवृत्त होना, लौटकर किसी पड़ौसी के घर चाय का सरूटा भरना और फिर चने की पोटली लेकर क्षेत्र में निकल जाना । असली मुसीबत थी गार्ड की। ऐसे फटेहाल आदमी से खाने की तो बात दूर, चाय की भी आशा न थी । तालाब किनारे जाकर इत्मीनान से मलत्याग कर रहे उसके चारों ओर सुरक्षा घेरा बनाकर खड़े रहना भी कम कष्टकर न था उनके लिये। पर ड्यूटी तो ड्यूटी थी जनाब ,सो  चेहरे पर बेबसी लिये वे लोग, उसके इर्द-गिर्द रहने को मजबूर थे । 

चुनाव अधिकारियों से लेकर चुनाव आयोग तक वह हर चुनाव में सैकड़ों शिकायतें फाइल करता । उन पर गौर किया जाये या नहीं उसे इसका मलाल न रहता ।

उसे भोला सा विस्मय होता कि हर चुनाव में पोलिंग-बूथों पर उसका अभिकर्ता बनने के लिये जितने युवक हर बार उससे सम्पर्क करते हैं, उसेे आखिर उतने वोट भी क्यों नहीं मिल पाते। सचमुच एजेन्टों की फौज लगातार बढ़ती थी उसके चुनाव में, पर वोट नहीं । 
हालांकि एक बार तो ऐसे समीकरण बने थे कि नेताओं से उकताये लोगों ने उसको वोट दिया। वह दूसरे स्थान पर रहा। बाल-सुलभ उत्साह से अपने आर्थिक सहयोगियों के पास आकर ‘‘मतपत्र लेखा’’ दिखाते हुये बोला-‘‘देखो  मेरा जनाधार बढ़ रहा है। अगली बार सब कुछ ठीक रहा तो मै ही जीत रहा हूँ ।‘‘ 

लोग उस भोले और ईमानदार आदमी का विश्वास न तोड़ते । 
स्टेशनरी की दुकान से खूब सारे कागज खरीदता, लिफाफे खरीदता और दर्जनों बाल पेन भी । 
कोई आदमी इतनी स्टेशनरी का सबब पूछता तो वह बताता कि  वह कस्बे की समस्याओं के बारे में मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री कोः पत्र लिखता रहता है। कोई उत्सुक तमाशबीन अगर आगे पूछता कि इससे क्या कोई हल निकलता है ? 
तो उत्तर में वह प्रायः कहता ’’इतने भ्रष्टाचार और गुण्डागर्दी के बाद भी हमारे देश में अभी न्यायपालिका जीवित है। हमारे देश के प्रशासन का  समूचा तंत्र अभी भी विश्वास के काबिल है। ये क्या कम बात है कि देश का कोई भी नागरिक किसी भी बड़ी अदालत में जाकर बिना एक धेला खर्च किये जनहित याचिका पेश कर सकता है , कोई भी नागरिक किसी भी पद का चुनाव लड़ सकता है । मैं खुद अगली बार राष्टपति का चुनाव लड़ने जा रहा हूं।’’

लोग उसके प्रति सहानुभूति रखते , और उसके भोले विश्वासों की लम्बी उम्र के लिये प्रार्थनाएं करते। आखिर अधिकांश नागरिकों की मान्यताओं को ही तो शब्द देता था वह। देश और गणतंत्र के प्रति उनका विश्वास ही तो मजबूत करता था वह ।
उसके घर  की बड़ी कमजोर हालत थी। उसकी मां आसपास के घरों में झाड़ू बर्तन करके दो जून की रोटी कमाती। गाहे-बगाहे वह खुद गांव के बाहर से कनस्तरों में पानी भरके पूरे बाजार में बेचता, पर प्रायः निठल्ला ही घूमता रहता वह । साल में कभी कभार कोई दोस्त यार मउरानीपुर टैरीकोट का कपड़ा लाकर दे देता तो अपने एक शुभचिंतक दर्जी से बिना मजदूरी के वह सफारी सूट सिला लेता। दो-चार साल में जब कहीं बाहर जाना होता तो कस्बे के अपने शुभचिंतकों से हक के साथ खर्चा मांग लाता था वह , यह धौंस अलग कि मैं आप लोगों के हित बचाने के लिये ही तो राजनीति में हूं , नहीं तो चैन से घर बैठ कर आराम न करता ।

पिछली बार उसका नामांकन फाॅर्म निरस्त किया जाने लगा तो वह खूब चीखा-चिल्लाया। अंततः उसकी बात तो मान ली गई, पर पहली बार उसे लगा कि वह एक निर्दलीय उम्मीदवार है , इस कारण उसे चुनाव अधिकारी पर्याप्त सम्मान नहीं दे रहे हैं। यार-दोस्तों के पास आकर वह यही दर्द बयान करता रहा था -अब तो पार्टीयों की बपौती हो गयी है चुनाव पर । अगर कोई प्रत्याशी निर्दलीय रूप में चुनाव लड़ रहा है तो उसका कोई मूल्य नही है। पार्टी का आदमी है तो ही उसकी प्रतिष्ठा है, तो ही चुनाव प्रक्रिया पर प्रभाव डाल सकता है उसका होना न होना। अपने देश के लिये एक गलत शुरूआत है यह। आम आदमी की कीमत गिरना शुरू हो गई है अब ।

पिछले विधानसभा चुनावों में वह बुरी तरह पिटा भी था । दरअसल चुनाव के दिन दूर गाँव के एक पोलिंग-बूथ पर जब वह दौरे पर था तो उसने देखा कि जीप में भर के आये बीस-पच्चीस गुण्डों ने पूरा बूथ घेर लिया है। उनका विरोध करने वह आगे बढ़ा तो दो गुण्डों ने उसकी अच्छी-खासी मरम्मत कर दी थी। उस मतदान-केन्द्र के सारे वोटों पर सत्ताधारी पार्टी के प्रतिनिधि के निशान पर सीलें छपने लगीं थीं ।
बाद में अखबारों से लेकर चुनावी अधिकारियों तक उसने आपत्ति दर्ज कराई, लेकिन उसकी किसी ने न सुनी । अब हाईकोर्ट में रिट दायर करना उस जैसे साधनहीन व्यक्ति को तो संभव था नहीं, सो वह थक हार के चुप बैठ गया था । 

पिछले तीन दिन में कस्बे के दर्जनों लोग आपस में जब भी मिले परस्पर यही पूछते रहे हैं कि इस बार उसने फाॅर्म क्यों नही भरा। लेकिन जवाब किसी के पास न था, अंत में चार-पांच लोगों ने उसी शाम घर जाकर उसससे मिलना तय किया।
वह बीमार था शायद ।
देखा कि तख्त पर एक फटा सा कम्बल लपेटे बैठा है वह। अपने घर इतने लोगों को आया देखकर पहले वह विस्मित हुआ, फिर मुस्कराया और आगे बढ़कर उन सबका स्वागत किया । उसने तख्त पर पड़े फटे पुराने कपड़े हटाये। उन सबको बड़े सम्मान से वहां बिठाया और खुद खड़ा रहा। लोगों ने उसके घर का मुआयना किया। घर क्या था , रियासत के जमाने के घुड़साल के इस कमरे में ही पूरी गृहस्थी थी उसकी, यानि कि एल्यूमिनियम के पांच-सात बरतन, फटे पुराने रजाई-गद्दे और अलगनी पर झूलते उसके और उसकी माँ के जीर्ण-शीर्ण कपड़े । जबतक उसकी माँ ने मेहमानों के लिये चाय बनने नहीं रख दी , वह अपनी चिर परिचित बैचेनी की मुद्रा में खड़ा ही रहा, फिर कुछ निश्चिंत सा होकर मेहमानों के पास आकर बैठा तो उनमें से एक बुजुर्ग ने उससे बातचीत शुरू की -‘‘क्या हुआ भैया ,तुम इस बार चुनाव नहीं लड़ रहे हो क्या ?‘‘
उसने बताया कि वह अब चुनाव नहीं लड़ेगा । 
बुजुर्ग ने फिर कहा कि कहाँ तो तुम इस बार राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने का हौसला बाँध रहे थे और कहाँ लोकसभा चुनाव की हिम्मत नहीं कर पा रहे । 
‘‘ एक आम नागरिक के लिए बहुत महँगा हो गया है अब चुनाव ’’ दर्द भरी आवाज में वह कह रहा था ‘‘आप ही बताओ कि जमानत के लिए पांच सौ रूपये की जगह दस हजार रूपया क्यों कर दिये गये हैं । इतने सारे रूपये जमानत में भरना अब किस गरीब गुरबा के वश की बात है ! पचास रूपये के हिसाब से कितने लोगों से चंदा करने जाऊँगा मैं  ! फिर दूसरे खर्चे भी तो जुटाना पड़ेगा न ! किसी पार्टी से मुझ जैसे फक्कड़ को अब टिकट तो मिलने से रहा , सो स्वतंत्र ही लड़ना पड़ेगा, और फिर अब तो निर्दलीय उम्मीदवार की जान की भी कोई कीमत नही चुनाव में। मुझे कहीं भी कोई मार डाले, किसे क्या फर्क पड़ेगा? चुनाव अपनी जगह होते रहेंगे ।’’
‘‘ इस देश में चुनाव आयोग एक स्वतंत्र संस्था है, तुम अपने सुझाव दो न उनको। अगर जम गया तो जमानत राशि कम हो जायेगी और सब उम्मीदवारों को सुरक्षा भी मिलना संभव है।’’ मैंने उसे समझाया।

उसकी आवाज यकायक फुसफुसाहट के रूप में मंदी हो गई, वह बोला ‘‘चुनाव आयोग तक मेरे जैसा कंगला कैसे पहुंचेगा। वहां तो बड़ी पार्टियां अपना तामझाम पेश करती हैं, उन्ही का किया षड़यंत्र है कि जमानत राशि बढ़ा दी जाये और आजाद उम्मीदवार को कुछ न समझा जाये। सो बेचारे चुनाव आयुक्त आम आदमी का दुखड़ा कैसे जान सकते हैं।’’

‘‘ तुम सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को अपने दर्द बताओ न, वे शायद तुम्हारी बात समझ के कोई नया फैसला ले डालें, देश में कितने सारे कल्याणकारी काम उन्होने ही तो शुरू कराये। ’’

‘‘अरे भाई, किसको फुरसत कि मेरा भेजा रूक्का पढ़ेंगे। उनके पास हजारों काम पहले से रखे हुए है। वे भी क्या करें , उन्हे यही बताया गया। आप नहीं जानते बाबूजी, ये सब पैसे वालों के षडयंत्र हैं, वे कहां से सहन करेंगे कि कोई सड़क छाप आदमी इस देश की सबसे बड़ी अदालत में बिना एक धेला लगाये हक मांगने के लिए खड़ा हो जाये , जनता के हित के लिए अपनी आवाज बुलन्द करे। वे सब ये नहीं चाहते कि अब गरीब लोग चुनाव लड़ें और चुनकर ऊपर आयें ।’’

सबने देखा यह कहते वक्त वह किन्ही अनाम लोगों से डर सा रहा है। लगा वह दिमागी रूप से कुछ खिसक गया है अब अपनी जगह से।
बुजुर्ग सज्जन ने औपचारिकतावश उसे आश्वस्त किया ‘‘तुम पैसों की चिंता मत करो, बहुत चाहने वाले हैं तुम्हारे। पैसों का तो बंदोबस्त हो जायेगा कैसे न कैसे ।’’ 

फीकी सी हँसी हँसा वह ‘‘ये तो आपकी कृपा है बाबूजी । पर मेरा मन सचमुच खट्टा हो गया है।’’

‘‘क्यों  ? ’’

लोगों ने  देखा कि इस क्यों शब्द का जवाब देने में उसे बड़ी परेशानी हो रही है,  शरीर काँप सा रहा था  उसका । होंठ फड़क रहे थे और हाथकी मुट्ठियाँ भींच ली थी उसने, फिर बड़े कड़वे स्वर में बोला था ‘‘दरअसल मेरा इस पूरे तंत्र से विश्वास उठ गया है ।’’ 
सुनकर स्तब्ध हो गये सब। लगा कि मन-मस्तिष्क में एक भीषण विस्फोट हुआ है, और रह रहकर एक गड़गड़ाहट सी गूँजने लगी है । जैसे ट्विन टाॅवर पर लगातार हमले हो रहे हों। मस्तिष्क साथ छोड़ रहा था और मन में एक अजीब सी घबराहट पैदा हो रही थी, एक अनाम सा भय उन सबके मन को जकड़ रहा था । यदि ब्लड प्रेशर नापने की मशीन पास में होती तो उन सबका रक्तचाप निश्चित ही 140/240 होता । 

फिर उनसे बैठते नहीं बना वहाँ । वह अपनी उत्सुक और प्रश्नाकुल भोली दृष्टि से बेंध रहा था उन सबको। वह शायद किसी के कुछ बोलने की उम्मीद कर रहा था । पर उनमेें साहस ही कहाँ बचा था !
उससे नजरें न मिलाते हुये बुजुर्ग सज्जन ने उसके कंधे हौले से थपथपाये और वे सब वहाँ से मायूस हो लौट  आये - यानी इस बार के मतपत्र में उसका नाम नहीं होगा । 

इस हादसे के बाद से बहुत बेचैन हो चुके हैं कस्बे के वे सब लोग !  क्योंकि हो सकता है कि किसी और को ये बात बहुत छोटी लगे, पर हम सबको भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह सबसे बड़ा हादसा ही लगता हैं। 

एक आम-आदमी का हमारे समूचे तंत्र से विश्वास उठ जाना भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा हादसा है । आप क्या सोचते हैं इस विषय में ?....

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